पुराकथाओं का सच

पुराकथाओं का सच

पुराकथाएँ काल्पनिकता के अद्भुत कायावरण में ‘सत्य’ को छिपाए रहती है। आमतौर पर लोग कथा के चमत्कार में बरसों उसकी आवृत्ति करते रहते हैं। कई बार मिथक कथाएँ पौराणिकों के हाथों में पड़कर अजब-सी रूढ़ियों में घिर जाती हैं और उनका मूल अर्थ या व्यंजना का पता ही नहीं चलता। परंतु जब-जब भी उनका उत्खनन होता है तब हम जिस सत्य का साक्षात्कार करते हैं वह उन प्रतिभाओं की उद्भावना से हमें चमत्कृत और अभिभूत कर लेता है। पुराकथाओं का सत्य सतह पर नहीं रहता, इसलिए जब उसका उत्खनन किया जाता है तब खोजी प्रतिभा के स्तर और सोच के अनुरूप उसके आयाम प्रकट होते हैं।

उदाहरण के लिए मैं महाभारत की सत्यवान-सावित्री की कथा लेता हूँ जिसकी आधुनिक भारतीय भाषाओं में जन्मकाल से कथा, कहानी, नाटक आदि रूपों में सर्वाधिक रचनाएं हुई हैं। आदर्शवादी युग में स्त्री के सतीत्व का मानदंड समझी गई और अनेक प्रकार के व्रत-उपवास के माध्यम से पीढ़ियों को विरासत में दी गई। यहां तक कि वह प्रतीक उपमान, सूक्ति आदि की तरह भाषा में गुंथ कर दैनंदिन जीवन का अंग बन गई। फिर ऐसा समय आया जब वह स्त्री के साहस, संकल्प और मृत्यु पर विजय का प्रतीक हो गई। अर्थात समय और सोच के विकास के साथ आंशिक रूप से तर्क और विश्लेषण जुड़ते गए। फिर यह कथा बासी, परंपरावादी, रूढ़ बन गई और नई दृष्टि से उसका अन्वेषण बंद हो गया और रचना के संसार में वह दुर्लभ हो गई। इस प्रकार की पुनर्रचनाओं में कथा और उसकी अभिव्यक्ति से न तर्क किया गया न टक्कर ली गई। केवल उसके समर्थन और विरोध को पुष्ट करने के लिए बुद्धि का इस्तेमाल किया गया जैसा पौराणिक कथाओं के विषय में औसत लेखक का कथित आधुनिक तरीका होता है, जबकि प्रतिभाशाली नए लेखकों ने इस कथा का रूढ़िवादियों के लिए त्याग-सा कर दिया।

परंतु आधुनिक समय में एक विलक्षण सर्जक दार्शनिक हुए श्रीअरविंद। इन्होंने ‘सावित्री’ महाकाव्य अँग्रेजी में लिखा। उसमें सावित्री में निहित ‘सत्य’ का अपूर्व अन्वेषण किया गया। संसार के श्रेष्ठ महाकाव्यों में ‘सावित्री’ को जगह मिली। इसमें कवि ने योग के विभिन्न स्तरों अर्थात–चक्रों द्वारा ‘सावित्री’ के निरंतर उच्च-उच्चतर और उच्चतम स्तर पर पहुँचने की एक अद्भुत साधना का आख्यान लिखा। देह की नितांत लौकिक अनुभूति, प्रेमियों के मिलन की शारीरिक उत्कटता से चलकर की गई योग की यह यात्रा मृत्यु पर विजय के ‘सत्य’ में पाई गई। इस सत्य को श्रीअरविंद ने उस द्वंद्वात्मक चेतना से पाया जो शोधोन्मुखी है, साधना के संघर्ष से दीप्त है और प्राप्ति के आनंद से भरपूर है। लौकिक तर्क भले इस आध्यात्मिक निकष पर संदेह करे, प्रश्न उठता है कि एक शव को अरक्षित छोड़ कर एक स्त्री कैसे उस यम का पीछा करने निकल पड़ती है जो उसके पति के प्राण को मुट्ठी में लिए चला जा रहा है! स्पष्ट है कि वह कोई सड़क-मार्ग से तो गया नहीं था, जाने कितने पहाड़, समुद्र, जंगलों को पार कर आकाश-मार्ग से गया होगा, अनेक ऋतु-देश उसने लांघे होंगे तो सावित्री का यह पीछा कोई साधारण तो नहीं था, उसमें अंतःशक्ति, तपस्या और साहस का कितना अटूट बल होगा। हजारों वर्षों बाद एक आधुनिक मनीषी कवि ने उस सत्य को पहचाना और सावित्री को परंपरा और रूढ़ियों से निकाल कर साधना और योग का पर्याय बना दिया।

