शंकर शेष के नाटकों में परंपरा और आधुनिकता

शंकर शेष के नाटकों में परंपरा और आधुनिकता

आधुनिक हिंदी नाटक साहित्य के विकास में डॉ. शंकर शेष का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जायेगा। वे वर्तमान युग के प्रतिभा संपन्न नाटककारों में हैं। स्वतंत्रता के बाद के छठे, सातवें, आठवें दशक के नाट्य विकास की प्रक्रिया में डॉ. शंकरशेष साक्षी रहे हैं और हिंदी नाटक साहित्य में भारतेंदु हरिचंद्र, जशंकार प्रसाद, लक्ष्मीनारायण मिश्र, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि की कड़ी में डॉ. शंकरशेष का विशिष्ट स्थान है। सन् 1955 से लेकर सन् 1981 तक डॉ. शंकर शेष ने हिंदी में बाईस नाटक लिखे। और अपने नाटकीय कृतित्व में जीवन की यथार्थता को विभिन्न कोनों में उभारने का प्रयास किया। वे रंगमंच के लिए नाटक लिखते थे। एक दो नाटकों के अपवाद को यदि छोड़ दिया जाय तो शेष के सभी नाटकों के मंचन हो चुके हैं। नाटकों के कालक्रम आदि के संदर्भ में डॉ. शेष ने कोई स्पष्ट निर्देश भले ही न दिये हों लेकिन उनकी पत्नी स्थान-स्थान पर होने वाले उनके नाटकों के निर्देशक अन्तःसाक्ष्य हैं।

डॉ. शंकर शेष के नाटकों में ‘नई सभ्यता के नये नमूने’ (1956), ‘रत्नगर्भा (1956), ‘तिल का ताड़’ (1958), ‘बिन बाती के दीप’ (1971), ‘बंधन अपने-अपने’ (1969), ‘खजुराहो का शिल्पी’ (1970), ‘फंदी’ (1971), ‘एक और द्रोणाचार्य’ (1974), ‘कालजयी’ (1973), ‘घरौंदा’ (1975), ‘अरे मायावी सरोवर’ (1974), ‘रक्तबीज’ (1976), ‘पोस्टर’ (1977), ‘राक्षस’ (1977), ‘कोमल गांधार’ (1979), ‘आधी रात के बाद’ (1981) आदि प्रमुख हैं। यहाँ हम एक-एक करके उनके नाटकों पर विचार करेंगे।

डॉ. शंकर शेष के ‘मिथक’ का प्रयोग कर लिखी हुई प्रथम नाट्य ‘नयी सभ्यता के नये नमूने’ है। मिथक के प्रयोग से नाटककार ने कथावस्तु में जान भर दी है। इसकी विषयवस्तु समकालीन है। मिथकीय पात्रों के क्रिया-कलापों से वह कालजयी सिद्ध हुई है। शेष ने इस नाटक में कृष्ण, ऊधो जैसे पात्रों को सृजित किया। इन पात्रों के चरित्र पक्ष को लेकर मिथ चलता है। पौराणिक मिथ के अनुसार कृष्ण पापी, अन्यायी तत्वों का संहारक है। कृष्ण के इस मिथ का प्रयोग कर नाटक में उसे गलत ढंग से धन कमाने वाले तत्वों का विरोधी सिद्ध किया है। सज्जनता का स्वाँग रचे हुए समाजद्रोहियों का वह पर्दाफाश करता है। उनके सत्य स्वरूप का उद्घाटन कर वह उनकी पोल खोल देता है। इस नाटक के जरिए डॉ. शेष ने यहाँ दिखाया है कि दुराचारी समाजद्रोहियों की हर चाल किसी न किसी षड्यंत्र को लिए चलती रहती है। नाटककार ने उनकी इस वृत्ति का स्पष्ट चित्रण कर नाटक को यथार्थवादी बना दिया है।

