आठ दिन

आठ दिन

21 जनवरी

संध्या समय पटना पहुँच गया। ऊब उठा हूँ–गया से पटना, पटने से गया। गंगा-तट पर गया। बैठा रहा। गोधूलि और गंगा की शांत-शोभा। निर्जन घाट पर बैठा हूँ–देख रहा हूँ, पाल ताने कुछ नाव दूर पर जा रही हैं। उस पार का दृश्य कितना मनोहर है। मैं मानो स्वप्नलोक में बैठा हूँ–जहाँ रंग है, रूप है, गंध है; किंतु स्पर्श नहीं है, शब्द नहीं है। मैं स्पर्श और शब्द को पसंद नहीं करता। शांत गंगा तट से लौट पड़ा–माँ की गोद से उतर कर धूल-भरी धरती पर चलने-फिरने लगा। ‘पटना मार्केट’ की जगमगाहट! राम-राम!! मानव प्रयत्न करके शोर-गुल और अशांति का निर्माण करता है। भगवान ने निश्चय ही किसी नरक का निर्माण नहीं किया; किंतु यह काम मानव बड़ी तत्परता से करता रहता है–मानव महाशय, आप धन्य हैं। आप इस दुनिया को मिटाकर ही दम लेंगे। होटल का शांत एकांत कमरा। 1 बजे रात तक पढ़ता रहा–बलदेव उपाध्याय का ‘भारतीय साहित्यशास्त्र’–एक स्वस्थ ग्रंथ है; किंतु में उपाध्याय जी के बहुत से सिद्धांतों को स्वीकार नहीं कर सकता–यह मेरा ही दुर्भाग्य है।

कब नींद आई, पता नहीं। सो गया, गहरी नींद, पूर्ण शांति!

22 जनवरी

6 बजे उठा। पढ़ने लगा। 11 बजे उपाध्याय जी का ग्रंथ पढ़कर जलपान किया और लिखने बैठा–खूब लिखा! दोपहर को कुछ मित्र आए! गया की स्मृति सजग हो गई। घर पर भी मित्रों की धमाचौकड़ी रहती थी। मैं चाहता हूँ कि मुझे सेवा करने का अवसर दिया जाए–जीवन के दिन थोड़े हैं, अब मैं अपने जीवन का उपसंहार देख रहा हूँ। हम सेवा करने के लिए संसार में आए हैं, न कि मित्रों की भीड़ में बैठकर माथापच्ची करने के लिए! ऐसा क्यों होता है? ठीक 6 बजे टहलने चला। ‘रेडियो स्टेशन’ गया!…

8 बजे रात को होटल लौट आया। 5-6 किताबें खरीदीं। गंभीर साहित्य पढ़ता हूँ तो दिमाग अब थक जाता है और हल्की-फुल्की चीज भूख नहीं मिटाती। आज का दिन वैसा शांत नहीं रहा–उस दिन में अत्यंत पुलकित रहता हूँ जिस दिन मैं अकेला रहता हूँ और खूब पढ़ता हूँ। आज रात को भी पढ़ता रहा–आधी रात सर्वत्र शांति, होटल का एकांत कमरा और…पूर्ण शांति। मैं चाहता हूँ कि ऐसी खूबसूरत रात नित्य मुझे प्राप्त हो।

23 जनवरी

पटना मेरे लिए ‘इटकी का सेनोटोरियम्’ है जहाँ क्षय के रोगी रहते हैं। यहाँ मेरा दिन मेरा है और मेरी रात मेरी है। आह, मैं घर पर कितना सुखी होता यदि मेरे मित्र मुझे भूल जाते! वे मुझे जीते-जी मार डालेंगे! 12 बजे दिन तक पढ़ता रहा। कमरे का दरवाजा भीतर से बंद। खिड़कियाँ बंद, बिजली की रोशनी और मेरा शांत स्वाध्याय! दर्शन-शास्त्र की बहुत-सी पुस्तकें खरीद लाया हूँ। शून्यवाद पर ‘दिग्नाग’ की ‘कारिका’ का क्या कहना है? कितना विशाल पांडित्य था दिग्नाग में। इतना बड़ा पंडित हमारे यहाँ कभी था और आज हैं…? बीते हुए दिन कराह बन कर लौटते हैं। संध्या समय टहलने निकला। ‘उनसे’ एकाएक मुलाकात हो गई–कैसा अच्छा होता यदि वे थोड़ा मूर्ख भी होतीं! संसार में जितने अनर्थ हुए हैं उनकी जड़ में बुद्धि ही तो है। मैं उनसे घृणा करता हूँ; क्योंकि उन्हें घृणा की ही आवश्यकता है–उन्हें जिस वस्तु की चाह है वही मैं उन्हें दूँगा।

