बाबू साहब का हाथी
- 1 May, 1950
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- 1 May, 1950
बाबू साहब का हाथी
बाबू साहब को अपने बेटे के विवाह में एक हाथी मिला था। जब उसका प्रथम शुभागमन उनके दरवाजे पर हुआ था तो गाँव के लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी और एक-एक व्यक्ति के कंठ से उसकी प्रशंसा के शब्द निकलने लगे थे। वास्तव में हाथी का वह कोमल बच्चा बड़ा ही प्रिय एवं आकर्षक था। देहात में जिसके दरवाजे पर हाथी रहता है उसको लोग लक्ष्मीपात्र समझते हैं। बाबू साहब की लक्ष्मीपात्रता में अब किसी को भी क्या संदेह हो सकता है था? क्योंकि विशाल पैतृक संपत्ति तो उनके पास थी ही–अब हाथी भी दरवाजे पर झूलने लगा।
प्रारंभ में उस हाथी का खूब मान-सम्मान हुआ। नवजात शिशु की देखरेख के लिए जिस तरह निपुण दाई की जरूरत होती है ठीक उसी तरह हाथी की देखरेख के लिए अनुभवी महावत की जरूरत पड़ी। खोज-ढूँढ़कर करीम खाँ निकाले गए। करीम खाँ की देखरेख में वह बच्चा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसके भोजन की संतोषजनक व्यवस्था की गई–खिचड़ी, दाना, धान, ऊख आदि किसी भी पौष्टिक पदार्थ का अभाव उसे नहीं खल सका। खलता भी कैसे जबकि बाबू साहब ने जीवन में प्रथम बार दरवाजे पर हाथी बँधवाया था? गाँव-गाँव से हाथी की मँगनी की चिट्ठियाँ पाकर उन्हें हर्ष होता और वे जी खोलकर लोगों की बारातों की शोभा बढ़ाने के लिए मँगनियाँ दिया करते क्योंकि उन दिनों उस पर एक ही व्यक्ति की सवारी हो सकती थी! यों तो बाबू साहब स्वयं बहुधा टमटम पर ही चढ़ा करते थे किंतु इंक्वायरी आदि के अवसर पर गजारूढ़ होकर चलना अब उन्हें अधिक भाता था। अतिथियों को स्टेशन पहुँचाने की बात होती तो वह झट से हाथी ही कसवा दिया करते थे–चढ़ने वाले को प्रसन्नता होती थी और उन्हें एक संतोष होता था।
आज से कुछ दिन पूर्व जब अपने चचेरे भाई से बाबू साहब ने संपत्ति का बँटवारा किया था तो हाथी इन्हीं के हिस्से में पढ़ा था। हाथी को अपने हिस्से में लेने के लिए उन्होंने अपनी बलवती इच्छा भी प्रकट की थी। इनकी यह इच्छा युक्तियुक्त ही थी क्योंकि यह हाथी केवल हाथी ही नहीं था, किंतु उनके बेटे के तिलक का धन एवं यश का प्रतीक–एक मांगलिक उपहार था। किंतु हाथी के लिए वह दिन दुर्भाग्य का था जिस दिन वह बाबू साहब के हिस्से में पड़ा। दुर्भाग्य इसलिए कि किसी के प्रति प्यार के भाव में बाबू साहब का आर्थिक स्वार्थ भी कहीं न कहीं छिपा होता था। इन्हीं दिनों उस हाथी की आँखें खराब होने लगीं और औषधि के लिए पैसों की आवश्यकता पड़ने लगी। बाबू साहब ने एक-दो बार कतर-ब्योंत कर पैसे तो दिए पर पीछे उन्होंने नेत्रदान का पुण्य लूटना नहीं चाहा। पैसों के प्रति इनका मोह कुछ इतना प्रबल एवं दुर्दांत था कि वे बेटों-पोतों या परिवार के अन्य सदस्यों की बीमारी में डॉक्टर के आने पर फीस के भय से दरवाजे पर से लुप्त हो जाते थे–हाथी तो एक जानवर मात्र था। उनकी यह निश्चित धारणा-सी हो गई थी कि पैसों की कीमत आदमी के प्राण से अधिक है और जीवन के अंतिम क्षणों में पैसों को छोड़कर कोई भी सहायक नहीं हो सकेगा।
फलस्वरूप हाथी की आँखें अपने संरक्षक की उदासीनता एवं उपेक्षा के कारण फूट गईं, फूटी आँखों का पानी बह-बह कर उसकी मर्मांतक पीड़ा जीवनपर्यंत व्यक्त करता रहा। उतनी बड़ी विशाल काया और आँखें नहीं! किंतु यह बाबू साहब नहीं समझ सकते थे। बेचारा अंधा हाथी चलने के क्रम में ठोकरें खाता, गिरता, झुकता हुआ भी अपने कठोर मालिक को ढोता रहा। यही नहीं उसकी नेत्र विहीनता उसके प्रति उदासीनता का बहाना बन गई। मालिक ने उसे उसके महावत को सुपुर्द कर शांति की साँस ली। हाथी तो रहा ही, जिम्मेदारी से भी छुट्टी मिली! पीछे तो कुछ ऐसा हो गया कि मालिक का प्रत्येक कार्य उसके शेष सुखों पर आघात पहुँचाने लगा। धान की जगह वृक्षों की ठल्लियाँ उसके जीवनयापन का सहारा बन गईं। उसके निवास के घर में मालिक ने अंटसंट भर दिया। माघ महीने की प्रचंड बरसाती झपसी में जब कि लोग बोरसी और घूरे का सेवन करने पर भी काँपते रहते थे, वह बेचारा अपनी किस्मत का रोना रोता हुआ सात-सात दिनों तक उदार एवं कृपालु मालिक के गुण, व्यथित शब्दों में, गाता दिगंबरवत् ठिठुरता-काँपता रह जाता, पर स्वप्न में भी उसके मालिक के मन में यह नहीं आता कि यह पशुओं के प्रति अत्याचार है। जो मनुष्य पर अत्याचार करता है या मनुष्य पर होते हुए अत्याचारों को देखकर सह सकता है उसे पशुओं के प्रति किए गए अत्याचारों से क्या पीड़ा हो सकती है?
उस हाथी के लिए सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह हुई कि बाबू साहब अपने परिवार के अन्य सदस्यों पर अविश्वास करते थे एवं असंख्य शंकाओं से आवृत्त उनका मस्तिष्क प्रतिफल प्रतिक्षण अपने भयंकर स्वार्थों की सुरक्षा एवं पूर्ति के लिए मकड़ी का जाला बुना करता था। दुर्भाग्य से परिवार के अन्य सभी व्यक्तियों को हाथी की दर्दनाक स्थिति से चिंता होती थी और बाबू साहब को उस स्नेहशील चिंता को आँच देकर जलाने में मजा आता था। अतएव उस भयंकर जाल का पहला शिकार वह विशाल, किंतु निरीह हाथी हुआ जो बहुधा मालिक को देखकर हर्षातिरेक में सूँड उठाकर अभिवादन किया करता था! पशुओं का प्रभु-प्रेम आदमी के प्रेम से विशेष निश्छल, निष्कपट एवं टिकाऊ हुआ करता है न? और तो और, उसके अंतिम दिनों में करीम खाँ की जगह पर जो महावत उसे पथ प्रदर्शक के रूप में मिला, वह तो एकदम ‘द्वितीय कृतांत’ निकला। मालिक यदि एक तो वह सवा। तेलिया ताल तो कुम्हरा बैताल। मालिक उसके वेतन- कपड़ों आदि में कतरब्योंत करते, तो वह हाथी के शरीर से ही द्रव्य निकालने का प्रयास करता। बारात में मिलने वाली खुराक बाजार में बेचकर वह बीड़ी से धुँआँ निकालता, पर एक दाना भी हाथी को नसीब नहीं होने देता। मालिक और महावत की इस होड़ में बेचारे हाथी का पेट सदैव हाहाकार करता रह जाता। हाथी के इसी हाहाकार की चर्चा कवि रहीम ने एक पद में यों की है–
‘बड़े पेट को भरन में
बड़ी वस्तु की बाढ़ि।
ताते हाथी हहरि कै
दियो दाँत द्वै काढ़ि।।’
इसी बेचारगी और हाहाकार की स्थिति में उस हाथी ने एक दिन बहुत-सी मिट्टी खा ली। मिट्टी खाने की चीज हरगिज नही है–यदि रही होती तो बृज की सोंधी मिट्टी यशोदा श्रीकृष्ण के मुँह से नहीं उगलवातीं। मिट्टी ने पेट में जाकर विष का काम किया और मालिक ने दवा में पैसे खर्च करना पैसों का अपव्यय समझा और अपनी हार समझी। औषधि की प्रतीक्षा में विष अपना प्रचार नहीं रोकता। फलस्वरूप एक ही दिन बाद मालिक के घर से कुछ दूर जबकि वह एक बारात की शोभा बढ़ाने गया था, हाथी ने दम तोड़ दिया। जो कभी बाबू साहब के दरवाजे का शृंगार और उसकी उनकी लक्ष्मी का साकार रूप बन कर आया था, वह एक विशाल खंखाड़ के रूप में वहाँ पड़ा था! मरने के पहले इतना भी उसमें दम नहीं था कि चीत्कार कर सके; किंतु उसके उर्द्धश्वास से एक अजीब कराह-सी निकलती थी और उसकी फूटी आँखों से बहुत देर तक अश्रु-प्रवाह जारी था। यातनाओं से मुक्ति ही तो जीव का चरम लक्ष्य है। किंतु उसकी मृत्यु से उसके हमदर्दों को चोट लगी–बारात के आनंद में भी कितनों की आँखें गीली हुईं! पर कौन कहे, उसके मालिक के फौलादी हृदय को उसके मौन सेवक का यह दयनीय महाप्रयाण छू सका या नहीं?