नाटककार के रूप में डॉ. शंकर शेष को राष्ट्रीय मंच पर लाने का कार्य ‘खजुराहो का शिल्पी’ ने किया। इसमें उन्होंने एक विशेष भावभूमि को प्रस्तुत किया है। संसार में होने वाले माया और मोक्ष के संघर्ष के चित्रण की परंपरा हिंदी साहित्य में आदिकाल से प्रतिबिंबित है। आधुनिक युग में आकर भी यह संघर्ष उतना ही सजीव रहा है, जितना वह प्राचीन काल में था। हम लाख कोशिश करें, परंतु काम भावना निरंतर एक गतिशील भाव बन कर स्थायी रही है। संसार की धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जैसी प्रवृत्तियों में हमें निरंतर यही दिखाई देता है कि मोक्ष के पूर्व काम का क्रम है। मनुष्य की सकाम और निष्काम प्रवृत्तियाँ प्राचीन काल से ही देखी जा सकती हैं। ‘खजुराहो का शिल्पी’ इस दर्शन संघर्ष को लेकर उपस्थित होता है। डॉ. शेष ने इस नाटक का नाम खजुराहो के मंदिर के नाम पर रखा है जो कि स्थापत्य कला का मानकबिंदु है। यह मंदिर अपने स्थापत्य के जरिए जीवन में होने वाले मोक्ष के आनंद का रहस्य बनाता है। मंदिर का बाहरी हिस्सा मिथुन मुद्राओं से अंकित है। मध्यम भाग में दीवारों पर पुराण-कथाओं के जरिए विभिन्न अवतारों को गढ़ा गया है। मंदिर के गृहगर्भ में ब्रह्म की स्थापना की गई है। मंदिर की यह त्रिमितीय रचना, संसार के तीन वर्ग में बँंटे लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। संसार में लोगों का एक वर्ग ऐसा है जो मिथुन मूर्तियों की तरह वासना में डूब गया है। उनकी आँखों में निरंतर तृष्णा के इंद्रधनुषी रंग नाचते रहते हैं। वे लोग इस संसार में मांसल सौंदर्य के ही उपासक है। मंदिर का बाहरी हिस्सा मानव की इस वृत्ति का प्रतीक है। संसार का दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का है, जो वासना चाहता है पर उसमें बह जाना उन्हें पसंद नहीं होता। वह विवेक से काम लेता है। यह वर्ग निरंतर काम से मोक्ष की ओर अथवा यों कहिए कि सांसारिकता से मोक्ष की ओर अग्रसर होना चाहता है। पुराण कथाओं से गढ़ाया गया मध्य भाग इसका संकेत है। तीसरे वर्ग के लोग संसार में होकर भी उससे पूर्णतः अलग रहते हैं। आध्यात्म उनके जीवन का सर्वस्व है। मंदिर का गृहगर्भ ऐसे लोगों का परिचायक है। मंदिर के स्थापत्य के इस दार्शनिक पृष्ठभूमि को डॉ. शंकर शेष ने अपने नाटक ‘खजुराहो का शिल्पी’ के माध्यम से स्पष्ट किया है।

