इस्लामी साहित्य में प्रेम का तत्त्वज्ञान

इस्लामी साहित्य में प्रेम का तत्त्वज्ञान

“जिस समय दो शुद्ध अंत:करण प्रेम-रज्जु में बँध जाते हैं उस समय दो शरीर और एक आत्मा हो जाती है। धर्म भेद और वर्ण भेद का बंधन गौण हो जाता है।”

महाकवि शेक्सपियर ने कहा है–

Let me not to the marriage of two merits,
Bring impediments;
Love is not love, which alters,
Where it alterations finds.

जिस प्रकार हिंदुओं की तीन भाषाएँ–पालि, संस्कृत और हिंदी–हैं उसी प्रकार मुसलमानों की तीन भाषाएँ अरबी, फारसी और उर्दू हैं। जिस प्रकार संस्कृत भाषा गहन है, उसी प्रकार अरबी और फारसी भाषा भी भारतीय मुसलमानों के लिए कठिन है। फारसी में कहा भी है–

“ख्वादने ज़बान हाय अरबी व फारसी
मिसले ज़बान हाय दीगर आसान नीस्त।”

अर्थात् अरबी और फारसी भाषाओं को पढ़ना दूसरी भाषाओं के सदृश सरल नहीं। फारसी और उर्दू भाषाएँ मधुर एवं सुंदर भी बहुत हैं। उर्दू भाषा एक प्रकार से फारसी, अरबी और ब्रज भाषा को बिलो कर निकाला हुआ नवनीत है।

भिन्न-भिन्न राष्ट्रों ने अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार प्रेम का प्रकाश करने के लिए भिन्न-भिन्न रीतियाँ निकाल रखी हैं। पर पाश्चात्य संस्कृति का लोगों पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि उन लोगों की अपनी रीतियाँ प्राय: लुप्त होती जा रही हैं। अरब, ईरान, मिस्र, तुरकिस्तान आदि सुधरे हुए इस्लामी देशों और उच्चकोटि के मुस्लिम समाज में यह रीति है कि जब कोई बड़ा-बूढ़ा और विद्वान मनुष्य अपने बाल-बच्चों या अपने से छोटी आयु के व्यक्ति से पहले-ही-पहले मिलता है तब वृद्ध अथवा पूज्य मनुष्य का दायाँ हाथ अपने हाथ पर रख और दोनों आँखों से लगाकर छोटा व्यक्ति उसे चूमता है। उसके पश्चात बड़ा व्यक्ति छोटे व्यक्ति का आलिंगन कर उसके माथे, आँख, गाल या कंठ का अथवा कभी-कभी होंठों का भी चुंबन करता है। यह रीति त्यौहार के दिन और एक दूसरे से विदा होते समय बरती जाती है। सामान्य लोगों के लिए इसका महत्त्व समझना कठिन है। यही कारण है कि अशिक्षित मुस्लिम समाज के लोगों में यह संस्कृति देखने में नहीं आती। छोटे दरजे के मुसलमान ऊँचे दरजे के मुसलमानों को इस प्रकार चुंबन करते देख आश्चर्य करने लगते हैं। उन्हें केवल धर्मगुरु या औलिया लोगों के हाथ का चुंबन करने के सिवा और कुछ भी पता नहीं। प्रेम व्यक्त करने की यह रीति ऊँचे दरजे के हिंदुओं में भी कहीं-कहीं देखने में आती है। देर के बाद प्रथम मिलन पर हिंदू माता-पिता अपने बच्चों का सिर और कभी-कभी मुँह भी चूमते हैं।

अकबर इलाहाबादी ने कहा है–

एक बोसा दीजिए, मेरा ईमान लीजिए।
गो बुत हैं आप, बहरे खुदा मान लीजिए।

अर्थात् एक चुंबन दो और मेरी श्रद्धा मोल ले लो। आप यद्यपि पाषाण-हृदय बुत (मूर्ति) हैं, तो भी परमेश्वर के लिए, मेरा कहना मान लीजिए।

मान लीजिए कोई मनुष्य पुष्प-वाटिका में घूम रहा है। उसे एक ओर से सुंदर सुगंध आती मालूम होती है। वह मनुष्य सुवास कहाँ से आ रही है इसका पता लगाने के लिए उसी दिशा में चल पड़ता है। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों वह सुगंधि तीव्र होती जाती है। वह उससे आकर्षित हुआ धीरे-धीरे उस खिले हुए सुंदर और कोमल पुष्प के निकट जा खड़ा होता है जिससे वह सुगंध निकल रही है। उस प्रफुल्लित पुष्प को देख कर उसे सबसे पहले नेत्र-सुख प्राप्त होता है। पर देखने से ही उसकी तृप्ति नहीं होती। वह झुकझुक कर उसकी मधुर गंध से अपने मन को शांत करने का प्रयत्न करता है। इतने से भी जब उसके मन का समाधान नहीं होता तो वह उस कोमल पुष्प को तोड़ कर अपने पास रखना चाहता है। फिर यह सोच कर कि इस पुष्प में मिलने वाला आह्लाद क्षणभंगुर है, वह धीरे से उसे तोड़ लेता है और अपने बटन-होल में लगा कर या छाती से लगा कर बार-बार उसको चूमता है।

किसी कवि का कथन है–

Short-live as we are,
Yet our pleasures are few
Have a still shorten date
And die sooner than we.

अर्थात् हमारा जीवन बहुत छोटा है, तो भी हमारे आनंद जो इने-गिने हैं, हमसे भी अल्पजीवी हैं और हम से भी जल्दी मर जाते हैं।

जब दो व्यक्तियों से पहले-ही-पहले एक दूसरे से मिलने की सुवर्ण-संधि मिलती है और दोनों को पता लग जाता है कि उनके गुण-धर्म अर्थात् आयु, बुद्धि, ज्ञान, विद्वत्ता, अभिरुचि एक दूसरे के समान हैं, तब उन दोनों के मन में बार-बार मिलने की इच्छा उत्पन्न होती है और वे मिलते रहने का सुयोग ढूँढ़ लेते हैं। कालांतर में, पहला परिचय मैत्री का स्वरूप धारण कर लेता है। फिर जैसे-तैसे वह मुहब्बत अथवा मैत्री की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे वे एक दूसरे पर प्रेम करने लगते हैं। सारांश यह कि परिचय उत्तरोत्तर बढ़ कर मैत्री में परिणत हो जाता है और वह मैत्री पराकाष्ठा को पहुँच कर प्रेम बन जाती है।

प्रेम को परिभाषा की चौकठ में मर्यादित करना वैसा ही कठिन है जैसे प्रकाश को समेट कर इकट्ठा कर लेना। स्थूल रूप में प्रेम-भावना की तीन अवस्थाएँ हमने ऊपर बताईं। इन अवस्थाओं में से एक उच्च, दूसरी मध्य और तीसरी नीच है। सुविधा के लिए हम उनको तीन नामों से पुकारते हैं–प्रेम, प्रणय और काम। अपनी सुविधा के लिए हमने प्रेम की परिभाषा बेशक कर दी है, परंतु पृथ्वी के ऊपर जो असीम आकाश है उसे हम आकाश की किसी भी परिभाषा में मर्यादित करें, तो भी वह असीम ही रहता है, उस आकाश में हम चाहे कितना भी संचरण करें उसका ओर-छोर पाना कठिन है। ठीक यही बात प्रेम की है। व्यवहार में हम प्रेम का बड़ा ही संकुचित अर्थ करते हैं। इसलिए प्रेम का स्वरूप समझने के लिए संसार के अनेक उदाहरणों और दृष्टांतों की सहायता लिए बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं। जब जगत के बड़े-बड़े महात्माओं, साधुओं, तत्वज्ञों और कवियों जैसे रसिक जनों को भी इसी मार्ग का अवलंब करना पड़ा है, तो दूसरों का तो कहना ही क्या।

इश्क़ क्या शै है किसी कामिल से पूछा चाहिए।
किस तरह जाता है दिल बे-दिल से पूछा चाहिए।

अर्थात् इश्क़ (प्रेम) क्या वस्तु है, यह किसी कामिल (पारंगत) साधु पुरुष से पूछना चाहिए। वैसे ही अंत:करण कैसे चुराया जाता है, यह बात किसी बेदिल मनुष्य से पूछनी चाहिए।

