श्री राजेश्वर प्र. नारायण सिंह की कविता

श्री राजेश्वर प्र. नारायण सिंह की कविता

श्री राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह, एम. पी. हिंदी साहित्य के लब्घप्रतिष्ठ कवि और समर्थ गद्यकार हैं। मानव-हृदय को रागात्मक अनुभूति से रससिक्त कर देना आपकी कविताओं की मूल विशेषता है। आपके द्वारा रचित पाँच काव्य-ग्रंथ हैं–(1) अमृतप्रभा–प्रकाशन-काल 1953 ई.–वीणापाणि प्रकाशन, कलकत्ता–6 (2) अंबपाली–1954 ई. प्रकाशक–वही (3) राधाकृष्ण–1955 ई.–आत्माराम एंड संस, दिल्ली-6 (4) संकलिता–1955 ई. प्रकाशक–वही और (5) अंतर्ध्वनि। राजेश्वर बाबू ने अपने काव्य और गद्य-ग्रंथों में भारतीय इतिहास का सजीव, पर कलात्मक आकलन किया है। उपर्युक्त काव्य-ग्रंथों के अनुशीलन से यह आभासित है कि भारतीय इतिहास के उपेक्षित उज्ज्वल अंशों को शोध-प्रकाश में लाना ही आपके सर्जनात्मक लेखन का मूल प्रेरणा-स्रोत है। मानव-हृदय के स्निग्ध गीतात्मक पक्ष का दिग्दर्शन कराना आपके काव्य का उपजीव्य है। आपके हृदय में बीज रूप से अंकुरित भक्ति-भाव आपकी कवितओं में अनायास उभर पड़ा है। सच तो यह है कि साहित्य-देवता के पाद-पद्मी में समर्पित आपकी कविताएँ हृदयोद्गार के छंद-सुमन हैं। आपके काव्य-साहित्य में इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ, कोमल कल्पना तथा सजीव लेखनी का अनुपम संयोग हुआ है।

राजेश्वर बाबू को सबसे बड़ा श्रेय इसलिए मिलना चाहिए कि आपने राजनीति के प्रपंच में रहकर भी साहित्य-सेवा का दामन कभी नहीं छोड़ा। बड़ी निष्ठा और लगन के साथ आप राष्ट्रभारती की आराधना में दत्तचित्त रहे हैं। अद्यावधि भी आप रोचक गद्य-ग्रंथ के प्रणयन में समय लगाते हैं, परिश्रम करते हैं। आपकी काव्य-शैली अतीव भावप्रवण है, तो गद्य-शैली भी मँजी हुई है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ने आपको आपकी चित्रकला विषयक गद्य-कृति पर एक सहस्र मुद्रा का सम्मान-पुरस्कार प्रदान किया था। आपके व्यक्तित्व के संबंध में ‘राधाकृष्ण’ ग्रंथ के दो शब्द में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि ‘एक उच्च शिक्षित और सम्मानित कुल के सद्गुण उनमें हैं। आभिजात्य के अनुरूप शिष्टता के साथ आस्तिकता की ऐसी घनिष्टता आजकल विरल है। उनकी विश्वासपरायणता की सरलता और भी उदार है।’ कवि राजेश्वर बाबू के हृदय-सागर में जो भी भाव-लहरियाँ उत्थित हुई हैं, उन्हीं की अभिव्यंजना आपकी कविताओं में हुई है। आप अनुभूति को व्यक्त करने में सतत निष्ठावान रहे हैं।

‘अमृतप्रभा’, आपकी लघु काव्य-पुस्तिका है। आज से हजारों वर्ष पूर्व कामरूप आसाम के तत्कालीन हिंदू सम्राट् प्राग्ज्योति की एकमात्र कन्या अमृतप्रभा ने काश्मीर के राजकुमार मेघवाहन का स्वयंवर में वरण किया था, इसी आख्यान का निरूपण ‘अमृतप्रभा’ में हुआ है। कवि ने प्रारंभ में अमृतप्रभा के यौवन रूप का मोहक चित्रांकन किया है। कामरूप के राजभवन में भाव-विमुग्ध हो गानेवाली, वक्षस्थल पर मालमणि की विद्युच्छटा दिखानेवाली, ललितांगी, दीपशिखा-सी जममग अमृतप्रभा का सौंदर्य अवलोकनीय है–

