सूफियों का प्रेम-तत्त्व

सूफियों का प्रेम-तत्त्व

सूफी मार्ग की अंतिम मंजिल प्रेम और मारिफ (ज्ञान) हैं, जिनके द्वारा साधक परमात्मा के दर्शन करता है और अंत में उसके साथ एकमेक हो जाता है। सूफी यह मानते हैं कि जब तक भगवत्कृपा नहीं होती साधक के हृदय में प्रेम नहीं होता। वे यह भी मानते हैं कि भगवान् ही प्रेम है और अपने ही आनंद के लिए उसे मनुष्य के हृदय में उत्पन्न करता है अतएव सूफी साधना के प्रारंभ में भी प्रेम रहता है और अंत में उसकी परिणति भी प्रेम में होती है। जब साधक साधना द्वारा अपने समस्त कलुष, समस्त वासनाओं को दूर करने में समर्थ होता है और अंत में अपने ‘अहं’ को भी भुला देता है तभी परम प्रियतम के साथ उसके मिलन का रास्ता साफ हो जाता है, उसकी सारी बाधाएँ, सारी रुकावटें दूर हो जाती हैं। फिर प्रेम के द्वारा, जो प्रारंभ से ही उसका संबल रहा है, वह उस परम प्रियतम को पाता है। साधक परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करने पर प्रेम और मिलन के प्रकाश में परमात्मा के ऐश्वर्य को देखता है और इसे संसार में रहते हुए भी पर-जीवन के रहस्यों का भेदन करता है। प्रेम ही वह वस्तु है जिसके द्वारा वह प्रियतम के मिलन के मार्ग पर अग्रसर होता है। प्रेम के द्वारा ही उसे मारिफ (ज्ञान) की प्राप्ति होती है, लेकिन ऐसा नहीं होता कि मारिफ की प्राप्ति के साथ ही साथ प्रेम खतम हो जाए। प्रेम और ज्ञान अपने विशुद्ध रूप में साथ बने रहते हैं, बल्कि ऐसा भी कहा जा सकता है कि एक के बिना दूसरा संभव नहीं। यह ज्ञान शुष्क ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान परम प्रियतम के मिलन में सहायक होता है। अल-सरीज[1] का कहना है कि परमात्मा को सचमुच वही प्रेम कर सकता है जिसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाए और जो उससे सचमुच में प्रेम करता है वही उसे वास्तव में जानता है।

मारिफ (सच्चा ज्ञान) इल्म (सांसारिक ज्ञान) से बिल्कुल भिन्न वस्तु है। मारिफ वास्तव में भगवत्कृपा से ही प्राप्त होता है जबकि मनुष्य अपनी चेष्टाओं के द्वारा सांसारिक शिक्षकों की सहायता से इल्म हासिल कर सकता है। सूफी साधक मारिफ और धार्मिक विश्वास में फरक करते हैं। उनका कहना है कि मारिफ अग्नि के समान प्रज्वलित होने वाली वस्तु है जबकि धार्मिक विश्वास प्रकाश की तरह है। जिस व्यक्ति को मारिफ (आध्यात्मिक ज्ञान) प्राप्त हो गया है वह परमात्मा के साथ एकमेक होकर देखता है तथा परमात्मा में वास करता हुआ शांति पाता है और धर्म-प्रवण व्यक्ति उसकी ज्योति के सहारे देखता है तथा परमात्मा की उपासना को ही साध्य मानता है।

