भारतीय हिंदी समाज और प्रेमचंद

भारतीय हिंदी समाज और प्रेमचंद

युग प्रतिनिधि कलाकार प्रेमचंद हिंदी उपन्यास के प्रेरणासूत्र और प्रकाश-स्तंभ हैं। उन्होंने हिंदी उपन्यास को उसकी सहजभूमि पर प्रतिष्ठित ही नहीं किया, भावी उपन्यासकारों के लिए दिशा-संकेत भी दिए। प्रेमचंद का साहित्य हिंदी ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य की अनुपम उपलब्धि है। कथात्मक साहित्य के नाम पर प्रेमचंद के पूर्व जो कुछ लिखा गया, वह कल्पना-प्रसूत मनोरंजनात्मक रहा है अथवा उपदेशात्मक। हिंदी उपन्यास साहित्य का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। भारतेंदु ने अपने एक मित्र संतोष सिंह को एक पत्र इस संबंध में लिखा था, जिसका एक उदाहरण इस प्रकार है–‘जैसे भाषा में कुछ नाटक बन गए हैं, अबतक उपन्यास नहीं बने हैं। आप या हमारे पत्र के योग्य सहकारी संपादक जैसे बाबू काशीनाथ व राधाचरण गोस्वामी जी कोई भी उपन्यास लिखें वो उत्तम हो।’ भारतेंदु दूसरे के सामने विचार रखते थे, परंतु उसमें पहले स्वयं प्रयास करते थे। यद्यपि उपन्यास के क्षेत्र में वे ज्यादा कुछ नहीं कर सके। खड्गविलास प्रेस से प्रकाशित ‘पूर्ण प्रकाश चंद्र प्रभा’ पर उनका नाम है किंतु यह अनूदित उपन्यास शिवनंदन सहाय के अनुसार वस्तुतः किसी दूसरे लेखक का है जिसे भारतेंदु ने संशोधन भर किया था। ब्रजरत्न दास के अनुसार ‘पूर्ण प्रकाश चंद्रप्रभा’ भारतेंदु की बंगालिन रक्षिता, मल्लिका के द्वारा अनुवादित हुआ था। भारतेंदु ने अपनी पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ में ‘कुछ आपबीती कुछ जगबीती’ शीर्षक से एक गल्प लिखना शुरू किया किंतु वह अपूर्ण रह गई। राधाचरण गोस्वामी ने भी कुछ अनुवाद ही किए, मौलिक उपन्यासों की रचना नहीं की।

भारतेंदु युग में कुछ उपन्यास छपते भी थे, केवल पत्र-पत्रिकाओं में ही-जैसे ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में ‘मालती’ और ‘सारसुधा निधि’ में ‘तपस्विनी’। भारतेंदु के बाद प्रथम उल्लेखनीय उपन्यासकार हैं श्रीनिवास दास जिनका उपन्यास ‘परीक्षागुरु’ प्रकाशित हुआ। वस्तुतः हिंदी-उपन्यास का सूत्रपात उनकी इस रचना से होता है। इसमें यह कथा है कि एक अमीर कैसे बिगड़ता है और फिर मित्र की सहायता से कैसे उसके चरित्र में सुधार होता है। इसमें आवश्यकता से अधिक उपदेश है। बालकृष्ण भट्ट का ‘सौ अजान और एक सुजान’ भी उल्लेखनीय उपन्यास है। बीच-बीच में पंचतंत्र की तरह नीतिश्लोक, दोहों, कहावतों इत्यादि की भरमार है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें रोचकता है। इसमें यथार्थ का सच्चा हू-ब-हू चित्रण है।

प्रेमचंद के पहले हिंदी उपन्यासों की तालिका देखें तो ज्ञात होगा कि इनमें तीन धाराएँ हैं–(1) देवकीनंदन खत्री की तिलस्म और ऐयारी की धारा (2) गोपालशरण गहमरी की जासूसी और साहसिक धारा (3) किशोरीलाल गोस्वामी की सामाजिक-ऐतिहासिक रोमांस की धारा। प्रेमचंद ने ‘सेवासदन’ लिखकर गोस्वामी जी के क्षेत्र (सामाजिक, ऐतिहासिक रोमांस की धारा) में पदार्पण किया। प्रभाव की दृष्टि से देवकीनंदन खत्री वाली धारा का इससे ज्यादा माना जा सकता है। प्रेमचंद ने स्वयं लिखा कि बड़े चाव से तिलस्मी उपन्यास पढ़ते थे। हिंदी-साहित्य पर भारतेंदु काल से ही बंगला का प्रभाव, अनुवादों के द्वारा पड़ रहा था। प्रेमचंद ने भी स्वीकार किया है कि उन्हें टैगोर के गल्पों के अँग्रेजी अनुवाद से काफी प्रेरणा मिली।

प्रेमचंद ने भारतेंदु युग से भिन्न नवीन युग का कैसे और कब प्रवर्तन किया था, यह भी विचारणीय बिंदु है। हम सभी जानते हैं कि राजनीति में अहिंसक क्रांति की बातें होती हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसक क्रांति को ही अपना हथियार बनाया और सफल हुए। प्रेमचंद ने भी हिंदी-कथा-साहित्य के क्षेत्र में अहिंसक क्रांति की थी। प्रेमचंद ने कही भी संघर्ष का समर्थन नहीं किया। वे सर्वत्र अहिंसा और सहयोग के समर्थक रहे। उनके अनुसार संघर्ष पशुता का लक्षण है, सहयोग मानवता का। वे वर्ग-भेद को मिटाकर आर्थिक और सामाजिक समानता की स्थापना करना चाहते हैं। नए समाज के निर्माण में वर्ग-संघर्ष की जरूरत नहीं मानते। प्रेमचंद चाहते थे कि शोषक और शोषित के बीच जो खाई है उसे तभी समाप्त किया जा सकता है जब जमींदार और उद्योगपति अपना नजरिया बदलें और उदार बनें और साहित्यकार जनता के हितार्थ साहित्य सृजन करने में लगें। प्रेमचंद के जीवनकाल में ही हिंदी के अन्य साहित्यकारों-जैनेंद्र, अज्ञेय आदि ने ऐसा किया और इनकी भरपूर चर्चा रही। इसको लेकर साहित्य में भूकंप आ गया। आलोचकों के बीच विचारों का महाभारत छिड़ गया। किंतु प्रेमचंद अडिग रहे। समर्थकों एवं विरोधियों, दोनों में से किसी की परवाह नहीं की। कथा साहित्य के भारतेंदु काल को प्राक्-प्रेमचंद-युग कहना ही युक्ति संगत साबित हुआ और जैनेंद्र युग या अज्ञेय युग के बदले प्रेमचंदोत्तर युग का ही नामकरण किया गया। प्रेमचंद ने पूर्ववर्ती युग की धारा को बिना आघात पहुँचाए उसका परिष्कार किया। नए मूल्य स्थापित किए। कोई भी हंगामा नहीं हुआ और काम बहुत बड़ा हो गया। प्रेमचंद ने कथा साहित्य में जो युगांतकारी परिवर्तन किया, वही कुछ दिनों के बाद कविता के क्षेत्र में छायावादी कवियों ने किया।

