सिगरेट

सिगरेट

सिगरेट के मुँह को दियासलाई की छोटी-सी ज्वाला से जला दिया।

प्रश्न उठता है–निर्धनता के जाल में तड़पने वाले प्राणी को सिगरेट पीने का क्या अधिकार?

तो क्या करूँ? एक ही आना तो पैसा था! इसमें मोटर नहीं खरीद सकता, महल नहीं उठा सकता, होटल का मज़ा मारना मुश्किल है। इससे एक कप चाय भी तो नहीं मिल सकती! तो क्या एक आने की पकौड़ी खरीदकर तीन शाम से पीड़ित पेट को ललचाऊँ? नहीं मुझसे ऐसा पाप नहीं हो सकता।

सिगरेट का धुआँ जैसे-जैसे नील गगन में फैल कर अपना अस्तित्व खोने लगा, अनेक भावों ने मेरे मस्तिष्क में उठकर मुझे झकझोर दिया। दिल में आया कि फौरन इन सुंदर भावों को पकड़ कर काव्य-रचना करूँ और एक क्षण के लिए मैं भी अपना अस्तित्व भूल जाऊँ, लेकिन हिम्मत न हुई, भूख से अँतड़ियाँ रो रही थीं।

आखिर उठा और कागज, कलम-दवात लेकर पुन: बैठा उसी जगह, उसी मुद्रा में।

लेकिन लेखनी ने लिखने से इनकार किया। मैंने उसका मुँह अपनी धोती की छोर से पोंछा और चूम कर कहा–तुम्हारी लिखी छत्तीस कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आज क्यों धोखा देती हो? लिखो, रानी! किंतु मैं उससे एक निशान भी नहीं बना सका। फिर क्रोध का क्या ठिकाना? फेंक दिया उस चिर साथिन को खिड़की से बाहर। इससे भी क्रोध शांत न हुआ। दवात को भी उठा फ़र्श पर पटक दिया। वह बेचारी चूर-चूर हो गई, किंतु उसके शरीर के काले खून की एक बूँद भी नज़र नहीं आई। उसमें स्याही नहीं थी।

मैंने सिगरेट की दूसरी कस खींची और सोचने लगा–इसमें किसका कसूर ? कलम का, दवात का अथवा मेरा। मैं सोच ही रहा था।

इधर सिगरेट के जल-जाने से उसकी आग सहसा उँगलियों से सटी। मैंने चौंक कर उस जलते टुकड़े को फेंका। हृदय धक-धक कर रहा था, मानो उसने सिगरेट की आवाज़ सुन ली हो–एक आने की स्याही क्यों नहीं खरीदी?

“तो लिखता क्या खाक?”

मेरे उत्तर को सुनने अथवा समझने के पहले ही सिगरेट बन चुकी थी राख।

उमाशंकर द्वारा भी