हमेशा से रहस्यवादी साधक परमात्मा की प्राप्ति का साधन प्रेम करना मानते आए हैं। परमात्मा को वे परम प्रियतम मानते हैं। वे मानते हैं कि वह परम सौंदर्य है और उसकी विभूति अनंत है। साधक को जब उसकी विभूति का, उसके सौंदर्य का ज्ञान होता है तब वह उससे प्रेम किए बिना नहीं रह सकता। प्रेम के द्वारा उसे इसके उन्स (साहचर्य) का अनुभव होता है, उससे वह अभिन्न हो जाता है। उसके हृदय में प्रियतम के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं रह जाता क्योंकि ‘प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय।’ उसका सारा अस्तित्व प्रेम के ऊपर निर्भर करता है, प्रेम ही उसका एकमात्र आधार रहता है। लेकिन इस प्रेम में कोई कामना नहीं रहती। वह प्रेम केवल प्रेम के लिए ही होता है। प्रेमी की एक मात्र कामना होती है कि प्रियतम को अपने सामने देखता रहे, उसके सौंदर्य पर मुग्ध होता रहे। एक ऐसे ही परमात्मा के पागल प्रेमी ने कुछ लोगों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा[2] था कि वह प्रियतम के पास से आ रहा है और फिर प्रियतम के पास जा भी रहा है। प्रियतम के साथ मिलन ही उसकी सबसे बड़ी काम्य वस्तु है। प्रियतम का स्मरण ही उसका आहार है और उसे पाने की उत्कट अभिलाषा ही को पीकर वह जीता है। प्रियतम का पर्दा ही उसका परिधान है। लोगों ने पूछा–तुम्हारा चेहरा क्यों पीला पड़ा हुआ है? उसने बतलाया, प्रियतम के विरह के कारण। लोगों ने तंग आकर कहा–कब तक इसी तरह से ‘प्रियतम-प्रियतम’ करते जाओगे? उसने जवाब दिया–जब तक प्रियतम के साथ उसका मिलन नहीं हो जाता। इस प्रकार से इन सूफी साधकों के लिए उस परम प्रियतम का प्रेम ही सब कुछ है। वह निष्काम प्रेम है। उस प्रेम में प्रियतम के प्रेम के सिवा दूसरी कोई वस्तु काम्य नहीं है। परमात्मा के प्रति यह निष्काम प्रेम ही उनकी साधना की मुख्य वस्तु है। प्रेम के लिए ही प्रेम करना, सच्चा प्रेम है। इस प्रेम में किसी प्रकार के प्रतिदान की भावना नहीं रहती। परमात्मा का अनंत सौंदर्य स्वभावत: साधक को अपनी ओर आकृष्ट करता है और साधक उस सौंदर्य से प्रेम किए बिना रह नहीं सकता। सौंदर्य के प्रति आकर्षण मनुष्य का प्रकृत गुण है। सुंदर वस्तुओं को देखने से उसे आनंद की प्राप्ति होती है। अतएव परमात्मा का अनंत सौंदर्य एवं तज्जनित प्रेम जब भक्त के हृदय में उत्पन्न होता है, तो फिर अन्य वासनाओं तथा कामनाओं के लिए उसमें स्थान नहीं रह जाता। अल-हुजवीरी ने कहा है कि परमात्मा के प्रेमी के पास इच्छा नाम की कोई वस्तु ही नहीं रह जाती कि अच्छी या बुरी किसी चीज़ की वह चाहना करे, क्योंकि जो परमात्मा का प्रेमी है उसके लिए परमात्मा के सिवा अभीप्सित कोई भी वस्तु नहीं होती। सूफी साधक अल शिबली का कहना है कि ‘प्रेम हृदय में अग्नि के समान है जो परमात्मा की इच्छा के सिवाय अन्य सभी वस्तुओं को जलाकर भस्मीभूत कर देता है।’ अपनी समस्त कामनाओं के साथ अपने को समर्पण कर देने में ही प्रेमी सुख पाता है। किसी भी वस्तु को अपने परम प्रियतम पर न्यौछावर कर देने में उसे हिचक नहीं होती। वह समझता है कि अपने समस्त को देकर ही वह उसे पा सकता है। अबू अब्दला अलकुरशी ने, जिसकी मृत्यु लगभग 941 ई. में हुई, कहा है कि ‘सच्चे प्रेम का मतलब है कि तुम जिस परम प्रियतम से प्रेम करते हो उसे सब कुछ, जो तुम्हारे पास है, दे दो जिसमें कि तुम्हारा अपना कहने को कुछ भी न रह जाए।’ इसका मतलब केवल इतना ही है कि प्रेमी को अपनी सांसारिक वस्तुओं और कामनाओं का ही त्याग नहीं कर देना पड़ता है बल्कि उसे पूर्ण रूप से अपने को उस परम प्रियतम को समर्पण कर देना पड़ता है। बिना ऐसा किए, बिना अपने ‘अहं’ को नष्ट किए उस अलौकिक प्रेम का वह अधिकारी नहीं हो सकता। प्रियतम का पाना कब और कैसे संभव हो सकता है इसका एक सुंदर वर्णन जल्लालुद्दीन रुमी ने मसनवी में दिया है–