प्रेमचंद के पहले देवकीनंदन खत्री ऐसे रोचक उपन्यास लिख चुके थे जो रोचकता में पुराने किस्सों से होड़ लेते थे। प्रेमचंद ने खत्री की तरह तिलस्म और ऐयारी के सहारे अपनी कहानियों या उपन्यासों को रोचक नहीं बनाया। वे इनके बिना ही काफी रोचक हैं। प्रेमचंद ने अपने ढंग से रोचकता के गुण को आगे बढ़ाया। किशोरीलाल गोस्वामी ने बंगला से प्रभावित होकर रूमानी प्रेमपूर्ण वर्णन और कवित्वपूर्ण भाषा को लेकर कथा को रोचक बनाया। प्रेमचंद ने यथार्थ और आदर्श का समन्वय करते हुए ऐसी रोचकता बनाए रखी, जैसी गोस्वामी के कथा-साहित्य में नहीं मिलती। इसे ही आज सभी लोग युगांतर करना कहते हैं। प्रेमचंद ने ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, लिखकर पूर्ववर्ती युग से भिन्न प्रेमचंद-युग का प्रवर्तन किया। आगे चलकर प्रेमचंद युग से भिन्न युग की स्थापना के लिए प्रेमचंद स्वयं कुछ आगे की दिशा में नए प्रयोग के साथ चल पड़े थे। ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ और ‘कर्मभूमि’ उस प्रयोग के प्रमाण हैं जिसका शिखर ‘गोदान’ है। उनके कथा-प्रयोग का एकमात्र लक्ष्य था भारतीय जीवन का पूर्ण चित्रण। प्रेमचंद इसमें पूर्णतः सफल रहे और आजतक उनके साहित्य की प्रासंगिता बनी हुई है।
प्रेमचंद भारतीय समाज के लिए सदा प्रासंगिक रहे हैं और आज उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गई है। हमारा समाज आगे के बदले पीछे जा रहा है। जिस पिछड़ेपन के विरुद्ध प्रेमचंद ने संघर्ष किया था, वह आज तो और भी सघन हो गया है। आर्थिक स्तर पर जनता की गरीबी, राजनीतिक स्तर पर विघटनकारी तत्त्वों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। सांस्कृतिक स्तर पर जातीयता का जहर फैलता जा रहा है, धार्मिक उन्माद बढ़ा है। समाज को पीछे ढकेलनेवाली जिन शक्तियों से प्रेमचंद लड़े थे, उनसे समाज के प्रभावशाली गिरोहों ने उन्हें अपने निजी क्षुद्र स्वार्थों के लिए समझौता कर लिया है। जिनपर समाज और इतिहास को बदलने की जिम्मेवारी दी गई है, वह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं तो होगा क्या? और बुरे दिन आएँगे। साहित्यकारों को इन विपरीत स्थितियों को समाप्त करने के लिए साहित्य को एक औजार के रूप में उपयोग करना चाहिए, जैसा प्रेमचंद ने किया था। जहाँ संस्कार है, सकारात्मक आचार और विचार हैं, वहाँ प्रेमचंद हैं। वह उन्हें बनाते हैं, निखारते हैं, सँवारते हैं। प्रो. देवराज साहित्य का प्रयोजन के संबंध में अपना मत इन शब्दों में व्यक्त करते हैं–‘साहित्यकार को हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि पीड़ित और शोषित मानवता से नेत्र और कान मूँदकर हम कोई भी सुधार नहीं कर सकते और न तो साहित्य और कला का कोई महत्त्वपूर्ण काम कर सकते हैं। कला का काम संपूर्ण जीवन का मूल्यांकन और व्याख्या करना है। श्रेष्ठ कलाकार बनने के लिए अनुभूति में गहराई और व्यापकता दोनों की गुणों का सन्निनेश होना चाहिए। महान कलाकार अपने युग का पूर्ण प्रतिनिधि, संपूर्ण व्याख्याता है। उसकी वाणी में युग के सारे संघर्ष, सारे राग-विराग, समस्त प्रश्न संदेह मूर्तिमान होकर बोलते या ध्वनित होते हैं।’

इस कथन के आलोक में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के संपूर्ण कथा साहित्य पर दृष्टिपात करें तो बेहिचक कहा जा सकता है कि एक महान साहित्यकार और कलाकार से जो अपेक्षाएँ हैं, उस दायित्व का उन्होंने पूर्णरूपेण पूरा किया। वे संस्कार विचलित होने से हमें बचाते हैं, साधारण जनता के आपसी संबंधों को मजबूत करते हैं, जनता के शत्रुओं की पहचान कराते हैं। वे समाज व्यवस्था को बदलने की प्रेरणा देते हैं। उनके पात्र सभी धर्मों और सभी वर्गों से आते हैं। अलगाव किसी प्रकार हो, उसे समाप्त करने का संदेश प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से देते हैं। शोषण मुक्त नए मानवीय संबंधों के समाज का निर्माण करना है। यही उनकी प्रासंगिकता है।

