कला का कौशल

कला का कौशल

युग की माँग बदलती है, दिल की माँग नहीं बदलती। कला का आदर्श बदलता है, कला का आकर्षण नहीं बदलता। उपासना की पद्धति बदलती है, वासना की आसक्ति नहीं बदलती।…और, समाज की परिपाटी हजार बदले, सुख-दुख की आँख-मिचौनी नहीं बदलती।

आज जमाना क्या से क्या हो गया है। एक दिन वह कैसा था, क्या था, इस चर्चा से कब आता-जाता ही क्या है। आप चाहें या न चाहें, कहें या न कहें, जो है सो है। वैसे तो आज दुनिया के पास क्या-क्या नहीं है। शक्ति है, संपत्ति है, शासन की पद्धति है और मँजी निखरी बुद्धि भी। फिर भी, इन सारी विभूतियों के बावजूद उसके कलेवर में कल नहीं और मँडरा रहे हैं सर पर सत्यानाश के बादल। वह होड़, वह द्वेष, वह दाँव-पेंच, वह संघर्ष है कि अभी क्या हुआ है जो अब होगा।

आज का यह भौतिक युग आदमी को उठाने आया है या गिराने, इस मसले का हल नहीं। वह हमें मानव के स्तर से ऊपर ले गया या नीचे, कभी सोचा है हमने इस पहलू पर? हमें तो लगता है कि एक ओर हम उठे हैं तो दूसरी ओर हमने मुँह की भी खाई है। जीत और हार दोनों दामन-चोली हो रहे हैं–बराबर। प्रकृति को हम जीतते रहे हैं–प्रवृत्ति के हाथों हारते रहे हैं। इधर देश और काल की दूरी मिटती रही है, आदमी-आदमी के बीच की दूरी बढ़ती गई है।

एक दिन आनंद की खोज इस जीवन की सबसे बड़ी भूख थी। आज एटम-बम की तलाश इस जीवन का चरम प्रयास है जैसे। यों लुट गया आनंद–हाथ आया एटम बम। इधर खोया, उधर पाया।

आखिर आज की इस नई प्रगति के चलते हमने क्या-क्या नहीं खोया और क्या-क्या नहीं पाया। ज्ञान खोया, विज्ञान पाया। श्रद्धा खोई, अभिज्ञता पाई। आचार खोया, विचार पाया। विश्वास खोया, तर्क पाया। स्वास्थ्य खोया, इलाज पाया! नीति खोई, बुद्धि पाई। ईमान खोया, स्वाभिमान पाया। प्रेम खोया, इल्म पाया, और दिल खोया, दिमाग पाया!

अब इस हानि-लाभ का लेखा-जोखा कोई क्या करे–कैसे करे। बस अपनी-अपनी नजर है–अपनी-अपनी तोल।

मैं पूछता हूँ, आज पश्चिम की सभ्यता प्रकृति-विजय का डंका पीट कर भी क्या ऐसी नेमत लाई जब वह प्रवृत्ति के खूनी पंजे से अपना गला छुड़ा न सकी। वह अपनी प्रवृत्ति को भी मुट्ठी में रख पाती, तो फिर प्रकृति पर यह हुक्मरानी उसे प्रगति ही नहीं, सद्गति भी देती और जी की शांति भी।

देखिए न जो विज्ञान हमारे उत्थान का अचूक साधन होता, वह आज ढाले जा रहा है संहार के अमोघ हथियार।

आज तो जिस ओर आँखें फिरती हैं, उधर वस्तु ही सत्य जैसे, चैतन्य गौण। मशीन पहले है, मनुष्य पीछे। यांत्रिक सत्ता की महत्ता है, मानव-चेतना की उपेक्षा। आज संघर्ष है स्वार्थ का–सिद्धांत का। इस सिद्धांत की पाबंदी के तले आदमी लुटता है तो लुटे, कुछ परवा नहीं। मगर, जब व्यक्ति की स्वच्छंदता ही लुट गई, तो समाज की रूपरेखा लाख वैसी रही तो क्या।

और, आदमी जैसा बनता है, वैसा रहता नहीं। हम सोचते हैं और, कहते हैं और, बनते हैं और, करते हैं और। बस आडंबर की बुलंदी है–आचरण की पस्ती। और बस लीजिए–अपना-अपना है हर जगह। सब में अपने को दो और सब को अपने में लो–यह तो जबानी भफारेबाजी रह गई है केवल।