प्रियतम के दरवाजे को किसी ने बाहर से खटखटाया। भीतर से आवाज़ आई “कौन है?” उसने जवाब दिया “मैं हूँ”। भीतर से आवाज़ आई–“इस घर में तेरे और मेरे, दोनों के लिए स्थान नहीं है।” प्रेमी चला गया। उसने एकांत-सेवन किया, प्रार्थना में निरत रहा, उपवास किया। एक वर्ष के बाद वह फिर लौटा। उसने पुन: दरवाज़ा खटखटाया। आवाज़ आई “कौन है।” प्रेमी ने उत्तर दिया “तू है।” और तब दरवाज़ा खुल गया।[3]

जब तक मनुष्य इस ‘मैं’ और ‘तू’ के बंधन से अपने को मुक्त नहीं करता तब तक उस परम प्रियतम का पाना संभव नहीं है। यह प्रेम की गली अति संकीर्ण है, इसमें एक साथ दो प्रवेश नहीं पा सकते। जब तक ‘अहं’ बना हुआ है तब तक उसका पाना कठिन है और जब वह मिल जाता है तब फिर ‘अहं’ नहीं रह जाता।

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाहिं॥

-(कबीर)

राबिया अल-अदाविया प्रारंभिक काल के सुप्रसिद्ध सूफी भक्तों में थी। वह बराबर परमात्मा को प्रियतम के रूप में याद किया करती थी। उसमें सांसारिक प्रलोभनों का त्याग, विनम्रता आदि गुण तो थे ही फिर भी मुख्य रूप से परमात्मा के प्रेम को वह बहुत ऊँचा स्थान देती। उसका कहना था कि प्रेम के द्वारा ही साधक अपने मार्ग की मंजिलें तय करता हुआ अपने परमाराध्य को पा सकता है। उस प्रेम की आँच में सभी प्रकार की वासनाएँ जलकर खाक हो जाती हैं और तभी साधक प्रियतम के साथ एकमेक होने में समर्थ हो सकता है। राबिया का हृदय उस प्रियतम के प्रेम से परिपूर्ण था। उसके लिए सभी प्रकार के सुख, दु:ख, मानापमान, ईर्ष्या, द्वेष नष्ट हो चुके थे। किसी ने उससे पूछा–‘राबिया, क्या तू परमात्मा से प्रेम करती है?’ राबिया ने कहा–‘अवश्य।’ प्रश्न करने वाले ने कहा–‘तब तो शैतान से तू अवश्य घृणा करती होगी।’ उसने कहा कि वह तो परम प्रियतम के प्रेम में विभोर रहती है। उसका हृदय उसी प्रेम से पूर्ण है अतएव शैतान से घृणा करने के लिए उसमें जगह ही कहाँ है? उसका प्रेम प्रेम के लिए ही था। वह बदले में कुछ चाहती नहीं थी। अपने शिष्य सुफियान अल-तावरी के पूछने पर उसने कहा था कि वह इसलिए परमात्मा से प्रेम नहीं करती कि उसे नरक का भय है और न इसीलिए प्रेम करती है कि स्वर्ग के सुखों की वह अभिलाषिणी है, उसे तो परम प्रियतम का प्रेम चाहिए, उसी की वह भूखी है। प्रेम के संबंध में सूफियों के इसी प्रकार के विचार सर्वत्र देखने को मिलते हैं। प्रेम-सुरा का पान करने के बाद प्रेमी को जन्म-मरण का भय नहीं रहता। वह मतवाला बना हुआ रहता है। उसके लिए संसार और इसके प्रलोभनों का क्या मूल्य है। एक बार जिसने उस सुरा को पी लिया है वह पीने से अघाता नहीं और वही उसके आनंद को समझ सकता है। लाभ-हानि का हिसाब वह नहीं रखता, वह तो रात-दिन उसी के रस में भीगा रहता है।

सुनु, धनि! प्रेम-सुरा के पिये।
मरन जियन डर रहै न हिए॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा।
की सो घूमि रह, की मतवारा॥
सो पै जान पियै जो कोई।
पी न अघाइ, जाइ परि सोई॥
रातिहु दिवस रहै रस-भीजा।
लाभ न देख, न देखै छीजा॥

-(जायसी)

सूफी यह मानते हैं कि परमात्मा स्वयं प्रेम-स्वरूप है और वह उन मनुष्यों को इसका रहस्य नहीं बतलाता जो इस प्रेम के पाने के अधिकारी नहीं। जिसने अपने समस्त कलुष को धो नहीं डाला है और जिसने सांसारिक वस्तुओं के प्रलोभन का त्याग नहीं किया है उसे इस प्रेम के पाने का अधिकार नहीं। विशुद्ध आत्मा परमात्मा का ही अंश है, अतएव उसे प्रेम करने का अधिकार दे कर परमात्मा मानो अपने को ही अधिकार देता है। अपने प्रेमियों के हृदय में वह प्रेम को धरोहर की तरह अपने ही लिए रख छोड़ता है। इस प्रेम को पाकर प्रेमी और प्रियतम दोनों संतुष्ट होते हैं। प्रेम को पाकर जब प्रेमी के सारे अंतर्द्वंद्वों, सभी वासनाओं का अंत हो जाता है तब वह आगे बढ़ता है और उसे परमात्मा के दर्शन होते हैं।

