विष-कन्या

विष-कन्या

(एकांकी)

हिंदी नाटक के विकास में कई ऐसी कड़ियाँ आईं जो असमय ही टूट गईं। ऐसे ही लोगों में श्री चंद्रकिशोर जी जैन एम. ए. थे। कालिज के ही दिनों में आपने अपने अभिनय से प्रसिद्धि पा ली थी और ‘यहूदी की लड़की’ बड़े प्रेम से खेला करते थे। प्रस्तुत एकांकी उनकी अप्रकाशित रचना है। आगा हश्र वाली शैली छोड़ जिन दिनों हिंदी नाटक नए क्षेत्र में पदार्पण कर रहा था, उन्हीं दिनों की इस रचना में अभिनय की जितनी गुँजाइश और गति है वह अभिनेता-नाटककार की ही कृति में हो सकती है।

समय–सायंकाल

स्थान–आश्रम-एक कुटिया का अग्रभाग, ब्रह्मचारी वामदेव का आगमन!

विषकन्या वासंती–(कुटिया के नवद्वार की ओर आते हुए) कौन? वामदेव!

वामदेव–मुझे तुमसे कुछ कहना है वासंती!

वासंती–कहो, क्या कहना है तुम्हें?

वामदेव–बार-बार मैं तुम्हारे पास आता हूँ और बार-बार तुम मुझे वापस कर देती हो। समाधि पर अब मेरी आँख नहीं लगती। जब भी मैं उन्हें बंद करता हूँ, न जाने कौन उन्हें खोल जाया करता है। निराकार के आधार पर अपने मन को स्थिर करना अब मेरे लिए असंभव-सा होता जा रहा है।

वासंती–कौन तुम्हारी आँखें खोल जाया करता है ब्रह्मचारी?

वामदेव–तुम।

वासंती–आश्चर्य! मैं…

वामदेव–हाँ तुम। जब से मैंने तुम्हें देखा है, रात में छिपी हुई चिनगारी की तरह तुमने मेरा हृदय जगा दिया है। आज तुमसे साफ़-साफ़ कहने आया हूँ कि निराकार की उपासना के सहारे अब मैं आगे नहीं बढ़ सकता। मेरी आत्मा जोर-जोर से पुकार रही है–साकार! साकार!! तुमने मेरे मन में आग लगा दी है और तुम्हें ही बुझाना होगा।

वासंती–वामदेव, तुम ब्रह्मचारी हो, तपस्वी हो। तुमने अपनी जिंदगी की बागडोर जिस रास्ते से मोड़ दी है, वह मुझसे बहुत दूर है। मैं देवदासी हूँ, नर्तकी हूँ, औरत हूँ। मुझसे तुम्हारा दूर रहना अच्छा है। तुम प्रकाश की ओर बढ़ रहे हो, मैं अँधेरा हूँ। तुम दीन-दुनिया के बंधन काट कर अपने को तपस्या की आग में तपा रहे हो, मैं मोह हूँ, मैं वासना हूँ। वासना पाप है, जिंदगी को तबाही में बदल देने वाली एक आँधी है।

वामदेव–वासंती, मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, और प्रेम का संबंध आत्मा से होता है, शरीर से नहीं। आत्मा का रिश्ता अमर होता है, लालसा की तरह क्षणिक नहीं। तुम्हें प्यार कर के मैं ईश्वर तक को पा सकता हूँ। अपना तप नहीं खो सकता।

वासंती–ब्रह्मचारी, तुम नीचे गिर रहे हो। जाओ, बहुत दिन पहले पढ़ी कहानी की तरह मुझे भूल जाओ। तुम्हें शांति मिलेगी। मुक्ति मिलेगी। ईश्वर तक तुम पहुँच सकोगे। अमर-शांति पाने के लिए अपने को मुझ से दूर रखो। संयम और तपस्या की शरण लो!

