विश्व-शांति की समस्या के संदर्भ में युद्ध-परक साहित्य

विश्व-शांति की समस्या के संदर्भ में युद्ध-परक साहित्य

‘विश्व-शांति की समस्या के संदर्भ में युद्ध-परक साहित्य’ विषय तीन शब्द-बिंदुओं से सीमित है। ये बिंदु हैं-शांति, युद्ध और साहित्य। शांति का अर्थ प्रस्तुत संदर्भ में विश्व शब्द से संबद्ध है। उसको अध्यात्म समाज और राज की तीन भिन्न दृष्टियों से समझा जा सकता है, परंतु विषय की सीमा का ध्यान रखते हुए प्रथम तथा द्वितीय दृष्टियों को छोड़ देना आवश्यक है। राजनैतिक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों या देशों में परस्पर जो संघर्ष होते हैं, उनकी समाप्ति की स्थिति ही प्रस्तुत संदर्भ में शांति की अर्थ-सीमा में स्वीकार की जा सकती है। युद्ध की अर्थ-सीमा भी आक्रमण और उसके विरोध तक विस्तृत न मानकर, केवल विरोध की स्थिति तक मानी जानी चाहिए, क्योंकि आक्रमणकारी के पशु-बल का यदि गतिरोध न किया जाए, तो युद्ध की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। अतः तात्विक दृष्टि से युद्ध आक्रामक भावना का प्रतीक नहीं, अपितु आक्रमण-प्रतिरोध की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से इतिहास के पृष्ठ पर हम जिस घटना को ‘युद्ध’ कहते हैं, वह साहित्य की भाव-भूमि पर शौर्य, शक्ति, तेज और जीवन के ओज का बोध है।

अब प्रश्न यह उठता है कि शांति और युद्ध स्वयं में कोई साध्य है या इनका कोई अन्य साध्य है? इसी प्रश्न से यह प्रश्न भी जुड़ जाता है कि शांति और युद्ध की अभिव्यक्ति साहित्य में क्यों की जाती है? क्या शांति और युद्ध का अभिव्यंजन ही साहित्य का साध्य है? मैं समझता हूँ, इन प्रश्नों के उत्तर में शांति, युद्ध और साहित्य से बाहर किसी अन्य तत्त्व की खोज करनी होगी। शांति और युद्ध साहित्य के साध्य नहीं हैं। शांति और युद्ध स्वयं में भी कोई साध्य नहीं हैं। हम जिसके लिए साहित्य लिखते हैं, वह है जीवन। हम शांति और युद्ध की अभिव्यक्ति भी साहित्य में जीवन की प्रतिष्ठा के लिए ही करते हैं। शांति प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी यदि ‘जीवन’ तत्त्व की उपलब्धि नहीं हुई, तो उस शांति का कोई महत्त्व नहीं। इसी प्रकार युद्ध लड़ लेने के पश्चात् भी यदि ‘जीवन’ तत्त्व की स्थापना नहीं हुई, तो युद्ध का अर्थ सिद्ध नहीं होता। साहित्य जब शांति और युद्ध की अभिव्यक्ति करता है, तब उसके सामने जीवन का कोई मूल्य अवश्य होता है।

अतः अंततोगत्वा साहित्यकार के दायित्व की बात जीवन के मूल्य पर आ टिकती है। हमें ‘विश्व-शांति की समस्या के संदर्भ में युद्ध-परक साहित्य’ विषय पर विचार करते समय इस तथ्य को विस्मृत नहीं करना चाहिए।

मैं यह बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि युद्ध को केवल विनाशात्मक रूप में न समझा जाए। उसका यह रूप तो इतिहास की घटना का विषय है। साहित्य में युद्ध-परक अभिव्यक्ति तीन प्रकार की हो सकती है–युद्ध अर्थात् शक्ति-बोध की प्रेरणा देने वाली, युद्ध के भयंकर एवं वीभत्स चित्र प्रस्तुत करनेवाली तथा युद्ध के विनाशात्मक तत्त्वों का विरोध करनेवाली। इन तीनों प्रकार की अभिव्यक्तियों का साहित्य अंततोगत्वा उस शांति की स्थापना एवं रक्षा की ही प्रेरणा देता है, जो शांति जगत् में जीवन के मूल्य की स्थापना में योग दे सकती है।

पूर्वोक्त दृष्टि से हमें भारतीय साहित्य को समझने की आवश्यकता है, क्योंकि हमारे विषय की मूल ध्वनि यही है कि विश्व-शांति के लिए प्रयत्नशील साहित्यकार ही जब आपत-संकट में युद्ध-परक साहित्य लिखता है, तब उसके सृजन का औचित्य क्या होता है? मैं समझता हूँ, वह साहित्कार युद्ध-परक साहित्य सृजन करके भी अपने मूल पथ ‘शांति’ से भ्रष्ट नहीं होता। वह जीवन के मूल्य को स्थापित करने के लिए ही शांति या युद्ध में से जिसकी आवश्यकता समझता है, उसका प्रयोग करता है। अतः साहित्य-सृजन के क्षेत्र में शांति और युद्ध की अभिव्यक्तियों में परस्पर विरोध नहीं है। जो साहित्यकार युद्ध की भूमिका को साहित्य में उपेक्षित रखना चाहता है, वह किसी सीमा तक जीवन-मूल्यों की स्थापना से विमुख होता है। निःसंदेह वह मानव-जाति की मूल प्रवृत्तियों की उपेक्षा करता है तथा यह मान लेता है कि संसार इतना संस्कृत हो गया है कि उसमें आक्रामक स्थिति कभी आ ही नहीं सकती। मैं समझता हूँ, जब-जब साहित्यकार से यह भूल होती है, तभी ‘आक्रामक स्थिति’ भी उपस्थित होती है एवं साहित्य से उपेक्षित युद्ध इतिहास के पृष्ठों पर अवतरित हो जाता है।

भारतीय साहित्य में शांति और युद्ध की पूर्वोक्त दोनों दृष्टियों को स्थान मिला है। हमारा प्राचीन साहित्यकार जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए शांति-परक भावनाओं का जिस तत्परता से विस्तृत चित्रण करता रहा है, उसी तत्परता से उसने युद्ध-भावना को भी स्वीकार किया है। वेदों में शांति की कामना एक विराट् परिवेश में चित्रित हुई है और उसी के साथ युद्ध-परक भावों को भी समान आदर से स्थान मिला है। उसमें इंद्र, वरुण, विष्णु सविता, आदि एक ओर तो शिव-भूमिका पर चित्रित हैं और दूसरी ओर रुद्र-भूमिका भी उन्हें प्रदान की गई है। ऋषि शांति की कामना करता है, ताकि जीवन के मूल्य को वह प्राप्त कर सके, किंतु साथ ही वह रुद्र को भी वह पिनाक धारण करने के लिए आमंत्रित करता है, ताकि उस प्राप्त जीवन-मूल्य की रक्षा हो सके। आरण्यक और उपनिषद् का ज्ञान और चिंतन भी शांति और युद्ध-परक भावनाओं से जीवन-तत्त्व को ही पाना चाहता है। वही चिंतन सूत्र पुराणों और महाकाव्यों की कथाओं में होता हुआ समस्त उत्तरकालीन भारतीय साहित्य में समा गया है तथा भगवान् कृष्ण की गीता में उसी की अभिव्यक्ति हुई है।

हिंदी का साहित्य उपर्युक्त परंपरा की धरोहर को सहर्ष स्वीकार करता रहा है।

पृथ्वीराजरासो, रामचरितमानस, शिवाबावनी, साकेत, पार्वती, सारथी, परशुराम की प्रतीक्षा और ‘हिमप्रिया’ काव्य इसी दृष्टि से लिखे गए हैं। गोरी ने पृथ्वीराज को कितनी बार बंदी बनाकर छोड़ा, इसका उल्लेख इतिहास में हो या न हो, पर चंद ने युद्ध को प्रधानता देकर भी गोरी के प्रति अमानवता नहीं दिखाई। तुलसी के राम मानवता की रक्षा के लिए ही लड़ते हैं। भूषण का शिवाजी युद्ध करता है, किंतु मानवता के नैतिक तत्त्व की उपेक्षा नहीं करता। मैथिलीशरण के राम मानवता की प्रतिष्ठा के लिए योद्धा बनते हैं। दिनकर ने भी ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में मानवतावादी मूल्यों की रक्षा के लिए युद्ध की उत्तेजना दी है। मेरे सारथी (महाकाव्य) एवं हिमप्रिया (खंडकाव्य) में भी मानवतावादी मूल्यों के विनाश के लिए ही युद्ध की भूमिका प्रस्तुत हुई है। सारथी में त्रिपुर-कल्पना के माध्यम से इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है कि जब-जब विश्व-शांति पर संकट आने से मानवता का विनाश होने लगता है, तब-तब जीवन का शक्ति-बोध युद्धोन्मुख होता है और अंत में शिवम् की स्थापना होती है। काव्यों के अतिरिक्त कहानी, उपन्यास, नाटक, आदि में भी इस दृष्टिकोण की कमी नहीं है। उदाहरणार्थ–सोमनाथ, विजयपर्व, पवनजय, मृत्युंजय, धारेश्वर भोज आदि नाटकों में शांति पर संकट आने से जब मानवता का ह्रास होता दिखाई देता है, तब युद्ध का शंखनाद आवश्यक हो जाता है और अंत में ‘युद्ध का परिणाम’ शांति की स्थापना के माध्यम से मानवता का रक्षण होता है। अतः मैं समझता हूँ कि युद्ध-परक साहित्य विश्वशांति की समस्या का विरोधी नहीं है, क्योंकि वह विश्व-शांति के महान् लक्ष्य मानवता की प्रतिष्ठा का ही एक साधन है।

मैं इस बात को नहीं मानता कि युद्ध जीवन में करुणा की स्थिति लाता है। मेरी दृष्टि में युद्ध से करुणा का अंत होता है तथा आनंद की स्थापना होती है। युद्धकाल की हिंसा और करुणा का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना ही है, जिसमें अहिंसा और आनंद प्रतिष्ठित हों। हमारा वर्त्तमान हिंदी-साहित्य इसका विरोधी नहीं है। यह बात दूसरी है कि ज्यों-ज्यों मानव-जाति जीवन-मूल्यों की स्थापना के लिए शांति और युद्ध नामक दो साधनों में से शांति की महत्ता अधिक मात्रा में समझती जाएगी, त्यों-त्यों युद्ध की आवश्यकता कम होती जाएगी। अतः साहित्यकार का दायित्व है कि वह मानवतावादी जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए शांति और युद्ध दोनों साधनों को ध्यान में रखकर साहित्य लिखे। युद्ध परक साहित्य की रचना को वह अपने दायित्व की सीमा से बाहर न समझे तथा यह ध्यान में रखे कि शांति-परक साहित्य से जहाँ मानवता की रक्षा संभव हो वहाँ युद्ध-परक साहित्य के सृजन की प्रधानता आवश्यक न समझे। शांति और युद्ध में से कोई भी हमारा साध्य नहीं है, साध्य है जीवन-तत्त्व। साहित्यकार को विश्व में इसी साध्य की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।


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