‘वन उपवन के फूल मनोहर, गुँथे हुए बालों में,
मादकता थी नेत्र युगल में, हंस सदृश चालों में,
शरच्चंद्रिका-सी मुस्काहट, बिछी हुई गालों में।’

प्रणय की स्थिति में नारी के हृदय में कितनी बेकली होती है, इसका चित्र द्रष्टव्य है। वैसी अवस्था में उसका ‘अनुभाव’ मादकता से पूर्ण रहता है–

‘शरच्चंद्रिका-सी बिखरी वह फूटी जब तरुणाई,
नव लावण्य-लता पर मानों, विहँस यूथिका छाई।
गूँज उठी उर के कानन में, उसके परिणय-वंशी!’

शिल्प की दृष्टि से ‘अमृतप्रभा’ छोटा-सा खंडकाव्य है। कवि ने हिंदू-संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण आख्यान को रोशनी में लाकर प्रशंस्य कार्य किया है।

‘अंबपाली राजेश्वर बाबू की साधना की महती उपलब्धि है। इसमें कवि ने बौद्ध-कालीन जीवन की सरस झाँकी प्रस्तुत की है। आलोच्य प्रबंधकाव्य की रचना-शैली आद्योपांत गीतात्मक रही है। गीतिकाव्य की सारी विशेषताएँ इस ग्रंथ में मिल जाती हैं। जहाँ कथानक का प्रश्न है, इस ग्रंथ में सुंदरता के अभिशाप के फलस्वरूप विश्व-मोहिनी अंबपाली को नगर-वधू बनने तथा बाद में भगवान् बुद्ध का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर उसका जीवन तपस्विनी के साँचे में ढलने की स्थिति का जीवंत प्रकाशन हुआ है। ‘उर्वशी-सी अति पुलकित-मात्र’ अंबपाली के जीवन का आदर्श वरेण्य है, पर वैशाली के लिच्छवियों के न्याय से उसे परमनोरंजनार्थ नगर-वधू बनना पड़ा। नारी के चरित्र की जो मर्यादा और गरिमा है, उसका अंबपाली ने अवश्य निर्वाह किया। उसे जीवन की सारी समृद्धि मिली, ख्याति प्रचुर मिली, उसके पाँव पर ऋद्धि लुटती, उसने नृत्य में सिद्धि भी पाई। वह अपने रूप-सौंदर्य में सौभाग्यवती थी, और अप्सराओं का मुख म्लान करती। लेकिन दुर्भाग्य यह कि नगर-वधू की उपाधि से विभूषित होकर भी उसे विष का पात्र ही तो मिला–

‘प्रेम का पर, न मिला वह वारि, सींचता उर-तल को सुकुमारी,
नृत्य, संगीत, वाद्य के बीच, द्वंद्व ही रहा, हृदय को खींच!’

अंतत: उसे भगवान् बुद्ध के चरण-कमलों में शरणागति मिली, तब उसने अपने हृदय की ज्वाला बुझाई। उसने बुद्ध के चरणों में अपने हृदय के सारे भावोद्गार खोलकर रख दिए। नगर-वधू बनने के पश्चात् और बुद्ध के दर्शन के पूर्व अंबपाली के हृदय में वेदना के गीत छंद मचलते रहे। उसी स्थिति का मार्मिक वर्णन कवि ने भावपूर्ण शैली में किया है। कवि ने एक सौ अठारह गीतों में अंबपाली के हृदय में व्याप्त नारी-जीवन के महान् आदर्श की प्राप्ति का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। इन गीतों में सांगीतिक मधुरिमा, लयात्मकता, माधुर्य गुण, आलंकारिक सुषमा, प्राकृतिक शोभा का कलात्मक समावेश हुआ है। कवि की हार्दिक अभिलाषा है–

‘भव के पंक धुल, मिट जाए, उर के सभी फफोले,
राग-विराग-भरा जीवन के, बंद नयन-पट खोल, जीवन का रस धर दे!’