प्रेमचंद ने अतीत का गौरव-गान नहीं किया और न भविष्य के लिए हैरतअंगेज कल्पना की। वे पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ जमीनी हकीकत, यानी वर्तमान समय की अवस्था का विश्लेषण करते रहे। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में–‘वे शताब्दियों से दलित, अपमानित और उपेक्षित बदहाल किसानों की आवाज थे, पर्दे में कैद पद-पद पर लांछित असहाय नारी-जाति की महिमा के वकील थे। गरीबों और बेकसों के महत्त्व के प्रचारक थे।’ ‘अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षाओं, दुख-सुख और सूझ-बूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। महलों से लेकर झोपड़ियों तक, खोमचेवालों से लेकर बैंकों तक, गाँवों से लेकर शहरों तक सबका जीवंत चित्रण मिलेगा। आप बेखटके प्रेमचंद का हाथ पकड़कर मेड़ों पर गाते हुए किसान को, कोठे पर बैठी हुई बार वनितों को, रोटियों के लिए ललकते हुए भिखमंगों को, दुर्बल हृदय बैकरों को, ढोंगी पंडितों को, फरेबी पटवारी को, नीच हृदय अमीर को देख सकते हैं और निश्चिंत होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ प्रेमचंद ने अपनी आँखों से देखा, वह गलत नहीं है। हिंदी-उर्दू साहित्य में अबतक एक भी साहित्यकार नहीं हुआ जो समाज का इतना सच्चा-पारदर्शी चित्र जनता के समक्ष रख सके। आप यह महसूस करेंगे कि जो मिश्रित संस्कृतियों और संपदाओं से लद नहीं गए हैं, जो अशिक्षित और निर्धन हैं, जो आत्मबल रखते हैं और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं, जो सुसंस्कृत हैं, जो सपन्न हैं, जो चतुर हैं, जो दुनियादार हैं, जो शहरी हैं।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार यही प्रेमचंद का अपना जीवन-दर्शन है, इसीलिए उनकी गणना गोर्की और तालस्ताय जैसे महान लेखकों से की गई है। बकौल श्रीराम त्रिपाठी, प्रेमचंद आधुनिक भारत के उन चंद साहित्यकारों में अव्वल हैं जो कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। कबीर का बुद्धिवाद दरअसल प्रेमचंद में ही विकसित होता है। कबीर का चिंतन और कर्म बहुत अंशों में द्वंद्ववाद पर आधारित है। जिस तरीके से मार्क्स ने हीगेल को पैरों के बल खड़ा किया, जो सिर के बल खड़ा था; कबीर भी सिर के बल खड़े भारतीय समाज को पैरों के बल खड़ा करने की कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश को तत्कालीन समाज के पुरोधा रहस्यवादी और उल्टा बोलने वाला कहते हैं। कबीर तत्कालीन समाज में प्रचलित देखने के नजरिए से जुड़कर ही आसमान को छुआ जा सकता है। प्रेमचंद कबीर की तरह जमीन से जुड़कर ही जिंदगी, आदमी और उसकी दुनिया को देखते हैं। उन्होंने कबीर को आत्मसात किया है। इसलिए कबीर-कबीर की माला नहीं जपते, बल्कि उनसे प्राप्त राय को अमल में लाते हुए उसे भी विकसित करते हैं। भारतीय हिंदी समाज को कबीर की तरह ही प्रेमचंद भी पूर्णता में समझते हुए उसे विकास के पथ पर ले जाने के उपक्रम में अपना रचनात्मक सहयोग करते हैं।

प्रेमचंद की उपन्यास कला की कसौटी–सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि उपन्यासकला के कितने तत्त्व हैं और उन तत्त्वों के आधार पर ही प्रेमचंद की उपन्यास कला की पड़ताल होनी चाहिए। उपन्यासकला के छह तत्त्व हैं :–कथावस्तु या कथानक, पात्र अथवा चरित्र-चित्रण, कथोपकथन अथवा संवाद, देशकाल, शैली और उद्देश्य।

कथानक या कथावस्तु–उपर्युक्त छह तत्त्वों में भी मुख्य कथावस्तु और पात्र है। देशकाल कथावस्तु का ही अंग है जो उसे स्वाभाविक और विश्वसनीय बनाता है। उद्देश्य वह परिणाम है जो कथावस्तु/कथानक द्वारा प्राप्त किया जाता है और संवाद तथा शैली उसे प्राप्त करने के साधन हैं। जहाँ कथावस्तु ही नीरस है, वहाँ उपन्यास उपन्यास नहीं रह जाता। उपन्यास की कथावस्तु रोचक होनी चाहिए। उपन्यासकार इसे रोचक बनाने के लिए कुछ उपकरणों का उपयोग करता है। ये उपकरण हैं–कथासूत्र (थीम), मुख्य कथानक (प्लॉट), प्रासंगिक कथाएँ या अंतर्कथाएँ (एपिसोड), उपकथानक (अंडर प्लॉट) आदि जो मुख्य कथा के पोषण के लिए काम करती हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाता है।

जहाँ तक कथावस्तु का प्रश्न है, प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में सामाजिक, सांस्कृतिक, सामयिक, राजनैतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। इसमें भी उनकी ग्राम्य जीवन से ही उन्हें विशेष प्रेम है। उनके ग्राम्य जीवन-चित्रण में जमींदार और किसान तथा अन्य ग्रामीण वर्ग का चित्रण मिलता है। एक किसान के जीवन का संबंध ग्रामीण वातावरण में जितने वर्गों से हो सकता है उन सबका वर्णन प्रेमचंद ने किया। जैसे अपने उपन्यास ‘सेवासदन’ में केवल वेश्या समस्या का चित्रण किया। स्त्रियों द्वारा वेश्यावृत्ति अपनाने का मूल कारण तिलक-दहेज की कुप्रथा, अनमेल विवाह, पति द्वारा पत्नी की प्रताड़ना, उसके प्रति अमानवीय व्यवहार रहा है।

सेवासदन (1918 ई.)–सेवा सदन में प्रेमचंद ने पहली बार पति से विद्रोह करनेवाली सुमन जैसी नारी को प्रस्तुत किया जो स्वयं वेश्यावृत्ति अपनाती है। सामाजिक विषमताएँ उसे वेश्या बनाती है। दारोगा कृष्णचंद्र को अपनी पुत्री सुमन के विवाह के लिए दहेजलोभी परिवार की माँग पूरी करने के लिए रिश्वत लेना पड़ता है और वह जेल जाता है। सुमन का विवाह अच्छे घर में नहीं होता। पति-पत्नी के स्वभाव में कहीं मेल नहीं खाता। फलतः गृह-कलह के कारण दांपत्य जीवन विषाक्त हो जाता है और सुमन परिस्थितिवश वेश्यावृत्ति अपना लेती है। किंतु उसे अपने अनुभवों से ज्ञात हुआ कि ‘वेश्या व्यवसाय भी भयंकर गुलामी है जहाँ न व्यक्तित्व की पवित्रता सुरक्षित है और न आत्मा की प्रतिष्ठा।’ फिर छटपटाने लगती है। मुक्ति पाने की इच्छा से एक निःस्वार्थ युवक सदन के संपर्क में आती है और विधवाश्रम में आश्रय लेती है। सुमन की मुक्ति यह द्वितीय चरण है। सदन के घर में भी उसे वह सम्मान नहीं मिलता। फलस्वरूप उसका वहाँ भी मोह भंग होता है और उसने संकल्प किया कि–‘उसका भविष्य वहाँ होगा जहाँ जीवन का प्रभात होगा, कभी उसमें भी उषा की झलक दिखाई देगी, कभी सूर्य का प्रकाश होगा। अंततः भौतिक अकर्षणों से मुक्त होकर सेवासदन की राह पकड़ ली और सेवा में जुट गई। अब सुमन पूर्णरूपेण एक तपस्विनी रूप अपना लेती है और सेवा के कर्म में जुट जाती है। उसमें न वह कोमलता है, न वह सफलता, न वह मुस्कुराती हुई आँखें, न हँसते हुए होंठ। रूप लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही है।’

प्रेमचंद ने वेश्या समस्या के निराकरण और उपचार भी बतलाया। जैसे उपदेश द्वारा वेश्यागामियों को समझाना, वेश्याओं को सार्वजनिक स्थानों से अलग स्थानांतरित कराना, उन्हें इस नारकीय जीवन से हटाने के लिए आर्थिक सहायता देना, उनके लिए आश्रम में स्थान देना और शिल्प उद्योग की शिक्षा देकर आत्मनिर्भर बनाना। वे आदर्शोन्मुखी यथार्थ के चतुर चितेरा थे। डॉ. म.ह. राजूरकर के अनुसार ‘सेवासदन’ को एक जागरूक कलाकार की कला-चेतना का प्रथम उन्मेष कहा जा सकता है।

प्रेमाश्रम (1922 ई.)–1918-19 में लिखित और 1922 में प्रकाशित प्रेमाश्रम की कहानी 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के भारतीय किसानों और जमींदारों के संघर्ष की कहानी है। प्रेमचंद का यह पहला उपन्यास है। जमींदारों और कर्मचारियों द्वारा किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार जैसे-किसानों से बेगार लेना, लगान में इजाफा करना, जमीन छुड़ा लेना, घर में आग लगवा देना, झूठे मुकदमों में फँसा देना। प्रेमचंद की दृष्टि में व्यक्ति नहीं कर्म बुरा होता है। जमींदार भी दो तरह के हैं। प्रमुख पात्र ज्ञानशंकर अत्याचारी जमींदार का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी तरफ प्रभाशंकर किसानों के साथ सहानुभूति और भाईचारे का संबंध रखने वाले जमींदार का प्रतिनिधित्व करता है। प्रेमशंकर अपना सर्वस्व त्यागकर प्रेमाश्रम की स्थापना करते हैं। फलस्वरूप कृषक मनोहर और उसका पुत्र बलराज जो नई पीढ़ी का युवक है जमींदारी प्रथा के विरुद्ध बगावत करता है। पुरुष पात्रों के अलावा महिला पात्रों में गायत्री, विद्या, श्रद्धा जैसी महिलाएँ भी हैं जो शील, स्वभाव एवं कर्म से श्रद्धा योग्य हैं। 1920-21 में जब ‘प्रेमाश्रम’ लिखा गया था, देश में ग्राम आंदोलन और किसान आंदोलन का संगठन नहीं हुआ था। साम्यवादियों के मोर्चे भी बाद में बनने शुरू हुए। प्रेमचंद गाँधी के मानस पुत्र थे। उपन्यास कला की दृष्टि से ‘प्रेमाश्रम’ एक सुंदर कृति है।

निर्मला (1927 ई.)–निर्मला एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें वृद्ध विवाह के दोष दिखलाए गए हैं। इसमें युगों से दबी हुई नारी की दर्दभरी कहानी है। कहानी अत्यंत करुणा भरी है। दहेज प्रथा के कारण पंद्रह वर्षीय निर्मला का विवाह उसकी विधवा माता को मजबूर होकर एक 40 वर्षीय कुरुप वकील लाला तोताराम से कर दी जाती है। पहली पत्नी से तोताराम के तीन संताने हैं। बड़ा लड़का निर्मला की आयु का ही है। तोताराम को अपनी पत्नी पर संदेह होता है जो घर की बरबादी का कारण बन जाता है। वृद्धा ननद की कोप दृष्टि का कष्ट भी सहना पड़ता है। अंत में निर्मला की मृत्यु हो जाती है। तत्कालीन समाज की व्यवस्था वृद्ध विवाह एवं अनमेल विवाह का यथार्थ चित्रण है। हालाँकि विमाता के रूप में निर्मला का व्यवहार स्नेहपूर्ण रहा। कथा संगठन की दृष्टि और उपन्यास कला की दृष्टि से रचना उत्तम कोटि की है।