रात शांत-पूर्वक बीती। पढ़ता रहा और ‘नोट’ लिखता रहा। ‘दिग्नाग-कारिका’ चार-पाँच महीने से पढ़ रहा हूँ, किंतु उस अगाध सागर के ओर-छोर का पता नहीं चलता। क्या अब उस कोटि के तत्वदर्शी नहीं पैदा हो सकते!

ऐसी शांत सुहावनी रात! बड़ा आनंद! बड़ी शांति!!

24 जनवरी

आज फिर मित्रों की रेलपेल!!!

यदि यही दशा रही तो मुझे भागना पड़ेगा। आज दिन भर मैं लिख-पढ़ नहीं सका। हँसी-ठहाके और चुहल-बाजियाँ। भले आदमियों! तुम तो अमर हो कभी भी पढ़ लोगे, लिख लोगे; किंतु मैं तो भोर का तारा हूँ–अब डूबा, तब डूबा। मुझे जी भरकर टिम-टिमा लेने दो, अच्छी तरह खूबसूरत धरती को देख लेने दो। रहम करो, दया करो, क्षमा करो! रात को मैं इतना थक गया कि एक घंटा भी ठीक से लिख न सका और 1 बजे नींद आ गई!

25 जनवरी

कल ‘गणतंत्र’ का उत्सव होगा! क्या हम स्वतंत्र हो गए? मेरा दिल स्वतंत्र हुआ या दिमाग–समझ में नहीं आता। पं. विभूतिनाथ झा जी के साथ संध्या समय टहलने निकला। डॉ. सिन्हा के यहाँ गया। वहाँ जस्टिस जमुआर भी बैठे थे। डॉ. सिन्हा की जिंदादिली देखकर चकित रह जाना पड़ता है। अस्सी साल के वृद्ध और जवानों के भी कान काटने वाली बातें! एक-डेढ़ घंटे तक हँसी और कहकहे। डॉ. सिन्हा ने अपने लाइब्रेरियन को बुला कर कहा–“वियोगी आए हैं। पुस्तकालय की जयंती कैसे मनाई जाय–इनसे बातें कर लो; क्योंकि एक कवि सम्मेलन भी करना है।”

सिन्हा साहब की कोठी से चले। बड़ी सुहावनी रात। ठंढी हवा और अकाश तारों से भरा हुआ। हम ‘सरकिट हाउस’ पहुँचे। संत निहाल सिंह यहीं ठहरे हुए हैं। देखा–चित लेट कर खा रहे हैं। बड़ों की बातें भी बड़ी शानदार होती हैं। मैं एक प्रश्न अपने आप से पूछा करता हूँ–संत जी महान लेखक हैं या महान फोटोग्राफर; महान पत्रकार हैं या महान भाग्यवान!

विभूति भाई ने संत साहब के संबंध में कुछ ऐसी बातें सुनाईं की मैं प्रसन्न हो गया। करीब 11 बजे होटल लौटा। थक गया था, किंतु पढ़ने बैठ गया। जी लग गया और करीब दो बजे रात तक ‘कारिका’ पढ़ता रहा। पढ़ने से थकावट मिट जाती है, लिखने से जी हल्का हो जाता है, सोचने से हृदय खिल उठता है और…और अभी घर जाने का विचार नहीं है।

