‘ग़ालिब’ के ख़तों में दिल्ली की कहानी

‘ग़ालिब’ के ख़तों में दिल्ली की कहानी

दिल्ली की कहानी एक प्रकार से बार-बार बसने और उजड़ने की कहानी है। भारत के नगरों में यही वह नगरी है जो विगत कई शताब्दियों से देशियों और विदेशियों के हाथों उजड़ती और बसती रही है। यह नगरी जब उजड़ी तो ऐसी उजड़ी कि जैसे अब इसे कभी बसना है ही नहीं और जब बसी तो ऐसी कि जैसे इसकी बहार को कभी खिजाँ का सामना करना ही न पड़ेगा।

हिंदू काल के बाद मुलसमानों के ज़माने में और उसमें भी अधिकांश मुगलों के ज़माने में दिल्ली का यौवन बहुत दिनों तक खिला रहा मगर सदा की भाँति उस वसंत को भी ग्रीष्म का सामना करना ही पड़ा। और एक बार फिर मालूम हुआ कि दिल्ली अब कभी बसने वाली नहीं है। सन् 57 ई. में दिल्ली के लोगों के खून की कीमत यमुना के पानी के बराबर भी न रह गई। अर्से तक दिल्ली की गलियाँ इंसान के खून से रंगीन होती रहीं, और मनुष्य अपनी सभ्यता और धार्मिकता का प्रदर्शन मनुष्यों को वृक्षों में लटका-लटका कर करता रहा।

जब दिल्ली का यह हाल हुआ और उसकी जमी-जमाई महफिल उजड़ गई, तो दिल्ली के किसी रहने वाले की महफ़िल भला कैसे जमी रह सकती थी। प्राणों की खैर मनाते हुए दूर-नज़दीक जहाँ जिसका सींग समाया भाग खड़ा हुआ।

इन जमी-जमाई महफ़िलों में जिनसे दिल्ली की रौनक थी, ‘ग़ालिब’ की भी एक महफ़िल थी। वही ‘ग़ालिब’ जिसके जैसा कवि आज तक उर्दू में पैदा न हो सका। ‘ग़ालिब’ की महफ़िल भी उजड़ गई। मगर ‘ग़ालिब’ का न कहीं सींग समाया न वह कहीं भाग सके। वह दिल्ली में ही रहे मगर अकेले, न कोई दोस्त, न यार, न शागीर्द।

कहना न होगा कि ‘ग़ालिब’ उन लोगों में से थे जिनकी महफ़िल यार-दोस्त और शागिर्दों से हमेशा गरम रहती थी। हमेशा वह विद्वानों, कवियों और साहित्य-रसिकों से घिरे रहते थे। यह कौन हैं, मुफ़्ती सदरुद्दीन ‘आर्ज़ुदा’ हैं। यह कौन हैं, हकीम मोमिन खाँ ‘मोमिन’ हैं। यह कौन हैं, उस्ताद ‘ज़ौक़’ हैं। यह मौलाना इमाम बख्श ‘महबाई’ हैं। यह मीर मेंहदी हुसैन ‘मजरूह’ हैं। यह मुंशी हर गोपाल ‘तफ़्ता’ हैं।

मगर अब इन में से कोई न था। कोई अपनी मौत मर चुका था, कोई गोलियों का निशाना बन चुका था, और कोई अपने प्राणों को लेकर दिल्ली से बाहर भाग चुका था। और इस तरह ‘ग़ालिब’ अपनी महफ़िल में अकेले रह गए थे। जी क्यों न चाहता होगा कि वही महफ़िल होती, वही लोग होते। मगर यह अब हो कैसे सकता था। उस तरह महफ़िल कैसे जम सकती थी। हाँ, ‘ग़ालिब’ के दुखी और एकाकी मन ने दूसरी तरह महफ़िल जमाई और जी बहलाया।

यह महफ़िल खतों की शक्ल में जमी। पहले अगर यार-दोस्तों और शागिर्दों से आमने-सामने बैठ कर बातें होती थीं, अपनी कहते थे और उनकी सुनते थे तो अब उनके मने ने उनके लिए यह रास्ता ढूँढ़ा कि अब वह बातें क़लम की ज़बान से किया करें। ऐसा ही हुआ। ‘ग़ालिब’ क़लम की ज़बान से बातें करने लगे और ख़तों के आने को यार दोस्तों, सगे-संबंधियों और शागिर्दों का आना समझने लगे।