यह संतुष्टि की अवस्था सूफियों के साधना-मार्ग की कई मंजिलें पार करने पर प्राप्त होती है। इस अवस्था को वे ‘रीज़ा’ कहते हैं। इस अवस्था में भक्त को सब प्रकार से संतुष्टि होती है चाहे वह सुख में रहें अथवा दुःख में रहे। वह सब कुछ को भगवान् का प्रसाद समझकर खुशी के साथ ग्रहण करता है। उसे अपनी अवस्था से न कोई शिकायत रहती है और न कोई खास खुशी। भक्त की इस मनोदशा से दूसरी ओर भगवान भी संतुष्ट होते हैं। संतुष्टि की यह अवस्था एक बड़ी बात है। सूफियों का विश्वास है कि जो इस मार्ग पर निष्ठापूर्वक सतत चेष्टा करता हुआ अग्रसर होगा वही अंत में चरम प्राप्त कर सकता है। इस मार्ग की कई मंज़िलें हैं। पहली मंज़िल ‘तौबा’ है। इसमें आत्मा सांसारिक सुखों का त्याग कर अपने लक्ष्य को समझती हुई आगे की ओर बढ़ती है। इसके बाद की मंजिलें फक्र (ग़रीबी), जुह्द (विरति) और तवक्कुल (परमात्मा पर निर्भर करना) हैं। इन मंज़िलों को पार करने के बाद साधक ‘रीज़ा’ (संतुष्टि) की अवस्था को प्राप्त होता है। यह सूफी-मार्ग की बहुत आगे की मंजिल है। ज़िक्र अल मौत (मृत्यु का स्मरण) और भी आगे की मंज़िल समझा जाता है। कितने सूफी साधकों का कहना है कि यह मंज़िल साधक की प्रारंभिक अवस्था के लिए भी है और सूफी-मार्ग पर अत्यधिक अग्रसर होने वाले साधकों के लिए भी है। मृत्यु का स्मरण साधक को प्रारंभिक अवस्था में पाप करने से बचाता है तथा अन्य सांसारिक प्रलोभनों से विमुख करने में सहायक होता है। जो उच्च कोटि का साधक है वह समझता है कि मृत्यु के बाद ही वह परम प्रियतम का साक्षात्कार कर पाएगा अतएव वह मृत्यु की कामना करता है। इस मार्ग की सबसे अंतिम मंज़िल प्रेम और मारिफ़ (ज्ञान) है।

सूफी परमात्मा को प्रियतम कहकर पुकारते हैं। उनकी कविताओं में इस प्रेमी-प्रियतम के संबंध को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है। वे सांसारिक प्रेम को उस परम प्रियतम तक पहुँचने का साधन मानते हैं। स्त्री-पुरुष के प्रेम-वर्णन इनके काव्यों में इस सीमा तक पहुँच गए हैं कि उन्हें अश्लील कहने में किसी को संकोच नहीं होगा। जायसी ने भी पद्मावत में जिस संभोग शृंगार का वर्णन किया है वह मर्यादा का कुछ अतिक्रमण कर जाता है। इस तरह की प्रवृत्ति दूसरे मतों और संप्रदायों में भी देखने को मिलती है। वे मानवीय प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम पाने की सीढ़ी मानते हैं। यौन-भावना स्वभावतया अत्यधिक शक्ति-शालिनी होती है। अतएव साधक इसके उद्दाम वेग को संयमित कर इसे आध्यात्मिक प्रेम में नियोजित करने की चेष्टा करते हैं। इस प्रकार की चेष्टा का सुंदर फल भी देखा गया है। कहा जाता है कि सीमित और मानवीय प्रेम का विस्तार क्रमश: बढ़ते-बढ़ते सारे विश्व-ब्रह्मांड को छा लेता है और वैसी अवस्था प्राप्त होने पर साधक सर्वत्र आत्मा और परमात्मा की प्रेमलीला के दर्शन करने लगता है। सौंदर्य की सीमित परिधि अंत में अनंत सौंदर्य तक पहुँच जाती है। जामी की एक कविता[4] में कहा गया है कि “इस संसार में तुम सैकड़ों उपाय कर सकते हो लेकिन एक मात्र प्रेम ही ऐसा है जो तुम्हारे ‘अहं’ से भी तुम्हारी रक्षा करेगा। सांसारिक प्रेम से भी तुम मुख मत मोड़ो क्योंकि परम सत्य तक पहुँचने में वह तुम्हारा सहायक सिद्ध हो सकता है।” सूफियों का कहना है कि साधारणत: यह देखा जाता है कि सांसारिक प्रेम में प्रेम-पथ का यात्री प्रिय पात्र की याद में अपने को खो देता है उसके लिए संसार में वही एक मात्र सत्य रह जाता है। लेकिन जब उसे यह ज्ञान होता है कि जिसके लिए वह पागल बना हुआ है उसका सौंदर्य उस अनंत सौंदर्य का प्रतिबिंब मात्र है और जिस रूप पर वह लुभा हुआ है वह क्षण-भंगुर है तब धीरे-धीरे उसका मोह कम हो जाता है और वह उस पर प्रियतम का प्रेम पाने के लिए आकुल हो उठता है। और चूँकि वह सांसारिक प्रेम के लिए पहले से ही संसार की अन्य वस्तुओं का त्याग किए हुए रहता है अतएव उस आध्यात्मिक प्रेम के रास्ते पर चलने में उसे किसी कठिनाई का अनुभव नहीं होता।

सूफियों के इस प्रेम-तत्त्व का आधार उनका सैद्धांतिक मतवाद है। वे मानते हैं कि परमात्मा ही एकमात्र सत्ता है और अन्य वस्तुएँ उसकी छाया मात्र हैं। वे परमात्मा को केवल परम सत्य ही नहीं मानते बल्कि अनंत सौंदर्य और परम शिव (खैर-ए-महद) भी मानते हैं। यही कारण है कि रहस्यवादी उसे प्रियतम कहकर पुकारते हैं। सूफियों का कहना है कि जिस सौंदर्य के दर्शन हमें इंद्रियों द्वारा होते हैं, वह उसी अनंत सौंदर्य की विभूति है। सौंदर्य से प्रेम करना मनुष्य के लिए अस्वाभाविक नहीं है। प्रकृति की सुंदर वस्तुओं में मनुष्य का मन स्वभावत: ही रम जाता है। जब तक मनुष्य सांसारिक प्रेम को नहीं जान पाता, उसके लिए आदर्श प्रेम तक पहुँचना संभव नहीं[5]। लेकिन सांसरिक प्रेम अपने आप में निष्फल और बेकार है। साधक सांसारिक सौंदर्य का आनंद तो अवश्य उठाता है लेकिन वह वहीं तक नहीं रह जाता। अनंत सौंदर्य का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य उससे प्रेम किए बिना नहीं रह सकता। सूफी मानते हैं कि सभी बुराइयों की जड़ में ‘अहं’ भाव है। मनुष्य के सुख-दु:ख तथा अन्य वासनाओं का उद्गम इसी ‘अहं’ भाव से होता है और जब तक इस ‘अहं’ भाव को मिटा न दिया जाए, मनुष्य के लिए परमात्मा का पाना संभव नहीं। सांसारिक प्रेम इस ‘अहं’ भाव को दूर करने में कुछ हद तक सहायक सिद्ध होता है और साधक की चेष्टाओं द्वारा इसकी परिणति आध्यात्मिक प्रेम में हो जाती है। फिर साधक उसी प्रेम के सहारे अपने आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता हुआ ईश्वरीय ज्ञान (मारिफ) प्राप्त करता है और अंत में उस परम प्रियतम के साथ उसका मिलन संभव होता है।


[1]. मार्गरेट स्मिथ : अर्ली मिस्टिसिज्म इन दी नियर एंड मिडल ईस्ट, पृ. 209

[2]. वही, पृ. 204

[3]. डिक्शनरी ऑफ इस्लाम, पृ. 620

[4]. लिटररी हिस्ट्री ऑफ पर्सिया, पृष्ठ 442 पर उद्धृत ।

[5]. राधा कमल मुखर्जी : थ्योरी एंड आर्ट ऑफ मिस्टिसिज़्म, पृ. 113


Image: Dance of Sufi Dervishes
Image Source: WikiArt
Artist: Kamal ud-Din Behzad
Image in Public Domain