26 जनवरी

बदली। ठंढी हवा और गणतंत्र का उत्सव! सुबह से ही लिखने बैठा। ‘स्वतंत्रता कैसे आई’–पुस्तक का श्रीगणेश आज किया। गाँधी-मैदान में परेड देखने गया! बड़ी भीड़ और अव्यवस्था। ‘पत्रकार-ब्लॉक’ का कार्ड मिला था; किंतु भीड़ पर कोई नियंत्रण न था। संध्या समय जब लौट कर होटल के फाटक पर आया तो भैया बेनीपुरी मिले। दीपोत्सव देखने हम दोनों चले। सेक्रेटेरियट की ओर हम गए। सजावट का क्या कहना है–वाह-वाह! शहीदों की याद सताने लगी। 42 की क्रांति के दिनों को बीते बहुत वर्ष हो गए; किंतु उन शहीदों का खून अब तक तरोताजा है, जिन्होंने अपने को होम दिया था।

बेनीपुरी भैया ने दिखला दिया–“पटना सेक्रेटेरियट के फाटक पर, यहीं पर उन बच्चों की लाशें रखी गई थीं जो पुलिस की गोलियों से भून डाले गए थे।” स्थान अंधकार-पूर्ण और स्मारक के नाम पर सीमेंट का एक छोटा सा चौतरा!!! हम कितने कृतघ्न हैं!!! राज्य पाकर उनको भूल गए जिनकी लाशों पर सिंहासन रख कर हम बैठे हुए हैं–यदि उन लाशों में किसी तरह जान आ गई तो निश्चय ही सिंहासन लुढ़क जाएगा और हम…भगवान ही रक्षा करें! बेनीपुरी भैया दो-चार फूल ले आए और हमने इस तरह उन शहीदों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और कहा–“भैया, तुम्हें चाहे दुनिया भूल जाए, किंतु हम कलम के मजदूर कभी भी भूल नहीं सकते!”

हम अपनी प्रतिज्ञा को सदा याद रखेंगे। स्वतंत्रता की पूजा हमने की और जो शपथ खाई वह सबसे बड़ी प्रतिज्ञा है। स्वतंत्रता की हमारी प्रतिज्ञा फूले-फलेगी। बेनीपुरी भैया के डेरे पर लौटकर आया। वर्षा और भयंकर जाड़ा। होटल में ठीक 11 बजे लौटा। सो गया, पर नींद नहीं आई–तीन बजे उठ बैठा और लिखने लगा–“स्वतंत्रता कैसे आई”! खिड़की, दरवाजा, सब बंद और बिजली की रोशनी–लिखता-लिखता जब थक गया तो तकिए के नीचे से निकाल कर घड़ी देखते ही घबरा उठा–8 बज गया था! यह क्या–इतना विलंब! धूप निकल आई–ऐं!

27 जनवरी

11 बजे स्नान करके सो गया। 2 बजे उठा–भोजन किया। एक-दो मित्र पधारे–क्या करूँ! उफ्!! संध्या समय गंगा-तट पर जाकर बैठ गया!

चाँद की लुभावनी विभा और गंगा का मनोरम दृश्य। 7 बजे तक बैठा रहा। ऐसा एकांत और शांत वातावरण बहुत दिनों पर नसीब हुआ।

दो-तीन नई पुस्तकें खरीद कर होटल के कमरे में घुस गया। दर्शन की इन सुंदर पुस्तकों को बहुत दिनों से खोज रहा था। संस्कृत वांग्मय के इन कोहेनूरों का आदर करना जिस दिन हम जान जाएँगे, उसी दिन हमारा भारत में जन्म ग्रहण करना सार्थक हो जाएगा। इन पुस्तकों में एक है प्रशस्तपाद का ‘वैशेषिक भाष्य’। कैसा प्रचंड ग्रंथ है–इस ग्रंथ के लिए लालायित था। आज घर जाने का विचार है–

“पिंजरे में फिर पंछी लौटा
बन ने उसे बहुत समझाया!”

28 जनवरी

घर लौट आया। बड़ी भीड़। आने-जाने वालों की रेल-पेल। दिनभर मित्रों का आना-जाना एक को विदा किया, दूसरे का स्वागत–तीसरे टप-टप करते चले आ रहे हैं। पढ़ना-लिखना बंद केवल गप्पे हाँकना और बैंठे-ठालों के तराने सुनना। बुरी तरह दिन कटे–रात को छुट्टी मिली। 2-3 घंटे लिख सका–बस! क्या इसी तरह अब मुझे जाना पड़ेगा? शांति नहीं, आराम नहीं!


Image Courtesy: Dr. Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey