भारत और भारतीयता पर विचार

भारत और भारतीयता पर विचार

‘डायलॉग’ और ‘चिंतन-सृजन’ के प्रतिष्ठित संपादक प्रो. ब्रजबिहारी कुमार ने पूर्वोत्तर के विश्वविद्यालय में विज्ञान विषय का अध्यापन करते हुए पूर्वोत्तर की विभिन्न जनजातियों, उनकी भाषाओं, उनकी संस्कृति, उनका धर्मांतरण और धर्मांतरण के बाद के अलगाववादी विद्रोह इन सबका राष्ट्रीय दृष्टि का अध्ययन करते हुए तथा उन पर लेखन करते हुए सेवानिवृत्ति को प्राप्त किया है। अब वे दिल्ली स्थित ‘आस्था भारती’ के तत्वावधान में अँग्रेजी और हिंदी में दो पत्रिकाओं का संपादन करते हुए संपूर्ण देश की समस्याओं पर विचार कर रहे हैं। उनकी प्रखर सांस्कृतिक राष्ट्रीय दृष्टि जागृत है। अतः वे विश्व के संदर्भ में अपने देश भारत की बहुआयामी समस्याओं का निर्भीकतापूर्वक विश्लेषण कर रहे हैं। यह विश्लेषण-विवेचन ‘चिंतन-सृजन’ के संपादकीय अग्रलेखों में आ रहे हैं। उन्हीं अग्रलेखों का एक संकलन अभी पिछले दिनों ‘राष्ट्रीय समस्याएँ : चिंता एवं चिंतन’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इनमें बयालीस अग्रलेख हैं, जिनमें स्वातंत्र्योत्तर भारत की समस्याओं का विश्लेषण है। समाधान के प्रभाव हैं। मार्गदर्शन है। अतः इस पुस्तक का विशेष महत्त्व है।

शिक्षा, भाषा, अलगाववाद, आतंकवाद, सुरक्षा, वैचारिक विभ्रम विचारदारिद्रय, सत्तालोलुपता के कारण तुष्टिकरण, ग्रामों का पतन नगरों का असंतुलित विकास–ये सारे विषय इस संकलन के केंद्र में हैं। सर्वप्रथम प्रो. ब्रजबिहारी कुमार ने भारत के बौद्धिक परिवेश पर विचार किया है कि भारत का बुद्धिजीवी अपने में सिमट गया है। उसे यह नहीं दिख रहा है कि प्रजाति एवं भाषा के नाम पर भारत को तोड़ने का भीषण षड्यंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है। राजीव मल्होत्रा तथा अरविंद नीलकंदन ने ‘ब्रेकिंग इंडिया’ नामक पुस्तक में सप्रमाण दिखाया है कि एक विशप के द्वारा तमिल व्याकरण के लेखन में तमिल भाषा और द्रविड़ समुदाय को उत्तर भारत से सर्वथा भिन्न बताकर समाज को भीतर से तोड़ने का बीजवपन कर दिया गया और अब अमेरिका के अनेकानेक विश्वविद्यालय तथा चर्च ने आर्य से भिन्न तमिल प्रजाति तथा समूहों को मूल भारतीय समाज से तोड़ने के बौद्धिक प्रयास के षड्यंत्र में अपने को संलग्न कर लिया है। परंतु भारतीय बौद्धिक परिवेश तो ऐसा है कि उसे अपने समाज और राष्ट्र के विखंडन के पश्चिमी प्रयास की चिंता ही नहीं है। वह तो उन्हें सहयोग भी देता है। वैसे वामपंथी-मार्क्सवादी एवं नक्सली समूह भारत को निर्बल करने की दृष्टि से सहयोग देते रहे हैं। हिंदी कथा साहित्य में भी परिवार एवं समाज के विखंडन का चित्रण हो रहा है। अतः भारत तथा भारतीय समाज की अखंडता तथा शक्तिमत्ता के लिए भी, ब्रजबिहारी कुमार की दृष्टि में ऐसे दायित्वहीन-राष्ट्रीय दृष्टिहीन बौद्धिक परिवेश में परिवर्तन अत्यावश्यक है। मृत पत्नी के कफन के बदले शराब वाली कहानी तो अपवाद है। ऐसी घटना भारतीय समाज में सामान्य नहीं है।