‘ग़ालिब’ के यह पत्र स्वभावत: ऐसे होने चाहिए थे जिनमें रोजमर्रा के जीवन प्रसंगों को नि:संकोच वार्तालाप के रूप में प्रकट किया गया हो। इन प्रसंगों में दिल्ली की वह हालत भी थी जिसमें ‘ग़ालिब’ जिंदगी के दिन काट रहे थे। इस दशा में जहाँ एक ओर बाहर के लोग दिल्ली की हालत जानना चाहते रहे होंगे वहाँ दूसरी ओर ‘ग़ालिब’ भी उजड़ी हुई दिल्ली की कहानी सुना कर मन को हल्का करना चाहते होंगे। और यही वजह है कि ‘ग़ालिब’ के खतों में रोजमर्रा जीवन के प्रसंगों के साथ दिल्ली की कहानी भी कही गई है।

यों तो ‘ग़ालिब’ के अनेक खतों में दिल्ली का जिक्र आया है मगर हम यहाँ उनके ऐसे खत या खतों के अंश ही देना उचित समझते हैं जिनमें या तो शैली की कोई विशेषता है या फिर यथार्थ चित्रण है।

मुंशी हर गोपाल ‘तफ़्ता’ जो ‘ग़ालिब’ के प्रिय शिष्यों में से थे और जिन्हें ‘ग़ालिब’ स्नेह के कारण मिरजा ‘तफ़्ता’ कहा करते थे उन्हें अपने एक खत में लिखते हैं–

“क्यों साहेब, रूठे ही रहोगे या कभी मानोगे भी। और मगर किसी तरह मानते नहीं तो रूठने की वजह तो लिक्खो। इस तन्हाई में मैं सिर्फ खतों के भरोसे जीता हूँ। यानी जिसका खत आया मैंने जाना कि वह शख़्स तशरीफ लाया। खुदा का ऐहसान है कि कोई दिन ऐसा नहीं होता कि जो अतराफ-ओ-जवानिब से दो चार खत नहीं आ रहते हों। बल्कि ऐसा भी दिन नहीं होता है कि दो-दो बार डाक का हरकारा खत लाता है। एक दो सुबह को, एक दो शाम को । मेरी दिल्लगी हो जाती है? दिन उनके पढ़ने और जवाब लिखने में गुज़र जाता है। यह क्या सबब दस-दस बारह-बारह दिन से तुम्हारा खत नहीं आया, यानी तुम नहीं आए। खत लिखो। साहेब, न लिखने की वजह लिखो। आध आने में बुख्ल न करो। वैसा ही है तो बैरंग भेजो।”

खतों के सहारे ‘ग़ालिब’ का एकाकी जीवन किस तरह बीत रहा है, जिसका खत आता है जानते हैं कि वह शख्स खुद आ गया।

दिल्ली की हालत का जिक्र करते हुए उन्हीं मिरजा ‘तफ़्ता’ को फिर लिखते हैं–

“बड़े-बड़े जागीरदार बुलाए हुए या पकड़े हुए आए हैं, मेरी क्या हक़ीक़त थी। ग़रज़ कि अपने मकान में बैठा हूँ। दरवाजे से बाहर नहीं निकल सकता, सवार होना और कहीं जाना तो बड़ी बात है। रहा यह कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे । घर के घर बेचिराग़ पड़े हैं।”

फिर दूसरे खत में लिखते हैं–

“…मैं तुमको लिख चुका हूँ कि दिल्ली का क़स्द क्यों करो, और यहाँ आकर क्या करोगे। बैंक-घर में से खुदा करे तुम्हारा रुपया मिल जाए। भाई मेरा हाल यह है कि दफ्तरशाही में मेरा नाम मुंदरज1 नहीं निकला। किसी मुखबिर ने निस्बत मेरी कोई खबर बदख्वाही2 की नहीं दी। हुक्कामे3 वक्त मेरा होना शहेर में जानते हैं। दारोगीर4 से सहफूज़ हूँ। किसी तरह की बाज़पुर्स5 हो तो बुलाया जाऊँ। मगर हाँ, कि जैसा बुलाया नहीं गया खुद भी बरुयेकार6 नहीं आया। किसी हाकिम से नहीं मिला। खत किसी को नहीं लिखा। किसी से दरख्वास्त मुराक़ात नहीं की।…अंजाम कुछ नज़र नहीं आता कि क्या होगा। जिंदा हूँ मगर जिंदगी वबाल है।”

बड़ी विपत्तियों से सही सलामत बच रहने को साधारणत: दूसरा जन्म होना कहते हैं। इसी दूसरे जन्म की बात को लेकर ‘ग़ालिब’ अपनी अनोखी शैली में दिल्ली का जिक्र करते हुए ‘तफ़्ता’ को लिखते हैं–