रंगभूमि (1925 ई.)–‘रंगभूमि’ में ही पहली बार प्रेमचंद जी ने पूँजीवादी पद्धति के दोषों को अभिव्यक्त किया है। यह सामंतवाद या जमींदारी प्रथा से भी अधिक हानिकारक और खतरनाक है। गरीबों की झोपड़ियों को उखाड़कर यह कल-कारखाना बना रहा है। गाँवों का सरल तथा नैतिक जीवन नष्ट करके पूँजीवाद उसे नष्ट कर रहा है। जनसेवक सूरदास उसका विरोध करता है। इस उपन्यास पर गाँधीवाद का व्यापक प्रभाव नजर आता है। इस दृष्टि से ‘प्रेमाश्रम’ ‘गोदान’ की पूर्व भूमिका कहा जा सकता है। विषयवस्तु और रचना कौशल दोनों दृष्टि से ‘रंगभूमि’ प्रेमचंद जी के श्रेष्ठ उपन्यासों में है, इसमें कोई संदेह नहीं कि कला की दृष्टि से ‘गोदान’ के पश्चात् ‘रंगभूमि’ का ही स्थान है। इसमें एक ओर ईसाई पात्र मिस्टर क्लार्क साम्राज्यवाद का प्रतीक है, जानसेवक पूँजीवाद का, सूरदास गाँधीवाद का और कुमारी सोफिया जो जान सेवक की पुत्री है एनेवेसेंट की, विश्वधर्म की प्रतीक है। ईसाई पात्र पांडेपुर गाँव में एक सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता है, जिसे सूरदास अपनी जमीन देना नहीं चाहते और इसी संघर्ष में सत्याग्रह करता हुआ अपना बलिदान कर देता है। मृत्यु शरशय्या पर पड़े सूरदास की यह उक्ति अन्याय का प्रतिकार करने तथा निरंतर संघर्ष और बलिदान की प्रेरणा देती है–‘हम हारे तो क्या, मैदान से तो नहीं भागे, रोये तो नहीं, धांधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक-न-एक दिन हमारी जीत होगी। अवश्य होगी।’ यथार्थवादी शैली में लिखित यह उपन्यास तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक जीवन का सही चित्रण करने में अत्यंत सफल है।

कायाकल्प (1928 ई.)–इस उपन्यास में प्रेमचंद जीवन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए यह बतलाना चाहते हैं कि सच्ची मानसिक शांति प्रेम में है, वासना में नहीं। वासना सदा अतृप्ति और बेचैनी पैदा करती है। रानी देवप्रिया के जीवन से यही स्पष्ट होती है। वह अतृप्ति की आग में जलती रहती है। बाद में धीरे-धीरे उसकी मोह-तंद्रा नष्ट हो जाती हैं और तपस्विनी बन जाती है। वासनाओं और तृष्णाओं से मुक्ति ही तो जीवन मुक्ति है, यही तो सच्चा कायाकल्प है। इसके अतिरिक्त धर्म के पाखंड की भी खिल्ली उड़ायी है। इसके लिए वे व्यक्तियों को तथा शासन को भी दोषी मानते हैं। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता और झगड़ों का भी सजीव चित्रण है। स्वराज्य और समाज-सुधार की बातें पीछे पड़ गई हैं। कथा-संगठन शिथिल होते हुए भी उपन्यास में रोचकता है। उपन्यास-कला में रोचकता का मुख्य स्थान है। रास-परिणाम के कारण कथा बड़ी रोचक है। वीभत्स शृंगार और करुणा रसों की त्रिवेणी इस रचना की बड़ी शक्ति है।

गबन (1931 ई.)–‘गबन’ में प्रेमचंद जी ने पहली बार मध्यवित्त-वर्ग के यथार्थ जीवन और मनोवृत्तियों का चित्रण किया है। इस वर्ग की वास्तविक आय कम है किंतु झूठी शान रखने के लिए लोग अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करते हैं और आय तथा व्यय के असंतुलन को बेईमानी, रिश्वत, झूठ, हेरा-फेरी आदि उपायों से पूरा करना चाहते हैं। प्रेमचंद आदर्श जीवन व्यतीत करने की सलाह देते हैं। प्रेमचंद का सुधारवादी दृष्टिकोण यहाँ मुखरित है।

कर्मभूमि (1932 ई.)–इस उपन्यास में शहर और गाँव की दो अलग-अलग कथाएँ हैं। अछूत समस्या को प्रमुखता से उठाया गया है। मंदिरों में अछूतों की छाया भी नहीं पड़ने दी जाती। दूसरी ओर महंत आशाराम गिरि मठाधीश बने हुए हैं। प्रेमचंद ने उसके राजसी ठाठ का बड़ा सुंदर चित्रण किया है। सोने की कुर्सी और मखमल के गद्दे पर महाराज विद्यमान हैं। ठाकुर जी के नाम पर धन का कितना अपव्यय होता है। दुश्चरित्र पंडे पुजारियों का पोल खोलता है। प्रेमचंद के आलोचकों ने उन्हें गाँधीवादी आदर्शवादी मानकर खिल्ली उड़ाई है, पर ‘कर्मभूमि’ एक यथार्थवादी उपन्यास है। एक वस्तुवादी लेखक ने समाज में व्याप्त जो दृश्य देखा, वही चित्रित किया। अछूतोद्धार के लिए शिक्षा के व्यापक प्रचार की बात की तथा नारी के जागरण की भी वकालत की। चूँकि प्रेमचंद एक परिवर्तनवादी, सुधारवादी लेखक थे। उपन्यास कला की दृष्टि से यह उपन्यास तब भी प्रासंगिक था, आज भी। यह गाँधी के स्वराज की कर्मभूमि है। इसमें सत्याग्रह के साथ व्यावहारिक हल भी प्रस्तुत है।

वरदान (1921 ई.)–वरदान में प्रेमचंद जी ने अपनी दृष्टि असली हिंदुस्तान पर केंद्रि किया है। विश्व के आर्थिक संकट और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास का मुख्य विषय देशभक्ति है। गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास के घेरे में घिरी हुई आबादियाँ प्रेमचंद को बेचैन करती है। 20वीं सदी के आरंभ में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में जो जबर्दस्त उभार आया था, प्रेमचंद ने उससे प्रभावित होकर यह उपन्यास लिखा। इस उपन्यास में उनकी प्रौढ़ प्रतिभा के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं और बड़े जन आंदोलन की पहली आहट इस उपन्यास में साफ सुनाई देती है। प्रेमचंद के पास समाज की बुराइयों और विकृतियों के विषय में कहने के लिए बहुत कुछ है, किंतु वह कथारस और भाव-रस में डुबाकर अभी वह सारी बातों को कह नहीं पा रहे हैं। ‘वरदान’ की कहानी असफल प्रेम की कहानी है। प्रताप गरीब घर का लड़का है और विरजन अमीर घर की बेटी है। दोनों के बीच का प्रेम समाज की विषमताओं के कारण चूर-चूर हो जाता है। प्रताप प्रेम में विफल होकर एक समाजसेवी बन जाता है, जो प्रेमचंद का उद्देश्य है। यहाँ हम उपन्यासकार की आदर्शवादी दृष्टि को देख सकते है। प्रेमचंद कथारस और भावरस को गूँथने के लिए एक राह की तलाश में थे जो उन्हें ‘सेवासदन’ आदि उपन्यासों में मिल गई। उपन्यास कला की दृष्टि से यह उपन्यास प्रेमचंद की आरंभिक कला का परिचय देता है।