गीतों में शब्दों का चयन कवित्वगूर्ण है। प्रतीत होता है कि कवि के अंतर्जगत से भाव के उद्गार स्वत: फूट पड़े हों। पठन, श्रवण व गायन में अतिशय आनंद-बोध होता है। मानवता के प्रति कवि की करुणाविगलित वाणी व्यंजित हुई है–

‘उतर, उतर, नभ से हे गीत! स्वर की सुधा बहाएँ पावन, पायल की झंकार।
मानव के पंकिल उर तल को, कर ले स्वच्छ पुनीत।’

ये गीत पले हैं प्रणों में, वह आम्र-विपिन मनभाया, वन-वन में कूक उठी कोयल, घन आओ, नभ में छा जाओ!, जागी अंतर की ज्योति रे आदि ‘अंबपाली’ के मधुर गीत हैं। कुछ गीतों में कवि ने षट्ऋतु, प्रकृति की सौंदर्य-छटा का भव्य अंकन किया है। गौतम बुद्ध के चरण-रेणु पाकर सारी वैशाली नगरी सोल्लास गा उठी। अंबपाली ने वैसे अवसर का सदुपयोग किया। उसने उनके चरणों में जीवन का सच्चा स्वाद पाया। उनकी सारी वासनाएँ धुल गईं, हृदय की ग्रंथियाँ स्वत: खुलकर गिर गईं। जीवन के स्वर्ण प्रभात का उदय हुआ। कलियों का अंतर विहँस उठा। भव्य भावनाएँ मिल-जुलकर नर्तन करने लगीं–

‘नव जाग्रत-निर्झर-हिमजल-सी, सद्य:स्नाता दूर्वा-दल सी
स्वच्छ हुईं यह मन की काया, मिटा कलुष, त्रय-ताप मिटाया,
प्रभु ने दी चरणों की छाया, स्वर्णसदृश अमिताभ बनाया,’
गातीं गीत नए छंदों में।

(पृष्ठ-218)

‘राधाकृष्ण’ राजेश्वर बाबू का प्रभावपूर्ण काव्य-ग्रंथ है। इसमें राधा की विरहावस्था का सजीव वर्णन हुआ है। प्रारंभ में प्रकृति का नयनाभिराम चित्रण हुआ है। मलय पवन के स्पर्श मात्र से राधा के तन में सिहरन हो आई। वह रोमांचित हो उठी। श्रीकृष्ण का स्मरण करते ही हृदय-गगन में दुख-घटा घिर आई। ‘फूट पड़ा सहसा दृगंबु तब, भाव नदी जब फूटी।’ मन के हरियाले उपवन में पतझड़ छा गया। विरह-भाव के अनगिनत बादल उमड़-घुमड़कर वृष्टि करने लगे। राधा व्यथा से उद्विग्न हो गई। ऐसे में उसकी आँखों से आँसू छलछला आए। जिस दिन गोकुल में कृष्ण की पहली बाँसुरी बजी थी, उसी दिन राधा प्रेमोन्माद से अकुला उठी। श्रीकृष्ण की वंशी अथवा मुरली-वादन में मादकता भरी थी, जिसके लिए गोपियाँ लोकलाज को भूल गई थीं। अतीत की स्मृतियाँ राधा के मन में साकार हो उठीं। हृदय की प्रीति मुस्कुरा उठी। जिसके हृदय में केवल प्यार ही भरा है, उसे योग बताने से क्या लाभ? अंतर की बेकली ज्ञान-मार्ग से नहीं, प्रेम-मार्ग से दूर होती है।

‘मिलन हमारा मृदुल, सरस हो, सुख से भरा अनंत।’
‘गूँज उठी जब वाद्य यंत्र की, पायल की झंकार,
नाच उठी मानों धरती ही, फैल उठी ध्वनि-धार।’

(पृष्ठ-33)

श्रीकृष्ण की मुरली के शोभन संगीत से राधा की हृदय-कलिका खिल उठी। जीवन के मधुमय क्षण किलक उठे। श्रीकृष्ण के दृग-शर से बिधी राधा की मधुपायी, अलसायी आँखें तड़प उठती हैं। विरह की अग्नि उसे धू-धूकर जलाती है। कवि ने इस प्रकार अपनी कृष्णभक्ति-भावना और मधुर मनोभावना की अभिव्यक्ति की है। कवि को विश्वास है–

‘कृष्ण-विरह में तड़प तड़पकर, जो देंगे निज प्राण,
वही विश्व में प्राप्त कर सकेंगे, गौरव-गिरि-सुस्थान!’