“साहेब, तुम जानते हो यह मुआमिला क्या है, और क्या बाके हुआ। वह एक जन्म था कि जिसमें हम-तुम दोस्त थे और तरह-तरह के हममें तुममें मुआमिलात महर ओ-मुहब्बत7 पेश आए। शेर कहे, दीवान जमा किए। उसी जमाने में एक बुजुर्ग थे कि हमारे दोस्त दिली थे और मुंशी नबीबख्श उनका नाम और ‘हकीर’ तखल्लुस था। नागाह न वह ज़माना रहा, न वह अखखास, न वह मुआमिलात, न वह इखतिलात8, न वह इंबिसात9। बाद चंद मुद्दत के दूसरा जन्म हमको मिला। अगरचे सूरत इस जन्म की बऐनहू10 मिस्ल पहले जन्म के हैं, यानी एक खत मैंने मुंशी नबीबख्श को भेजा उसका जवाब मुझको आया। और एक खत तुम्हारा कि तुम भी मोसूम11 ब मुंशी हरगोपाल ‘तफ़्ता’ हो आज आया। और मैं जिस शहर में हूँ उसका नाम दिल्ली और उस मुहल्ले का नाम बल्लीमारों का मुहल्ला है। लेकिन एक दोस्त भी उस जन्म के दोस्तों में से नहीं पाया जाता।”

28 नवंबर 1859 ई. को यूसुफ मिरजा को इस प्रकार लिखते हैं–

“यूसुफ मिरजा मेरा हाल सिवाय मेरे खुदा और खुदाबंद के कोई नहीं जानता। आदमी कसरत12 गम से सौदाई13 हो जाते हैं, अक्ल जाती रहती है। अगर इस हुजूमे14 गम में मेरी कूवत मुतफक्किरा15 में फर्क आ गया तो क्या अजब है। बल्कि इसका बावर16 न करना गजब है। पूछो कि गम क्या है ? गमे मर्ग17, गमे फिराक18, गमे रिज्क19, गमे इज्जत20। गमे मर्ग में किलये नामुबारक21 से किता22 नजर करके अहले शहर को गिनता हूँ। मुजफिफरुद्दौला मीर नासेरुद्दीन, मिरजा आसूबेग मेरा भाँजा उसका बेटा अहमद मिरजा उन्नीस बरस का बच्चा। मुस्तुफा खाँ इब्न23 आजमुद्दौला उसके दो बेटे सरतुजा खाँ और मुरतुजा खाँ काजी फैजुल्लाह क्या मैं इनको अपने अजीजों के बराबर नहीं जानता था। ऐ लो भूल गया हकीम रजीउद्दीन खाँ, अहमद हुसैन ‘मैकशं अल्लाह, अल्लाह इनको कहाँ से लाऊँ। गमे फिराक हुसैन मिरजा, मीर मेंहदी, मीर सरफराज हुसैन, मीरन साहेब। खुदा इनको जीता रखे। काश यह होता कि जहाँ यह होते वहाँ खुश होते। घर उनके बे-चिराग, वह खुद आवारा। सय्यद और अकबर के हाल का जब तसव्वुर24 करता हूँ कलेजा टुकड़े-टुकड़े होता है। कहने को हर कोई ऐसा कह सकता है, मगर मैं अली को गवाह करके कहता हूँ कि इन अमवात25 के गम में और जिन्दों के फिराक में आलम26 मेरी नजर में तीरा27 व तार है…।”

इसी तरह मौलवी अजीजुद्दीन को लिखते हैं–

“साहेब, कैसी साहेबजादों की सी बातें करते हो। दिल्ली को वैसी ही आबाद जानते हो जैसे पहले थी ? कासिमजान की गली मोर खैराती के फाटक से फतेहउल्लाह बेग के फाटक तक बेचिराग है। हाँ अगर आबाद है तो यह है कि गुलाम हुसैन खाँ की हवेली हस्पताल है और ज्यासुउद्दीन खाँ के कमरे में डॉक्टर साहेब रहते हैं। और काले साहेब के मकानों में एक और साहेब आलीशान28 इंगलिस्तान रहते हैं।”

अपने प्रिय शिष्य मीर मेंहदी हुसैन ‘मजरूह’ को लिखते हैं–

“…शहेर का हाल मैं क्या जानूँ क्या है। पौन टूटी (Town Duty) कोई चीज है वह जारी हो गई है। सिवाय अनाज और उपले के कोई चीज जैसी नहीं जिस पर महसूल न लगा हो। जामा मस्जिद के गिर्द पचीस-पचीस फिट गोल मैदान निकलेगा! दुकानें, हवेलियाँ ढाई जावेंगी। दारुलबका29 फना30 हो जाएगा। रहे नाम अल्लाह का । खानचंद का कूचा शाबोला के बड़ तक ढहेगा। दोनों तरफ से फावड़ा चल रहा है। बाकी खैरियत है…।”