विश्वकर्त्ता ने प्रेम की एक ऐसी अद्भुत और चुंबकीय शक्ति बनाई है कि उस जैसी कोई दूसरी शक्ति इस संसार में मिलनी कठिन है। बात केवल इतनी है कि वह प्रेम निरपेक्ष और नि:सीम होना चाहिए। इसलिए जब ममता बहुत ऊँचे पद पर पहुँच जाती है तब उसे इश्क़ अथवा प्रेम शब्द से संबोधन किया जाता है। साधारण लोगों के सामने जब इश्क शब्द बोला या लिखा जाता है तब वे उसका अर्थ ऐहिक या शारीरिक प्रेम ही लेते हैं। उनके विचार में प्रेम मानो कामवासना को तृप्त करने का साधन है। फिर भी प्रेम एक ऐसी अमूल्य वस्तु है कि उसकी सहायता से मानवी ताँबा भी सुवर्ण बन जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कह सकते हैं कि प्रेम मनुष्य-मात्र को काम-क्रोधादि षड् रिपुओं से मुक्त करा कर देवदूतों का स्वरूप धारण करा देता है। जो प्रेम किसी वस्तु या गुण-धर्म पर–जैसे कि शारीरिक सुंदरता पर अथवा शारीरिक शक्ति पर, सुरीली आवाज़ पर, विद्वत्ता पर अथवा संपत्ति पर–अवलंबित होता है वह उस वस्तु के नष्ट हो जाने पर लय हो जाता है। कारण यह कि ऐसा प्रेम केवल ऊपरी और स्वार्थी होता है। वस्तुत: यह प्रेम ही नहीं, यह तो बाज़ारी प्रेम अथवा कामवासना की उपासना-मात्र होता है। हमारा आज का विषय इहलोक का प्रेम नहीं, वरन् ईश्वरीय प्रेम है।

प्रेम की उत्पत्ति एक फारसी कवि ने अत्युत्तम प्रकार से निम्नलिखित पद्य में बताई है–

इश्क अव्वल दर दिले माशूक पैदा मे शवद।
तान सूज़द शमअ कै पर्वाना शैदा मे शवद?

अर्थात् प्रेम-ज्योति प्रथमत: प्रिया के अंत:करण में उत्पन्न होती है। देखिए, जब तक दीपक नहीं जलता तब तक पतंग उस पर पागल कैसे हो सकता है?

जिस समय दो शुद्ध अंत:करण प्रेम-रज्जु में बँध जाते हैं उस समय दो शरीर और एक आत्मा हो जाती है। धर्म भेद और वर्ण भेद का बंधन गौण हो जाता है। वे एक दूसरे के गुण-दोष को जान जाते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें एक दूसरे से क्षण भर के लिए भी अलिप्त रहना नहीं भाता। यदि किसी कारण से अथवा बलात् उनको एक-दूसरे से अलग हो जाना पड़ता है तो भी उनकी एक दूसरे से मिलने की उत्कंठा इतनी प्रचंड होती है कि उनको किसी प्रकार की भी बाधा मिलने से रोक नहीं सकती। यदि सिंह या कोई दूसरा हिंसक जंतु भी सामने आ जाए या प्राण संकट में पड़ जाएँ, तो भी इन सब अड़चनों का मुकाबला करने के लिए प्रेम की विद्युत् शक्ति पर्याप्त होती है।

प्रेम यदि व्यक्तिगत हो तो भी एक व्यक्ति पर आत्यंतिक प्रेम करना और उसके लिए तन, मन, धन वरन् अपना सारा जीवन ही अर्पण करने में आगा-पीछा न देखना व्यक्तिनिष्ठ आत्यंतिक प्रेम कहलाता है। वस्तुत: किसी के प्रति आत्यंतिक प्रेम से ही दिव्य प्रेम की उत्पत्ति होती है।

ऐहिक प्रेम ईश्वरीय प्रेम के मार्ग में पहुँचाने वाली सीढ़ी है। प्रेम के रंग में अकल या बुद्धिमत्ता निरुपयोगी होती है। प्रेमी जनों के बोल बहुधा छोटे बच्चों अथवा पागल मनुष्यों जैसे होते हैं। प्रेमी मनुष्यों के आगे यदि कोई उत्तम मिठाई भी रखी जाए तो अपनी प्रिया के बिना अकेले खाना उसे विष के समान लगता है और प्रिया के साथ बैठकर यदि उसे विष भी खाना पड़े तो उसे अमृत से भी बढ़ कर लगता है। इसी विषय पर एक सच्चा प्रेमी उर्दू कवि कहता है–

मुझे जुदाई का सदमा सहा नहीं जाता
हराम मौत न होती तो ज़हर खा जाता।

अर्थात् मेरे लिए वियोग का धक्का असह्य हो गया है। यदि आत्महत्या बेकायदा (हराम या पाप) न मानी जाती तो मैंने विष खा लिया होता।