(पृष्ठ-85)

रास-मंडल का प्रेम-प्रवाह, भरी रग-रग में जिनकी प्रीत, उच्च उनके वे स्वर संगीत (पृष्ठ-129)

कवि ने भक्ति-दर्शन, प्रेमसंबलित माधुर्य-भक्ति और ज्ञान-साधना का भव्य प्रतिपादन किया है। प्रणयगीत का स्वर-स्रोत माधुरी से ओत-प्रोत रहता है। रास के रस का मधुपान कर व्यक्ति शीघ्र अपना तर्क खो बैठता है। ग्रंथ के अंतिम दस पृष्ठों में आधुनिक युग की स्थिति का यथार्थ वर्णन हुआ है। आज के भारत की दयनीय स्थिति से कवि चिंतित है, किंतु स्थिति तभी सुधर सकती है जब मानव-मानव में प्रेम-भाव रहे आध्यात्मिक साधना का दीप ज्योतित रहे–‘ज्ञान का पा करके सहयोग, भक्ति से करके योगायोग, आप ही बन जाता भगवान।’ (पृ.-148) समासत: ‘राधा-कृष्ण’ हिंदी के कृष्ण-काव्य लेखन की परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। भाव-व्यंजना, भाषा-शैली की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी है।

‘संकलिता’ सचित्र 70 गीतों का मोहक संग्रह है। इसकी कुछ कविताएँ हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन गीतों के छंद-समन्वित स्वर में कवि के अंतस्तल की भावधारा प्रवाहित है। इनमें कवि ने अपनी सौंदर्य-भावना का प्रकाशन किया है। गीति-चेतना राजेश्वर बाबू के काव्य का मूल तत्त्व है। ‘भिक्षु आनंद’ संग्रह की पहली, पर लंबी कविता है। बुद्ध की शरण में जाने से मनुष्य ज्ञान-ज्योति पा सकता है। विषय-सुख की तम-निद्रा त्याग कर ही सच्चा आनंद मिल सकता है। प्रभु की करुणा से हृदय पवित्र और उज्ज्वल हो जाता है। कवि का इसी दिशा की ओर संकेत है। ‘नव वधू’ दूसरी कविता है, जिसमें नवेली दुल्हन के हृदय में प्रणय-भावना के स्पंदन का चित्र है। उर के नूतन स्वर और भाव-निर्झर बहाने में ही कवि-हृदय की सार्थकता है। फूल और बुलबुल, राजनीगंधा, विरह-गीत, प्रार्थना, पावस-गीत, शारदीय प्रभात, अंतिम आकांक्षा आदि इस संग्रह की आस्वादनीय कविताएँ हैं–

‘मेरे इस सूखे मानस में, बरसो, पावस-घन, बरसो!
भावों के लहरायें तरंग, पुलकें सरिता के अंग-अंग,
यौवन का नव-रस सरसो, निज मधु बूँदों से परसो!’

(पृष्ठ-147)

‘अंतर्ध्वान’ पुस्तिका में 60 भक्ति तथा विनय-भरे स्फुट गीतों का संग्रह है। इन मधुर गीतों में हृदय को आत्मविभोर करने की असीम शक्ति है। निष्कर्षत: राजेश्वर बाबू की कविताएँ उच्च स्तर की हैं, जिनका सम्यक् मूल्यांकन और परिशीलन अपेक्षित है। आपकी कविताओं का जैसा विवेचन होना चाहिए, वैसा अभी तक संभवत: नहीं हुआ है। फिर भी कवि से निवेदन है कि वे साहित्य-सेवा में निमग्न रहें, जिससे हिंदी साहित्य की समृद्धि उत्तरोत्तर हो और राष्ट्र का कल्याण होता रहे।


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