पावस और लोकगीत
- 1 September, 1951
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- 1 September, 1951
पावस और लोकगीत
भारतीय ग्राम्य जीवन सदा से संगीतमय रहा है। कर्ममय ग्राम्यजीवन में भी आघात-व्याघात, प्रेम-विरह, सुख-दुख के अनुभवों के स्रोत छंदबद्ध हो कर निकलते हैं। विशेष कर इन गीतों का उद्रेक ने प्रेरणा और अनुभूति की गहराई से होता है। उन ग्राम्यगीतों में स्वाभाविकता रहती है। ऐसे अवसर विरहावस्था में, विदाई के अवसर पर अथवा नवोढा के प्रियतम के परदेश जाने के समय आते हैं। पावस ऋतु में विशेष कर बारहमासे के गीतों द्वारा रमणियाँ पतिवियोग जनित क्लेशमय जीवन का विशद वर्णन करती हैं। सावन में झूले के गीत भी इन्हीं गीतों में आते हैं। बरसात के प्रारंभ में मजदूरिनें मनबहलाव के हेतु खेतों के हरे पौधों को नुकसान पहुँचाने वाली घासों को निकालते समय सोहनी गाती हैं। बारहमासा को तो लोग गाना और सुनना, दोनों ही चाहते हैं क्योंकि उन्हें एक साथ ही बारहो महीनों के सुखदुखमय चित्र एक स्थान पर चित्रित मिल जाते हैं। बारहमासा का प्रारंभ प्राय: आषाढ़ मास के वर्णन से होता है तथा जेठ मास के वर्णन से समाप्त हो जाता है। इसका कारण यह है कि वर्षाकाल विशेष उद्दीपनकारी होता है। विशेष उद्दीपनकारी होने के कारण बारह मासे के गीत सावन के रसमय महीने में हृदयहारी प्रतीत होते हैं। सावन के मनभावन गीतों को कजली कहा जाता है। युवा दंपति के प्यार-संबंध ही इसके वर्ण्य विषय होते हैं। संयोग और विप्रलंभ शृंगार के वर्णन इन गीतों में स्वाभाविकता का संचार करते हैं।
सावन का महीना बड़ा ही सुहाना लगता है। नीलनभ मंडल में घन का गर्जन, बादलों के आघात-प्रतिघात के दृश्य कुंजर-कुंज समीर की नाईं घटाओं का क्षितिज छोरों को छू कर निकलना, वायु वेग से टकराती हुई बक पंक्ति की शोभा मन को मुग्ध किए बिना नहीं रहती। घटाओं का घहराना, चपला की चमक, रिमझिम-रिमझिम बूँदों का बरसना, पादपों, लताओं और पौधों का धुल जाना, खेतों और जंगलों में हरितवसना प्रकृति सुंदरी का निखार हृदय सागर में आनंदामृत उड़ेल देता है।
नालों का बहना, नदियों का उमड़ पड़ना, ‘सिमिट-सिमिटि जल भरहीं तलाबा’ की अनुपम छटा, वसुधा का नाना भाँति के जीवों से भर जाना, झिंगुरों की झनकार, मेढकों की टरटराहट, दसो दिशाओं में पशुओं के कल्लोल, पक्षियों के कलरव तथा ‘पी-पी’ की उद्दीपनकारी पुकार आदि के मनोहर दृश्य हृदय को गुदगुदा जाते, वन्य प्रांत तो मानों नींद त्याग कर जग पड़ता है। कृषक अपने हरे-भरे खेतों के किनारे भविष्य की कल्पना में मस्त होते हैं। अहीरों की टोली कानों में उँगली डालकर मैदानों में भैंस गाय चराती हुई बिरहा गाती है। ग्रामों के हर बाग में, तालाबतट पर वट-वृक्ष की डालों में झूले लगाए जाते हैं और स्त्री-पुरुष मिलकर झूलते हैं, मानों प्रकृति और पुरुष की रागात्मक वृत्ति का समन्वय इसी स्थल पर होता है। झूला लगाने की पूरी तैयारी की जाती है। और झूला झूला जाता है। पेंग मारते समय नर-नारी ‘आई सावन बहार’ गा कर आनंद मग्न हो जाते हैं।