‘महाभारत’ के अंत में ‘सावित्री’ शब्द का प्रयोग धर्म के जिस उच्च और भव्य रूप में किया गया है, उसे अपने ग्रंथ का शीर्षक बनाते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल ने ‘भारत सावित्री’ ग्रंथ रचते हुए ‘इमां भारत सावित्री’ को उद्धृत किया, उससे सावित्री के एक ऐसे लोक-निरपेक्ष धर्म-रूप का उद्घाटन हुआ जिसमें सावित्री ‘पुराकथा’ के रूप में नहीं, एक ‘सत्य’ के रूप में प्रकट हुई है।

इस भारत-प्रसिद्ध पुराकथा को मैंने चुना तो इसलिए कि उसके भीतर सत्य के कितने आयाम हैं ? उसमें कितनी दूर तक यात्रा करने की शक्ति है, उसके उत्खनन से किस तरह हम अपने अतीत को आज से जोड़ते हैं और उनका हमारे जीवन में कितना कालजयी मूल्य होता है। देखने योग्य है कि यह ‘सत्य’ सत्य के अनेकानेक पड़ावों को पार कर हमारी चेतना और संवेदना में अंततः किस भूमिका पर पहुंच सकता है। यह एक दिशा की पराकाष्ठा हो सकती है, परंतु मैं यह नहीं कहता कि यहां इस मिथक के ‘सत्य’ की ‘इति’ हो गई है। इससे यह भी प्रकट होता है कि मिथकों या पुरा कथाओं का सत्य कितने गहरे तलों में छिपा रहता है और हमें कैसी-कैसी चुनौतियाँ देता रहता है। उसे सहज में टाल देने वाला हमारा वर्तमान बुद्धिजीवी जरा उससे जूझे तो, लेखक उससे सीखें तो कि रचना कैसे की जाती है और कैसे सरलता में गहनता का एक पूरा संसार निहित होता है। जब हम कई पुराकथाओं को आज के वैज्ञानिक-इलेक्ट्रोनिक युग में, सत्य होते देखते हैं तब हमें लगता है कि रचनाकार की कैसी पारदृष्टि थी कि वह युगों के परे देख सका।

पुराकथाएँ पाठक-केंद्रित होती हैं, उनका उद्देश्य होता है कि जीवन के गहरे तत्त्व सरल कथाओं के माध्यम से न सिर्फ व्यापक पाठक-समाज तक पहुंचे, बल्कि अधिक रोचक, कई बार विस्मित करने वाले, अद्भुत ढंग से पहुंचे। मुझे लगता है कि मिथक अभिव्यक्ति की एक शैली रहे हैं न कि प्राचीन लेखक द्वारा कपोल कल्पनाओं को संक्रमित करने या यथार्थ से उन्हें परे ले जाने का बहाना। वे जीवन के यथार्थ या सत्य की ओर आकर्षित करने के माध्यम रहे हैं क्योंकि रूखे उपदेश, सिद्धांत आदि से लोग सदा ऊबते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पुराकथाएँ सिर्फ पुराणों या संभ्रांत समाजों में ही सत्य को अभिव्यक्ति करने की शैली है। ये आदिम समाजों में भी प्रचलित है। पिछले दिनों मैंने एक नाटक देखा था ‘अमरबीज’। वह भीलों की एक लोककथा पर आधारित था। मुझे आज इस पूरे ‘ज्ञानी’ समाज के लिए वह प्रासंगिक लगती है कि ‘सत्य’ को इतने मार्मिक और अनोखे ढंग से व्यक्त करती है कि अच्छी-अच्छी कलात्मक कथाएं उसके आगे नहीं टिकतीं।

आज हम प्रकृति के कैसे विपर्यय से गुजर रहे हैं। ऋतुचक्र सिर्फ बदला ही नहीं, विकृत हो गया है, सुनामी, फैलिनो जैसे तूफान, बर्फ के तूफान, हवा के तूफान, पहाड़ों पर जंगलों में लगने वाली भीषण आग, बार-बार भूकंप, भूस्खलन जिसमें पूरी बस्ती दब रही है, कश्मीर और उत्तराखंड जैसे जल प्रलय-धरती का कोई न कोई भाग हमेशा संकट से गुजरता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ होने वाला है। परंतु यह प्रकृति का नियम नहीं है मनुष्य की हरकतें हैं। जैसे गांधी कहते थे कि अंग्रेज शासक स्वयं नहीं आए हमने उन्हें बुलाया, वे तो व्यापार करने आए थे, हमने उन्हें लाट साहब बना दिया–और कहा ‘हम पर राज करो’। वैसे ही पृथ्वी को क्रुद्ध हम स्वयं कर रहे हैं, हम भूतापीकरण के लिए उत्तरदायी हैं। प्रकृति तो प्रांरभ से हमारा पालन करती रही है, हमें देती ही रही है, पर हम प्रकृति की हत्या कर उससे पाना चाहते हैं, जैसे एक कहानी में सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी की हत्या करके किसी मूर्ख ने एक साथ सारे अंडे पा लेने की कोशिश की थी। प्रकृति के विपर्यय के लिए आदिवासी, जंगली, भीलों की लोक कथा से बेहतर व्यंजक तथा कोई शहरी लेखक नहीं लिख सकता। एक व्यक्ति कुल्हाड़ी लेकर जंगल में गया। उसने एक विशाल वृक्ष पर कुल्हाड़ी की एक चोट मारी। पहली कुल्हाड़ी पर वृक्ष ने निर्मल मीठा जल दिया, दूसरी चोट पर उसने अमृत की धारा बहाई, परंतु हिंसक मनुष्य ने जब कुल्हाड़ी का तीसरा वार किया तो वृक्ष से रक्त की ऐसी धारा प्रवाहित हुई कि उसने प्रलय का रूप ले लिया। मनुष्य ने आज प्रकृति पर तीसरी कुल्हाड़ी चला दी है, ऐसे में प्रकृति के प्रलय से हमें कोई नहीं बचाएगा। जंगल काटने के कुपरिणाम का जंगलवासी ही वर्णन कर सकते थे और ऐसी भयानक सांकेतिक व्यंजना भी वे ही कर सकते थे जिसमें पूरी सृष्टि का ध्वंस हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है।

मिथक का ऐसा दोहरा (लोक और अभिजात) खजाना हमारे पास है जिनसे हम ‘सत्य’ क्या ‘सत्य’ का मर्म प्राप्त कर सकते हैं। श्रीमद्भागवत को किसी संदर्भ के लिए पलटते हुए मुझे एक छोटी-सी कहानी मिल गई थी कि एक सम्राट के घर उसकी इच्छा के विरूद्ध कन्या का जन्म हो गया। वह बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने गुरु से प्रार्थना की कि इस कन्या को बालक बनवा दें। गुरु ने श्रीहरि की प्रार्थना की और उनके वरदान से वह लड़का हो गई। जवान होने पर वह एक ऐसे जंगल में पहुंच गया जहाँ जाकर पुरुष, स्त्री हो जाता है। वहाँ जाने पर वह स़्त्री हो गया। फिर बाद में गुरु के आशीर्वाद से पुरुष हो गया, पर वह एक महीने पुरुष और एक महीने स्त्री रहता था। इस कथा को पढ़ते ही मेरे मन में एक बिजली कौंधी, और मैंने आलोचना-कर्म छोड़ कर एक नाटक ‘इला’ लिखना शुरू कर दिया। आठ माह तक रात-दिन इस रचना में डूबते-उतराते मेरे सामने कथा का ऐसा रूपायन, ऐसी-ऐसी तहें, ऐसे-ऐसे सत्य सामने आए कि मैं स्वयं अचंभित हो गया और फिर नाटक ‘इला’ प्रकाशित हुआ तो आलोचकों और नाटक के दर्शकों ने उसे श्रेष्ठ आधुनिक रचना माना। क्योंकि तब मेडिकल साइंस स्वयं ऐसे चमत्कार या ऑपरेशन कर रहा था। परंतु मेरे सामने तो इस कथा ने अनेक सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, दार्शनिक और क्रांतिकारी ‘सत्य’ उपस्थित किए कि मुझे लगा कि एक मिथक की कितने परतें होती हैं, उसका सत्य कितना पहलदार होता है। इस कहानी का मैं ही कोई पहला पाठक नहीं था, हजारों वर्षों से भागवत पढ़ी जा रही है, यह कहानी भी, परंतु वह पाठक को केवल चमत्कृत करती रही है, कुतूहल पैदा करती रही है और ‘ईश्वर की लीला’ कहकर उसमें मगन होते रहे हैं।

आशय यह कि मिथक का सत्य अन्वेषण या उत्खनन का विषय है। वह सतह पर नहीं रखा रहता, और जो कुछ सतह पर रखा रहता है वह आम पाठक को लुभाने के लिए होता है। इस लुभावनेपन के कारण वह कथा में दिलचस्पी लेता है और इसी कारण वह उससे जुड़ता और उसमें उतरने की कोशिश करता है। मिथक की रचना श्रेष्ठ सर्जक और कल्पनाशील मानस ही कर पाता है, ऐसी कल्पकथाएं जीवन के रहस्यों को उद्घाटित करती हैं। यही तो मानवजीवन का अंतर्सत्य है-सत्य के भीतर छिपा ‘सत्य’ है, वास्तविक सत्य है। जैसे धर्म के भीतर छिपा धर्म ही वास्तविक धर्म होता है।

महाभारत में एक विचित्र मिथक है, जो एक घटना-प्रसंग में सप्रयोजन, डाला गया है। ऐसे मिथकों पर कोई ध्यान नहीं देता क्योंकि उसके साथ किसी लंबी कथा का तानाबाना नहीं होता। पर कई बार जिस चीज को हम लांघकर चले जाते हैं उसमें एक बड़ा ‘मर्म’ या ‘सत्य’ छिपा रहता है। महाभारत युद्ध का अंत हो गया है। युद्ध का सूत्रधार दुर्योधन भी अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है, पर प्रतिशोध की आग ठंडी नहीं हुई है। इसी समय बचे हुए तीन महारथियों के साथ अश्वत्थामा आता है। दुर्योधन अपने रक्त से उसका तिलक कर उसे सेनापति बनाता है जो बड़ा हास्यास्पद लगता है परंतु मूल कथा आगे है-अश्वत्थामा घोर कुंठा से भरा है क्योंकि जो दुर्योधन की सेना में अग्रणी, विश्वसनीय, अतिरथी था उसे दुर्योधन ने कभी सेनापति नहीं बनाया। वह सेनापति होकर न जाने किन-किन से प्रतिशोध लेना चाहता है। उसके मन में पांडवों के प्रति भी पिता की हत्या के कारण तीव्र प्रतिशोध है, दूसरी ओर वह घायल दुर्योधन के सम्मुख आत्म-प्रदर्शन भी करना चाहता है ताकि वह समझे कि उसने एक अतिरथी के साथ अन्याय किया, वह स्वयं उसके लिए कितना हानिकारक था! अपने तीन महारथियों के साथ वह पांडवों के शिविर की ओर चल पड़ता है। रास्ते में रात हो जाती है। तीनों महारथी थके हुए हैं, अश्वत्थामा भी। वे रास्ते में एक पेड़ के नीचे सो जाते हैं। अब व्यास का ‘सत्य’ प्रारंभ होता है –