प्रतिज्ञा (1929 ई.)–‘वरदान’ की अपेक्षा ‘प्रतिज्ञा’ एक सुलझी हुई रचना है। इसमें विधवा नारी की समस्या है। इसमें प्रोफेसर दीनानाथ और वकील अमृत राय इन दो पात्रों की कथा है। अमृत राय विधुर है। समाज सुधार की दृष्टि से अमृत राय ने किसी विधवा से विवाह करने का निश्चय कर लिया। अंत में विधवा समस्या का समाधान वनिताश्रम के रूप में सुझाया गया है। इस उपन्यास का संबंध प्रेमचंद के निजी जीवन से भी है। इसी का परिणाम है कि 1905 ई. में उन्होंने शिवरानी देवी एक विधवा से विवाह कर अपने गृहस्थ को सुखी बनाया। कला की दृष्टि से यह उपन्यास ‘वरदान’ से एक कदम आगे है।

गोदान (1936 ई.)–प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘गोदान’ है। ‘डॉ. त्रिभुवन सिंह के शब्दों में ‘गोदान में अपने युग का प्रतिबिंब भी है और आनेवाले युग की प्रसव-व्यथा भी। शैली में उसे भारतीय जीवन का महाकाव्य कहा जा सकता है।’ इसमें ग्राम्य जीवन और नगर जीवन के सभी वर्गों का चित्रण है। गाँव में अगर किसान, महाजन, जमींदार, कारिंदा, पटवारी, ग्रामीण जवान छोकरे पंडित, दारोगा आदि सभी का चित्रण है। तो शहरी जीवन के सभी वर्गों का चित्रण है। शहर में जमींदार, रईस, पत्रकार, अफसर, मिल मालिक, असेंबली के मेंबर, प्रोफेसर, वकील, इंश्योरेंस के एजेंट आदि सभी मिलेंगे जो अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस उपन्यास के केंद्र में होरी नामक किसान है, जो अपने वर्ग ‘किसानों’ का प्रतिनिधित्व करता है। होरी का सीधा संघर्ष पूँजीपतियों से नहीं, उसका पहला संघर्ष साहूकार से होता है। राय साहब उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। मालती और मेहता गरीबों के प्रति सिर्फ मौखिक सहानुभूति रखते हैं। उच्च वर्ग के चित्रण का उद्देश्य यह था कि गरीबी और अमीरी के बीच के अंतर को दर्शाया जा सके। इस उपन्यास में उनके परिपक्व जीवनानुभव और साहित्यिक प्रतिभा तथा प्रौढ़ के दर्शन पग-पग पर होते हैं। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का यह एक महत्त्वपूर्ण औपन्यासिक कृति है। कथा साहित्य में शिल्प विधान का जो कौशल प्रेमचंद में था, वह अन्यत्र दुर्लभ है। कथावस्तु या कथानक की दृष्टि से प्रेमचंद के सारे उपन्यास सफल और पूरी तरह से सार्थक हैं, चूँकि उन्होंने जिन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक समस्याओं का चित्रण किया वह सामसायिक तो था ही, आज भी प्रसांगिक है। प्रेमचंद एक तरह से भविष्य के लिए मार्ग-दर्शी बन गए हैं।

मंगलसूत्र (1948 ई.)–‘मंगलसूत्र’ प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास है, जिसे उन्होंने ‘गोदान’ के बाद लिखना शुरू किया था किंतु वे पूरा नहीं कर सके। वे केवल चार अध्याय ही लिख सके थे और गोलोकवासी हो गए। यह उपन्यास उनके मारणोपरांत 1948 ई. में अधूरे रूप से प्रकाशित हुई। इस अधूरे उपन्यास का नायक एक लेखक है, जिसका नाम देवकुमार है। उसमें मध्यमवर्ग का चित्रण है। इसमें श्रम के शोषण साहित्य से पता चलता है कि प्रेमचंद जीवन के कटु सत्य से बहुत कुछ सीख रहे थे। उनकी पुरानी मान्यताएँ टूट रही थी और ‘गोदान’ के शब्द भी जारी थे। उनके पुत्र श्रीपत राय जी कहते हैं कि बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा था कि जीवन में सच्चाई के रास्ते पर चलकर ही जिया जा सकता है। उन्होंने इस कथ्य को ‘मंगलसूत्र’ के माध्यम से अभिव्यक्त करने का संकल्प किया था किंतु उनकी यह कृति पूरी नहीं हो सकी। उनका यह उपन्यास आत्मकथापरक होता। ‘मंगलसूत्र’ में उन्होंने शहरी जीवन का बड़ा वीभत्स चित्र खींचा है। आलोचक इसे एक क्रांति की पुकार के रूप में देखते हैं।

पात्र अथवा चरित्र चित्रण–उपन्यास का दूसरा प्रमुख तत्त्व है चरित्र। यदि कथानक उपन्यास का मेरूदंड है तो चरित्र उसका प्राण है। ई.एम. फास्र्टर ने पात्रों का वर्गीकरण चरित्र-चित्रण की पद्धति के अनुसार दो भागों में किया है–(क) फ्लेट (स्थित) तथा राउंड (प्रगतिशील)। दूसरे शब्दों में आलोचकों ने इसे व्यक्ति-चरित्र या वर्ग-चरित्र का नाम दिया है। ‘गोदान’ का पात्र ‘होरी’ वर्ग-चरित्र का उदाहरण है। वह किसान वर्ग का प्रतिनिधि है। प्रेमचंद के बाद वर्ग-चित्रण करने वाले उपन्यासकारों में यशपाल और रांगेय राघव प्रमुख हैं।

चरित्र चित्रण को रोचक जमने के लिए उपन्यासकार को कुछ मूलभूत विशेषताओं पर ध्यान देना पड़ता है–ये गुण या विशेषताएँ हैं–(1) मौलिकता (2) अनुकूलता (3) स्वाभाविकता (4) सजीवता और (5) सहास्तिवता।

कथानक और पात्रों के आधार पर उपन्यासों को तीन भागों में विभक्त किया जाता है–(1) घटनाप्रधान (2) चरित्र प्रधान (3) मनोवैज्ञानिकता प्रधान (इसमें इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय मुख्य हैं) चरित्र चित्रण के कौशल से उपन्यासकार महान उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल सिद्ध होता है।
प्रेमचंद की उपन्यास कला और चरित्र चित्रण–जहाँ तक चरित्र-चित्रण का प्रश्न है, प्रेमचंद के उपन्यासों में कुछ पात्र ऐसे हैं जो अमरत्व के गुणों से संपन्न और साहित्य की महान निधि हैं। जैसे–‘सेवा सदन’ की सुमन, ‘गोदाम’ का होरी, ‘कायाकल्प’ का चक्रधर, ‘रंगभूमि’ का सूरदास, ‘निर्मला’ की निर्मला, ‘प्रेमाश्रम’ का प्रेमशंकर और ‘कर्मभूमि’ का अमरकान्त। उनके पात्र आदर्शवादी बने रहे हैं। प्रेमचंद की स्त्रीपात्र अत्याचार को सहनेवाली, उसकी आग में जलनेवाली है। प्रेमचंद के चरित्र चित्रण की एक और विशेषता उनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। प्रेमचंद ने हमें पात्रों के अंतर्जगत से भी परिचित कराया है। सुमन और निर्मला का चरित्र पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है। इसीलिए उनके पात्र सजीव हैं। जितनी पैनी उपन्यासकार की मनोवैज्ञानिक अंतरदृष्टि होगी, उतनी ही वह अपने पात्रों को सजीव रूप में उपस्थित करने में सफल होगा। गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित प्रेमचंद ने मनोवैज्ञानिक भूमिका पर पात्रों के जीवन पर उतारा है। ‘गोदान’ का होरी ग्रामीण जीवन की सारी बुराइयों और अच्छाइयों को अपने चरित्र में आत्मसात् किए हुए है। उनकी मनःस्थिति का चित्रण करके लेखक ने पाठक की सहानुभूति को उभारा है। इस प्रकार प्रेमचंद की उपन्यास कला में निखार चरित्र-चित्रण के कौशल का भी कमाल है।

कथोपकथन/संवाद–प्रेमचंद अपने उपन्यासों में अधिकांशतः वर्णन-प्रधान शैली को लेकर चलते हैं। उनके उपन्यासों में कथोपकथन का उतना महत्त्व नहीं है। उनके कथोपकथन अधिकतर साहित्यिक हैं। कहीं-कहीं कथोपकथन अधिक दार्शनिकतापूर्ण और लंबे हो गए हैं। जहाँ लंबे-लंबे भाषणों की योजना है, वहाँ उनके संवाद नीरस हो गए हैं। उपन्यास में कथोपकथनों से जो सजीवता आ जाती है, वह लंबे और दार्शनिकतापूर्ण संवादों से नष्ट हो जाती है। किंतु प्रेमचंद के उपन्यासों में मार्मिक संवादों की कमी नहीं है। उन्होंने अपने संवादों में अपने पात्रों का चित्र ही नहीं, कथानक को भी विकसित किया है। ‘गोदान’ के संवाद इसके उदाहरण हैं।

देशकाल–किसी उपन्यास को अधिक जीवंत, रोचक एवं सुसंगत बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उपन्यासकार देशकाल का विशेष ध्यान रखे। देशकाल के अभाव में पात्र शून्य में खड़े प्रतीत होंगे। अतः जिस स्थान और समय की घटनाओं का वर्णन प्रस्तुत किया जाए वहाँ की परिस्थिति, वातावरण, रहन-सहन, सामाजिक अवस्था आदि का पूर्ण अध्ययन करके ही उसे उपन्यास में उल्लिखित किया जाना चाहिए, ताकि कालगत या देशगत दोनों दोषों से बचा जा सके। यदि कोई उपन्यासकार देशकाल का बंधन नहीं मानेगा तो उनकी रचना में किसी भी युग की सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक आदि परिस्थितियों का चित्रण नहीं मिलेगा।
जिस कालखंड में प्रेमचंद का साहित्य-क्षेत्र में प्रादुर्भाव हुआ था, तब अँग्रेज भारत पर सत्तारूढ़ हो चुके थे। सामंती व्यवस्था देश से विदा ले रही थी लेकिन वह जहरीले दंश से अपना असर छोड़ने से बाज नहीं आ रही थी। अँग्रेज के साथ मिलकर अपने खुशामदी स्वभाव से गरीबों का शोषण करती रही। अपनी जमींदारी बचाने के लिए अँग्रेजी अफसरों और उनके कारिंदों की खुशामद करते, डाली लगाते, खिलाते, पिलाते और निम्न से निम्न स्तर तक जाकर लाभ लेते रहे। उस समय तक भारत का आर्थिक ढाँचा छिन्न-भिन्न हो चुका था। भारत की ग्राम-व्यवस्था तहस नहस हो रही थी। कुटीर उद्योग-धंधे समाप्त हो रहे थे। भारत का खास वर्ग अँग्रेजों का दलाल बन गया। चूँकि प्रेमचंद एक अत्यंत सजग और संवेदनशील साहित्यकार थे, अतः उनके मस्तिष्क पर भारत की इस पतनशील अवस्था का गहरा असर हुआ। फलस्वरूप आमजनों की दुर्दशा, विवशता और निर्धनता से उनके मन-मस्तिष्क इससे मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगा। अतएव उन्होंने अपनी जानदार और धारदार लेखनी के सहारे नई जागृति और नई चेतना का संघर्ष मंत्र जनजन तक पहुँचाने का कार्य करना प्रारंभ किया। बीसवीं शताब्दी का आरंभिक काल राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्रता आंदोलन का उत्कर्ष काल माना जाता है। इसी तरह रूसी क्रांति की लहर 1905 और सभी एशियाई देशों में जन-चेतना का ज्वार उद्वेलित हुआ। भारत में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में सन् 1905-1908 में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन तीव्र हुआ। योजनाबद्ध तरीके से कार्यक्रम चलने लगे–हड़तालों और गिरफ्तारियों से आंदोलन को बल मिला। उधर रूस में जारशाही के खिलाफ लेनिन के नेतृत्व में जोरदार संघर्ष चल रहा था। भारत में अँग्रेजों के क्रूर शासन और दमनकारी नीतियों के खिलाफ, पहले से तो संघर्ष चल ही रहा था, अब गाँधी जी के पदार्पण के बाद इसमें अधिक तीव्रता आ गई। किसान, मजदूर, शिक्षक, छात्र आदि के साथ सभी आमजन अपनी सक्रिय भागीदार देने लगे। उधर भारत में कलम के सिपाही प्रेमचंद और रूस के क्रांतिकारी लेखक मैक्सिम गोर्की अपनी कलम से ‘आग उलगने लगे।’