सावन में मिर्जापुर, भोजपुर आदि में कजली की बहार देखते ही बनती है। यहाँ कजली का दंगल भी होता है। स्त्री-पुरुष दो दल में विभक्त होकर एक दूसरे को कजली गा कर सुनाते हैं। ‘घेरि आये बदरी’ गाते ही एक विचित्र समाँ बँध जाता है। जीवन की सरस भावनाओं के मनमोहक गीत पावस में रंग ला देते हैं। भोजपुरी या मगही, मैथिली या खड़ी बोली किसी भाषा के लोकगीतों की लोकप्रियता महान है। अब हाथ कँगन को आरसी क्या! एक-दो गीतों का उदाहरण लेकर ही हम देखें और इन भाषाओं के लोकगीतों का रसास्वादन करें! पति परदेश जा रहा है, स्त्री मानकर रही है पर वह भला कब मानने वाला है? वह देवता से एक पहर रात से वर्षा बरसाने के लिए प्रार्थना करती है ताकि पति परदेश न जा सके। पति रुकना नहीं चाहता–वह छाता लगा कर भी चला ही जाना चाहता है। इसी का कितना मार्मिक चित्र है–
“बरिसहु आहो ए देव,
आरे घरी रे पहर राती,
आरे पिया के पायेताबा;
घरे बेलमावहु रे की॥1॥
जाहु तुहुँ आहो ए घनिया;
देव के मनइबू।
आरे छाताबा लगाइबि;
पंथ हम जाइबि रे की॥2॥
हाँ, तो छाता लगा कर पिया परदेश चला ही गया। अब यह प्रथम आषाढ़ का महीना है। बादलों का गर्जन सुनाई पड़ रहा है पर वह स्त्री सोचती है कि मेरे स्वामी का हृदय इतना कठोर है कि वह इस महीने में भी नहीं आया। रिमझिम-रिमझिम बादल बरस रहे हैं। परदेश में बालम भीगता होगा–प्रिया कहती है कि मैं पिया-पिया की रट लगा रही हूँ–वन में मोर बोल रहे हैं। फिर सखी से कहती है कि हे सखी! भादो की रात बड़ी भयावनी है–चारों ओर पानी की धार गिर रही है, मेरे चारो ओर चकबी बोल रही है और मेढक का शब्द सुनाई पड़ रहा है। पावस ऋतु का कितना सजीव, कितना करुण चित्रण है इस गीत में–
प्रथम मास आषाढ़ सखि हो;
गरजि – गरजि के सुनाय,
सामी के अइसन कठिन जियरा;
मास अषाढ़ नहीं आय,
सावन रिमझिम बुनबा बरसे;
पियवा भींजेला परदेस;
पिया-पिया कहि रटेले कामिनि;
जंगल बोलेला मोर॥
भादो रयनी भयावन सखि हो,
चारु ओर बरसे ला धार।
चकबी त चारु ओर मोर बोले;
दादुर सबद सुनाय॥
वर्षा ऋतु आ गई है, जल की धारा जोरों से चलने लगी है–सब स्त्रियों के प्रियतम अपने घर पर आ गए पर इस नायिका का पति परदेश में ही है। उसकी वेदना घनीभूत हो जाती है, उसके मर्म पर आघात पहुँचता है और सखी से बिलख-बिलख कर वह कह रही है–
“प्रथम मास आषाढ़ हे सखि,
साजि चलले जलधार हे!
सबके बलमुआ राम घर-घर अइले,
हमरो बलमु परदेश हे॥
सावन हे सखि रयनि सोहावन,
रिमझिम बरसले देव हे।
बारि उमिरि परदेस बालम,
जीअवो कवना अधार हे॥
भादो हे सखि रइनि भयावन,
सूझले आर न पार हे!
लवका जे लवके राम बिजुली जे चमकेला,
कड़केला जियरा हमार हे।
कितनी व्यथा और बेबसी है! सरलता और सरसता तो इन गीतों में कूट-कूट कर भरी है। विरहिणी भला ‘भादो भवन सोहावन न लागे’ के सिवा और कह ही क्या सकती है?
इन गीतों में कामिनी के हृदय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हम पाते हैं। सावन में पति वियोग असह्य होता ही है, विशेष कर यह मानव प्रवृत्ति है कि अपने आसपास के लोगों को सुखी और अपने को दु:खी देख उसके धैर्य का बाँध टूट जाता है। अपने चारो ओर हर्षोल्लास और भीतर हाहाकार को एक स्त्री इन शब्दों में व्यक्त करती है–
“बादल बरसे, बिजुली चमके, जियरा ललचे मोर सखिया?
सइयाँ घरे ना अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया॥
सब सखियन मिलि धूम मचायो मोर सखिया।
हम बैठी मनमारी, रंग-महल में मोर सखिया॥
इस कजली में हमें सजल प्रेम की मर्मांतकव्यता दिखाई देती है। पति के आने की सुखद कल्पना और फिर प्रतीक्षा की दूभर घड़ियों का कितना सुंदर चित्र है–
“बोलु-बोलु कगबा रे सुलछन बोलिया!
घेरि-घेरि आयोरे बादरवा घटा कारी-कारी ना॥
बरसे-बरसे रे बादरवा बिजुरी चमकेना।
काली-काली रे अँधेरिया; हरि ना अइलेना॥
अंत में पति परदेश से आ जाता है। मिलन की घड़ी में युवा दंपति सावन की बहार में सब कुछ भूल जाते हैं पर नायक को भय होता है कि इस कामोद्दीपन कारी सावन के महीने में कहीं कोई प्रिया को हर न ले जाए अतएव वह खिड़की भी बंद कर रखने को कहता है–
जनिया मति खोलु खिरकिया, अइली सावन की बहार!
सावन महिनमा में बड़ी रे घुघेड़ी, लेई जइहें उड़ाई॥
अब हम भोजपुरी के एक प्रसिद्ध गीत का रसास्वादन करें। सावन में झूला के समय किसी भी ठाकुरबाड़ी में चले जाइए ‘घिरि आई रे बदरिया सावन की’ वाला गीत अवश्य सुनाई पड़ेगा। पावस काल के वियोग-जन्य दु:ख में भी एक विचित्र आनंद है! वियोगिनी के वियोग का अंत होने वाला है क्योंकि आज ही प्रियतम के आने की अवधि है। और अंत में प्रतीक्षा निराशा का रूप धारण कर लेती है इसी का कितना मर्मस्पर्शी चित्र है–
घिरि आइलि रे बदरिया सावन की!
सावन की मन भावन की,
घिरि आइलि रे बदरिया सावन की!
बादर बरसे बिजुली तड़पे, आवत
मोहि डरावन की।
घिरि आइलि रे बदरिया सावन की॥
प्रीतम आज विदेशे बैठल, पाती ना
पायो मन भावन की।
घिरि आइलि रे बदरिया सावन की॥
सखिया झूला हिलिमिली झूलत,
मोर जियरा तरसावन की।
घिरि आइलि रे बदरिया सावन की॥
मिथिला का तो कुछ पूछना ही नहीं! फिर विद्यापति की पदावलियाँ! पावस जैसे शत-शत कंठों से मुखरित हो उठता है। पावस ऋतु में नायिका का पति परदेश चला गया है, उसकी भरी जवानी उसके लिए दूभर हो रही है। अषाढ़ का महीना, बादल का घिरना वियोगिनि के लिए असह्य हो जाता है। वह योगिन का भेष धर कर पति के पास जाना चाहती है। सोचते-सोचते अषाढ़ बीत जाता है, सावन का पर्दापण होता है। हाथो हाथ नहीं सूझता। चारो ओर चपला की चमक है। कामिनी अपने पति के लिए व्याकुल है। दादुर मोर आदि के कल्लोल चारो ओर सुनाई पड़ते हैं, घन-घोर वर्षा हो रही है, सौभाग्यवती अपने पति के अंक में विहार कर रही है पर वियोगिनी के दिन आँसू बहाते ही कटते हैं। विद्यापति जी के शब्दों में इसी का कितना सजीव चित्र उपस्थित किया गया है, पाठक देखें–
मोर पिया सखि गेल दुरदेश,
जौवन दय गेल साल सनेस,
मास अषाढ़ उनत नव मेघ,
पिया विसलेख रहओं निर पेघ॥
कोन पुरुष सखि कौन से देस
करब मोयँ तहाँ योगिनी भेस॥
साओन मास बरसि धन बारि।
पंथ न सूझे निसि अँधियारि॥
चौ दिसि देखिए बिजुरी रेह।
से सखि कामिनि जीवन संदेह॥
भादब मास बरिस घन-घोर।
दस दिसि कुहकए दादुल मोर॥
चेहुकि चेहुकि पिया कोर समाय।
गुनमति सूतलि अंक लगाय॥
और जब विरहिणी अपनी व्यथा सम्हाल नहीं पाती है, तो विद्यापति की इन अमर पंक्तियों में अपनी टीस प्रतिध्वनित करती है–
सखि हे हमर दुखक नहीं ओर!