सच्चा प्रेमी लोगों के अच्छा या बुरा कहने की कुछ भी परवाह न कर जो माग प्रेम दिखाता है उसी पर चलता है। नग्न फिरना और गाली देना इत्यादि बातें जगत में बुरी मानी जाती हैं। बहुधा ‘मजज़ूब’ अर्थात् ईश्वरीय प्रेम के पागल फकीरों को नंगे फिरते और गाली बकते देख सामान्य लोग पागल समझने लगते हैं, और उनकी हँसी उड़ाते हैं। परंतु वस्तुत: वे सयाने होते हैं, सच्चे मनुष्य होते हैं और सामान्य जनता को वे पशु समझते हैं। इसलिए वे लोक-मर्यादा की परवाह नहीं करते। परंतु जब उनके साथ किसी व्यक्ति का मिलाप हो जाता है तब वे झट शरीर पर वस्त्र ओढ़ लेते हैं, मानो वे उससे परदा कर लेते हैं। वे ईश्वरीय प्रेम में मग्न होते हैं। इसलिए उन पर धर्म का बंधन लागू नहीं होता। इश्क और शरअ का सदा वैपरीत्य रहा है। इसलिए धर्म (शरअ) के नियमानुसार उनको दंड नहीं दिया जा सकता। उनका धर्म एक सूफी के शब्दों में इस प्रकार है–

सुन्नत आमद रुख ज़ दुनिया ताफ़तन।
फ़र्ज़ राहे कुर्बे मौला याफ़तन॥

अर्थात् सुन्नत अर्थात् पैगंबर की आज्ञा का अर्थ है दुनिया से मुँह मोड़ लेना और फ़र्ज़ अर्थात् ईश्वर की आज्ञा का अर्थ है कि भगवान के सान्निध्य की अपेक्षा करना। इसी बात को एक उर्दू कवि ने यों कहा है–

दर्दे दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को।
वर्ना ताअत के लिए कुछ कम न थे कर्रुवियाँ।

अर्थात् मनुष्य जाति को अंत:करण के दु:ख (प्रेम) के लिए उत्पन्न किया है, नहीं तो ईश्वर की उपासना के लिए देवदूतों की कोई कमी न थी। अरबी में कहा है–

ला रहबा नियते फ़िल इस्लाम।

कुछ लोग कहा करते हैं कि इस्लाम में वैराग्य-वृत्ति नहीं, तो फिर तसव्वुफ़ (संन्यस-वृत्ति) इस्लाम में कैसे आ गया, इसका कोई संतोषजनक समाधान आजतक नहीं हुआ। सूफी-मत के अनुसार संन्यासी-प्रेम मानों स्वर्ग की चाभी है। सूफी का अर्थ भगवे वस्त्र पहन कर लोगों को गुरुडम के मोह-जाल में फँसाना नहीं। परंतु सच्चा ईश्वर-प्रेमी ही सूफी कहलाता है। सूफी लोग अपने मुरशिद अर्थात् गुरु के सिवा और किसी बात को विशेषता नहीं देते। गुरु के प्रति देहली का कवि अमीर खुसरो फारसी कविता में कहता है–

सुबह दम चूं रुख नमूदी शुद नमाज़े मन कज़ा
सिजदा कै वाशद रवा चूँ आफताब आयद बिरूँ।

अर्थात् प्रभात समय जब तूने अपना मुख दिखाया तो मैं नमाज़ (वाह्य प्रार्थना) नहीं कर सका। सच है, जब सूर्य क्षितिज पर झलकने लगता है तो फिर सिज़दा अर्थात् साष्टांग नमस्कार करने की आवश्यकता ही नहीं रहती।

गुरु और शिष्य का एक विशेष संबंध है। सामान्य लोग उसे सहज में नहीं समझ सकते। कारण यह कि उनकी विचार सरणि में इतने उच्च पद को पहुँचने की सामर्थ नहीं रहती। गुरु और चेला का वही संबंध है जो पिता और पुत्र में अथवा ईश्वर और उसके दास में होता है। उनके मतानुसार मन लगाकर और नि:सीम प्रेम से पीर (गुरु) की सेवा करना ही भक्ति है। सूफी पंथ में होठों को ‘आबे हयात’ (अमृत) कहा जाता है। जब किसी चेले की परीक्षा लेने के बाद, उसे कसौटी पर परखने के बाद, और उसकी सात्विकता का विश्वास हो जाने के अनन्तर गुरु उसे दीक्षा देता है तब वह उसे छाती से लगा कर और उसके होठों से होंठ मिला कर उसको आवेहयात के झरने से, अधरामृत से तृप्त कर उसको विदा कर देता है। उसी क्षण से वह चेला भी देशाटन करता हुआ गुरु बन कर दूसरों को चेला बनाने का अधिकारी हो जाता है।