दूसरे खत में फिर लिखते हैं–

“आओ मियाँ सय्यद31 ज़ादये आजादा, दिल्ली के आंशिक दिल दादा । ढ़हे हुए उर्दू बाजार के रहने वाले। हसद32 से लखनऊ को बुरा कहने वाले। न दिल में महेरओ33 आरजम न आँख में हया ओ शरम। निजामुद्दीन ‘ममनून’ कहाँ। ‘जौक’ कहाँ। मोमिन खाँ कहाँ। एक ‘आजुर्दा’ सो खामोश। दूसरा ‘गालिब’ वह बेखुद ओ मदहोश। न सखुनवरी34 रही न सखुन35 दानी। किस बिरते पर तंता पानी। हाय दिल्ली, वाये दिल्ली, भाड़ में जाये दिल्ली…।”

‘मजरूह’ को फिर लिखते हैं–

“भाई क्या पूछते हो क्या लिखूँ। दिल्ली की हस्ती मुन्हसिर कई हंगामों36 पर है। 1. किला 2. चाँदनी चौक 3. हर रोज मजमा बाजार जामा मस्जिद का 4. हर हफ्ते सैर जमुना के पुल की। 5. हर साल मेला फूल वालों का। यह पाँचों बातें अब नहीं फिर कहो दिल्ली कहाँ। हाँ, कोई शहेर कलमरू37 हिंद में इस नाम का था।”

इसी तरह अलाउद्दीन अहमद को लिखते हैं–

“…कल तुम्हारे खत में दो बार यह कलमा38 मरकूम39 देखा कि दिल्ली बड़ा शहेर है, हर किस्म के आदमी वहाँ बहुत होंगे। ऐ मेरी जान यह वह दिल्ली नहीं है जिसमें तुम पैदा हुए हो। वह दिल्ली नहीं है जिस में तुमने लहसील की है। वह दिल्ली नहीं है जिसमें तुम शाबान बेग की हलेबी में मुझसे पढ़ने आते थे। वह दिल्ली नहीं है जिसमें सात बरस की उम्र से आता-जाता हूँ। वह दिल्ली नहीं है जिसमें इक्कावन बरस से मुकीम हूँ। एक कंप है।”

‘ग़ालिब’ के खतों के यह कुछ अंश हैं जिन में उन्होंने सन् 57 ई. में उजड़ी हुई दिल्ली की कहानी कही है। निश्चय ही इन अवतरणों से ‘ग़ालिब’ की अनोखी शैली का भी अंदाजा लग जाता है।


  1. मुंदरज–लिखत
  2. 2. बद-ख्वाही–बुरा चाहना
  3. 3. हुक्कामे वक्त–आज के अधिकारीगण
  4. 4. दारोगीर–दुख दंड
  5. 5. बाज़पुर्स–जाँच-पड़ताल
  6. 6. बरुयेकार–सामने पहुँचना
  7. 7. महर ओ-मुहब्बत–कृपा प्रेम
  8. 8. इखतिलात–मेल-जोल इंबिशात–प्रसन्नता, हर्ष
  9. 9. बऐनहु–यथा तथ्य
  10. 10. मोसूमब–नाम के
  11. 11. कसरत–अधिकता
  12. 12. सौदाई पागल
  13. 13. हुजूयेगम–दुखों का जमघट
  14. 14. कूवत मुतफक्किरा–विवेद शक्ति
  15. 15. बावर–मानना, स्वीकार करना
  16. 16. गमे मर्ग–मृतकों का शोक
  17. 17. गमे फिराक–वियोग दु:ख
  18. 18. गमे रिज्क–, आजीविका की चिंता
  19. 19.
  20. 20. गमे इज्जत–प्रतिष्ठा की चिंता
  21. 21. नामुबारक–अशुभ
  22. 22. किता–हतकर
  23. 23. ईबन–पुत्र
  24. 24. तसव्वुर–ध्यान
  25. 25. अमवात–मृत्यु मौत का बहुवचन
  26. 26. आलम–संसार
  27. 27. तीरा व तार–अंधकार
  28. 28. आलीशान–गौरवशाली
  29. 29. दारुलबका–अमर प्रसाद सेक विद्यालय जो दिल्ली में स्थापित था ।
  30. 30. फवा–मिटना, मरना
  31. 31. सय्यद जादये आजादा–स्वच्छंद सय्यद पुत्र
  32. 32. हसद–ईर्षा
  33. 33. महेर-ओ-आरजम–मित्रता और लड़ाई
  34. 34. सखुनदानी–कवित्व
  35. 35. सखुनदी–काव्य-मर्मज्ञता
  36. 36. हंगामा–चहेल पहेल
  37. 37. कलमरू–राज्य
  38. 38. कलमा–वाक्य
  39. 39. मरकूम–लिखित

Image: Gate near the Qutub Minar Old Delhi
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Artist: Vasily Vereshchagin
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