प्रेमचंद जी का पत्र

प्रेमचंद जी का पत्र

सरस्वती प्रेस, काशी
ता. 3-6-1930

प्रिय भाई साहब, वंदे

आपका पत्र कई दिनों से आया हुआ है। पहले तो कई बारातों में जाना पड़ा, फिर नैनीताल जाने की जरूरत पड़ गई। एक तारीख को वहाँ से आया तो यहाँ काँग्रेस के उलझन में पड़ा रहा। शहर पर फौज का कब्जा है। अमीनाबाद के दोनों पार्कों में सिपाही और गोरे डेरे डाले पड़े हुए हैं। 144 धारा लगी हुई है। पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर रही है और काँग्रेस 144 धारा को तोड़ने की फिक्र में है। डंडे की नई पॉलिसी ने लोगों की हिम्मत तोड़ दी है।

आप मुझसे मेरा चित्र माँगते हैं। एक चित्र कुछ दिन हुए खिंचवाया था, वह लाहौर भेज दिया। वहाँ से ब्लाक मँगवा कर, कहानियों के एक संग्रह ‘पाँच फूल’ में छापा। उसी की एक परत फाड़कर भेज रहा हूँ। अगर इससे काम चल जाय तो क्यों नई तस्वीर खिंचवाऊँ। मैं तो समझता हूँ यह काफी अच्छी है। अगर जरूरत होगी तो इसका ब्लाक भेज दूँगा, हालांकि ठीक नहीं कह सकता ब्लाक प्रेस में है या नहीं, क्योंकि ‘वीणा’ ने माँगा था। अगर वहाँ चला गया होगा तो वहाँ से आने पर भेज दूँगा। हाँ, अगर बिलकुल नई तस्वीर की दरकार हो तो मुझे तुरंत लिखिए, खिंचवाकर भेज दूँगा।

मेरे विषय में आपने जो प्रश्न पूछे हैं उनका उत्तर यों है–1. मैंने 1907 में गल्प लिखना शुरू किया। सबसे पहले 1908 में मेरा ‘सोज़ वतन’ जो पाँच कहानियों का संग्रह है ‘जमाना’ प्रेस से निकला था, पर उसे हमीरपुर के कलक्टर ने मुझसे लेकर जलवा डाला था, उनके ख्याल में वह विद्रोहात्मक था, हालांकि तब से उसका अनुवाद कई संग्रहों और पत्रिकाओं में निकल चुका है।

2. इस प्रश्न का जबाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ तक चुनूँ। लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ–

1. बड़े घर की बेटी 2. रानी सारंधा 3. नमक का दारोगा 4. सौत 5. आभूषण 6. प्रायश्चित 7. कामना तरु 8. मंदिर और मस्जिद 9. घासवाली 10. महातीर्थ 11. सत्याग्रह 12. लांछन 13. सती 14. लैला 15. मेल।

‘मंजिल मकसूद’ नामक उर्दू कहानी बहुत सुंदर है। कितने ही मुसलमान मित्रों ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है, पर अभी तक उसका अनुवाद नहीं हो सका। अनुवाद में भाषा सारस्य गायब हो जाएगा।

3. मेरे ऊपर किसी विशेष लेखक की शैली का प्रभाव नहीं पड़ा। बहुत कुछ पं. रतननाथ दर लखनवी और कुछ-कुछ डॉ. रवींद्रनाथ ठाकुर का असर पड़ा है।