वामदेव–संयम का अर्थ है दुनिया के सारे सुखों से अपने को वंचित कर लेना। यह मुझ से नहीं हो सकेगा। तपस्या उनके लिए है जो दुनिया से भाग कर निर्विवाद सुख और शांति से जीवन काट देना चाहते हैं, किंतु मैं चाहता हूँ जागना; मैं चाहता हूँ साकार उपासना; मैं चाहता हूँ प्रेम करना। ऐसा प्रेम जिसमें जीवन हो, हलचल हो और खो जाने की गहराई हो।

वासंती–वामदेव, तुम शायद मुझे नहीं जानते। मुझसे प्यार करके तुम सुखी नहीं हो सकोगे।

वामदेव–जानता हूँ, सुखी नहीं हो सकूँगा। प्रेम करके इस दुनिया में सुखी हुआ ही कौन है? और यह भी जानता हूँ कि प्रेम में हलचल है, निराशा है, कदम-कदम पर मुसीबतों का पहाड़ है। प्रेम करने वाला अपना व्यक्तित्व मिटाकर भी सुख नहीं पाता। इन सब बातों को जान कर ही मैंने तुम से प्रेम किया है।

वासंती–तुम मुझ से प्रेम करते हो, यही काफी है। और न रोकने का मुझे अधिकार ही है। किंतु मैं तुम से घृणा करती हूँ। मैं तुम्हारी तरह कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहती। जाओ यहाँ से, मैं तुम्हें अपना संसार नहीं उजाड़ने दूँगी।

वामदेव–(निराशा से) वासंती, जिसने एक बार प्रेम-मदिरा का रस चख लिया है, वह सारी उम्र उसे नहीं भूल सकता। मैं जा रहा हूँ, किंतु अंतिम बार इतना कहे जाता हूँ, कि जीवन में मैंने केवल तुम से ही प्रेम किया है।

(ब्रह्मचारी जैसे ही प्रस्थानोद्यत होता है, बाहर से संन्यासी की आवाज़ आती है)संन्यासी–वामदेव!
वामदेव–गुरुदेव!

संन्यासी–आकर इधर आओ।

वामदेव–जो आज्ञा।

(संन्यासी बाहर से आता है। देखा जाता है कि संन्यासी की आँखें क्रोध से लाल हो रही हैं। वह ब्रह्मचारी को वहाँ से कुछ दूर अपने साथ ले जाता है, फिर कहता है–)
संन्यासी–मेरा आदेश था कि तुम आठ महीने तक निर्जन स्थान में बिना किसी से मिले योगाभ्यास करोगे, किंतु आज प्रथम दिन ही तुम मेरी आज्ञा की अवहेलना कर तीन बार इस काल-नागिनी के पास दौड़े गए।
(वामदेव सिर झुकाए निरुत्तर खड़ा है। वासंती धीरे से चली जाती है।)

संन्यासी–मैं उत्तर चाहता हूँ। जानते हो मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने का क्या दंड है?

वामदेव–मृत्यु।

संन्यासी–फिर।

वामदेव–तैयार हूँ। किंतु मरने से पहले एक आकांक्षा…

संन्यासी–वह क्या?

वामदेव–मृत्यु के पूर्व लज्जा कैसी? मैं चाहता हूँ कि मरने से पहले उस नर्तकी का एक बार…
संन्यासी–निर्लज्ज, जानता है वह कौन है?
(वामदेव निरुत्तर रहता है।)

संन्यासी–वह मानवी नहीं, वह है कालनागिनी। सोलह वर्ष पहले उस कन्या को इसी आश्रम के पीछे मैंने नदी के किनारे पड़ा हुआ पाया था। संन्यासी होते हुए भी उस समय उसके रूप को देख कर मैं काँप उठा था…मानो मेरा तप और संयम मुझसे दूर भागा जा रहा हो। उस दिन पहली बार मैंने अनुभव किया था कि लालसा मानव के हृदय में दबाई जा सकती है, बुझती नहीं। अपने ऊपर विजय पाने के लिए ही मैंने उसे पाल कर इतना बड़ा किया।

वामदेव–क्यों भगवन्!

संन्यासी–क्योंकि पानी से दूर रह कर तो सभी प्यासे रहते हैं। किंतु नदी के किनारे खड़े होकर प्यासे रहने का नाम विजय है। मैंने उसे इसलिए यहाँ रख छोड़ा है कि मैं अपनी लालसा पर विजय पा सकूँ?

वामदेव–लालसा का प्रश्न मेरे लिए पैदा नहीं होता, गुरुदेव! मैं उससे प्रेम करता हूँ।

संन्यासी–अरे मूर्ख; वह विषकन्या है। उसके पीछे मृत्यु की छाया है। उसके स्पर्श से हृदय की धड़कन समाप्त हो जाएगी। बचपन से ही मैंने उसे एक-एक तिल विष खिलाकर उसके रक्त की प्रत्येक बूँद में प्रवाहित कर दिया है…इसलिए कि आए दिन की लालसा का शिकार हो कर मैं अपना संयम न खो बैठूँ।

वामदेव–किंतु यही अभिशाप मेरे लिए अशीर्वाद होगा गुरुदेव!

संन्यासी–मेरी दीक्षा का क्या यही फल है नराधम! क्या इसी दिन के लिए मैंने तुझे अपना शिष्य बनाया था।

वामदेव–अपराध क्षमा हो भगवन्। आपकी दीक्षा मुझे आगे बढ़ने नहीं देती। मैं ढूँढ़ता हूँ प्रेम; मैं चाहता हूँ अपने रक्त के एक-एक ताल के साथ नाचना। दुहाई है प्रभु, मुझे आगे बढ़ने से न रोकिए।

संन्यासी–(अत्यंत क्रोधित होकर) तुमने तीन बार मेरी आज्ञा को ठुकराया है, और उसका दंड भी तूने स्वयं स्वीकार किया है।

वामदेव–गुरुदेव मैं तैयार हूँ। किंतु उसके पूर्व मेरी अंतिम आकांक्षा…

संन्यासी–अच्छा, यही होगा। कल सबेरे ही मैं तेरा दंड विधान करूँगा। जा, दूर हो जा यहाँ से पापी। तेरा मुँह देखना भी पाप है।
(नतमस्तक वामदेव का प्रस्थान)

संन्यासी–स्वयं यह नर्तकी ही मेरे आश्रम के नाश की जड़ है। वामदेव से पहले मुझे इसी से निपटना होगा…वासंती, ओ वासंती!

वासंती–(आकर आज्ञा गुरुदेव!)

संन्यासी–बहुत दिनों से तुझे मैं देवदासी के नियमों की अवहेलना करते देख रहा हूँ। नर्तकी, बहुत बुरा परिणाम होगा।

वासंती–क्या मृत्यु?

संन्यासी–संभव है।

वासंती–और इससे बुरा परिणाम तुम मेरा क्या कर सकोगे योगी! मुझ में तुमने तिल-तिल कर के विष भर दिया। कालनागिनी और विषकन्या बनाकर मुझे कहीं का न छोड़ा। लेकिन क्या तुम मेरे यौवन और चाह को फिर भी दूर कर सके? आज मैं युवती हूँ, आज मेरे दिल में उमंग है…लेकिन मैं विषकन्या हूँ। न किसी को छू सकती हूँ और न किसी से प्रेम कर सकती हूँ। न किसी को अपना बना सकती हूँ और न किसी की हो सकती हूँ। योगी, तुम मेरे दुश्मन हो। आज मैं भी तुमसे अच्छी तरह निपटने आई हूँ। बोलो, कौन-सा दंड दोगे मुझे?

संन्यासी–तेरी बातों को सुन कर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। वामदेव की बातों से मुझे पहले ही इसका आभास मिल गया था। मुझे तुम दोनों से एक-एक करके निपटना होगा।

वासंती–मैं भी यही कहने आई हूँ। हम दोनों को आजाद कर दो। हम दोनों तुम्हारे आश्रम से निकल कर अपना जीवन सुखी कर लेंगे।

संन्यासी–तो क्या तू भी उससे प्रेम करती है? तू ही उसे अपने पास बुलाती है?

वासंती–मैं उसे अपने पास नहीं बुलाती। मैं उसे नीचे नहीं गिराना चाहती। आज भी सदा की भाँति उसे अपनी कुटिया से डाँटकर बाहर निकाल दिया और उसके बाद…
(यह कह कर वह सजल नेत्रों से खूब फूट-फूट कर रोने लगती है।)

संन्यासी–तेरा और उसका प्रेम! नर्तकी और ब्रह्मचारी! मुझे हँसी आती है वासंती!

वासंती–(आँसू पोंछती हुई) तुम्हें हँसी आती है। तुम शायद यह समझते हो कि बिना भोग-विलास के प्रेम हो ही नहीं सकता। स्वार्थ के पुतले! तुम प्रेम क्या जानो? तुम अपने लिए जीते हो, तुम अपने लिए तपस्या करते हो। तुम प्रेम की महिमा क्या पहचानो? मैं वामदेव से प्रेम करती हूँ। उसमें त्याग है, सत्य है, संयम है। तुम्हारी साधना और आराधना उसकी तपस्या से कोसों दूर हैं।

(संन्यासी जोर से हँस पड़ता है।)
इतने भोले न बनो, योगिराज। तुम्हारी और वामदेव की सारी बातें मैंने आड़ में से सुन ली हैं। तुम उसे प्राण दंड दोगे! क्यों, इसीलिए न कि वह तुम्हारे काल्पनिक शून्य की ओर नहीं बढ़ता। याद रखना, यह कदापि न होने दूँगी। तुम्हारे दंड के विधान के पहले उसे लेकर मैं आश्रम से बाहर चली जाऊँगी। तुम उससे ईर्ष्या करते हो, क्योंकि वह मुझसे प्रेम करता है। यह तुम देख नहीं सकते क्योंकि तुम भी मुझसे प्रेम करते हो।
(संन्यासी पर मानो वज्रपात हो गया हो)

संन्यासी–नर्तकी, सावधान। मैंने कन्या की भाँति तेरा लालन-पालन किया है। मैं संन्यासी हूँ, मैं तपस्वी हूँ। मैं अपनी कामना और लालसा पर विजय पा चुका हूँ।

वासंती–झूठ है। मैंने अपने कानों से तुम्हें वामदेव के सामने यह स्वीकार करते सुना है कि लालसा बुझाई नहीं जा सकती है। मैंने अपने कानों से तुम्हें स्वप्नावस्था में अपना नाम लेकर प्रेम की बातें करते सुना है। तुम मुझ से दूर रहते हो। इसीलिए तुम अभिमान करते हो, किंतु इस समय भी तुम्हारी आँखों में मैं कामना की चिंगारी प्रज्वलित होते देख रही हूँ। उन्हें ऊपर उठने का अवसर दो। तुम देखोगे कि नदी के बहाव की तरह वह तुम्हारे काबू से बाहर हो जाएगी। वृद्ध और संयमी होते हुए भी तुम अपने को वामदेव से कहीं अधिक लाचार पाओगे।

संन्यासी–वासंती…मैं योगी हूँ। मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास है।

वासंती–तो मुझे अपनी शक्ति पर तुमसे कम विश्वास नहीं। योगी। मैं अभी कामोपक नृत्य करूँगी। बोलो, क्या उसके बाद भी तुम इसी तरह अभिमान करते रहोगे?

(संन्यासी नर्तकी की बात सुन कर घबरा उठता है। उसको अपनी हार का अनुमान होने लगता है।)
संन्यासी–किंतु यह आश्रम है। यहाँ तेरा नृत्य नहीं हो सकता।

वासंती–यह तुम्हारी परीक्षा है। यह तुम्हारा मेरा मुकाबला है। आज साकार और निराकार का द्वंद्व है। बोलो, हो प्रस्तुत?

