वे मुखरित क्षण

वे मुखरित क्षण

मैस्कट होटल
त्रिवेंद्रम
2 जनवरी, 1951

आज से लगभग 15 वर्ष पूर्व हुए स्वर्गीया श्रीमती सरोजिनी नायडू ने एक क्लब में हम लोगों से कहा–“जिस धरती में किसी कला को जन्म मिला हो उसी की गोदी में उसका निखरा और पूरी तरह खिला रूप दीखता है। मैंने बंबई के ताजमहल होटल के भव्य रंगमंच पर कथकली का अभिनय देखा और मलाबार के तट पर कृत्रिम साधनों से विहीन देहाती रंगमंच पर भी। मलाबार के अभिनय के मुकाबले में ताजमहल होटल वाला अभिनय बेजान कठपुतलियों का नाच जान पड़ा।”

त्रावंकोर और मलाबार में कथकली का जन्म हुआ; उसी त्रावंकोर की राजधानी में उस छोटे से हॉल में कथकली का जो अपूर्व प्रदर्शन मैं अभी देख कर आया हूँ उसने मुझे कला की अपरिमित संभावनाओं के एक नूतन क्षेत्र से परिचित करा दिया है। जिसे रंगीन उन्मादों का क्षितिज समझ बैठा था वह तो विविधता के सागर का किनारा मात्र है। अनंतराशि से परिपूर्ण और ‘पलपल परिवर्तित प्रकृतिवेश’ के प्रतिबिंबरूप मानस की तो झलक आज मिली।

शायद यह अतिरंजना है। क्षण का उल्लास मुझे प्राय: अतिशयोक्ति की ओर बहा ले चलता है। परंतु सौंदर्य-निमज्जित क्षण की विस्मृति के आगे सारे नशे झूठे हैं। ऐसे समय क्या तराजू लेकर अनुभवों का तौल करूँ?

शाम को महाराजा ने राजमहल में निमंत्रित किया था, उनसे विदा लेकर सीधे हम लोग एक छोटे-से भवन में पहुँचे। विश्वास न हुआ कि जगत्-प्रसिद्ध कथकली का प्रदर्शन ऐसे अलंकार विहीन और शोभा शून्य भवन में होगा। विशाल प्रासाद की तो कल्पना मैंने नहीं की थी किंतु शांति-निकेतन के ललित स्पर्श से सुरभित और सुस्मित वातावरण में कली की भाँति विकसते कला-प्रदर्शन का चित्र तो मन में था ही। किंतु यहाँ न चित्ताकर्षक अल्पना थी, न रंगबिरंगी वंदनवारें, न कमनीय कलश और न सौंदर्य पुंज-से जगह-जगह छिटके रेखाचित्रों और पर्दों की छ्टा।

बस, दो हाथ ऊँचा पीतल का एक विशाल दीपस्तंभ रंगमंच के बीच में दर्शकों के निकट ही स्थापित था, मानो उसकी दीप्ति में वातावरण की सारी प्रच्छन्न आभा समाई हो। और वह लौ, मानो अंधेरे के मानस में साकार तेज की ललकार हो। कुहासे-सा फैला उसका मंद प्रकाश भी मानो एक चुनौती हो। कला के लिए ऐसी परुष पृष्ठ-भूमि मैंने अन्यत्र नहीं देखी।

मादल (एक तरह का मृदंग) बज उठा! वे दीवारें मानो इन स्वरों के प्रबल आघातों को सहने के लिए बनी नहीं। राजदरबार का प्रश्रय मिलने पर भी वस्तुत: तो कथकली उन्मुक्त प्राकृतिक वातावरण में ही पनपा। तभी तो क्या मृदंग, क्या संगीत, क्या नृत्य-गति, सभी में सागर के हिल्लोल से बाज़ी लेने का उल्लास है!

मादल और चेंदल इन दो प्रकार के वाद्यों पर आघात होते ही सारे दर्शक प्रस्तुत हो गए। यह एक प्रकार की घोषणा थी जिसे केलिकोत्तु कहते हैं। बजाने वालों को चेंदकरण कहते हैं। चेंदकरण और गायक, सब मिलाकर लगभग 6 व्यक्ति रंगमंच पर मौजूद थे और बराबर ही मौजूद रहे, ऐसे ही जैसे यूनानी नाटकों में कोरस। उनका नायक सूत्रधार की भाँति था, गीतों की लड़ियाँ ही जिसकी रज्जु थी!

भाषा मलयाली और संस्कृत थी लेकिन मैं तो मुश्किल से कुछ ही पद समझ पाया। पास में बैठे जनरल थिमैया ने बताया कि ये जयदेव के गीतगोविंद की कुछ पंक्तियाँ हैं। यह जनरल साहब भी खूब हैं, फ़ौजी आदमी लेकिन अच्छे-खासे अलामर्मज्ञ। रहने वाले कुर्ग के हैं। मालूम हुआ ललित कलाओं के प्रति वासना उन्हें मिली अपनी पत्नी से। दोनों दक्षिण भारत के मंदिरों और कला-क्षेत्रों का भ्रमण किए हुए हैं।

प्राय: प्रत्येक कथकली अभिनय का श्रीगणेश गीतगोविंदम् के पाठ से होता है जिसे मंजुथारा कहते हैं। कहाँ बंगाल के जयदेव, कहाँ मलाबार के गायक, कहाँ कुर्ग के फौज़ी जनरल। भारतीय संस्कृति की अंत:सलिला धारा कहाँ नहीं प्रस्फुटित होती?

मंजुथारा के बाद दो व्यक्ति एक पर्दा लिए हुए आए। मुश्किल से पाँच फीट लंबा और तीन फीट चौड़ा लाल कपड़ा, उस पर सफ़ेद धागे रश्मिजाल से टँके थे। पर्दे के पीछे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नर्तक जाते हुए झलके। रंगमंच तो खुला ही था और दुराव की कोई कोशिश भी न थी। वह पर्दा मानो एक बालसुलभ भुलावा हो। लेकिन गहराई से सोचा तो समझ पड़ा–सब पर्दे भुलावा ही तो हैं–छ्द्म ही तो हैं। लेकिन इस भुलावे में छल नहीं है–कल्पना के लिए प्रोत्साहन है, अंतर्मुखीवृत्ति को आह्वान है। स्थूल रूप से असलियत का भ्रम न दिखाकर दर्शक को मानसिक दृष्टि से इंद्रजाल रचने का आग्रह है।

पर्दे के पीछे दोनों नर्तकों ने क्रमश: नृत्य प्रारंभ कर दिया। गीत भी उठा, मादल की गति भी क्षिप्र हो उठी। और पर्दा हिलने लगा, मानो ताल और लय के साथ झूमने लगा हो। दर्शकों की उत्सुकता बढ़ने लगी। पर्दा नीचे कर दिया गया और अभिनय-नृत्य के दोनों प्रधान पात्र और पात्री अर्जुन और उर्वशी नज़र पड़े। मुख पर रंगों और रेखाओं की इतनी प्रचुरता थी और वस्त्राभूषण इतने विविध थे कि दर्शक की टकटकी बँधी रह जाती है। जितना ही रंगमंच सीधा-सादा था उतनी ही नर्तकों की वेशभूषा चित्ताकर्षक। सारे प्रसाधन शास्त्रीय विधि के अनुकूल तैयार किए जाते हैं। चेहरे पर पात्र के गुणों के अनुकूल गहरे रंग का लेप दिया जाता है। हरा रंग सात्त्विक प्रवृत्ति का द्योतक है, लाल राजसिक का, काला तामसिक का और पीले में सात्त्विक और तामसिक का मिश्रण होता है। पुरुष पात्र के कानों से लेकर ठुड्डी तक दाढ़ी के ढंग का सफेद लेप होता है जिसे ‘चुट्टी’ कहते हैं। दूर से सारी बारीकियाँ समझी नहीं जा सकतीं लेकिन मलाबार का तो शायद बच्चा-बच्चा एक झलक मात्र में पात्र की वेशभूषा और प्रसाधन से उसे पहचान लेता है। विशेषता मुझे यह लगी कि कथकली में ‘मेकअप’ (प्रसाधन) और ‘मास्क’ (नक़ाब) का अपूर्व सम्मिश्रण होता है। साधारण अभिनय के ‘मेकअप’ में प्रतीकों और परंपरा का समावेश नहीं हो पाता। ‘मास्क’ (जैसे झाऊ नृत्य में इस्तेमाल किए जाते हैं) अभिनेता को भाव-भंगिमा दिखाने का अवसर नहीं देते। कथकली के पात्रों के प्रसाधन में दोनों गुण सन्निहित हैं।

उर्वशी की भूमिका में भी एक पुरुष नर्तक ही था, किंतु न जाने क्यों यह बात अखरी नहीं। शायद भव्य वेशभूषा और प्रसाधन बहुत कुछ छिपा लेते हैं। कथकली में स्त्रियाँ भाग लेती ही नहीं। अभिनय में प्रभंजन-सा वेग और सतत पौरुष का प्रभाव चाहिए और नारी-सुलभ लज्जा की उसमें गुंजायश ही नहीं।

उर्वशी और अर्जुन की थोड़ी देर के लिए झलक मिली; गायकों ने प्रशस्तिगान किया और फिर पर्दा उठा लिया गया। यह पात्र परिचय था जिसे ‘पुरप्पदु’ कहते हैं, जो कथकली की विशेषता है।

थोड़ी देर बाद अभिनय-नृत्य प्रारंभ हुआ। पात्र तो कुछ बोलते नहीं, गायकों की मंडली श्लोकों और गीतों में कथा का सूत्र जारी रखते हैं और बाकी सब नृत्य और मुद्राओं में अभिव्यंजित होता है।

उर्वशी अपनी सखी के साथ। कहती है–“मेरा मन तो उस पुरुष-रत्न ने हर लिया। तुमने उसे देखा नहीं? वे पुष्ट भुजाएँ, वह उन्नत मस्तक, वे विशाल कंधे, वह चौड़ी छाती और निर्लेप गगन-सी दृष्टि एवं मौन निमंत्रण-सी मुस्कान का वह विह्वल कर देने वाला प्रहार–क्या तुमने यह सब नहीं देखा, सखि? तो तुमने देखा क्या? मेरी आँखों में बैठ कर देखो, बाहर देखोगी तो कण-कण एक दर्पण है और प्रत्येक दर्पण में वही मनमोहक मूर्ति और अंदर…एक सिसकता सागर जिसकी व्यथा के बादल उठ-उठकर आँखों में उमड़ते हैं पर बरस नहीं पाते।…बताओ न मेरी आँखों को! बताओ न, सखि, मैं क्या करूँ? मैंने तो हजारों देवताओं के दिल से खिलवाड़ किया, पर इस मानव को तो छू भी नहीं सकूँगी, सखि!”

सखि बोली–“पगली! रोने-धोने से कभी प्रियतम मिलता है? वह तो मानव है, कोई देव तो नहीं जो तेरे मन की बात बिना सुने जान ले। सुवर्ण-मृग की झलक न मिलेगी तो गांडीव पर हाथ क्यों कर जाएगा? जा और अपनी प्रेम-कथा बे झिझक हो सुना। सौंदर्य जब याचक बनता है तो कठोर से कठोर पौरुष पिघल जाता है–वह, देख, लालसा और वासना के पुतले अपने कनक शरीर को तपस्या की आग में तपाने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए वह वीरवर कितना शोभायमान प्रतीत होता है। जा न!

उर्वशी और सखी का यह संवाद संकेतों और मुद्राओं का ही संवाद था। पीछे सूत्रधार और गायकवृंद की गगनभेदी वाणी मृदंग के तड़ितसम नाद को लाँघती हुई शताब्दियों की प्रतिध्वनी-सी सुन पड़ रही थी। लेकिन मैं तो भाषा से अपरिचित था और जनरल थिमैया दूर उठकर चले गए थे। फिर भी संवाद का तथ्य ही नहीं, मेरे सामने तो मानो शब्द ही साकार खड़े हो गए। सो कैसे?

वाणी तो अभिव्यंजना का एक ही साधन है, अन्य साधन उससे कुछ कम नहीं,–यह मैंने आज ही जाना। बात यह है कि कथकली में कथावस्तु और भावानुभाव प्रकट करने के लिए चार प्रकार के इंगितों का सहारा लिया जाता है। एक तो शिर के इंगित जिसमें नौ ढंग हैं मस्तक झुकाने के, छ: भ्रू क्षेप के, ग्यारह दृष्टिपात के और चार गर्दन मोड़ने के। दूसरे प्रकार के इंगित होते हैं हाथों की मुद्राएँ जिनकी चौसठ विधियाँ हैं। इन्हीं मुद्राओं में कथकली का सारा वैभव समाया है। तीसरा माध्यम है उँगलियों के संकेत का। चौथी हैं अन्य इंद्रियाँ जिनमें पैर, एड़ी, कमर, इत्यादि सभी मोड़े जा सकने वाले अंग शामिल हैं।

अगर कोई मेरे सामने यह समूचा वर्गीकरण पहले करता तो मैं शायद सोचता कि हमारे शास्त्रकारों को तो गणना और वर्गीकरण का शौक है ही; वात्स्यानन ने तो आतुर संभोग-क्रियाओं को भी वर्गीकरण के नाम पर वैज्ञानिक प्रक्रियाओं की पंगत में बैठाया। पर आज के अभिनय-नृत्य में मैंने देखा कि उत्कृष्टकला में नियमों के अनुशासन और वर्गीकरण की बारीकियों को वाहन बना कर भी भावावेश और कथावस्तु को बिना किसी उलझन के अभिव्यक्त किया जा सकता है। शरीर का एक-एक अंग मानो जिह्वा था, और प्रत्येक अंग की एक-एक गति मानो शब्दपुंज?

दूसरा दृश्य। अर्जुन यम-दम-नियम की मूर्ति बना बैठा है। गांडीव निश्चल है और अर्जुन स्वयं भी। तभी उर्वशी का प्रवेश, और फिर नृत्य, मानो वसंत की वातास अपनी ही मदिर सुरभि में झूमती हो। उसके बाद प्रणय-प्रदर्शन। उद्दाम वासना की कितनी सजीव अभिव्यक्ति! पहले लज्जा का गुलाबीपन जो अनुरक्ति की लाली में खो-सा गया! तब प्रणय की भीख जिसमें सारे अवरोध तिरोहित हो गए। और तब उपालंभ की आत्मप्रवंचना। उसके बाद रोष की पहली झंझा। और फिर वही याचना–“यह देखो मेरी सुवसित देह? यह तुम्हारी ही है। यह सौंदर्य, यह लावण्य, यह रसकलस… सब तुम्हारे स्पर्श की बाट जोह रहे हैं। क्या इन्हें ठुकराओगे!”…चेहरे की एक-एक ग्रंथि मुखर थी! लेकिन अर्जुन?–पत्थर भी बोलेगा? उर्वशी के कर्णपुट आतुर हो उठे,–शायद कठोर चट्टान द्रवित हो और निर्झरिणी की कल-कल ध्वनि सुन पड़े।…लेकिन नहीं, निर्मम पाषाण की वाणी तो कंदराओ से उठने वाली गहन गंभीर गूँज होती है। “उर्वशी तुम वासना की शिकार हो। तुम्हें उचितानुचित सूझ नहीं रहा है। मैं इस समय व्रतबद्ध हूँ; नारी का स्पर्शमात्र मुझे दूषित कर देगा।”

“व्रतबद्ध! मैंने कितनों के व्रत नहीं तोड़े! सुनो, प्रियतम, व्रत की तो कोई भी वेला हो सकती है, किंतु यह वसंत-सौरभ और प्रणय का उन्माद फिर-फिर नहीं जुटते। यही कनक-वेला है; यह भी कोई खोने की वस्तु है। आओ न?…नहीं…फिर नहीं?…मेरे ऊपर कुछ तो दया करो!…देखो मेरा सारा शरीर अंगारों का समूह है; घड़ी को भी चैन नहीं।…एक मुस्कान, एक दृष्टि, एक शीतल स्पर्श–यह भी न दोगे, मैं–देवताओं की नयन-छवि, मैं उर्वशी,–तुमसे भीख माँगती हूँ–प्यार का एक कण–एक, बस, एक।…क्या कहा?–साधक-व्रती के लिए रमणी की छाया भी विष है?…विष?…”

मृदंग की गति तीव्र हो चली। सूत्र-धार का स्वर ऊर्ध्वमुखी हो चला। सारा वातावरण विद्युतमय हो गया।

सहसा मृदंग तड़प उठा।

उर्वशी का मुख भीषण ज्वाला से अभिभूत दीख पड़ा; उत्तप्त इंद्रियाँ आग्नेय स्फुलिंग जान पड़ीं और नयनों के विशाल आकाश के कोने से एक भयानक तूफान उठा और उसके बाद नाग के प्रखर विष रोष के आँसू निकल पड़े। कपोल फड़क उठे, भौंहें तन गईं; चिबुक कठोर हो गई।…दूर से बैठा हुआ भी मैं अंग-प्रत्यंगों की एक-एक भंगिमा को देख पा रहा था। कितना अद्भुत व्यापार था, उर्वशी की देह थी रंगमंच और अंग-प्रत्यंग थे पात्र!…

“मूढ़ मानव!…उर्वशी का इतना अपमान!…तो जा, ढोंगी, तुझे शाप देती हूँ–तू साल भर तक नपुंसक रहेगा…नपुंसक!…चाहने पर भी लालसा के बादल छू न सकेगा; जिसे आज ठुकरा रहा है, उसी प्रणय के उन्माद के लिए तू तरसेगा लेकिन तेरे मिट्टी से शरीर में यौवन की चेतना न जगेगी, न जगेगी!…और तेरे ये पुष्ट अंग, तेरे ये पौरुष चिह्न–ये मेरी आहत अभिलाषा की समाधि बनकर रहेंगे और जिस पर उगेंगे स्त्रैणता के कुसुम जिनमें नारी-सुलभ सौरभ न होगा, जिन पर भौंरे भी न उलझेंगे!…जा, मूढ़, मेरा अभिशाप तुझपर गाज बनकर गिरेगा।…”

विक्षिप्त नूपुरों की झंझा में, एक बिजली-सी चमकी और फिर उर्वशी कहाँ थी?

अर्जुन अकेला रह गया

मृदंग एक लहमें के लिए थमा। लगा जैसे प्रकाश भी मंद हो गया हो। संगीत ने पल भर को साँस रोकी! कल्पना की भी मानो टकटकी बँधी रह गई!

और फिर बाँस के वन में भटकी वायु के करुण वंशी-स्वर की भाँति अर्जुन का पौरुष कुम्हलाने लगा; कटे-वृक्ष के तुल्य वह भूमिशायी होने लगा। पुरुषत्व के स्खलन का एक अद्भुत प्रदर्शन दीख पड़ा। धीरे-धीरे संगीत स्वर तीव्र हो रहा था,–मानो कराहते रोगी का पीड़ित स्वर दृढ़ हो रहा हो! अर्जुन के एक-एक अंग पर शिथिलता। वे हाथ मुलायम हो चले, वह कटि बाँकी हो गई, वे जंघाएँ स्थूल हो गईं–और और…वे विकसते उरोज!…उस दूषित भार से अर्जुन का पुरुषत्व आक्रांत हो रहा था, लेकिन उरोज बढ़ते ही गए।…अर्जुन की वह दयनीय लाचारी, वह तड़प भी न सकने वाली बेबसी, और…और वह फैलती हुई तंद्रा!…दीपक की लौ बुझने लगी; संगीत रुक गया।