‘खजुराहो का शिल्पी’ की कथावस्तु एक अर्थ में खजुराहो के मंदिर निर्माण की कथा है। चंद्रात्रेय वंश का राजा यशोवर्मन मध्यदेश के खर्जुवाह का अधिपति है। स्वप्न में इस वंश की अधिष्ठात्री हेमवती के दर्शन होते हैं, वह अपनी करुण कथा सुनाकर मोह के क्षण पर विजय पाने के लिए कुछ करने की सलाह देती है। ब्राह्मण कन्या हेमवती चौदह वर्ष में विधवा हुई और एक दिन वह मोह के क्षण में गिर कर वैधव्य का कठोर व्रत भूल बैठती है। हेमवती की इच्छा पूर्ति के हेतु वह मोह के क्षण को जीतने की प्रेरणा देने वाले मंदिर का निर्माण करने का निश्चय करता है। राजा अपने राजकवि माधव को कुशल शिल्पी खोजने के लिए कहता है जिसने ‘मोह के क्षण’ की अनुभूति कर ली हो। खोज अभियान में कवि माधव को मेघराज आनंद नामक शिल्पी मिल जाता है। राजा यशोवर्मन उसकी कला और जीवन दृष्टि से प्रभावित होता है और मंदिर निर्माण की आज्ञा देता है। शिल्पी को प्रतिदर्श (मॉडल) के रूप में अपनी पालिता कन्या अलका को देते हुए तनिक भी विचलित नहीं होता। अपने इस मंदिर में शिल्पी सांकेतिक रूप से संसार से मोक्ष तक मनुष्य मन की यात्रा का रूपक रचता है। मंदिर के निर्माण काल में प्रतिदर्श अलका शिल्पी पर रीझ जाती है। परंतु ‘मोह का क्षण’ से परिचित एवं उसमें झुलसा हुआ शिल्पी, दुबारा उसमें फँसने के लिए तैयार नहीं होता है। अपनी कला के जरिए संसार को वह जो संदेश देना चाहता है, वही उसका जीवन आदर्श भी है। अतः वह अलका की प्रार्थना को अस्वीकार कर तथा कवि माधव को अलका के साथ होने वाले उसके आंतरिक प्रेम संबंधों से अवगत कराकर अपने मार्गों पर उल्टे पाँव लौट जाता है।

हम कह सकते हैं कि ‘खजुराहो का शिल्पी’ ऐतिहासिक कथावस्तु वहन करने वाला एक ऐसा संघर्षशील नाटक है जो कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिए हमें ऐसे जीवनादर्श की ओर ले जाता है जहाँ आदमी आदमी नहीं रहता, पर्याप्त आध्यात्मिक योगी बन जाता है। नाटक का अंत जिस आध्यात्म की सीख देता है, उसे देखते हुए इसे आदर्शवादी कृति कहना ही उचित होगा। संपूर्ण नाटक मनुष्य के पतन और उसके उदात्तीकरण की दार्शनिक व्याख्या है। पर दर्शन कहीं भी इतना बोझिल नहीं बना है कि पाठक या दर्शक ऊब जाये। इस नाटक में जो समस्या है वह परंपरा से चली आ रही है और आधुनिकता के परिवेश में यह समस्या अत्यधिक बढ़ गयी है। इस नाटक के मार्गदर्शन से हम काम भाव से मुक्त होकर मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ सकते हैं।

डॉ. शंकर शेष ने ‘फंदी’ नाटक में फंदी अपने पिता की सेवा असाधारण तरीके से करके इस नाटक को भी असाधारण बना देता है। फंदी एक ट्रक ड्राइवर था पर अपनी ईमानदारी के कारण ड्राइवर की नौकरी भी गँवा देता है। इन्हीं दिनों उसके पिता को कैंसर की बीमारी से जूझना पड़ता है। फंदी अपनी औरत के गहने बेच देता है, जब इससे भी नहीं होता तो घर के बर्तन बेच देता है। इधर उसके बच्चे दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाते हैं। फंदी के पिता इंजेक्शन या मौत माँगते हैं, तभी फंदी का हाथ पिता की गर्दन पर चला जाता है और पिता जी हँसते हुए प्राण त्याग देते हैं। वकील भगतराम फंदी का केस लड़ते हैं, फंदी बंदी हो चुका है एवं एक वार्डन ने नाटक में अहम भूमिका निभायी है। नाटक के कथ्य में नाटककार ने अपने जीवन के समूचे दर्शन को ढाल दिया है। कानून और करुणा के संघर्षों में करुणा को अधिक महत्त्व को सिद्ध कर उन्होंने मानवतावाद को बढ़ावा दिया। आजकल कानून को पत्थर की लकीर मानकर चलने वाली हमारी शासन और समाज व्यवस्था को इस नाटक का कथ्य चुनौती देता है। अदालत में हत्या के संदर्भ में इरादा महत्त्वपूर्ण रहता है। पर मानव की मजबूरी देखना भी महत्त्वपूर्ण होता है। बाप के इलाज के लिए कंगाल होने वाला फंदी अंत में गला क्यों घोट देता है? नाटककार के इस प्रश्न ने एक गंभीर विवाद खड़ा किया है। एड़ी रगड़ते कुत्ते की गोली दागकर हत्या करना जब करुणाजनित कृत्य है तो कैंसर पीड़ित आदमी की हत्या अपराध कैसे हो सकती है? इस दुनिया में हर पीड़ित आदमी को उसकी माँग पर मृत्यु देना बदलते युग संदर्भों में आवश्यक होता है, जिसकी ओर नाटक का कथ्य इशारा करता है। हम कह सकते हैं कि एक कैंसर पीड़ित पिता की हर प्रकार से फंदी ने सेवा की है।

