अश्क की एकांकीकला

अश्क की एकांकीकला

हिंदी एकांकीकारों में नवप्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करने वाले एकांकीकारों में ‘अश्क’ का एक विशिष्ट स्थान है। आप उस वृहत्-त्रयी (डॉ. रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट तथा अश्क) में हैं, जो पाश्चात्य विचार-धारा, टेकनीक तथा मान्यताओं से प्रभावित होकर हिंदी में आधुनिक ढंग के एकांकी का सूत्रपात कर सके हैं।

वृहत्-त्रयी में ‘अश्क’ का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनके एकांकी भारतीय समाज के अध्ययन, स्वानुभव तथा प्रतिभा की सुषमा से पूर्ण, पाश्चात्य टेकनीक से प्रभावित नक्काशी की चीज़ है। आपने द्विवेदी-युग के अपरिपक्व, पारसी शैली से प्रभावित शेर दोहों वाली समाज सुधारक वृत्ति वाले, अनेक दृश्यों, स्वगत, लंबे-गानों, कभी दुरूह साहित्यिकता से बोझिल, कभी बाजारू हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण एकांकी को लिया। वहाँ से निज मौलिक प्रतिभा, पाश्चात्य टेकनीक के अध्ययन, स्टेज के स्वानुभव तथा अपनी मौलिक प्रतिभा के सहज स्पर्श से उसे परिपुष्ट कर पाश्चात्य एकांकीकारों–मेटरलिंक, स्ट्रीडबर्ग, ओ नील, सिंज, बेरी, आदि के समकक्ष ला खड़ा किया है। आपकी लेखनी से प्रसूत कई एकांकी तो विश्व-साहित्य की अमूल्य मणि हैं तथा पाश्चात्य एकांकियों से किसी भी दिशा में पीछे नहीं है।

न केवल उन्होंने हिंदी एकांकी को पाश्चात्य टेकनीक से वेष्टित किया है, वरन् उसमें आधुनिक समस्याओं का मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादन कर उसे साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग बनाया है। ‘अश्क’ के एकांकी कल्पना के व्योम में विहार करने वाले रूमानी कवि की स्वप्निल पृष्ठभूमि पर विनिर्मित नहीं हुए हैं, उनमें यथार्थवाद की ठोस अनुभूतियों, मानसिक विश्लेषण तथा अंतर्द्वंद्व का निदर्शन है। अब तक के एकांकीकारों–(बदरीनाथ भट्ट, हरिशंकर शर्मा, जी. पी. श्रीवास्तव, सुदर्शन, ‘प्रसाद’, ‘उग्र’, रामनरेश त्रिपाठी, राधेश्याम कथावाचक या चंडी प्रसाद ‘हृदयेश’) ने अपने एकांकियों का विषय केवल समाज की विद्रूपताओं को ही बनाया था। उन्होंने पात्रों के अंतर्भावों तथा कटु-मृदु अनुभूतियों की उद्भावना नहीं के बराबर की थी। ‘अश्क’ ने सभी कृत्रिमताओं से बचते हुए जर्जरित भारतीय समाज के चित्र खींचे हैं। जीवन की कठोरताओं का परिचय देते हुए हताश भारतीय मध्यवर्ग के क्रंदन, प्रेम घृणा, आनंद-विषाद, संयोग-वियोग के नाना चित्र उपस्थित किए हैं। आपके नाटक जीर्णशीर्ण भारतीय समाज के भग्नावशेष हैं। गिरती हुई सामंतशाही का प्रभुत्व धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है।