प्रेमचंद की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उन्होंने अपने साहित्य की रचना में युगीन परिस्थितियों एवं घटनाओं का समावेश किया। 1919 से काँग्रेस की बागडोर महात्मा गाँधी के हाथों में आ चुकी थी और प्रेमचंद युगीन सभी कलाकार इस आंदोलन से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित हुए थे। प्रेमचंद पर भी गाँधी जी की विचार-धारा, असहयोग आंदोलन, अहिंसा और सत्याग्रह का गहरा असर हुआ और अपने कथा-साहित्य में कथावसर उपयोग किया। हिंदू-मुस्लिम एकता नीति उनके उपन्यासों में चित्रित है। गाँधी जी ने अपना ध्यान सामाजिक सुधार पर भी केंद्रित किया और समाज के सम्यक विकास के लिए इसे आवश्यक माना। प्रेमचंद ने समाज के सभी पक्षों पर अपने उन्यासों में स्थान दिया। प्रेमचंद ने अपने साहित्यिक रचना काल 1906 से 1936 तक में ‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘गबन’, ‘गोदान’ और ‘कर्मभूमि’ की रचना की जिनमें समाज-सुधार, अछूतोद्धार, वेश्यावृत्ति, विधवा विवाह, किसानों, मजदूरों का संघर्ष, जमींदारों का शोषण, महाजनों का शोषण, सांप्रदायिक तनाव, धार्मिक उन्माद, मठों और मंदिरों में व्यभिचार, खादी और चरखे का प्रचार, पर्दा प्रथा, शराब और नशाखोरी, असहयोग, सत्याग्रह आदि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक आदि समस्याओं मुद्दों को चित्रित किया गया है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में देशकाल का सावधानीपूर्वक चित्रित किया और समस्त समस्याओं के निदान के उपाय भी प्रस्तुत किए। इसीलिए उन्हें युग का प्रतिनिधि कथाकार कहा गया है।

भाषाशैली–साहित्यिक सृजन में शैली का विशेष महत्त्व है। शैली के माध्यम से रचनाकार की प्रतिभा और प्रौढ़ता का परिचय मिलता है। इसी प्रकार उपन्यास कला में शैली का विशेष महत्त्व होता है। प्रेमचंद जी की भाषा साहित्यिक है। प्रेमचंद की भाषा शैली का विकास ‘वरदान’ से ‘गबन’ तक की कहानी है। ‘गबन’ से प्रारंभ करके ‘गोदान’ तक उसका परिपक्व रूप देखने को मिलता है। उनकी भाषा क्रमशः विकसित होती गई। प्रेमचंद की गद्यशैली भावना और विचार की दृष्टि से अत्यंत प्रभावोत्पादक है। उन्होंने न केवल हिंदी कथा साहित्य की नींव डाली वरन् एक सहज गद्य शैली का निर्माण भी किया।

‘सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है। सहज भाषा पाने के लिए कठोर तप आवश्यक है। जब तक आदमी सहज नहीं होता तब तक भाषा का सहज होना असंभव हैं। सहज मनुष्य ही सहज भाषा बोल सकता है। संतकवि कबीरदास, तुलसीदास तथा महात्मा गाँधी को भी यही भाषा मिली थी, क्योंकि वे सहज हो सके।’ हिंदी साहित्य के मार्तंड व्यक्तित्व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ये विचार प्रेमचंद की भाषाशैली पर शतशः सत्य साबित होता है चूँकि उन्होंने अपनी सहज शैली के सहारे हिंदी के करोड़ों पाठकों को जोड़ने का काम किया।

हिंदी के ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ. गोपाल राय लिखते हैं–‘प्रेमचंद से पूर्व हिंदी उपन्यास में दो तरह की भाषिकशैलियाँ प्रचलित थी। इनमें से एक भाषाशैली संस्कृत गद्यकाव्य का अनुकरण करती थी और दूसरी बोलचाल की भाषा का। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों के लिए बोलचाल की गद्यशैली ग्रहण की। यह भाषा जनता के बीच से सीधे उठा ली गई थी, जिसे तराश कर उन्होंने हीरे की तरह चमकदार बना दिया। जनभाषा के शब्द, मुहावरे, लहजे आदि प्रेमचंद की कथाभाषा में एक नए तरह की चमक पैदा करते हैं। उनमें उन्होंने एक ऐसी धार पैदा कर दी जो चमकती भी है और बेधती भी है। इसीलिए उनमें हद दर्जे की मौलिकता और ताजगी है।’

प्रेमचंद की भाषाशैली के संदर्भ में यह कहना वाजिब होगा कि कहानी और उपन्यास कला का रहस्य उनका देहातीपन है। पात्र के अनुकूल ही चरित्र-चित्रण या संवाद में सरलतम और स्वाभाविक शब्दों का प्रयोग करते हैं। ताकि वे अपने सामान्य पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित कर सके और इसमें वे पूर्णतः सफल हैं। प्रेमचंद भी अत्यंत सहज थे और सहज बोलते थे, सहज लिखते थे। इसीलिए वे जन-जन के कंठहार हैं।

प्रेमचंद के समकालीन और रूस के प्रसिद्ध मैक्सिमगोर्की के शब्दों में ‘संसार में सबसे अच्छी है कला, और कला में सबसे अच्छी और उदात्त है अच्छी बातों की कल्पना की कला।’ प्रेमचंद इसी सिद्धांत को लेकर अपनी साहित्यिक यात्रा करते रहे और उपन्यास कला और शिल्प की उत्कृष्टता के कारण उपन्यास सम्राट बने और आज भी बने हुए हैं।