और अर्थ ही पुरुषार्थ है, अर्थ ही परमार्थ। मनुष्य के लिए अर्थ नहीं, अर्थ के लिए मनुष्य है जैसे। जभी तो आदमी सस्ता है, पैसा महँगा। और हाय रे दिन का फेर, कला की सार्थकता भी अर्थ और काम की अभ्यर्थना ही रह गई आज के युग में।

मगर युग या समाज का रुख़ जो बदले, आदमी के मिजाज का रुख़ तो बदलता नहीं। शासन का विधान बदलता है, जीवन का विधान नहीं बदलता। युग की माँग बदलती है, दिल की माँग नहीं बदलती। कला का आदर्श बदलता है, कला का आकर्षण नहीं बदलता। उपासना की पद्धति बदलती है, वासना की आसक्ति नहीं बदलती। त्याग के नक्शे बदलते हैं, राग के हौसले नहीं बदलते। और, समाज की परिपाटी हजार बदले, सुख-दुख की आँख मिचौनी नहीं बदलती। वही सुख-दुख है, वही आस और प्यास, और वही राग और विराग।

क्या-क्या नहीं सुझाव आए, क्या-क्या नहीं सुधार–क्या सूक्ष्म और क्या स्थूल; पर यह चिरंतन का ताना-बाना, ज्यों का त्यों बना है आज भी। एक ओर से बुद्ध, क्राइस्ट और मुहम्मद आए; दूसरी ओर से मार्क्स, गाँधी और जाने कितने जाने-माने–इस जीवन को नई दिशा, नई प्रेरणा देकर समता के साँचे में ढालने; मगर उनके धर्म-कर्म और श्रम की तमाम साधना हमारे अंदर और बाहर क्या-क्या अमिट चिह्न रख गई, उसे हम क्या कहें, कैसे कहें। हम तो यही पाते हैं कि एकाध नियम का व्यतिक्रम चाहे जो हो, पर जो इस दुनिया में आया नहीं वह–इसी द्वंद्व के भँवर में उबचुब–दुनिया का होकर रहा नहीं। बस, जो होता आ रहा है सो होता है, कोई कुछ भी कहे–कुछ भी करे।

अब आइए हम अपने को भी देखें। आज हमारी दुनिया भी नई हो रही है–नई दिशा, नई प्रेरणा। अब हमारे यहाँ भी न कोई राजा है न प्रजा, बड़ा न छोटा–जाति का या कुल का। ऊँची हवेली और झोपड़ी एक ही थैले के चट्टे-बट्टे–दोनों की जड़ हिल गई। नारी भी अब भवन से निकल कर भुवन में आ गई। अब वह मानवी पहले है, घर की देवी पीछे। रही होगी किसी दिन केवल परिवार की–आज तो वह समाज की भी है और कल वह संसार की भी होगी। सह-धर्मिणी रही या न रही–खुशी उसकी; पर सह कर्मिणी तो रहेगी ही और सहचारिणी भी। श्रम के माथे पर तिलक होगा और व्यक्ति की मर्यादा अक्षुण्ण होगी। विधि की मनमानी अब नहीं चलने की। हर कोई अपने भाग्य का विधाता आप होगा । जब अवसर बराबर है तब उठे या गिरे, जिम्मेदार वह खुद है।

मगर दुनिया की देखादेखी इस बाहरी सफाई और सजाई के साथ-साथ अपनी संस्कृति की आध्यात्मिक भित्ति पर अंदर की सफाई-सजाई की लौ न लगी, और मनुष्य के जीवन का चरम उत्कर्ष सेवा और त्याग का आनंद न रह कर अर्थ और काम का अनुशीलन ही रह गया, तो फिर हमारे अंदर भी अपना और पराया धक-धक जलता रहेगा और बस बापू की सारी कमाई को फूँक कर रह जाएँगे, हम पश्चिम का पुछल्ला बन कर–वह पश्चिम, जिसके साथ वादा है, वफा नहीं। मैं पूछता हूँ, वह छलिया किसी की पकड़ में आया है कभी?