संन्यासी–(अपनी कमजोरी जीतते हुए यदि यह मेरी परीक्षा है, और भगवान की यही इच्छा, तो नाचो नर्तकी। आज तुम्हारा और मेरा फैसला हो जाए।

वासंती–अच्छा, तो यह लो, अब अपने को सँभालो।

नृत्य आरंभ हो जाता है। संन्यासी देखता है कि वह हार की ओर बढ़ रहा है।)

संन्यासी–नर्तकी, नर्तकी। अपना नाच बंद कर दो।

वासंती–अभी तो बहुत बाकी है, योगीराज।

(नर्तकी और तेजी से नाचना शुरू कर देती। संन्यासी मंत्र-मुग्ध-सा उसकी ओर देखने लगता है।)
वासंती–अभी और देखोगे…और देखोगे?

संन्यासी–हाँ, और देखूँगा…जरूर देखूँगा।

(नर्तकी और वेग से नृत्य करने लगती है। संन्यासी निर्वाक्-सा उस ओर देखने लगता है। कुछ देर बाद कहता है–)
संन्यासी–नाचो नर्तकी। यही संसार को उन्मत्त करने वाला नृत्य नाचे जाओ। यही संसार का अभीष्ट नृत्य, यही कामोद्दीपक नृत्य, यही संसार को चंचल बनाने बाला नृत्य। नाचे जाओ वासंती, अब मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा।…

वासंती–नाचे जाऊँ।

संन्यासी–हाँ, नाचे जाओ।

(नर्तकी पूर्ण वेग से नाचना आरंभ कर देती है। तपस्वी की हार देखकर मानो देवताओं ने मुँह छिपा लिया है। बाहर बड़े ज़ोरों के बादल घिर आए हैं। आँधी चलने लगी है। बिजली की चमक में नर्तकी स्वयं विद्युत् की भाँति चमकने लगी है। संन्यासी हार मान कर विवश हो आसन छोड़ कर नर्तकी के पास जाता है।)

संन्यासी–वासंती…वासंती। मैं संयम नहीं चाहता, मैं तपस्या नहीं चाहता। वास्तव में मैं ही हूँ तुम्हारा वामदेव। मैं ही हूँ तुम्हारा प्रेमी। दोगी मुझे अपना प्रेमदान। दोगी मुझे एक…। मेरी विषकन्या, मेरे हस्त-रचित विषवृक्ष, तुम में इतनी शक्ति, तुम से इतना आकर्षण।

वासंती–(अपनी विजय पर अट्टहास करते हुए)…हा-हा-हा, देखा आपने मेरा नृत्य…

संन्यासी–हाँ, देख लिया, मेरी रानी, मेरी प्राण। इधर आओ।
(पकड़ना चाहता है)

वासंती–सावधान पापी, जो तूने हाथ लगाया। कहाँ गई तेरी साधना? कहाँ गया तेरा तप का अभिमान?

संन्यासी–इस आग की लपट में सोलह वर्ष से जल रहा हूँ, क्या तूने कभी यह भी सोचा है? वासंती, इसे कौन जानता है कि अपनी विषकन्या के केवल एक कृपा कटाक्ष के लिए यह बूढ़ा संन्यासी अपने स्वप्नों के बीच कामना के जहर से तड़प रहा है। आज तेरी लपट में मैं अपने को जला डालूँगा। पहली जलन में दुख था, किंतु इस जलन में सुख है।
(संन्यासी नर्तकी का हाथ बलपूर्वक पकड़ लेता है।)

वासंती–छोड़ नराधम मेरा हाथ। न खींच मुझे अपने पास। वामदेव…ओ वामदेव।
(संन्यासी नर्तकी को ज़ोर से आलिंगन कर लेता है। फिर तुरंत ही विष से जर्जरित होकर उसके चरणों पर लोटने लगता है।)

संन्यासी–आह विष…विष…विष…एक ही आलिंगन ने मेरी सारी कहानी समाप्त कर दी।

(वामदेव का प्रवेश)
वामदेव–क्या है वासंती, अरे यह क्या…गुरुदेव तेरे चरणों में लोट रहे हैं।

वासंती–हाँ, गुरुदेव।

संन्यासी–वासंती, रात दिन तेरी याद में तड़पा, स्वप्नों के बीच तुझे देखा, तुझ से सदा दूर ही दूर रहा। किंतु प्यास कम नहीं हुई। प्रतिदिन विरह की आग में जलने की बजाय एक बार का कष्ट ही अच्छा है…ओं…शांति…शांति…शांति…।
(संन्यासी की मृत्यु)

वासंती–(हतप्रभ-सी) गुरुदेव शांत हो गए।

वामदेव–(दु:ख में) जो भगवान् की इच्छा
(कुछ क्षण दोनों मौन रहते हैं)

वासंती–अब हम आज़ाद हो गए वामदेव! हमारा तुम्हारा प्रेम निष्कंटक हो गया।

वामदेव–(सहर्ष) क्या सचमुच? वासंती,…तुम्हारा प्रेम…

वासंती–हाँ वामदेव, मेरा प्रेम।

वामदेव–वासंती आज मैं परम सुखी हूँ।

वासंती–चलो यहाँ से बहुत दूर, पहाड़ी के नीचे, जंगलों के बीच, नदी किनारे।

वामदेव–(अंतिम बार संन्यासी की ओर देखता हुआ और दीर्घ विश्वास लेता हुआ) हाँ चलो, वासंती। पहाड़ी के नीचे, जंगलों के बीच और नदी किनारे…।
(दोनों जाते हैं)

(पट परिवर्तन। स्थान…आश्रम से दूर नदी-तट, वही मेघाच्छन्न आकाश। और फिर विद्युत का रह-रह कर चमकना। किंतु कुछ काल पीछे आँधी रुक जाती है। बादल हट जाते हैं।…और पूर्णिमा का चाँद पहले की भाँति चमकने लगता है।)

(वामदेव और वासंती का प्रवेश)
वामदेव–वासंती।

वासंती–वामदेव।

वामदेव–इतनी दूर नहीं, मेरे पास आओ।

वासंती–ठहरो, मुझे नहीं छूना ब्रह्मचारी। एक बात पूछूँगी।

वामदेव–पूछो

वासंती–तुम मुझसे प्रेम करते हो?

वामदेव–हाँ, वासंती, अपने प्राणों से भी अधिक।

वासंती–किंतु तुम प्रेम करना जानते नहीं। इधर आओ।

(दोनों नदी की ओर अग्रसर होते हैं)
एक ओर देखो उस पूर्णिमा के चाँद की ओर और फिर इस कुमुदिनी की ओर।

(वामदेव कुमुदिनी की ओर देखने लगता है)
वासंती–हवा के झोकों में वह कुमुदिनी झुकती है, गिरती है, पानी की सतह पर लेट जाती है, और फिर उठकर चाँद की ओर देखने लगती है। देखा तुमने।

वामदेव–हाँ।

वासंती–कितनी दूर हैं एक दूसरे से। न आलिंगन, न चुम्बन। फिर भी बोलो कहीं है विषाद का चिह्न। है कहीं कालिमा की रेखा। कहाँ वह और कहाँ यह, फिर भी चिरमिलन है उनके विछोह में। समझ पाए इसका अर्थ ब्रह्मचारी।

वामदेव–नहीं।

वासंती–अच्छा तो ठहरो, मैं समझाती हूँ।

(वासंती नदी में कूद पड़ती है।)
वामदेव–वासंती…वासंती…यह क्या कर रही हो?

वासंती–मैं प्रेम का मर्म समझाने जा रही हूँ।
[वासंती जल में विलीन हो जाती है। ब्रह्मचारी वामदेव सजल नेत्रों से उस ओर देख रहा है और कुमुदिनी देख रही है एकाग्रता से चंद्रमा की ओर।…]
(पटाक्षेप)


Image: ছড়ার ছবি – রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর (Page 109 crop)
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Nandalal Bose
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