“नवल नागरी नेह रत”

“नवल नागरी नेह रत”

“‘पंडित सत्यनारायण कविरत्न की जीवनी’ में जो ‘चार आँसू’ स्वर्गीय शर्मा जी के निकले हैं उन्हीं के कुछ छींटे आपके सामने हैं।

स्वर्गीय पंडित पद्मसिंह शर्मा जी ने स्वर्गीय श्री सत्यनारायण जी के विषय में लिखा है–
“मैं समझ गया कि हों न हों ये सत्यनाराण जी हैं; पर फिर भी परिचय-प्रदान के लिए पं. मुकुंदराम को इशारा कर ही रहा था कि आपने तुरंत अपना मौखिक ‘विज़िटिंग कार्ड’ हृदयहारी टोन में स्वयं पढ़ सुनाया–

नवल नागरी नेह रत, रसिकन ढिंग बिसराम।
आयौ हौं तब दरस कौं, सत्यनरायण नाम॥

मुझे याद है, उन्होंने ‘निरत नागरी’ कहा था, (225 तथा 228 पृष्ठ पर, इसी रूप में, यह छपा भी है) ‘निरत’ ‘रत’ में पुनरुक्ति-सी समझ कर मैंने कहा–‘नवल नागरी’ कहिए तो कैसा? फ़िकरा चुस्त हो जाए, हस्बहाल मज़ाक (समयोचित विनोद) समझ कर वे एक अजीब भोलेपन से मुस्कराने लगे। बोले–अच्छा, जैसी आज्ञा।”

‘पंडित सत्यनारायण कविरत्न की जीवनी’ में जो ‘चार आँसूँ’ स्वर्गीय शर्मा जी के निकले हैं उन्हीं के कुछ छींटे आपके सामने हैं। हम उनकी मीमांसा में नहीं पड़ते। प्रसंग तो ‘नवल नागरी’ का है न? वस्तुस्थिति है कि श्री सत्यनारायण जी विवाह के हेतु गए थे ज्वालापुर। अतएव पंडित जी का यह संशोधन सटीक था। ‘नवल नागरी नेह रत’ का अर्थ होता ‘नवल नागरी के नेह में रत’। ‘समयोचित विनोद’ सत्यनारायण जी को कैसा, कितना महँगा पड़ा, इसे प्राय: सभी जानते हैं; परंतु उनके अभाव में इस ‘नवल नागरी’ की गति क्या हुई, इसका पता कितनों को है? इसी नाते उसकी भी तो कुछ सुधि होनी चाहिए!

जो हो, प्रसंग यहाँ ‘परिचय’ का है और देखना यह है कि शर्मा जी का आक्षेप कहाँ तक ठीक है। सत्यनारायण का ‘परिचय’ है–

निरत नागरी नेह रत रसिकन ढिंग विश्राम।

जिसका सीधा अर्थ है–1. नागरी में निरत 2. नेह में रत तथा 3 रसिकों का प्रसंग। प्रतीत होता है कि शर्मा जी का ध्यान इस ‘नागरी’ की ओर नहीं गया। जा भी कैसे सकता था? उस समय तो उनकी वृत्ति कहीं और ही थी। पाठ चल रहा था ‘किरातार्जुनीय’ का और प्रसंग आ पड़ा था श्री सत्यनारायण के विवाह का। फलत: संशोधन भी हुआ समयोचित ‘नवल नागरी’ का। श्री सत्यनारायण जी के जीवन के दृश्य काव्य का यह पताका-स्थान है जिसे बहुत कम लोग देख पाते हैं। जी चाहता है कि कभी इसका भी रहस्य खोला जाए और उस ‘नवल नागरी’ के शेष जीवन को भी परखा जाए। देखिए न शर्मा जी कह रहे हैं कि ‘निरत’ और ‘रत’ में पुनरुक्ति है अत: ‘निरत’ को ‘नवल’ करो। उधर पत्रों को पढ़ जाइए। इसी ‘पुनरुक्ति’ से चिढ़ है। और सच पूछिए तो झगड़ा भी है ‘निरत’ और ‘नवल’ का ही। सत्यनारायण निरत है नागरी में और रत है नेह में। अर्थात् उसके मन में सर्वप्रथम स्थान है ‘नागरी’ को। परमार्थ में चाहें तो ‘राधा’ अर्थ ले लें अन्यथा इसका अर्थ है ‘नागरी’ अथवा हिंदी भाषा ही। जी, सत्यनारायण जी थे ऐसे ही हिंदी भक्त कि ‘नागरी’ के सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं थे। नागरी-प्रचार ही उनके जीवन का लक्ष्य था। इसी से रेवरेंड जोंस के अभिनंदन में कहते हैं–

निरत नागरी उन्नति में अपनो चित दीजौ।
या अबलहिं उद्धारि मुदित निरमल यश लीजौ॥

बात समझने की यही थी। सत्यनारायण इस अबला में निरत हो चुके थे। सावित्री देवी ‘कवि’ नहीं ‘कविरत्न’ की पत्नी बनीं, पर इस सौत का चोंचला सह न सकीं। फलत: सत्यनारायण कविरत्न को भी कलप कर लिखना पड़ा–भयो क्यों अनचाहत को संग? परिणाम भयंकर? भयावह!! ‘नवल नागरी’ का यह दुष्परिणाम!!! इसमें आग लग गई घर के चिराग से। सुनिए न, सावित्री देवी की वेदना है–

“इससे ज़्यादा मुझे और क्या दु:ख होगा कि रात-दिन यही चिंता रहती है कि किस वक्त वो सब जान लेने के लिए यहाँ आ जावें! लेकिन बड़े दु:ख की बात है कि हरेक पत्र में इतना खुलासा करके लिखती हूँ और किसी की जान नहीं लेती। सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए तुमको लिख दिया था लेकिन चारों तरफ़ आप सबों के पत्रों की बौछार हो रही है।”

बस यही ‘बौछार’ इस विनाश के मूल में है। ‘कविरत्न’ जी ने कभी पहले भी ‘शर्मा’ जी को लिखा था–

जो मोसों हँसि मिले होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही निरखत तिह-मधि सरल प्रकृति कौ प्रेरौ।
यह स्वभाव कौ रोग जानिये मेरों बस कछु नाहीं।
नित नव विकल रहत याही सों सहृदय बिछुरन माहीं।
सदा दास योषित सम बेबस आज्ञा मुदित प्रमानै।
कोरो सत्य ग्राम को बासी कहा ‘तकल्लुफ’ जानै॥

तो क्या सत्यनारायण का लोप इसी ‘स्वभाव-रोग’ के कारण नहीं हुआ और उनका घर इन्हीं सहृदयों के कारण न बिगड़ा? यदि कोई इस कोरे ‘सत्य’ को ‘मित्रों’ से बचा पाता तो निश्चय ही यह ‘नवल नागरी’ भी कुछ अपना करतब दिखा पाती। कारण, उसने जान-बूझ कर इस ‘रोगी’ को वरा था। हंत! ऐसा न हो सका!! अब क्या?