बहती धारा : चतुर्मुखी कसौटी

बहती धारा : चतुर्मुखी कसौटी

[‘बहती धारा : चतुर्मुखी कसौटी’ स्तंभ आरंभ करते हुए हम प्रत्येक माह के साहित्य के चतुर्मुखी संचरण से अवगत होने की आशा रखते हैं जो पाठकों को भी रुचिकर होगा। यह भी स्पष्ट है कि इस स्तंभ के अंतर्गत प्रस्तुत किए गए मूल्यांकन के संपादक-मंडल की सहमति आवश्यक नहीं है।]  –संपादक

धारा बहती चली जा रही है–साहित्य की धारा वेग से आगे बढ़ती जा रही है। कदम-कदम पर इसे मूल्यगत संघर्षों से सामना करना पड़ रहा है, भूत का स्थापित चित्र, वर्तमान की आस्था और भविष्य के स्वप्न इसकी लहरों में हैं। समय इसके तन को स्पर्श कर रहा है। गति इसकी राह बना रही है। और मूल्य कसौटी लिए तैयार है। समय, काल, मनुष्य सभी के सम्मुख कसौटी प्रश्न खड़ी है।

एक लहर–

एक लहर, चमकदार लहर आपकी कसौटी पर चढ़ गई। पुरानी परंपरा, नवीन मूल्यबोध, नवीन परिवेशगत नूतन चेतना, प्रेम की रोमानी प्यास, वैज्ञानिक विस्तार के सम्मुख विघटित आस्था और ‘लघुत्व’ की जड़ता से कुंठित आत्मद्रोह आदि अनेक बूँदों से निर्मित काव्य, परंपरामुक्त ‘नवगीत’ और नयी कविता, पत्र-पत्रिकाओं की ढेर से जूझती धारा।

‘कादंबिनी’, नाम के अनुरूप गुण रखनेवाली–अप्रैल की कादंबिनी में ‘परंपरागत अस्तित्व’ हरिकृष्ण प्रेमी की ‘कविता’ ‘रूप ने दिल को जलाया’ में साकार है। हरिकृष्ण नाटककार के साथ सरस संवेदनशील कवि तो हैं, परंतु वे रूप के ताप में जल गए। काश! वे युगबोध की दृष्टि अपना पाते। ‘एक प्रश्न’ (शलभ : नई धारा, अप्रैल) और ‘बहुत करीब तुम्हारे घर से राह हमारी गुजर गई’ (दीनानाथ शरण, नई धारा, अप्रैल) में ‘नवगीत’ की चेतना का प्रथम प्रस्फुरणमात्र है। प्रभाकर माचवे का ‘गीत’ (नई धारा, अप्रैल) अनास्थापरक कुंठित व्यक्तित्व को चुनौती देती है। माखन लाल चतुर्वेदी पुरातन के मोह में जकड़े नहीं, फलत: गति उनमें बनी रही। धूप (धर्मयुग, 12 अप्रैल) इसका प्रमाण है। रामधारी सिंह दिनकर के गीत जीवन की गति को लय देते हैं। ‘श्मशान’ (कादंबिनी, अप्रैल) में ‘जिंदगी नहीं मरती है’ का स्वर अनास्था के फैले विषैले सर्प का विष उतारने को आतुर है। साहित्य जीवन के लिए है, जीवन निर्माण और प्रेरणा के लिए है। ‘श्मशान’ इस दिशा का मांगलिक गीत है। शंभु प्रसाद श्रीवास्तव का गीत ‘कौन जाने’ (सरिता, अप्रैल) एक सुंदर गीत है।

नयी कविताएँ जितनी मात्रा में छपती हैं उनमें उतनी ही अधिक मात्रा में अनर्गल भी हैं। ‘नयी कविता’ की आत्मा को समझे बिना कविता पर लेखनी दौड़ाने का साहस आज के अराजकता भरे युग के अनुकूल ही है। परंतु बाढ़ की धारा में भी कुछ स्थाई तत्व होते हैं, कुछ गुण होते हैं। अज्ञेय कृत ‘आज फिर एक बार’ (धर्मयुग, 5 अप्रैल), और ‘निरस्त्र’ (कल्पना, अप्रैल) की दूसरी कविता काव्य के आधुनिक बोध से युक्त हैं। कवि की भावाभिव्यक्ति की प्राणपूर्ण शक्ति इनमें अटूट है। अप्रैल माह में सौमित्र सेन की ‘तीन छोटी कविताएँ’ (धर्मयुग, 5 अप्रैल), डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की ‘लश्कर’, सियारामशरण प्रसाद की ‘दिशा दो’ (भारती, 5 अप्रैल), डॉ. रमेश कुंतल मेघ की ‘खलनायक समय और मामूली’ (12 अप्रैल, धर्मयुग), नरेश सक्सेना कृत ‘तीन गीत’ (26 अप्रैल, धर्मयुग) आदि कविताएँ वैविध्य, परिवेशजन्य उद्बुद्ध प्रक्रिया और नवचेतना से स्पंदित हैं। दिन सोनवलकर कृत ‘स्मृति के बिंब’ (ज्ञानोदय, अप्रैल), प्रिंसिपल कपिल कृत ‘धरती का धूसर रंग’ (नई धारा, अप्रैल) भी गत मास की सुंदर रचनाओं में हैं। परंतु मधुकर खरे की ‘मृगजल’ (नई धारा, अप्रैल), सरोजिनी कुलश्रेष्ठ कृत ‘तीन कड़ियाँ’ (भारती, 5 अप्रैल), डॉ. निर्मला जैन कृत ‘ताज की छाया में’ (ज्ञानोदय, अप्रैल), नयी कविता के नाम पर भरती की चीजें हैं। रोमांस को आधार मान कविता का घेरा बनाना औचित्यपूर्ण नहीं माना जा सकता। युग की गति में विस्तार के बहुमुखी आयाम को आज का सजग कलाकार समझे बिना प्रगति नहीं कर सकता। पुन: कैलाश वाजपेयी के ‘अपराधग्रस्त’ में ‘संस्कार’ जो पवित्र है, उसे दूध के दाँतों सदृश टूटना कहना भ्रामक है। संस्कार पवित्र हों या अपवित्र दुधिया दाँत की तरह बच्चे कभी नहीं होते। कवि को सामान्य ज्ञान भी तो होना ही चाहिए। डॉ. देवराज में इतिहास बोध है, आधुनिकता और भारतीय संस्कृति से समन्वित सुघर चेतना है और इसी की अभिव्यक्ति ‘इतिहास पुरुष’ (धर्मयुग, 19 अप्रैल) में है।

दूसरी लहर–

पाठक कहानियों की माँग करते हैं और वे कविता की दुरूहता और स्वप्नशीलता से हट कर यथार्थता और सरलता चाहते हैं। यथार्थता इसलिए कि वे अपना, अपने समाज का चित्र देखकर उसमें अपनी अनुभूति से रस ग्रहण कर सकें। सरलता इस लिए कि सहज ही समय मनोरंजन में काटा जा सके। ट्रेन में बोर होने से बचा चा सके। इसीलिए तो ‘नई कहानियाँ’, ‘कहानी’, ‘अमिता’, ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाएँ आज सुविधा से ही नहीं संख्या में भी पर्याप्त बिक रही हैं। अब देखना है, अप्रैल में कहानी की गति, विस्तार, चेतना किस दिशा में रही। विजय चौहान की ‘रजाई’ (कल्पना, अप्रैल) मनुष्यता की कहानी है। अनीता बोस आज के शहरी परिवेश में भटकी नारी के सम्मुख गहरा प्रश्न बनकर खड़ी होती है। यह कहानी शिल्प चमत्कार से अलग परंतु मार्मिक है। सत्येंद्र शरत् कृत ‘बालवृद्धि’ (कल्पना : अप्रैल) बाल मनोविज्ञान की अच्छी कहानी मात्र है। गुरु वचन की ‘सच्चे मोती’ (कल्पना, अप्रैल), सर्वेश्वर दयाल की ‘लपटें’ (धर्मयुग, 5 अप्रैल), छेदीलाल गुप्त की ‘आग’ गत मास की सफल कहानियों में हैं। शिवप्रसाद सिंह की रचनाओं में सफाई और ईमानदारी पाठकों को भाती हैं। परंतु ‘एक यात्रा सतह के नीचे’ (कल्पना, अप्रैल) से पाठकों को असंतोष ही होता है। यह कहानी ग्रंथ बन गई है। पश्चिमी हवा के झोके में बहने वाली प्रवृत्ति लघुता और कुंठा से ग्रसित मनुष्य नागानंद की कहानी ‘सलीब पर टंगी हुई अम्मा’ (ज्ञानोदय, अप्रैल) मूल चेतना है। ‘विटनिक’ बनने की धुन के सम्मुख कुछ कहना व्यर्थ है। ‘पीढ़ियाँ और गिद्दियाँ’ (धर्मयुग, 19 अप्रैल) हरिशंकर परसाई की व्यंग्यपरक कहानी है। काव्य पर कोई दोष न दिया जाकर भी यह कहना ही पड़ता है कि इसमें लेखक का व्यंग्य गहराई से हीन है। कहानी की दृष्टि से ‘कादंबिनी’ का अप्रैल अंक बहुत कमजोर है और इसका प्रमाण ‘हत्या रात के दस बजे’ (ब्रह्मदेव) है। इतने सजधज से निकलने वाली पत्रिका से पाठक और साहित्य-जगत कुछ आशा रखता है, इसे कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? दृष्टि (अप्रैल) में छपी रामगोपाल परदेशी की कहानी सफल उतरी है जिसमें आज के मनुष्य के दोरंगे चरित्र को उघार कर रख दिया गया है।

‘सरिता’ और ‘नई कहानियाँ’ में ऐसी कोई कहानी नहीं छपी जिसकी चर्चा महत्त्वपूर्ण समझ कर की जाए। रोमांस और रोचकता ही कथा के लिए सब कुछ नहीं है। प्रेम भटनागर कृत ‘एक ही राह’ द्वारा यह तथ्य समझा जा सकता है।

तीसरा लहर चौथा लहर…और अनेक :

अप्रैल माह में कोई विशिष्ट और उल्लेखनीय एकांकी प्रकाशित नहीं हुआ। डॉ. रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर, आदि नहीं दीख पड़े। डॉ. रामचरण महेंद्र का एक एकांकी ईश्वर विभूति में छपा है जिसे प्रेरणापरक तो कह सकते हैं परंतु विशिष्ट नहीं। यही बात सरिता अप्रैल में प्रकाशित चंद्रदत्त शर्मा इंदु लिखित पेशेवर एकांकी के विषय में कही जा सकती है कि इसमें व्यंग्य है परंतु विशिष्टता नहीं। निबंध एक लेख की दृष्टि से मूल्य की परिभाषा (कृष्णनाथ, कल्पना), ‘सृजन-प्रक्रिया और मूल्यांकन’ (निर्मल वर्मा, कल्पना), शिक्षा में क्रांति (विनोबा भावे, कादंबिनी) अचेतन: पूर्व और पश्चिम की विचार पद्धतियाँ (सूर्यदेव पांडेय, ज्ञानोदय), स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कहानी (डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, ज्ञानोदय, अप्रैल), शेक्स्पीयर (इलाचंद्र जोशी, धर्मयुग, 26 अप्रैल) अप्रैल महीने की कुछ श्रेष्ठ रचनाएँ हैं जिनमें लेखकों ने पूर्वाग्रह से मुक्त होने का प्रयत्न किया है और मौलिक प्रश्नों को उठाया है। इसलिए इनमें न प्रशस्तिपरक शैली है न मौलिकता के दावेदारों की तरह मसीहापन। अति ही बीच की राह उनमें है जो स्वाभाविक है। पं. नारायण का ‘हमारी राहुग्रस्त राष्ट्रभाषा’ (26 अप्रैल, धर्मयुग) सामयिक निबंध है जिसमें लेखक ने ईमानदारी से सत्य स्थिति को सामने रखा है।

धर्मयुग में प्रकाशित प्रयोग की गोष्ठी भी पठनीय और साहित्यिक गतिविधि की सूचना देने वाली रचना है। यों इसमें विवरण अधिक है तथ्य कम। मुक्ता राजे ने शैली के जासूसी जीवन को रखकर पाठकों को चौंकाया है। पता नहीं इसमें सत्य कहाँ तक है। 16 अप्रैल, धर्मयुग में विद्यानिवास मिश्र ने विश्वविद्यालय की वर्तमान दुरवस्था के कारणों का सही लेखा-जोखा किया है। जब तक हम पर अँग्रेजी की प्रेतछाया रहेगी तब तक क्या उम्मीद की जा सकती है? अपने अभिनंदन के अवसर पर डॉ. इंद्रनाथ मदान का वक्तव्य (धर्मयुग, 19 अप्रैल) अत्यंत निर्भीकतापूर्ण तथा विचारोत्तेजक है। इसमें मदान जी का चुकना व्यंग युग को तिलमिला देने की क्षमता रखता है। दूसरी ओर जैनेंद्र कृत ‘विज्ञान’ कहानी पर वाद-विवाद (धर्मयुग) मात्र प्रचार लगता है। नहीं तो ऐसी अविशिष्ट कहानी पर इतनी जोरदार चर्चा नहीं चलती। अंचल द्वारा प्रस्तुत एक अविस्मरणीय घटना (धर्मयुग, 5 अप्रैल) संवेदनशील कवि की आत्मा के संस्पर्श से आर्द्र है जो पाठकों के मर्म को भी छूती है। डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे लिखित रामकाव्य में राम का स्वरूप (कादंबिनी, अप्रैल) लेख सामान्य पाठकों के लिए पठनीय है। डॉ. रामगोपाल शर्मा दिनेश कृत ‘विश्वशांति की समस्या के संदर्भ में युद्धपरक साहित्य’ (नई धारा, अप्रैल) भी एक तथ्यपूर्ण, सुंदर लेख है। साप्ताहिक हिंदुस्तान में रचनाओं की दृष्टि से कोई उल्लेखयोग्य बात तो नहीं रही परंतु संपादकीय की प्रशंसा तो की ही जाएगी। संपादकीय की तीक्ष्णता और निर्भीकता अन्य पत्रों के संपादकों के लिए अनुकरणीय है।

अंत में यही कहा जाएगा कि संपूर्ण अप्रैल माह में मात्र कुछ कविताओं और दो-तीन कहानियों के अतिरिक्त दो-तीन लेख ही महत्त्वपूर्ण रहे। परंतु साहित्य के अमरत्व को ध्यान रख यह प्रगति असंतोषप्रद नहीं कही जा सकती।


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कृत्यादूषण द्वारा भी