अभी हम अपने पैरों खड़े कहाँ हो पाए हैं। इससे हमारे जीवट में बट्टा है। माना कि स्वराज्य मिल गया, मगर यदि वह सुराज का मुहताज ही रह गया, तो फिर सर पर ताज आया तो क्या–

अभी जनता की चेतना जगी नहीं है। उसके साथ न कोई जिज्ञासा है, न प्रेरणा। अपनी पुरानी रूढ़ियों के लिहाफ में लिपटी पड़ी है बेखबर। जात-पाँत और जाने कितनी ऐसी तंग परंपरा की कड़ियों में बँधी पड़ी है उसकी सुध-बुध। अपना पता तो ले नहीं पाती, देश का पता वह क्या लेगी। बस सिमट कर रह जाती है अपनी लगी-लिपटी के फेर में।

हमारे सिर पर एक से एक जवाहर हैं जो कंधे लगा हमें उठाने में अपनी ओर से कुछ उठा न रखेंगे; मगर हम भी उठने के लिए वैसे तैयार हों तब न। आजादी आई तो क्या–अगर अपने अंदर जिम्मेदारी की अनुभूति नहीं आई।

हमको अपना घर ही नहीं सँवारना है, अपने को भी सँवारना है बराबर; और हम सँवरे तो घर सँवरा । बाहर तो अन्न की कमी है, अपने अंदर लगन की–आचरण की।

और इस तह की कमी की ओर कोई वैसा मुड़े या न मुड़े, साहित्यकार तो अनासक्त रह नहीं सकता। किसी चिंतक या कलाकार से तो पर्दा नहीं कि आज देश की आत्मा की माँग क्या है, उसकी पुकार क्या है, उसका कल्याण क्या है। कोई सुने या न सुने, वह तो सुन ही लेता है सबसे पहले कि कहाँ आह है कहाँ दाह; और कोई देखे या न देखे, उसकी दिव्य आँखें तो देख ही लेती हैं कि क्या राह है, क्या गुमराह; किधर अँधेरा है, किधर प्रकाश। और कोई कहे या न कहे, उसकी वाणी तो बरस ही पड़ती है कि कब क्या होगा, कैसे क्या होगा। पर, वह देख-सुन या गा कर ही नहीं रह पाता, उसकी वाणी में वह सत्ता भी है कि चाहे तो सुफैद को स्याह कर दे और स्याह को सुफैद; और जिधर दिल खोल मुड़े उधर लाखों का मुँह मोड़ दे।

जभी तो एक सच्चा साहित्यकार युग द्रष्टा ही नहीं, युग-स्रष्टा भी है बराबर। अक्सर कवि की वाणी तो आकाशवाणी से भी बाजी ले गई है। अतीत की चिताभस्म को कुरेद-कुरेद कर आप ऐसे जाने कितने दृष्टांत टटोल लेंगे, जहाँ कलाकार की वाणी क्या से क्या कर गई। ज़माने ने नई करवट ली–नई चेतना, नई प्रेरणा।

यह तुलसी की वाणी का आशीर्वाद है कि आज भी, ज़माने की नई रोशनी और नई हवा की मनमानियों के बावजूद हमारे समाज में घर-घर राम जैसे बेटे हैं, भरत और लक्ष्मण जैसे भाई, कौशल्या जैसी माता और सीता जैसी सती-साध्वी। आज न वह द्वारका का राजा है, न राजा का वह गगनचुंबी महल; पर जीता-जागता है वह गोकुल का कन्हैया, वह करील का झुरमुट और वह ब्रज की रज भी। आज भी हमारी आँखों के सामने फिरती रहती है गोपियों की वह पुलक-लीला, उनके प्रेम और विरह की अँगड़ाइयाँ और साथ-साथ उस माखन चोर की दिल चुराने की भंगिमा।

कोई कहे या न कहे, पर कितने बेलौस तो होंठ सी कर नहीं रह पाते कि यह वाल्मीकि और तुलसी की कलम का कमाल है कि आज राम का नाम मानव-कल्याण का चरम सोपान बन गया; और यह व्यास की कल्पना और कला का करिश्मा है कि जिस माखनचोर को गोपियों ने ‘छछिया भर छाछ’ पर नाच नचाया, वह आज गीता का भगवान है–गतिर्भर्त्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत

तो हमारे यहाँ संत कवियों ने मुक्ति का द्वार खोला, भक्त कवियों ने सगुण-भक्ति का। वही पैनी प्रतिभा की वाणी का प्रसाद पाकर उन दिनों कितने राजाओं की जिंदगी ने भी नई करवट ली–नई दिशा, नई धारा।

राजा जयसिंह का नाम आप भूले न होंगे। कहाँ से उनके महल में एक नई दुलहिन–कमसिन आई। बचपन अभी वैसा गया नहीं था, मगर जाने क्या ऐसी मोहिनी थी कि राजा सारी दुनिया को ताक पर रख उसी को लिए-दिए ऐसे डूबे कि कहीं के न रहे। शासन की नाव डूबने पर आई, पर उनके कान पर जूँ तक न रेंगी। मंत्रियों का जत्था लगा दिन में तारे देखने। तभी उस दरबार के एक कवि का एक दोहा जैसे देवता का वरदान बन कर आया और खींच लाया राजा को उस मदहोशी की मँझधार से–

नहि पराग नहिं मधुर मधु,
नहि विकास एहि काल
अली कली ही सों बिंध्यो,
आगे कौन हवाल

अवध के बूढ़े नवाब का किस्सा भी आप सुने ही होंगे। सत्तर के पड़ोस में पहुँच कर भी बीसी और तीसी की मस्ती टटोल रहे थे बेकार–तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा। आदमी बूढ़ा होता है उसका शौक–उसकी हिर्स बूढ़ी नहीं होती। वह तो और भी जवान होता जाता है दिन-दिन। बस, आठों पहर हसीनों की महफिल में खोए रहते। देह जवाब दे रही है तो क्या, आँखें तो सुनती नहीं और मन दे रहा है आँख का साथ–दुनिया की रंगीनियाँ जो बस गई थीं मन में? सभी समझाकर हार गए–पीर, मुल्ला, बेगम, सयाना शाहजादा, कोई असर नहीं। बस एक शायर की वाणी बिजली की तरह टूटकर आई और एक पल में उनकी आँखें खोलकर धर दीं। वह करारी चोट आई कि दुनिया से मुँह मोड़ फकीरी ले बैठे–

“कदम सूये मरक़द, नज़र सूये दुनिया
कहाँ जा रहे हो, किधर देते हो?”

तो क्या आज भी यह दौर नहीं है? कलाकार की वाणी कोई रंग नहीं लाती क्या?

क्या कहा? नहीं लाती? मैं पूछता हूँ, वह कमर कस हमारी आजादी की माँग में रूह न फूँकती, सत्याग्रह के सर पर हाथ न रखती, और उठती जवानियों को कुर्बानी की लौ न लगाती, तो ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल पाती? याद है न, दिनकर का वह पद–

जिनकी चढ़ती हुई जवानी खोज रही अपनी कुर्बानी
जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार

और तो और रवींद्र की मानवता की पुकार क्या गाँधी की अहिंसा में प्रतिफलित न हुई?

उधर उर्दू का साहित्य अलगाव का अभिषेक न करता, तो इस्लाम का कारवाँ भाई की दुहाई को अनसुनी कर घर के आँगन में नई दीवार चुन कर अपना अलग दरवाजा न फोड़ता। यह इकबाल की कलम की मार है कि भारत की छाती फट कर दो-टूक हो गई। यह उसी की आग उगलती लेखनी थी जो इस्लाम के मर्म में पाकिस्तान की लौ लगा गई। उसे सांप्रदायिकता की आग में तपा कर राजनीति के साँचे में ढालने तो ‘कायदे-आज़म’ बरसों बाद आए।

तो, हमारे जनतंत्र का आधार एक स्वस्थ लोकमत के विकास को लेकर, जो तड़प और इंगित हमारी अनुभूतियों की तह में सर उठाए गूँज रही है, उसे साकार कर हमारे जीवन में उतार देने की प्रेरणा तो हमारे कलाकार की कलम से आकर रहेगी। आज की कला का कौशल तो यही है, दूसरा नहीं। और, गाँधी की विरासत भी तो उसी के पल्ले आई है अधिकतर। उसके साथ तो गाँधी का नाम अपनी सेवा, अपनी सत्ता की दूकान का इश्तहार नहीं।


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