जगत में एक भी ऐसा मनुष्य न होगा, जिसे मित्र या साथी की आवश्यकता न हो। अपनी योग्यता के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का अपना कोई न कोई सखा या मित्र अवश्य होता है। कभी-कभी प्रेम के रंग में दरिद्र और धनवान का भी संबंध हो जाता है। तब उनको लगने लगता है कि हम समान हैं। ऐसी परिस्थिति होने पर पैसे का कुछ मूल्य न हो कर प्रेम का ही मूल्य होता है। सुलतान महमूद गज़नवी एक बड़ा प्रख्यात बादशाह था तो भी वह अपने आयाज नामक गुलाम का दास बना था। अपने मित्र की दरिद्रता अपने मित्र को अच्छी लगती है। उसके दुर्गुण भी उसे सद्गुण लगते हैं। उसके मैले वस्त्र साटिन एवं किमखाव से भी बढ़िया मालूम होते हैं। उसके दरिद्र मित्र के पास बैठने से अंबर और कस्तूरी से भी अधिक मोहक तथा मधुर सुगंधि के सेवन का आनंद मिलता है–

दिल सनम खाना है ज़ाहिद और काबा रूए दोस्त।
मुस्हफ़े रुख अपना कुरआँ और जन्नत कूए दोस्त।
चख भी ले ज़ाहिद ज़रा-सी हम वो पीते हैं शराब।
जिसमें हो आमेखता बूए दहाने मूए दोस्त।
दिल में छिप कर बैठते हैं कहते हैं ढूँढ़ो हमें।
सारे आलम से निराली हमने पाई खूए दोस्त।
वह नज़र पैदा करो अतहर कि जिसमें साफ साफ।
ज़र्रा ज़र्रा में नज़र आए जमाले रूए दोस्त॥

अर्थात् अंत:करण ही देवालय है और अपने मित्र का मुख-मंडल मानों काबे की मसजिद है। मित्र का चेहरा रूपी पुस्तक अपना धर्म-ग्रंथ कुरान और मित्र की गली मानो अपना स्वर्ग है। हे तपस्वी (ज़ाहिद) जिस मदिरा में हमारे मित्र के होंठों की सुगंधि मिली है और जिसका हम सेवन करते हैं तू भी उसे थोड़ी सी चख कर देख। मेरा मित्र मेरे अंत:करण में छिप कर बैठ जाता है और कहता है, मुझे ढूँढ़ो। हमने अपने मित्र का स्वभाव सारे संसार से निराला ही पाया है। कवि अतहर वह दृष्टि प्राप्त कर कि जिसकी सहायता से तुम्हें प्रत्येक वस्तु में अपने मित्र के सुंदर मुखमंडल का प्रतिबिंब साफ-साफ दिखाई देने लगे। इतना ही क्यों, देखिए दयालु परमात्मा को अपने मित्र पैगंबर मुहम्मद से कितना प्रगाढ़ प्रेम था–

गमे फुर्क़त खुदा भी उठा न सका।
शबे मेराज में भी बुलाना पड़ा।
उसे इतना मुहब्बत से प्यार है रे।

अर्थात् प्रत्यक्ष विधाता भी वियोग का दु:ख सहन न कर सका। उसे मेराज की रात को अपने मित्र को अपने पास बुलाकर उसकी मुलाकात का लाभ उठाने की तीव्र आवश्यकता मालूम हुई। उसे मुहम्मद साहब पर कितना प्रेम है। इसी प्रेम के कारण पापी मुसलमान भी समझते हैं कि हज़रत मुहम्मद की सिफारिश से उनके पापों का प्रक्षालन हो जाएगा। इस्लाम धर्म का आधार विश्व-बंधुत्व पर रखा गया है। इसीलिए इसे विश्वधर्म कहा जाता है।

इस प्रकार प्रेम में जब एकाग्रता उत्पन्न होने लगती है तब मनुष्य का मन प्रेममय हो जाता है। फिर उसे प्रेम के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। इस स्थिति को प्रेमानंद, ब्रह्मानंद अथवा एकमोवाद्वितीयं कहा जाता है। इसको प्रेम का उत्कृष्ट, उत्क्रांत स्वरूप समझने में कोई हानि न होगी। प्रेम ही शक्ति है, प्रेम ही भक्ति है, प्रेम से ही मुक्ति मिलती है।


Image: Two Arabs Reading
Image Source: WikiArt
Artist: Edwin Lord Weeks
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