इ भर बादर माह भादर
सून मंदिर मोर।
झंपि घन गरजंति संतति
भुवन भरि बरसंतिया।
कन्त पाहुन काम दारुण
सघन खर हंतिया
कुलिस कत सत पात मुदित
मयूर नाचत मतिया
भत्त दादुर डाक डाहुक
फाटि जायत छतिया
तिमिर दिग भरि घोर यामिनि
अथिर बिजुरिक पाँतिया।
विद्यापति कह कइसे गमाओब
हरि बिना दिन रतिया॥
इसी प्रकार मुजफ्फरपुर-दरभंगा जिले में सरैसा परगना के सरैसावादी गीत में भी पावस का प्राधान्य अवलोक सकते हैं। सरैसावादी लोकगीत का एक ही उदाहरण उसके बारहमासे से पर्याप्त होगा–
सावोन सुंदर परम सुहावन
निशि दिन बरसइछइ मेघ हे,
पिया बिना सब साज सुने हई
सूने लगइछइ एहो गेह हे
ऊपर बदरा बरसई साओन
पयलक ऋतु बरसात हे
हमर नयनघन बरसइ बराबर
ताकइ न कालक आश हे!!
आस गास में बितलइ सावोन
पिया बैठलथिन परदेश हे!
मन त करइय हमहु जे जइती
धर क जोगिनियाँ के भेष हे॥
भादो रयिनी घोर भयाओन
सुझइ आर न पार हे।
पिया बिना डरपायल जियरा
तलफइत रहइछइ हमार हे॥
अब हम एक संथाली लोकगीत की दो-चार पंक्तियों में पावस के आनंद का अनुभव करें। संथाली स्त्रियाँ सावन में नाच-नाचकर जब गीत गाने लगती हैं तो एक विचित्र समाँ बँध जाता है। इन संथाली गीतों में आनंद की मात्रा प्रचुर रूप में प्रस्फुटित होती है–
देखु गे आई-माई बेंगवा के ठानी-वानी
पानी भीतर डुबकि मारि।
बिनावतास पीपरपात डोले पानी भीतर
डुबकी मारि।
इसी प्रकार उत्कल प्रांत के किसी मेले-ठेले में चले जाइए, आपकी भावुकता झूले की ओर आकर्षित होगी। झूला में उड़ता हुआ उनका सजनीगीत उड़ीसा का सबसे लोकप्रिय, मधुर और आकर्षक गीत है। श्रुतिप्रिय इन गीतों की ओर आप बरबस खिच जाएँगे। लोकगीतों की यह निसर्गत: खूबी है कि उसके सुनने मात्र से दिल में हिलोर उत्पन्न हो जाता है। हमजोली बालाएँ आपस में उत्तर-प्रत्युत्तर देती हैं। कभी-कभी उसी झूले में बैठा हुआ कोई युवक गीत में भाग ले लेता है और यदि उसका प्रत्युत्तर मिल गया तो होड़ लग जाती है। झूले का आनंद उठाती हुई अपनी मौज में कोई रमणी गीत आरंभ कर देती है–
नुवा गिलास र पना
तोर लागी सांग दुरु जा मना रे
घर करी देलू छीना-सजनी रे!!
(नए गिलास में रस रखा है। ओ साथी, तुम्हारे कारण मेरे लिए घर का दरवाजा बंद हो गया है। मुझसे घर भी तुमने छुड़ा दिया।)
वर्षा का दिन, बिजली छिटक रही हो और जोरों की पुरवैया सायँ-सायँ बह रही हो तो भला माता के दिल में परदेशी पुत्र के अनिष्ट की आशंका क्यों न हो। एक चित्र देखिए–
बरषा बरसे बिजली छिटके पवन चले पुरवाई।
कौन बिरिछि तर भींजत होइहें राम लषन दोऊ भाई॥
किसी लोकगीत को देखिए चाहे वह भोजपुरी हो या मगही, चाहे सरैसावादी हो या मैथिली, चाहे संथाली हो या उत्कली सर्वत्र मानव तथा मानवेतर प्रकृति में अन्योन्याश्रित संबंध स्थापित प्रतीत होता है। मानव के हास्य-रुदन, मिलन-विरह में मानवेतर प्रकृति का योग अवश्य मिलता है। एक के बिना दूसरे का वर्णन निरपेक्ष प्रतीत होगा। निसर्ग में जो हलचल या हँसी-खुशी है वह मानव जीवन में उसके हास-विलास के रूप में प्रकट होती है तथा जनगण के मन में जो प्रेम-विरह जनित व्यथा के व्यापार होते हैं, जो अभाव की टीस और कसक है वह प्रकृति की भयंकरता के रूप में प्रकट होती है जैसे बादलों का गरजना, दामिनि की दमक। भादो की तोमतिमिरमय भयावनी रात। वियोगिनी अबला के हृदय की शून्यता के ध्योतक हैं। अतएव यह निर्विवाद है कि भारतीय लोकगीतों में पावस का स्थान जितना महत्त्वपूर्ण है उतना और किसी भी ऋतु का नहीं।
Image: A 19th century strolling singer musician playing Tingadee instrument, Madras
Image Source: Wikimedia Commons
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