‘अश्क’ की वृत्ति अंतर्मुखी है। वे अपनी मौलिक प्रतिभा के सहारे ही आगे बढ़े हैं। किसी प्रसिद्ध नाटक का अनुवाद करने, विचार ग्रहण करने या उसी की शैली का अनुकरण करने की प्रवृत्ति उनके एकांकियों में नहीं है। पात्र उनके जाने-पहचाने व्यक्ति हैं। उन्होंने जीवन में विभिन्नता का आभास पाया है; असंख्य सुखद और दुखद अनुभव उनके मस्तिष्क में सुरक्षित हैं। ये पात्र, घटनाएँ तथा परिस्थितियाँ किसी व्यक्तिगत चोट से उद्भूत हो कर इनके आधारभूत विचारों से संयुक्त हो जाती हैं, उस पर उनकी प्रतिभा का रंग और काव्य-सौष्ठव का माधुर्य छा जाता है तथा एकांकी का सृजन हो जाता है। कई बार दैनिक जीवन के कई पात्र सम्मिलित रूप से एक-एक पात्र के सृजन में सहायक होते हैं, किंतु ये नए पात्र नाटक में अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व लेकर आते हैं।

‘अश्क’ के एकांकियों का रचना काल 1936 है। एक व्यक्तिगत मानसिक वेदना से व्यथित हो कर उन्होंने ‘लक्ष्मी का स्वागत’ और ‘पापी’ नामक दो सामाजिक व्यंग्य लिखे। तत्पश्चात् ‘अश्क’ ने सामाजिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, व्यंग्यात्मक और सांकेतिक–प्राय: सभी प्रकार के प्रयोग कर विषय तथा कलागत वैचित्र्य प्रदान किया है। न केवल हिंदी में, उर्दू में भी आपके चार एकांकी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

प्रयोग से यह अभिप्राय नहीं कि ‘अश्क’ ने प्रयोगवाद के दृष्टिकोण से प्रयोग किए हैं अर्थात् प्रचलित शैलियों अथवा Forms से ऊब कर नए Forms निकाले हैं। ‘अश्क’ का विश्वास दूर की कौड़ी लाने में नहीं है। जब लोग पैरों पर खड़े हों, तो वहाँ सहसा सिर के बल खड़े हो जाना कि देखने वाले चौंक जाँए–‘अश्क’ को पसंद नहीं। किसी घटना अथवा अनुभूति को लेकर जब वे उसे व्यक्त करते हैं, तो प्रयत्न करते हैं कि एकांकी का वह Form अपनाएँ, जिसमें वह भावना या संकेत पूरी तरह व्यक्त हो जाए। इस प्रयास में यदि कोई सर्वथा नया ‘फार्म’ आ जाए, अथवा नव प्रयोग हो जाए, तो उन्हें इसमें आपत्ति नहीं। उनकी दृष्टि उस अनुभूति के सुचारु और सर्वांगीण अभिव्यक्ति पर रहती है, प्रयोग पर नहीं।

‘अश्क’ का दृष्टिकोण एक आलोचक का है। वे समाज और मानव जीवन के आलोचक हैं। घरों में, मनुष्यों के मनों में तथा समाज के भीतर जो कमजोरियाँ घर कर गई हैं, ‘अश्क’ उन्हें उभार कर हमारे सामने रख देते हैं। वे न तो कोई समस्या देना चाहते हैं, न उपदेशक बन कर कोई आदर्श देना चाहते हैं, वे तो आलोचना कर रहे हैं। समाज तथा मनुष्य की अंतर्वृत्तियों के भीतरी पर्त उखाड़ रहे हैं। उनके प्राय: सभी एकांकियों में समाज के प्रति एक तीखा व्यंग्य और हल्की-सी नैराश्यमई वेदना छिपी है।

‘अश्क’ की सबसे बड़ी विशेषता गहन जीवन-दर्शन और नाटकीय स्थिति की पकड़ है। प्रत्येक नाटक किसी मूल आधारभूत समस्या को लेकर जीवन या समाज की किसी गूढ़ गुत्थी की ओर संकेत करता है, या मर्मस्थल को स्पर्श करता है। पात्रों का चरित्र-चित्रण जिस मनोवैज्ञानिक ढंग से किया जाता है, वह ‘अश्क’ का निजी है।

कला में ‘अश्क’ उपादेयता को अतीव आवश्यक मानते हैं। कभी जब उनके जीवन का ध्येय न बना था और वे एक ही बार में कलाकार, अभिनेता, भाषण-कर्त्ता, अध्यापक, वकील और संपादक बनने की सोचते थे, उन्होंने “कला-कला के लिए”–के दृष्टिकोण को सामने रख कर कुछ कहानियाँ लिखी थीं। इनमें उपादेयता पीछे, और कला पहले थी; किंतु जब से उन्होंने लेखनी को जीवन का ध्येय बनाया है, लेखनी का ध्येय उपादेयता को मान लिया है। पैसा कमाना जो व्यक्ति अनेक उपायों से जानता है, जिसे अन्य चीजों में सुख प्राप्त हो सकता है[1] वह यदि लेखनी को निज ध्येय बनाता है, तो केवल उससे उपलब्ध रस अथवा सुख ही उसका एकमात्र कारण नहीं, और अर्थ-लाभ लेखनी से उस अनुपात में नहीं होता, जितना अभिनय, फिल्म या वकालत से प्राप्त होता है। ‘अश्क’ अच्छी तरह समझते हैं कि वे दयानतदारी से मानव तथा जीवन की सेवा अपनी लेखनी द्वारा ही कर सकते हैं। लेखनी यदि केवल मनोरंजन देती है, उपादेयता नहीं, अर्थात् जीवन को आगे नहीं बढ़ाती, तो वे समझते हैं कि यह कार्य वे फिल्म तथा अभिनय द्वारा भी कर सकते हैं, पर जीवन की प्रगति में सहायता वे लेखनी द्वारा ही कर सकते हैं।

अपने नाटकों में वे मध्यवर्ग के समाज की बुराइयों की ओर अनवरत ध्यान दिलाते हैं। वे उपदेश देने में विश्वास नहीं करते, समाज, व्यक्ति अथवा संस्था की विद्रूपताओं, युगों-युगों की कटुता, रूढ़ियों की कमजोरियों, छोटी-बड़ी बुराइयों का चित्रण इस शैली से करते हैं कि नाटक समाप्त करते-करते पाठक का मन उसके प्रति विद्रोह से परिपूर्ण हो उठता है। वह भयानक चीत्कार कर इस सड़े-गले समाज की जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं को नष्ट-भ्रष्ट कर देना चाहता है। ‘अधिकार का रक्षक’ ‘लक्ष्मी का स्वागत’, ‘तूफान से पहले’ आदि अनेक नाटक उनकी कला की उपादेयता के उदाहरण हैं। इनमें स्थान-स्थान पर मनुष्य के अंतर्द्वंद्व, आकांक्षा, प्रेम, क्षोभ, क्रोध, चिंता, आत्मग्लानि, घबराहट, उदासीनता, विह्वलता, सहृदयता, कोमलता आदि के मानसिक-चित्र बड़ी सफाई से खींचे गए हैं। ‘अश्क’ का मनोवैज्ञानिक अध्ययन इतना गहरा है कि इनका प्रत्येक पात्र स्वतंत्र व्यक्तित्व रखता है।

आपकी नाट्य-रचना पद्धति पर विचार करें तो विदित होता है कि आपको पश्चिमी नाटककारों में विशेषत: इब्सन मेटरलिंक, स्ट्रीडबर्ग, चैखोव, सिमोनेवो, ओ नील, मॉहम, बेरी, प्रीस्टले ने नाटक लिखने की प्रेरणा दी है। शॉ तथा आर्नोल्ड बेनेट का तीखा व्यंग्य, जो समाज का परिष्कार करने के लिए होता है, इनके नाटकों में प्रयुक्त हुआ है। जिस प्रकार बेनेट मानव स्वभाव के आचार्य थे और उत्तम तथा निकृष्ट सभी पात्रों के निगूढ़तम रहस्यों को खोलकर रख देते थे; उसी प्रकार का प्रयोग ‘अश्क’ के ‘पापी’, ‘चिलमन’ तथा ‘अधिकार के रक्षक’ में हुआ है। बेनेट के ‘स्टेप-मदर’ के समकक्ष हम ‘अश्क’ का ‘मैमूना’ रख सकते हैं। ‘स्टेप-मदर’ में बेनेट ने जिस कुशलता से एक संवेदनशील उपन्यास-लेखिका का मनोविज्ञान प्रस्तुत किया है, उसी प्रकार की सूक्ष्मता हमें ‘मैमूना’ की आमना में मिलती है। ‘स्टेप-मदर’ की पात्री ‘कोरा प्राउट’ में वैधव्य के नीचे अंदर ही अंदर प्रेम की जलने वाली जो अंतर्वेदना है, वह ‘अश्क’ के ‘भँवर’ नाटक की प्रतिभा में मुखरित हुआ है। प्रतिभा में प्रारंभिक कटु अनुभवों के कारण सेक्स से संबंधित विरक्तिमय आसक्ति है। उसकी वासनाएँ अतृप्त हैं, भविष्य में तृप्त करने की उसकी इच्छा जैसे मर गई है। बेनेट और अश्क दोनों ने नारी-जीवन का सफल सूक्ष्मांकन किया है। उनमें मनोवैज्ञानिकता के साथ व्यापक अंतर्नुभूतियों, चरित्र के द्वंद्व-संघर्ष का स्वस्थ्य विश्लेषण मिलता है।

‘अश्क’ की सांकेतिक पद्धति ‘ओलिफेंट डाउन’ से ऊँची उठी है। ‘ओलिफेंट डाउन’ का प्रतिनिधि सांकेतिक नाटक ‘द मेकर औफ ड्रीम्स’ है; जिसमें पियरो (Pierrot) आदर्शवाद; पियरे  (Pierette) यथार्थवाद तथा मैन्युफैक्चरर (Manufacturer) काल्पनिक पात्र प्रतीकों के रूप में उपस्थित होते हैं। मैन्युफैक्चरर (Manufacturer) के संपूर्ण कथोपकथन सांकेतिक रूप में आदर्श तथा यथार्थ के योग की ओर इशारा करते हैं और पलायनवाद पर व्यंग्य करते हैं। जोन ड्रिंकवाटर (John Drinkwater) ने भी कहीं-कहीं सांकेतिक प्रयोग किए हैं। ‘अश्क’ ने इस पद्धति का विकास कर अपने सात-आठ सुंदर संकेतात्मक-प्रतीकात्मक नाटक लिखे जो अंग्रेजी नाटकों से तीखे हैं।

सर्वप्रथम आप आधार-भूत विचार खोजते हैं। किसी मनोरंजक पात्र, स्थिति, दृश्य को देख कर आपके मन में नाटक का निर्माण होता है। जैसे, रेडियो स्टेशन, दिल्ली के देहाती विभाग में हरियाने का गीत–“म्हारा जंगल का सब साज सदा रहती है दूब हरी”–सुनकर इसी को नाटक की पृष्ठभूमि में रखकर लेखक ने सांकेतिक एकांकी ‘चरवाहे’ का सृजन किया। दैनिक जीवन में आए हुए मनोरंजक पात्रों ने कई चरित-प्रधान एकांकियों की प्रेरणा प्रदान की है, जैसे ‘छठाबेटा’, ‘भँवर’ तथा ‘चुंबक’। हृदय स्पर्शी वातावरणों से प्रभावित एकांकी भी लिखे गए हैं। ये नाटक लार्ड डनसनी (Lord Dunsany) से प्रभावित हैं। लार्ड डनसनी (Lord Dunsany) की विचित्र (Fantastic) पद्धति में ‘ए नाइट ऐट एन इन’ (A Night At An Inn) विनिर्मिति हुआ है जिसमें भयंकर वातावरण का ही सौंदर्य है। डनसनी अति कुशलता से वातावरण की सृष्टि करते हैं। ‘अश्क’ ने इस शैली से ‘अंधी गली’ कथा माला लिखी है। एक गली को ले लिया है, उसके भिन्न-भिन्न घरों में जो कुछ हो रहा है, उसे भिन्न-भिन्न एकांकियों में चित्रित कर दिया है। ये एकांकी भिन्न-भिन्न होकर भी एक हैं तथा “हमारा समाज एक अंधी गली के सदृश है”–यह संकेत उसमें बड़े कलात्मक ढंग से नाट्यकार ने दिया है। ‘अंधी गली’ जिसके बीच एक जीर्ण-जर्जर मकान उसे अंधी गली बनाए हैं, वह ढह जाए तो गली प्रशस्त हो जाए। वातावरण तथा विभिन्न समस्याओं के चित्रण में यह नाटक उपन्यास जैसा हो गया है।

‘अश्क’ जी ने कभी लिखा था–“मेरा काम समाज के फोड़ों में नश्तर लगाना है।” यह उनके सामाजिक नाटकों का प्रधान कार्य है। उनमें समाज की रूढ़ियों और जीर्ण-शीर्ण परंपराओं पर कठोर प्रहार है। आधुनिक मध्य वर्ग की समस्याओं, भारतीय पिछड़े हुए समाज की व्यवस्था (जो समय की दौड़ में बहुत पीछे छूट गई है और आमूल परिवर्तन चाहती है) कुरीतियों और दुनियादारी की कठोरता के नग्न चित्र यहाँ मौजूद हैं, और मौजूद है व्यंग्य से मिलने वाला उनके लिए हल।

लेकिन आज अश्क जी समाज के आलोचक ही नहीं, मार्ग-दर्शक भी हैं। परोक्ष रूप में आप यह संकेत करते हैं कि समाज की कौन-कौन रूढ़ी, व्यवस्था, रीति-रिवाज, पुरानी मान्यता, बंधी चली आने वाली विचार-धारा टूटनी चाहिए। जिन्होंने उनके नाटक ‘कैद’ और ‘उड़ान’ साथ-साथ पढ़े हैं, वे इस तत्त्व की सत्यता समझ सकते हैं। ‘कैद’ में उन्होंने यथार्थवादी शैली से काम लेकर रूढ़ियों में जकड़ी बेबस नारी का चित्र दिखाया है। यहाँ उनका आलोचक अपनी पूरी निपुणता और निर्माण के साथ काम करता है, किंतु ‘उड़ान’ में उन्होंने उसी नारी को जीवन के मार्ग पर पुरुष की संगिनी बनकर प्रगति के आकाश की ऊँचाइयों में उड़ने को आतुर दिखाया है। ‘उड़ान’ में उनका मार्ग दर्शक नारी के सामने उस सामाजिक अवनति से जिसमें “क्रूर रीति की संकुल मजबूत जंजीरों में जकड़ी अबला”-सी वह नि:सहाय पड़ी है, निकलने का एक मार्ग बताता है। ‘उड़ान’ में वह सक्रिय विद्रोहिणी और अपनेपन की खोज में विह्वल है और ‘अश्क’ जहाँ एक ओर निर्भय आलोचक हैं, वहाँ दूसरी ओर जीवन के द्रष्टा और कुशल मार्ग-दर्शक भी हैं।

समय कितना आगे बढ़ चुका है, समाज में तदनुसार क्या-क्या परिष्कार-सुधार अपेक्षित हैं–यह संकेत करते हुए वे हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार, जीवन के अनेक अंग तथा समस्याओं को स्पर्श कर देते हैं। कहीं वे हमारे अंतस्तल की ईर्ष्या, प्रेम, वासना, ग्लानि, कड़वाहट, रोमांस, प्रतिशोध का संघर्ष प्रस्तुत करते हैं, तो कहीं गंभीर बुद्धिवादी होकर नाटकों के वातावरण को निरंतर बादलों की गड़गड़ाहट और विद्युत की चमक से भर देते हैं, कभी अपने प्रहसनों में हमारी मूर्खताओं पर हमें हँसाते-हँसाते लोट-पोट कर देते हैं। ‘अश्क’ के व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं। वे हँसते हैं, हँसाते हैं; रोते हैं, रुलाते हैं; सोचते हैं और हमें स्वयं जीवन की निगूढ़तम समस्याओं, चरित्रों के द्वंद्व, संघर्ष और गहराइयों पर सोचने को विवश करते हैं।

‘अश्क’ ने व्यक्तिगत जीवन में बीमारी की कसक, समाज के अत्याचार; रूढ़ियों की चक्की में पिष्ट-पेषित स्त्री-पुरुषों के हृदय द्रावक हाहाकार, क्रंदन और अंतर्वेदना को स्वयं सहा है। व्यक्तिगत जीवन का दर्द उनके साहित्य में एक तीखी वेदना बन कर समा गया है–उनकी आत्मा जैसे आलोड़ित हो उठी हो। उनके एकांकियों–‘लक्ष्मी का स्वागत’ ‘अधिकार रक्षक’, ‘देवताओं की छाया में’ ‘विवाह के दिन’ ‘चिलमन’; ‘आदि मार्ग’ इत्यादि में जैसे उनकी व्यक्तिगत कसक, वेदना और विद्रोह की कटु अनुभूतियाँ सजग होकर मूर्तिमान हो गई हैं!

‘अश्क’ ने समाज की आधुनिक समस्याओं एवं विकारों का अति आधुनिक ढंग से प्रतिपादन कर उन्हें साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग बनाया है। भौतिक वास्तविकता को, आगे बढ़ती हुई सभ्यता को रोक कर वे मानों सतर्क रहते हैं–‘रुको, बेतहाशा न भागो। देखो, तुम्हारे झूठे दिखावे से समाज किस गड्ढे में गिरना चाहता है।” अश्क हमें मौजूदा सभ्यता की कमजोरियों, उथलेपन से बचाना चाहते हैं। सांकेतिक रूप में आदर्शवाद की यह अंत: सलिता ‘अश्क’ के संपूर्ण एकांकी नाटकों में प्रवाहित हो रही है, यद्यपि वे उसे स्पष्ट रूप में मुखरित नहीं करते। ‘अंजो दीदी’ में उन्होंने सभ्यता की व्यवस्था, समयनिष्ठा, आचार-व्यवहार, दिखावा, कृत्रिम नियंत्रण, शिष्टाचार पर गंभीर व्यंग्य किया है। कोई अच्छी आदत जब सनक (Fad) बन जाती है, तो वह किस प्रकार प्राकृतिक भावनाओं का दमन करती है और किस प्रकार इस दमन के टूटते ही वे भावनाएँ प्रतिक्रिया कर उठती हैं, इसका बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण ‘अंजो दीदी’ में प्रस्तुत किया गया है।

‘अश्क’ के साहित्य में आधुनिक वातावरण के साथ-साथ मानव जीवन के विश्लेषण की ऐसी सूक्ष्म अनुभूतियाँ सुरक्षित हैं, जो विश्व साहित्य का शृंगार कर सकती है। ‘चिलमन’; ‘मैमूना’; ‘छठा बेटा’; ‘भँवर’ के आंतरिक द्वंद्व और अंतर्व्यथाओं का घात-प्रतिघात नाना रूपों में प्रवाहित होकर जीवन की बहुमुखी अभिव्यक्ति करता है।

स्वभाव से गंभीर तथा संवेदनशील होने के कारण आपके सबसे सुंदर और सफल नाटक वे हैं, जिनमें मनोविज्ञान को आधार बनाया गया है या जिनमें दो विरोधी तत्त्वों को लाकर मनोभावनाओं का तीव्र संघर्ष उत्पन्न किया गया है। वे बाह्य संघर्ष को उतना महत्त्व नहीं देते, जितना पात्रों के अंतर्संघर्ष को देते हैं। उनके पात्रों में स्त्री पात्र अत्यंत सफल हैं। इनमें बेबस, पीड़ित, परित्यक्ता, शोषित और यौन विकृति से पीड़ित नारियाँ हैं। इनकी भिन्न-भिन्न मनस्थितियों तथा दलित अनुभूतियों (Supressed desires), अंतर्द्वंद्व एवं भाव-आवेगों के संघर्षों को पकड़ने की अद्भुत क्षमता अश्क में है। मरजाना, भूरी, श्रीमती सेठ, रानो, राजो, किरण, रत्नी, मैमूना इत्यादि पीड़ित नारियों के नाना प्रकार की बोलती प्रतिमाएँ हैं। इन नारियों के हृत्तल को ‘अश्क’ ने सबके सामने रख दिया है। कहीं-कहीं तो इन नारियों के चित्र (जैसे ‘कैद’ और ‘उड़ान’ में) कितने सजीव होते हैं कि उनकी विविधता, उनका रंग वैषम्य हमें आच्छन्न कर लेता है। नारी हृदय के अनेक नाजुक छोर ‘अश्क’ ने पकड़े हैं।

इसी प्रकार जो नाटक लेखक के व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हैं, पात्रों का मानसिक उत्पीड़न प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। ‘लक्ष्मी के स्वागत’ में रोशन; ‘नया पुराना’ में देवचंद; ‘तूफान से पहले’ में घीसू; तथा ‘विवाह के दिन’ में परसराम सफल अध्ययन पर खड़े हैं। अपने भाव-सौंदर्य की सृष्टि में अनेक अनुभव-कण अश्क की बौद्धिक चेतना से मिलकर इन पात्रों में जीवन-संचार करते हैं।

किस परिस्थिति में किस मनोभावना और इच्छा का प्रादुर्भाव होता है, विभिन्न आवेगों तथा संस्कारों का किस प्रकार संघर्ष होता है, उन सब सूक्ष्मतम इच्छाओं, कल्पनाओं और अनुभूतियों का चित्रण यहाँ है। ‘अंजो दीदी’ में एक ओर वे शिष्टाचार, सभ्यता और समय-निष्ठा से पीड़ित नारी की भावनाएँ दिखाते हैं, तो ‘कइसा साब, कइसी आया’ में एक ऐसी स्त्री का जिसे सभ्य संसार की वासना-लोलुप आँखें हड़प कर लेने को तुली हैं। ‘भँवर’ में प्रेम की विक्षिप्ति, विरक्ति और अवरुद्ध प्रेम का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। वर्तमान शिक्षा प्राप्त लड़कियों की उलझन, व्यग्रता और बुद्धिवादी जीवन की जटिलताओं का अच्छा चित्रण यहाँ मिलता है। ‘छठा बेटा’ पुत्र प्रेम और अतृप्त आकांक्षा का अध्ययन है।

‘अश्क’ के पात्र प्रधानत: मध्यवर्ग के हैं। इनमें कवि, डॉक्टर, समाज के नेता, जज, वकील हैं; नारियों में शिक्षित, फैशनेबल, रोमांटिक युवतियों से लेकर पुराने टाइप की–समाज से दलित, पीड़ित नारीयाँ, परवशता और पराधीनता में अवरुद्ध आत्माएँ हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही के चित्रण में कुशल कलाकार के हाथों में वही पुरानी प्रौढ़ता और सफाई है। ये सभ्य समाज का व्यापक और विशाल चित्र प्रस्तुत करते हैं, जिसमें सभी टाइप के मानवों की भीड़-भाड़ है। नवजीवन के संदेश की ओर भी इसमें संकेत हैं।

यदि नाटकों की आधारभूत भावनाओं का विश्लेषण किया जाए, तो दर्शक और पाठक को इनकी विभिन्नता में एकरसता और एकरसता में विभिन्नता मिलेगी। यह एकरसता में विभिन्नता और विभिन्नता में एकरसता पुरुष तथा स्त्री पात्र दोनों ही में है। उदाहरणार्थ, ‘चिलमन’; ‘चुंबक’ तथा ‘चरवाहे’ तीनों एकांकियों के प्रमुख पात्र कवि हैं।

लेकिन उनकी चारित्रिक विशेषताएँ सर्वथा विभिन्न हैं। इसी प्रकार स्त्री पात्रों में सुशिक्षित और संस्कृत होते हुए भी रत्नी, शशि, सरिता, प्रतिभा, नीलिमा, अंजलि, आधारभूत धारणाओं में नई विशेषता लेकर अवतीर्ण हुई हैं।

‘अश्क’ जी के नाटक मुख्यत: रंगमंच के लिए लिखे गए हैं (यद्यपि ये सुपाठ्य भी हैं)। वे स्वयं रेडियो आर्टिस्ट, अभिनेता और सिनारिस्ट रह चुके हैं। उन्हें अभिनयकला तथा रंगमंच की आवश्यकताओं का अच्छा ज्ञान है। रेडियो के लिए भी उन्हें विशेष रूप से तैयार किया गया है और वे रेडियो टेकनीक पर भी पूर्ण सफल हुए हैं। ये जीवन के अत्यधिक समीप हैं अत: इनमें नाटकीयता और वास्तविकता प्रचुरता से वर्तमान है।

‘अश्क’ जी को मैं इस समय हिंदी का सबसे अधिक समर्थ नाट्यकार मानता हूँ, जिन्हें रंगमंच का पूरा अनुभव है। जो लोग ग्रीन रूम के निष्ठुर आदेशों से परिचित हैं, ऐसे आदेश जिनके आगे नाटककार के गगन स्पर्शी कल्पना और उल्लास पूर्ण वाणी को ठिठक कर रह जाना पड़ता है, उन्हें मेरे इस कथन में अतिरंजना न जान पड़ेगी।”[2]

अश्क के लगभग प्रत्येक नाटक में (‘कैद’ और ‘उड़ान’ में सबसे अधिक) एक और विशेषता है, जिसका आधुनिक हिंदी नाटक में प्राय: अभाव-सा है। वह है स्थापत्य संतुलन, जिसे अंग्रेजी में Architectoric effect कह सकते हैं–एक इमारत जिसके सभी अंग भली-भाँति सँवार कर शिल्पी ने बनाए हों, जिसको एक निगाह से देखने पर संपूर्णता का आभास हो ऐसे नाटक का निर्माण ‘साहित्यिक वास्तुकला’ का ही करतब (Feat) कहा जा सकता है।

तथा तृतीय विशेषता जो ‘अश्क’ के नाटकों ही में नहीं, अन्य रचनाओं में भी पूर्ण रूप से लक्षित है, वह है उनकी ईमानदार अभिव्यंजना अर्थात् Authentic Note. यह अभिव्यक्ति का खरापन ‘अश्क’ के व्यक्तित्व की परिपक्वता को घोषित करता है।


[1]. जिन्होंने ‘अश्क’ के साथ कुछ दिन व्यतीत किए हैं, वे जानते हैं कि जन्मजात अभिनेता भी हैं; कानून की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है; वर्षों पत्रकार रहे हैं, फिल्मी संसार में रहे तो दो सफल चित्र विनिर्मित किए-रस उन्हें सब में मिलता है ।

[2]. श्री जगदीशचंद्र माथुर (पत्र से)


Image: Blossoming Almond Branch in a Glass with a Book
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Artist: Vincent Van Gogh
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