4. आय की कुछ न पूछिए। पहले की सब किताबों का अधिकार प्रकाशकों को दे दिया। प्रेम पच्चीसी, सेवा सदन, सप्त सरोज, प्रेमाश्रम, संग्राम आदि के लिए एक मुश्त 3000) हिंदी पुस्तक एजेंसी ने दिया। ‘नव निधि’ के लिए शायद अब तक 200) मिले हैं। ‘रंग भूमि’ के लिए 1800) दुलारे लाल ने दिए। और संग्रहों के लिए सौ दो सौ मिल गए। कायाकल्प, आजाद कथा, प्रेमतीर्थ, प्रेम प्रतिमा, प्रतिज्ञा मैंने खुद छापा, पर अभी तक मुश्किल से 600) रुपए वसूल हुए हैं और प्रतियाँ पड़ी हुई हैं। फुटकर आमदनी लेखों से शायद 25) माहवार हो जाती हो, मगर इतनी भी नहीं होती। मैं अब ‘हंस’ और ‘माधुरी’ के सिवा कहीं लिखता ही नहीं। कभी-कभी ‘विशाल भारत’ और ‘सरस्वती’ में लिखता हूँ। बस, उर्दू अनुवादों से भी अब तक शायद दो हजार से अधिक न मिला होगा। 800) में रंगभूमि और प्रेमाश्रम दोनों का अनुवाद कर दिया था। कोई छापने वाला ही न मिलता था।

5. हिंदी में गल्प साहित्य अभी अत्यंत प्रारंभिक दशा में है। कहानी लिखने वालों में सुदर्शन, कौशिक, जैनेंद्र कुमार, उग्र, प्रसाद, राजेश्वरी यही नजर आते हैं। मुझे जैनेंद्र और उग्र में मौलिकता और बाहुल्य के चिह्न मिलते हैं। प्रसाद जी की कहानियाँ भावात्मक होती हैं, realistic नहीं। राजेश्वरी अच्छा लिखते हैं मगर बहुत कम। सुदर्शन जी की रचनाएँ सुंदर होती हैं पर गहराई नहीं होती और कौशिकजी अकसर बात बेजरूरत बढ़ा देते हैं। किसी ने अभी तक समाज के किसी विशेष अंग का विशेष रुप से अध्ययन नहीं किया। उग्र ने किया मगर बहक गए। मैंने कृषक समाज को लिया। मगर अभी कितने हैं ऐसे समाज पड़े हैं जिनपर रोशनी की जरूरत है। साधुओं के समाज को किसी ने स्पर्श तक नहीं किया। बात यह है कि अभी तक साहित्य को हम व्यवसाय के रूप में नहीं ग्रहण कर सकते। मेरा जीवन तो आर्थिक दृष्टि से असफल है और रहेगा। ‘हंस’ निकाल कर मैंने किताबों की बचत का भी वारा-न्यारा कर दिया। यों शायद इस साल चार-पाँच सौ मिल जाते पर अब आशा नहीं।

6. मेरी रचनाओं का अनुवाद मराठी, गुजराती, उर्दू, तमिल भाषाओं में हुआ है। सबका नहीं। सबसे ज्यादा उर्दू में, उसके बाद मराठी में। तमिल और तेलगु के कई सज्जनों ने मुझसे आज्ञा माँगी जो मैंने दे दी। अनुवाद हुआ या नहीं मैं नहीं कह सकता। जापानी में तीन-चार कहानियों का अनुवाद हुआ है जिसके महाशय सावग्वस ने मुझे अभी कई दिन हुए 50) भेजे हैं, मैं उनका आभारी हूँ। दो तीन कहानियों का अँग्रेजी में अनुवाद हुआ है। बस।

7. मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं हैं, इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की मुझे लालसा नहीं रही। खाने भर को मिल ही जात है। मोटर और बँगले का मुझे हविश नहीं। हाँ यह जरूर चाहता हूँ कि दो चार ऊँची कोटि की पुस्तकें लिखूँ, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य ही है। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूँ कि वे ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी संतान से मुझे घृणा है। मैं शांति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े मयस्सर होते रहें।

बस, आपके प्रश्नों का जवाब हो गया। मेरे जन्म आदि का ब्यौरा आपके ही पत्र में छप चुका है। अब आप अपना वचन पूरा कीजिए और ‘हंस’ के लिए कुछ लिख भेजिए। वैसा ही स्केच हो जैसा पं. सुंदर लाल जी का था तो क्या कहना।

शेष कुशल है। आशा है आप भी सकुशल होंगे।

भवदीय
–धनपतराय


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