लेखक ने प्रसिद्ध गाँधीवादी चिंतक तथा शोध लेखक स्वर्गीय धर्मपाल के उद्धरण लेकर सिद्ध किया है कि प्राचीन भारत ईसा की सत्रहवीं सदी तक समृद्ध रहा है। गरीबी और चोरी नामक रोग और चारित्रिक पतन अँग्रेजी राज्य की देन है। पश्चिम ने मशीन के बल पर औद्योगिक उत्पादन कर अपनी समृद्धि के लिए हमारा शोषण किया है। आज वही वैश्विक बाजारवाद का और बड़ा रूप धारण कर चुका है। उनका लांगवार प्रबलतम हो चुका है। परंतु उदात्त जीवन मूल्यों के आधार पर जीना ही मनुष्यता है। तात्पर्य यह है कि भारतीय जीवन मूल्यों से मानवता का कल्याण संभव है। पश्चिम जीवन दृष्टि अर्थ-काम पर आधारित है, अतः दो पक्ष है। परंतु भारत में भी यह विचार शून्यता आ रही है। यह वैचारिक विभ्रम ही इसका कारण है। प्रो. कुमार ने तरुण विजय द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण वामपंथी नामवर सिंह से कराकर वामपंथ का सहयोग लेने का गलत उदाहरण प्रस्तुत किया है क्योंकि वामपंथी अर्हन्त भारत एवं भारतीयता विरोधी है। भारतीयता को वामपंथी वैशाखी की जरूरत नहीं है। इस प्रकार ब्रजबिहारी कुमार ने ‘कफन’ कहानी की उच्चता का समर्थन किया है और न तरुण विजय द्वारा नामवर सिंह से सहयोग लेने का। यह इनकी निर्भीकता तथा प्रामाणिकता है। वे समझते हैं कि इस प्राचीन राष्ट्र और पुरातन समाज की इस दुःस्थिति का कारण बौद्धिक दारिद्रय है। पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी जीवन दृष्टि तथा वामपंथी आक्रामकता के कारण भारत के इतिहास, भाषा, संस्कृति आदि की गलत व्याख्या होती रही है। उन दोनों की व्याख्या से अभिभूत होकर भारतीय बौद्धिक दारिद्रय के शिकार होते रहे हैं। फलतः हम पश्चिम के अनेक मुखी आक्रमण को समझ नहीं पाते। भारत की यही सबसे बड़ी समस्या है।

प्रो. ब्रजबिहारी कुमार ने देश के बौद्धिक परिवेश में सार्थक बदलाव के लिए प्रसिद्ध गाँधीवादी-भारतीयतावादी विचारक धर्मपाल के विचारों को रखते हुए अंग्रेजों के षड्यंत्रों को दिखा दिया है। माउंटबैटन का सत्ता-हस्तांतरण भी षड्यंत्र का ही अंग है। मार्क्सवादियों ने इस स्वाधीनता के विरुद्ध खूनी क्रांति की कोशिश की थी। घुसपैठ तथा आतंकवाद का भी समर्थन किया है। जैसे उन्होंने भारत के विभाजन का समर्थन किया था। अब चुनाव भी समाज के विभाजन का कारण बनता जा रहा है। हम असावधान हैं। ऊपर से भ्रष्टाचार का भयानक रूप पूरे शासन तथा सामाजिक जीवन को ग्रसित कर चुका है। परंतु जनता जागृत हो रही है।

आजादी के बाद भी हम बौद्धिक विभ्रम के बंधन में बंधे हैं। नालंदा विश्वविद्यालय के पुनर्जन्म से कुछ आशा बंधी क्योंकि औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति, मिशनरियों का जाल, धर्मांतरण का कुचक्र ये सब चल रहे हैं। परंतु अहिंसा-हिंसा-शक्ति संचय-सुरक्षा में हम अंतर नहीं कर पा रहे हैं। नालंदा में आयुध कारखाना का अहिंसावाद द्वारा विरोध हुआ है, क्योंकि वह बुद्ध की भूमि है। परंतु यह स्मरण नहीं रहा कि शक्ति के अभाव में ही बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस किया था। राष्ट्र के सुरक्षित जीवन के लिए शक्ति आवश्यक है।

प्रो. ब्रजबिहारी कुमार ने पर्दाप्रथा पर विचार मंथन की चर्चा की है। श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने पर्दाप्रथा को मुस्लिम शासन की देन बताया था। इस वक्तव्य पर मुस्लिम विद्वानों, मुस्लिम मीडिया तथा सेकुलर नेताओं ने हिंदुओं पर दोष मढ़ दिया और श्रीमती पाटिल का खंडन कर दिया। यह कैसी विडंबना है। इतिहास और वर्तमान तो मुस्लिम समाज में ही पर्दा को पा रहे हैं। अब एक दूसरी समस्या भी है। जीवन दृष्टि का प्रश्न है। प्रो कुमार ने ‘इंडिया टूडे’ के एक विशेषांक में देखा है कि उसमें धनी उद्योगपतियों, फिल्मजगत के सितारों, राजनीति के खिलाड़ियों, इंजीनियरों, डाक्टरों आदि को धन-बल के आधार पर गुणगान गाया है। उस सूची में चिंतकों तथा साहित्यकारों की उपेक्षा हुई है। मात्र धन-बल की प्रशंसा भारतीय दृष्टि के विपरीत है। इसी देश में तथाकथित मानवाधिकारवादी हैं जिनमें सेकुलरों तथा वामपंथियों का वर्चस्व है। ये आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं ये आतंकवाद के शिकार निरीह मानवों की चिंता नहीं करते। इनके सुनियोजित कुचक्र के अंतर्गत ये आंतकियों को बचाने के लिए पुलिस बल तथा हिंदुओं पर आरोप लगाते हैं। इस षड्यंत्र को समझना आवश्यक है।

गंभीर विचारक प्रो. कुमार ने स्वातंत्र्योत्तर भारत की शिक्षा व्यवस्था के बहुआयामी पतन पर अनेक बार लिखा है। इन्होंने बताया है कि शिक्षा के नाम पर सिर्फ सूचनाएँ दी जा रही है। जीवन से असंबद्ध नई पीढ़ी सूचना-समृद्ध हो रही है और वह नौकरी के लिए दौड़ रही है। इस नई पीढ़ी में न समाज के प्रति लगाव पैदा हो रहा है और न अपने राष्ट्र के प्रति। इन्हें आधारहीन एवं भारतीयता विरोधी सेकुलरवाद-वामपंथ के विचारों की घुट्टी पिलायी जा रही है। उनमें केवल अधिकतम वेतन, भौतिक जीवन और सेक्स के प्रति आकांक्षा जगायी जा रही है। इसी आधार पर भारत की नई पीढ़ी आगे बढ़ना चाहती है। फलतः देश समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। अतः शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक है।

वर्तमान शिक्षा, समाचार माध्यम, मनोरंजन उद्योग (फिल्म) और सरकारी पदाधिकारी इन सबने हिंदी भाषा को भी विकृत कर देना आरंभ कर दिया है। यह सच है कि विश्व की सभी भाषाएँ दूसरी भाषाओं से शब्द ग्रहण कर रही हैं हिंदी ने भी ग्रहण किया है। परंतु आज तो हिंदी के पास शब्दों के पर्याय रहते हुए भी समाचार माध्यम (मीडिया), दूरदर्शन तथा मनोरंजन उद्योग मनमानी ढंग से हिंदी में उर्दू तथा अँग्रेजी के शब्दों को ला रहे हैं। फलस्वरूप हिंदी एक क्रेऑल विकृत (मिश्रित) भाषा बनती जा रही है। इसी विकृत हिंदी का प्रचार किया जा रहा है। कुछ अखबार वालों ने अपनी पाठक संख्या बढ़ाने के लिए अश्लीलता को भी अपना लिया है। इसके लिए वे तर्क भी देते हैं। यह भयानक पतन है।

चिंतनशील संपादक व लेखक प्रो. कुमार गाँवों की स्थिति को देख कर चिंतित हैं। असंतुलित योजनाओं के कारण ग्राम और कृषि दोनों की उपेक्षा हुई है। इसके कारण गाँवों से धन, जन, विद्या तीनों का पलायन हो रहा है। अतः गाँव गाँव नहीं रह गये। शहरों में झोपड़ियों की संख्या बढ़ रही है, पर गाँव समृद्ध नहीं हो रहा, गाँव का किसान जमीन बेचकर मजदूर बन रहा है। कारखानों का धुँआ आकाश में छा रहा है। नीचे अँधेरा हो रहा है। विदेशी प्रसंस्कृत बीज और रासायनिक खाद से उपज नहीं हो रही है। कर्जदार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यह घोर चिंता का विषय है।

प्रो. ब्रजबिहारी ने सम्यक् दृष्टि से लिखा है कि पाकिस्तान के आतंकवाद तथा चीन की घेरेबंदी से भारत का संकट भयानक हो रहा है। परंतु पिछले पचास वर्षों से सेकुलरवाद और मार्क्सवाद के प्रति मोह छूट नहीं सका है, जबकि इन्हीं दोनों ने पाकिस्तान तथा चीन से मिल रही चुनौतियों के प्रति हमें उदासीन बनाया है। अब धीरे-धीरे जागरूकता आ रही है। विस्थापित कश्मीर घाटी में अलगाववाद की आग बुझ नहीं रही है। दोनों उस आग में घी डालते रहे हैं। कश्मीर का अलगाववाद धर्मांतरण का परिणाम है। पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों की भी यही समस्या है। इस अलगाववादी मानसिकता के कारण केंद्र ने छोटे-छोटे राज्यों को कायम किया है जिन पर अथाह व्यय केंद्र की ओर से किया जा रहा है। और वहाँ भ्रष्टाचार आर्थिक कदाचार बहुत बढ़ गया है। धर्मान्तरित समूह केंद्र से लाभ पाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। शासन उन्हें शांत करने के लिए अधिक धन उड़ेलने लगता है। यदि कोई एक निर्भीक तसलीमा नसरीन इस धर्मांतरण, अलगाववाद और उग्रवाद पर लिखती है तो मुस्लिम उग्रवाद उस पर आक्रमण करता है। आज शासन बदलने पर तसलीमा सुरक्षित अनुभव कर रही है।

इसके अंत में कुमार ने हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार और चिंतक निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य का स्मरण किया है। साथ ही गंभीर चिंतक तथा लेखक प्रो. राजमल बोरा के आकस्मिक निधन पर श्रद्धांजलि दी है। साथ ही उनकी साधना का स्मरण किया है। समग्रतः चिंतनप्रज्ञ लेखक ब्रजबिहारी कुमार की लेखनी भारत, भारतीयता तथा सामान्य भारतीयजन की समस्याओं पर गंभीरता से विचार करती है और हममें राष्ट्रचेतना को जगाती करती है।

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