मैंने सोचा,–दुनिया की कला में नपुंसकत्व इतना सजीव, इतना उदात्त, इतना दिल हिलाने वाला निरूपण और कहीं नहीं मिलेगा। तनिक भी भद्दापन नहीं और फिर भी कोई दुराव नहीं, कोई झिझक नहीं। भावों का इतना भीषण उद्वेलन कि उसमें हमारे दैनिक जीवन के छोटे-मोटे वैषम्य, छिछली भावुकता, कसक, डाह, इच्छा इत्यादि के रुग्ण विकार सभी ऊपर आकर मानो भाप बन जाते हों। अरस्तू ने नाट्य कला के इसी गुण को तो ‘कैथार्टिक इफेक्ट’ (रेचक प्रक्रिया) की संज्ञा दी है।

एक बात और। कथकली अभिनय नृत्य में रस परिपाक होने पर विविध भाव ही रंगमंच पर उतरते-से जान पड़ते हैं। अभिव्यक्ति इतनी वेगवती, इतनी आवेशपूर्ण, इतनी निर्बाध होती है कि जान पड़ता है भावों को साकार सत्ता मिल गई हो। मेरी तो संवेदनशीलता इतनी जागृत हो गई कि मुझे लगा मानो वे स्थूल भाव-मूर्तियाँ मुझ से टकरा रही हों। यही तो ‘प्लास्टिक आर्ट’ की चरम अभिव्यक्ति है।

…                          …                          …

लिखते-लिखते मध्यरात्रि आ पहुँची। मैं सोने की तैयारी कर ही रहा था कि किसी ने मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी और बिना इंतज़ार किए मि. चं. अंदर आ धमके। मि. चं. भी उसी कांफ्रेंस में आए हैं जिसमें मैं हिस्सा ले रहा हूँ। भारी भरकम शरीर, प्रफुल्ल चेहरा, दिल में एक अजब मस्ती जिसने बुढ़ापे की सेना से लोहा लेने की अद्भुत क्षमता उन्हें दे दी है।

बोले–“सुनो भाई माथुर, एक मजेदार बात। सोचा तो था कि कल सबेरे सुनाऊँगा लेकिन तबियत मानती ही नहीं।”

मैंने रजाई अलग करते हुए पूछा–“कुछ बताइएगा भी!”

“आज वाले तमाशे की बात है”–मि. चं. बोले। मुझे भय हुआ कि नृत्यकला का स्वयं प्रदर्शन न करने लगें। लेकिन वे बैठ गए और बोले–“अर्जुन-उर्वशी का नृत्य नाट्य सभी को पसंद आया पर पंजाबी रियासतों से वे माननीय श्री…आये हैं न? वही”–मि. चं. ने अपनी ठोड़ी और गालों की ओर संकेत किया और मैं समझ गया। “ये महोदय अभिनय के बाद ‘ग्रीनरूम’ में पहुँचे और जिसने अर्जुन का पार्ट किया था उस व्यक्ति से बड़ी हैरत की मुद्रा में पूछने लगे–“और तो सब ठीक था लेकिन यह तो बताओ कि तुमने इतनी बेवकूफी क्यों की?”

“क्या बेवकूफी?”

“यही कि इतनी खूबसूरत औरत को हाथ से निकल जाने दिया। जवानी का मज़ा तो लूटा ही नहीं, ऊपर से ज़नख़ा होना भी मंजूर किया। क्या खूब!”

पता नहीं उसने क्या उत्तर दिया, लेकिन मेरे और मि. चं. के ठहाके से सारा होटल अभी तक गूँज रहा है।

किसी को यह बात सुनाऊँगा तो मन-गढ़ंत मानी जाएगी, मगर है सोलह आना सच।

अब रात बहुत हो चली। सोना ही होगा। कल यूनेस्को वाली मीटिंग है।…लेकिन आज के ये मुखरित क्षण जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं।


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