‘एक और द्रोणाचार्य’ शिक्षा के संदर्भ में नाटककार के प्रौढ़ चिंतन को स्वर देने वाली नाटयकृति है। यह नाटक डॉ. शेष का बड़ा नाजुक मिथकीय नाटक है, जो दोहरे कथा प्रसंगों को लेकर चलता है। एक में पौराणिक कथा है तो दूसरे में आधुनिक कथा। ‘एक और द्रोणाचार्य’ का पौराणिक आख्यान समानांतर रूप से आधुनिक सुविधायोगी एवं स्वार्थी शिक्षक समुदाय पर घटित होकर आज की सड़ी-गली शिक्षण व्यवस्था और उसको दिलाने वालों का गहरा व्यंग्य करता है। डॉ. शेष अध्यापक के इस पतन से बेहद दुःखी थे। अध्यापक की जिंदगी की इस कारण त्रासदी की जब मीमांसा या चिकित्सा करने लगते हैं तब उन्हें दिखाई देता है कि व्यवस्था के हाथ बिक जाने, स्वत्व खोने, उपकृत होने की प्रवृत्ति कोई आज की बात नहीं है। इस परंपरा का स्रोत उन्हें महाभारत काल में मिलता है। महाभारत की कथा में द्रोणाचार्य गुरु परंपरा के प्रतिनिधि हैं। द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा आम आदमी की तरह सुविधा और सुरक्षा के प्रेमी हैं। वे द्रोणाचार्य को अपनी इच्छापूर्ति हेतु कौरवों की सेवा में रहने के लिए बाध्य बनाते हैं। गृहस्थ द्रोणाचार्य कोई चारा न पाकर इसे स्वीकार करते हैं। सुविधा आदमी को अपाहिज बना देती है। द्रोणाचार्य के साथ यही हो जाता है। वह अपने स्वत्व को खो कर व्यवस्था की कठपुतली बनता है। उपकार पाकर कर्तव्य पालन करते समय उचित, अनुचित का विचार असंगत मानता है। तभी तो वह एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में अँगूठे का दान माँगने में तनिक भी हिचकिचाहट महसूस नहीं करता। न दी हुई दीक्षा की दक्षिणा माँगने का साहस सिर्फ सुरक्षा के प्रलोभन से ही संभव होता है। यही बात द्रौपदी वस्त्राहरण करने वाले कौरवों की निर्दयता, निर्लज्जता का विरोधी द्रोणाचार्य ने खंडित किया। डॉ. शेष द्रोणाचार्य के इस चरित्र से प्रभावित थे। डॉ. शेष ने इसमें आधुनिक नाटकों में आने वाली नई संकल्पना को अपना कर प्राचीन के जरिए आधुनिकता की व्याख्या करने का प्रयास किया है।

प्रस्तुत नाटक में दो कथाएँ हैं। उनमें बिंब-प्रतिबिंब की समानता है। वे परस्पर पूरक हैं। एक में द्रोणाचार्य की कथा है जिसे हमने ऊपर देखा है। दूसरे में द्रोणाचार्य की जीवन वृत्तियों का साम्य रखने वाली अरविंद की कथा है। ये दोनों कथाएँ क्रमशः प्राचीन और आधुनिक का प्रतिनिधित्व करती है। आधुनिक कथा में हम देखते हैं कि अरविंद अपने परिवार वालों के लिए अपना आचार धर्म भूलता है। वह अपनी सुरक्षा के लिए चंदू के न्यायोचित पक्ष का गला घोंट देता है। वह प्रेसीडेंट का उपकृत होने के कारण अनुराधा के चिरहरण को बड़े निष्क्रिय भाव से देखता रहता है। द्रोणचार्य और अरविंद में प्रवृत्ति एवं घटनाओं का साम्य दिखाकर अरविंद को प्रति द्रोणाचार्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। डॉ. शेष दिखाना चाहते हैं कि आधुनिक समाज विधान में व्यवस्था द्वारा खरीदा जाने वाला अरविंद जैसे द्रोणाचार्य हैं। समाज के लिए यह विचारणीय बात है। नाटक के इस कथ्य से डॉ. शेष पाठकों तथा दर्शकों को विचार के लिए बाध्य करते हैं। द्रोणाचार्य की परंपरा को खत्म कर पुनः स्वप्रज्ञ गुरुओं की परंपरा का निर्माण करना आधुनिक समाज की भलाई के लिए आवश्यक है। इस चुनौती के प्रति आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग को जागृत करना नाटक का लक्ष्य है। अपने इस लक्ष्य को नाटककार ने समानांतर दृश्यों के विधान से साकार किया है। इस नाटक से डॉ. शेष ने अध्यापकों के नपुंसकत्व पर प्रहार कर उन्हें श्रेष्ठ आचारधर्मी अध्यापक बनने की सलाह दी है। यह नाटक एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा के माध्यक से वर्तमान शिक्षा संस्थान में व्याप्त असंगतियों और शिक्षक के पंगु आचरण पर प्रहार करता है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि परंपरा से चली आ रही पौराणिक कथाएँ आधुनिक काल में भी देखने को मिलती हैं जिससे दोनों का समन्वय प्रदर्शित होता है।

डॉ. शेष लिखित एक अप्रकाशित नाटक ‘कालजयी’ है। ‘एक और द्रोणाचार्य’ में डॉ. शेष ने पौराणाकि संदर्भ को आधुनिक जनजीवन से जोड़ने की कोशिश की थी। ‘कालजयी’ में वे एक ऐतिहासिक कथा के जरिए राजनीतिक संघर्ष की व्याख्या करते हैं। कालजयी एक ऐसा राजा है जो अन्याय, अत्याचार और दमन से अपना राजकारोबार करता है। वह अपने चिर तारुण्य की साधना में व्यस्त है। कालजयी के निर्मम शासन का न्यायकेतु विजयकेतु विरोध करता है। आरंभिक अवस्था में यह विरोध वैचारिक स्तर पर एवं शांतिमय मार्गों से होता रहता है। परंतु कालजयी की कानों में जूँ नहीं रेंगती। आखिर अन्याय और अत्याचार के जूझने की भी अपनी सीमा होती हैं। प्रजा, राजा के इस दमन और अत्याचार से बाज आती है। राजा के प्रति होने वाली ऊब से न्यायकेतु विजयकेतु का नेतृत्व उभर आता है। वह राजतंत्र खत्म कर प्रजातंत्र की माँग करता है। न्यायकेतु कालजयी की सत्ता का तख्ता पलटने का प्रयास करता है। परंतु दुर्भाग्यवश इस प्रयास में उसकी बुरी तरह से हार होती है। वह कालजयी से प्राणदंड की माँग करता है। परंतु चालाक कालजयी उसे प्राणदंड नहीं देता। कालजयी प्रजा के रोष तथा उसके संगठन से अवगत होने के कारण न्यायकेतु को प्राणदंड देने की मूर्खता नहीं करता। वह किसी भी हालता में सत्ता में संघर्ष निर्माण नहीं करना चाहता था। परंतु विरोध दिनोंदिन बढ़ता ही जाता है। प्रजातंत्र की घोषणा की कोई संभावना न देखकर तथा अशस्त्र विरोध की निष्क्रियता अनुभव कर पूरबी स्वतंत्रता की प्रतिमा के हाथ से तलवार लेकर कालजयी के पेट में भोंक देती है। आधुनिक युग में राजनीतिक जीवन में सत्ता की खुमारी में हर सत्ताधारी अपने आपको कालजयी बनाने की मंशा रखता है। परंतु राजनीतिक आबोहवा की क्षणिकता बड़ी निर्मम होती है। वह सत्ता परिवर्तन चाहती है। ऐतिहासिक कथा सूत्र में पिरोया गया वह नाटक समकालीन संदर्भों से भरा है। कथा ऐतिहासिक होते हुए भी कथा में निहित पात्रों की वृत्ति कालजयी है। उसे हर युग में देखा जा सकता है। इस नाटक में जनता द्वारा परिवर्तन दिखाकर जनशक्ति के महत्त्व को सिद्ध किया है। न्यायकेतु के प्रयासों से बचने वाले कालजयी की मृत्यु पूरबी जैसी स्त्री के हाथों से दिखाकर नाटककार ने समझाया है कि राजनीति में जो तलवार से बचते हैं, उन्हें कभी-कभी फूल से कटना पड़ता है। इस कृति में पात्रों का मनोविश्लेषणात्मक पद्धति से चरित्र चित्रण कर यह दिखाया है कि परंपरा से चली आ रही राजनीतिक स्थिति आधुनिक युग में भी स्पष्टतः देखने को मिलती है।

आधुनिक हिंदी नाटकों में शिल्प के साथ शैली वैचित्र्य का भी निर्माण हुआ है। डॉ. शेष का नाटक ‘अरे मायावी सरोवर’ ऐसी ही लोकनाट्य परंपरा का निर्वाह करने वाला नाटक है। इस नाटक में चेतनानगर एक समृद्ध राज्य है। इल्वलू वहाँ के महाराजा हैं। इल्वलु बड़ा पुरुषार्थी है। राजकारोबार के साथ घर-गृहस्थी का झंझट उसे बेचैन कर देता है। रोजमर्रा की जिंदगी से बचने के लिए तथा परिवर्तन एवं मनःशांति के लिए वह महानदी के तट पर होने वाले शबरीनरायन तीर्थ जाने की योजना बनाता है। उसकी रानी सुजाता पहले तो गृहस्थी की चिंता से इनकार करती है, परंतु बाद में वह राजा के साथ तीर्थयात्रा आरंभ कर देती है। वे दोनों मिलकर शबरीनरायन की यात्रा करते रहते हैं कि रास्ते में विचित्र वन आ जाता है। यह वन ऐसा विचित्र है कि यहाँ का सिंह घास खाता है, गाय मांस भक्षण करती है, जूही से बू आती है, दिन में चाँद होता है। रानी इस विचित्रता से डर कर वापस घर जाने की सोचती है। परंतु राजा उसे मना करता है। उसे विचित्र वन में ऐंद्रजालिक सरोवर होता है। उसमें राजा नहाने की सोचता है। पत्नी के विरोध के बावजूद वह सरोवर में नहाने के लिए कूदता है। ऐंद्रजालिक सरोवर की महिमा से राजा इल्वलु स्त्री रूप धारण करता है। रानी के सामने गंभीर समस्या खड़ी होती है। खुद राजा भी ऐसी अवस्था में चेतना नगर लौटना नहीं चाहता। अतः अकेला वन में रहता है। वन में एक ऋषि पर राजा इल्वलु रीझ जाता है। उससे राजा को (स्त्री) पुत्र, प्राप्ति होती है। इल्वलु का अपनी रानी से हुआ पुत्र अंशुमाली दिग्वजय पर निलकता है, तब ऋषिपुत्र कुमार अंशुमाली के अश्व को पकड़ लाता है। फिर राजा और रानी दोनों का पुनः मिलन होता है। उनमें इस बात पर विवाद होता है कि राजपुत्र को राजगद्दी पर बिठाया जाय या ऋषिपुत्र को। फैसला न होता देखकर इंद्र स्वर्ग से धरती पर आते हैं। राजा को पूर्वरूप देने का आश्वासन देते हैं परंतु उसे पत्नीत्व का पितृत्व से अधिक आकर्षण है। आखिर इंद्र की बात मानकर वह पूर्वरूप धारण करता है।

डॉ. शेष ने इस नाटक के जरिए सरल-सुबोध संवाद से एक ओर हास्य रस सींच दिया है, वहीं दूसरी ओर प्रस्थापित व्यवस्था पर करारा व्यंग्य प्रहार भी किया है। नाटक में होने वाली मायावी सरोवर से नाटककार हमें बताता है कि ‘पुरुष को स्त्री बनाने वाले, सिंह को गाय, हंस को उल्लू बनाने वाले तालाब हमारी जिंदगी में भौतिक रूप से शायद कभी न आएँ, लेकिन अनुभव के धरातल पर हम इनसे बच नहीं सकते। भेड़िए हमें बराबर इन तालाबों में अपनी सुविधा के लिए डुबोते रहेंगे और हमें वही बना देंगे, जो हम नहीं बनाना चाहते।’ यही नाटक का कथ्य है। उद्देश्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति से नाटक का स्वरूप और स्पष्ट होता है। आज कल स्त्री-पुरुषों में एक वृत्तिगत खाई है। जिससे वे एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, ईर्ष्या रखते हैं। इसे देखते हुए लेखक समझाता है कि ‘जीवन क्या अपने आप में सबसे बड़ा सरोवर नहीं है–सबसे आकर्षक सरोवर! बस इसमें कूदते रहिए–पुरुष बनकर निकलिए! तब देखिए दोनों में आपसी समझ कितनी बढ़ती है।’

‘अरे मायावी सरोवर’ नाटक की कथा में पुराण, इतिहास आदि के साथ वर्तमान का भी समन्वय है। इस नाटक में पौराणिक स्पर्श अनिवार्य रूप से झलकता है। नाटक में इंद्र जैसे पात्रों का होना, इंद्रजाल का अस्तित्व आदि से कथा का स्वरूप पौराणिक एवं ऐतिहासिक संदर्भ डाल कर इसे समकालीन दर्शकों के लिए बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है।

डॉ. शंकर शेष ने ‘राक्षस’ नाटक में एक भयानक आकार के राक्षस की परिकल्पना की है। यह राक्षस और कुछ न होकर हमारे विध्वंसक वैज्ञानिक अविष्कार है जिसे विश्व की महासत्ताओं ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। अपनी इस विराटता से उसने विश्वास भरे मानव जीवन को तहस-नहस कर डाला है। डॉ. शेष ने अपने इस कथ्य को बकासूर के मिथ से जोड़ कर आने वाली युवा पीढ़ी को भीम सिद्ध किया है। लोक नाट्य की शैली में लिखा ‘राक्षस’ नाटक हास्य-व्यंग्य से घिरे एक गंभीर जीवन दर्शन को उपस्थित करता है। इस नाटक में विश्वास नगर एक ऐसा गाँव है जिसमें राक्षस ने अपना आतंक फैला दिया है। सारे गाँव को चिंतित देखकर गाँव के मुखिया रणछोड़ दास ने सभा बुलाया। राक्षस से मुकाबला संभव नहीं था क्योंकि वह पहले ही अस्सी गाँवों को निगल चुका था। सभा में लोगों ने सामूहिक आत्महत्या की अपेक्षा किश्तों में मौत स्वीकार की। परंतु एक स्त्री इसका विरोध करती है। स्त्री जो कि अध्यापिका है लड़कों की बलि का विरोध करती है। अध्यापिका लड़कों में संगठन निर्माण करती है और कमल-फूल जो कि शांति का प्रतीक है, से महासत्ताधारी राक्षस का अंत करा देती है।

डॉ. शंकर शेष को गांधारी जैसी पीड़ित पात्र ने बेचेन कर डाला था। गांधारी में होने वाली असाधारण दृढ़ता ने डॉ. शेष को मोह लिय। इस मोह क्षण की ही निर्मिति ‘कोमल गांधार’ नाटक है। इस नाटक में भीष्म ने गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करा दिया। गांधारी को विवाह की घड़ी तक इस बात का पता नहीं रहता कि उसके लिए मनोनित पति अंधा है। जब उसे पता चलता है तब धोखा देनेवाली इस दुनिया से विमुख होकर वह अपनी आँखों को पट्टी से बाँध कर बंद कर देती है। उसके जीवन के सारे सुंदर स्वप्न मुरझा जाते हैं। उसका शरीर बर्फ की नाईं ठंडा पड़ जाता है। धृतराष्ट्र अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए दासी के पास जाते हैं। शकुनी के प्रयासों से गांधारी अनिच्छा से क्यों न हो उसके लिए समर्पित होती है और पुत्रवती बन जाती है। पर तभी पांडु के मर जाने और पुत्र होने का समाचार उसे निराश कर देता है। लगता है गांधारी का कोमल गांधार हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हुआ है। गांधारी और पांडु के पुत्रों का विरोध बढ़ता जाता है। गांधारी दुर्योधन को गाँव इनाम देने को कहती है पर दुर्योधन इनकार कर देता है। परिणामस्वरूप महाभारत में गांधारी के सारे पुत्र मारे जाते हैं। गांधारी और धृतराष्ट्र तपोवन में वानप्रस्थ स्वीकार करते हैं। कुंती और विदुर भी उनकी संगत करते हैं। विदुर की मृत्यु के बाद जंगल की आग में तीनों की मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार एक भारतीय नारी का अत्यंत दुखद अंत होता है।

डॉ. शेष ने इस नाटक में दिखाया है कि पत्नी की उपेक्षा के बाद दासी से शरीर संबंध जोड़ने में वह उचित-अनुचित पर गौर नहीं करता। जीवन के उत्तरार्द्ध में गांधारी की ओर उसका आकर्षण स्वार्थ जनित ही सिद्ध होता है। कर्तव्य की आड़ में पाप करने की हमारी नीति महाभारत काल से देखी जा सकती है। धृतराष्ट्र को समझना चाहिए गांधारी के रूप में होने वाली नारी केवल शारीरिक वस्तु न होकर वह पर्याप्त संवेदनक्षम जीव भी है। नारी पर अत्याचार ढाने की हमारी परंपरा पर प्रहार कर नारी के जीवन के कोमल गांधार छिननेवाली व्यवस्था को नष्ट करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करने वाली यह कृति उद्देश्य के आधार पर आदर्श की ओर इशारा करती है। स्त्री को खाली जमीन मानकर उसे रौंदने की हमारी वृत्ति पर यह कृति घृणा व्यक्त करती है। विवाह जैसे भावनात्मक सवालों का राजनीतिक हल ढूँढ़ने की हमारी वृत्ति का किया गया पर्दाफाश भी मार्मिक है। अंततः ‘कोमल गांधार’ भावनात्मक प्रसंगों से पर्याप्त गंभीर चिंतन का सृजन करनेवाली नाट्यकृति है। ‘कोमल गांधार’ नारी के मन में उठने वाला वह राग है जिसमें प्रातःकाल की तरह सुंदर-सुंदर स्वप्न जाग उठते हैं।

अंततः हम कह सकते हैं कि डॉ. शेष ने जिन महाभारतकालीन स्त्री पुरुषों के बारे में बताया है वह परंपरागत होकर भी आधुनिकता से समन्वित है।


Image: Fugue in Red
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Artist: Paul Klee
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चंदन कुमार द्वारा भी