तीनों सैनिक खर्राटे ले रहे हैं, पर प्रतिशोध और कुंठा की ज्वाला से दग्ध अश्वत्थामा को नींद नहीं आ रही है। तभी उसे पक्षियों का आर्तनाद सुनाई पड़ता है। वह ध्यान से देखता है। एक उल्लू कव्वों के घोसले पर हमला कर देता है। नींद में सोए छोटे-छोटे बच्चे जाग कर ‘चींची’ कर रहे हैं। हड़बड़ी है परंतु उल्लू उनमें से किसी की गर्दन, किसी की देह पकड़-पकड़कर उन्हें मारकाट कर खा रहा है। कुछ पलों में उसने पूरे घोंसले और उसके संसार को तहस-नहस कर दिया। जीवन के चिह्न मिटा दिए। अश्वत्थामा ने उत्तेजित होकर सोए-पड़े अपने सैनिकों को जगाया और कहा कि अभी आक्रमण करना है। वे परेशान हो उठे और सुबह तक रुकने का आग्रह किया। पर अश्वत्थामा अपने अस्त्र-शस्त्र उठाकर खड़ा हो गया। सैनिकों को उसके पीछे बेमन से चलना पड़ा। मार्ग के बीचोंबीच अर्द्धरात्रि में घटी उल्लू की यह कथा प्रतीकों से तो भरी ही है, परंतु इसका सत्य-उस ‘प्रेरणा’ में है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान कर्म और व्यवहार का केंद्र मानता है। इस घटना के बाद अश्वत्थामा जो वीभत्स, नृशंस कर्म करता है, वह महाभारत में हुई समस्त क्रूरताओं की समष्टि-एक तरह से एक और ‘महाभारत’। कुंठा और प्रतिशोध से भरे, अर्थात् स्वयं अंधकार रूप अश्वत्थामा, रात के अंधेरे में एक ‘उल्लू’ की नृशंसता से ही ऐसे गुरिल्ला आक्रमण की प्रेरणा ले सकता था। जिस अश्वत्थामा ने महाभारत युद्ध में सब कुछ सहते हुए भी न्याय-युद्ध किया था, वह आधी रात में उल्लू से ‘प्रेरणा’ लेकर क्या कर डालता है?

आज विश्वभर के नौजवान जो भांति-भांति के कामों में यहाँ तक कि उच्च शिक्षा में व्यस्त हैं किस ‘प्रेरणा’ से आई.एस.आई.एस में भर्ती हो रहे हैं ? वे अपने आप कहीं नहीं जा रहे हैं, कोई प्रेरणा है (जिसे लोग बहकाना भी कह सकते हैं) उन्हें ले जा रही है। उनके भीतर सोई पड़ी हिंस्रता और बैर को कोई जगा रहा है। उन्हें स्वयं के और मानवता के ध्वंस, अत्याचार और विकृति में झोंक रहा है। यह ‘प्रेरणा’ इन वृत्तियों को ‘रात’ के अंधेरे में किसी ‘उल्लू’ से ही मिली होगी।

…आप सोचते चले जाइए। यह अधबीच में आई छोटी सी मिथक-कथा हमारे सामने कितने ही अनुद्घाटित ‘सत्य’ उद्घाटित करती है। इस तरह देखा जाए तो मिथक में निहित ‘सच’, बिदु में सिंधु की तरह, ‘सच’ के इतने रूप, इतनी परतें खोलने की सामर्थ्य रखता है जो पीढ़ियों को किसी नए, अदृश्य संसार के दर्शन करा सकती है। आशय यह कि मिथक का सच बहुआयामी होता है, कालजयी होता है। वह पदार्थ में नहीं, दृष्टि में है, पारदर्शी उद्भावना में है।


Original Image Bowman musician and dervish from the Kevorkian album 19th century
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork