“वन के मन में” : एक अद्भुत उपलब्धि

“वन के मन में” : एक अद्भुत उपलब्धि

‘वन के मन में’ श्री योगेंद्र नाथ सिन्हा का दूसरा आंचलिक उपन्यास है जो सन् 1962 ई. में प्रकाशित हुआ। पुस्तकाकार छपने के पूर्व यह ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक छपा और लोकप्रिय हुआ। उपन्यास की भूमिका में लेखक ने लिखा है–‘अपनी कहानियों और उपन्यास ‘वन लक्ष्मी’ (यह सन् 1954 में प्रकाशित हुआ था) के द्वारा मैंने वन की आत्मा का संदेश समाज तक पहुँचाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत उपन्यास में (भी) वन के मन को मूर्त करने की श्रद्धापूर्ण चेष्टा की है।’ इससे लेखक का यह संकल्प प्रकट होता है कि वे वन जीवन को हिंदी उपन्यास साहित्य में मूर्त रूप देना चाहते हैं। वास्तव में यह हिंदी उपन्यास साहित्य की अभिनव दिशा है जिसकी ओर लेखकों का ध्यान जाना चाहिए।

वन जीवन का अर्थ साधारणत: यह समझा जाता है कि जो जीवन वनों के बीच बीते–चाहे यह जीवन वन के मूल आदिवासी का जीवन हो या वहाँ बाहर से गए हुए लोगों का। वन जीवन संबंधी यह धारणा बहुत पहले से प्रचलित है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में वन-जीवन के जो चित्रण हैं उनमें परिवेश तो वन का है लेकिन उस परिवेश में रहने वाले लोग ऋषि-मुनि हैं, वे सभ्य समाज की संतान हैं और यहीं से जाकर वहाँ दीर्घ काल से रहने के अभ्यासी हैं। वन जीवन का वास्तविक अर्थ कोल, किरात, दस्यु, भीलों आदि का जीवन है, इस ओर तब के साहित्यकारों का भी ध्यान नहीं था। संभवत: इन जातियों के जीवन से परिचय न होने के कारण ही वन-जीवन-संबंधी यह धारणा बनी।

‘वन लक्ष्मी’ के लेखक के मन में वन-जीवन-संबंधी यही सामान्य धारणा है इसलिए ‘वन लक्ष्मी’ में कथा का परिवेश तो वन है लेकिन कथा के अधिकांश पात्र हम-आप जैसे लोग हैं जो इसी सभ्य समाज से चलकर वहाँ रह रहे हैं–केवल बुदनी–उपन्यास की नायिका, अपवाद-स्वरूप है। लेखक उसी के माध्यम से वन जीवन की स्वच्छता, सरलता और निष्कलुषता व्यक्त करना चाहता है। कुछ अन्य पात्र राणा आदि पर वनांचल का परिवेश मात्र प्रभावी है लेकिन वैसे पात्र साधारण समाज में भी होते हैं। इसलिए बुदनी के अतिरिक्त वहाँ और जितने चरित्र हैं वे वन जीवन की विशेषताओं की वैसी मार्मिक अभिव्यक्ति नहीं कर पाते। वे वन की आत्मा का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते। कुछ पात्र तो वहाँ सभ्य समाज के समस्त गुण-दोषों के साथ पहुँचे हैं और सरल वन जीवन में विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। इसलिए यह कहना समीचीन है कि ‘वनलक्ष्मी’ के लेखक ने वन की आत्मा का संदेश समाज तक पहुँचाने का जो प्रयास किया उसमें उन्हें आंशिक सफलता मिली। इस दृष्टि से ‘वन के मन में’ में उन्हें अधिक सफलता मिली है अर्थात् वे अपने उद्देश्य को लेकर और आगे बढ़े हैं।

हर व्यक्ति और समाज का एक प्रकृत परिवेश होता है जो जन्म के साथ उससे चिपक जाता है और दीर्घ साहचर्य के कारण उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग हो जाता है। बाद के परिवेश परिवर्तन से उसका चरित्र या दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं होता। यही कारण है कि कण्व के आश्रम में पहुँच कर भी राजा दुष्यंत अपने मनोभावों का परिष्कण नहीं कर पाते। वहाँ भी उनका दृष्टिकोण नागर दृष्टिकोण ही रहता है। ठीक इसी भाँति शकुंतला भी विवाह के बाद पतिगृहवास के लिए राजधानी पहुँचती है और परित्यक्त होकर मेनका द्वरा स्वर्ग ले जाई जाती है। लेकिन इन विभिन्न परिवेशों का उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। वह अंत तक भोली-भाली वनकन्या ही रहती है। शायद इसीलिए कालिदास उसको फिर लौटाकर वन ले आते हैं। इससे स्पष्ट है कि वन जीवन की विशेषता हम उन्हीं लोगों के जीवन में देख सकते हैं जो वन के मूल निवासी हैं या जिन्होंने वन में ही जन्म लिया है और वहीं के हवा-पानी में पालित-पोषित हुए हैं। ‘वन के मन में’ के लेखक का यही दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण वन जीवन संबंधी सामान्य धारणा में संशोधन के कारण संभव हो सका है। इसीलिए ‘वन लक्ष्मी’ की तरह ‘वन के मन में’ में नागर पात्र नहीं हैं। जो पात्र हैं वे विशुद्ध वन जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं जैसे लुकना और मेजो, जिनकी और कोमचोंग, मोटाय हो और तुरी। ये आदिवासी ही सही मायने में वन जीवन के प्रतीक हैं, जन्म से लेकर मृत्यु तक वनांचलों में रहने के कारण इनका जीवन वन जीवन की जीती-जागती तस्वीर है।

‘वन के मन में’ में एक भी ऐसा पात्र नहीं है जो वन के बाहर के जीवन का प्रतिनिधित्व करता हो। इसलिए वहाँ नकली सभ्यता और आचार-विचार का प्रवेश नहीं हुआ है। इस दृष्टि से ‘वन के मन में’ और ‘वन लक्ष्मी’ में थोड़ा अंतर है। ‘वन लक्ष्मी’ में वन जीवन नागर सभ्यता के आसंगों में चित्रित हुआ है लेकिन ‘वन के मन में’ में वन जीवन का एकांतिक चित्रण है। इसलिए इस उपन्यास में वन जीवन की एकरूपता अखंडित रही है। यहाँ पात्रों में न तो हिंदू हैं और न ईसाई–अफ़सर, खानसामा और बावर्ची भी नहीं हैं, क्वार्टर और बंगले भी नहीं हैं–हैं केवल झोपड़ियाँ और उनमें रहने वाले सीधे-सीधे जंगली लोग।

वन जीवन संबंधी धारणा में एक रोमांटिक धारणा का भी समावेश है। जंगलों में रोमांस कम नहीं होता। ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, हरीतिमा, सघन लता-वितान, रंग-बिरंगे पुष्प, निर्झर और नाले, नंगी श्यामल चट्टानें–ये जंगलों के भौगोलिक परिवेश हैं। इनके साथ रोमांस अनिवार्य रूप से जुड़ा है। लेकिन वन जीवन केवल यहीं तक सीमित नहीं है, उसकी अपनी कठिनाइयाँ और अपने संघर्ष भी हैं। संभार-साधनों की कमी, खरीद-बिक्री में कठिनाइयाँ, ऋतु के प्रकोप, जंगली जानवरों का भय, खाद्य सामग्रियों का अभाव, शादी-ब्याह में लेन-देन की प्रथा–ये सारी बातें भी वन जीवन के ही अंग हैं। इसलिए वन जीवन को चित्रित करने का अर्थ उसके रोमांस और कटुता दोनों को चित्रित करना है। यह चित्रण उसी कथाकार से संभव है जो वन जीवन को उसकी संपूर्णता में जानता हो और रोमानी तथा वस्तुवादी दृष्टि का समन्वय कर सकता हो। ‘वन के मन में’ के लेखक ने ऐसा ही किया है इसलिए इस उपन्यास में जहाँ यह स्पष्ट होता है कि वन में कितना अपार सौंदर्य है, शांति है और निश्चिंतता है वहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि यहाँ जीवन-यापन में कितनी कठिनाइयाँ हैं, रहने-सहने में कितनी असुविधा है और कितना संघर्ष है। लेकिन यह सब होते हुए भी जीवन का सौंदर्य और आनंद इन सब के ऊपर छलकता रहता है। इसी अर्थ में वन जीवन साधारण सभ्य जीवन से भिन्न है। कठिनाइयाँ वहाँ भी हैं लेकिन वहाँ मनुष्य निराश और हताश नहीं है, उसके होठों पर मुस्कान है और कंठों में गान, पाँवों में थिरकन है और कमर में लचक। विषम आर्थिक संघर्ष उन्हें तोड़ नहीं देते और न व्यक्ति, व्यक्ति को अलग करते हैं। उनका सामूहिक जीवन अब भी अव्याहत भाव से आगे बढ़ रहा है। वन जीवन की इसी विशेषता के चित्रण से आज के विश्वासखंडित नागर पाठकों को परितुष्ट किया जा सकता है।

इधर हिंदी के आंचलिक उपन्यासों में आंचलिकता खूब उभर कर सामने आई है। इससे एक कठिनाई यह हुई है कि आंचलिकता के घटाटोप में मानव मन की शाश्वत भावनाएँ दब-छिप-सी गई हैं। कृति में अंचल विशेष का इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र आदि तो निरूपित हुए हैं लेकिन अनछुई और अनदेखी रह गई है–मानव हृदय की शाश्वत धड़कन। इस प्रकार अधिकांश आंचलिक उपन्यास अंचल विशेष की तस्वीर होकर रह गए हैं जिनके पीछे से शाश्वत मानव जीवन का प्रतिबिंब नहीं उभरता। प्रसन्नता की बात है कि ‘वन के मन में’ में ऐसा नहीं हुआ है। लेखक ने प्रस्तावना में लिखा है–‘वन आदिवासियों के अल्प शाब्दिक कोश के पीछे भी वे ही भावनाएँ हिलोरें लेती हैं–प्रेम की, ईर्ष्या की, आदर्श की–जिन पर विश्व का महान साहित्य निर्मित है।’ इसलिए मेजो, लुकना और जिनकी के माध्यम से लेखक ने जो कथा कही है उससे ये ही भावनाएँ प्रत्यक्ष हुई हैं जो उच्च कोटि के साहित्य का उपजीव्य रही हैं।

उपन्यास में आदिवासी रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के बड़े विश्वस्त विवरण मिलते हैं। विवरण की यह प्रामाणिकता रोमांटिक प्रणय कथा को यथार्थ का पुट देती है। आदिवासी पर्व-त्योहारों और हाटों-बाटों का बड़ा विश्वस्त विवरण मिलता है। आदिवासी जीवन की रूढ़ियों के संबंध में लेखक का दृष्टिकोण असहिष्णु का दृष्टिकोण नहीं है। इसीलिए उन लोगों में अव्याहत भाव से शराब पीने की जो प्रथा है, लेखक उसकी आलोचना नहीं करता, वरन् कहता है–‘मर्द पी रहे थे, औरतें पी रही थीं, जवान छोकरियाँ थीं, बच्चे भी, लेकिन यहाँ देशी शराब की दूकान का दूषित दृश्य नहीं था जहाँ समाज के ओछे लोग नशे में लोट पड़ते हैं, वीभत्स गालियाँ देते हैं और आदमी से पशु बन जाते हैं। डियांग सिमबोगा की देन है, देवता का प्रसाद है और भाधे परब का चढ़ावा है। डियांग वह हथौड़ा नहीं है जो मानवमूर्ति को तोड़कर राक्षसरूप बना देता है, बल्कि नहरनीनुमा एक नाजुक रुखानी है जो असुंदर को चोट के इशारे से सुंदर बना देती है और गद्य को पद्य में परिणत कर देती है।’
उपन्यास में जंगली जानवरों, नदी-नालों और सोतों के वर्णन भी हैं। किस प्रकार सवाई घास काटते-काटते मजदूर-मजदूरिनें अकबका कर भालू के खोह के पास पहुँचते हैं, उन्हें कुंजों के घने अंधेरे में छिपा दंताल हाथी दिख जाता है इसका बड़ा स्वाभाविक वर्णन हुआ है। वास्तव में ये हिंस्र पशु और उनके क्रिया-कलाप भी वन जीवन के अंग हैं। मानवीय क्रिया-कलापों से ये कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। ‘वन के मन में’ हर दृष्टि से एक अद्भुत वन-उपन्यास है।


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Artist: Henri-Rousseau
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