भूदानयज्ञ का अर्थशास्त्र

भूदानयज्ञ का अर्थशास्त्र

जब से पूज्य विनोबा जी ने भूदान-यज्ञ का श्रीगणेश किया है तब से आंदोलन के विभिन्न पक्षों से संबंध रखने वाले सैकड़ो प्रश्न इस संबंध में उठ चुके हैं। समाचार-पत्रों एवं व्यक्तिगत मतों की सीमा के भीतर भी इसके आर्थिक एवं राजनैतिक महत्त्व पर विशेष चर्चाएँ हुई हैं इसमें संदेह नहीं कि यह एक ऐसा आंदोलन है जिसे शुद्ध तर्क दृष्टि से न तो परखा ही जा सकता है और न समझा ही जा सकता है। कोई भी तटस्थ आलोचक या प्रशंसक इसकी गहराई तक नहीं पहुँच सकता। इसके मर्म को समझने के लिए जिज्ञासु को स्वयं ‘गहरे पानी पैठ’ का मार्ग अपनाना पड़ेगा। और यही कारण है कि बौद्धिक वर्ग का एक बहुत छोटा अंश ही भूदानयज्ञ की शक्ति और उपादेयता को अनुभव कर सकता है। मानवीय-इतिहास में इस प्रकार का आंदोलन शायद अद्वितीय ही है। जो लोग दुनिया की प्रत्येक वस्तु को भौतिक लाभ-हानि की दृष्टि से देखने के अभ्यासी हैं वे कानून द्वारा मान्य, सरकार द्वारा पोषित अपनी संपत्ति अथवा अधिकार के स्वेच्छा पूर्वक त्याग करने के इस विचार को अव्यावहारिक और व्यर्थ मानते हैं। सच बात यह है कि वस्तुओं को देखने का यह भौतिक दृष्टिकोण ही अपने अंतर को आह्वान करने की उस असीम शक्ति और औचित्य की अनुभूति का प्रधान बाधक है और इसलिए भूदान-यज्ञ की उस असीम शक्ति का ये लोग आज तक अनुभव नहीं कर पाए हैं। परंतु देश में अव्याप्त आर्थिक चेतना और धाराओं का, जिन लोगों को ज्ञान है, और जो यह समझते हैं कि यह आर्थिक रचना किस प्रकार ऐतिहासिक तत्त्वों द्वारा परिवर्तित हो रही है, वे इस कार्य की सामर्थ्य एवं उपयोगिता को समझने में असफल नहीं हो सकते। और न विनोबा जी द्वारा अपनाई गई इस अहिंसक पद्धति को व्यर्थ और प्रभाव शून्य कह सकते हैं।

विनोबा जी का रास्ता और कार्य करने की प्रणाली बिल्कुल सीधी है। वे प्रत्येक व्यक्ति के पास जाकर उससे उसकी भूमि का छठवांश माँगते हैं और आज तक प्राय: जितना उन्होंने माँगा है उससे कहीं अधिक कुछ लोगों ने उन्हें दिया है। अब तक विनोबा जी तेलंगाना के कुछ भागों की विंध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार की यात्रा कर चुके हैं। तेलंगाना में 12000 एकड़ जमीन केवल दो माह में प्राप्त हुई जबकि कम्युनिस्टों को इसी तरह के काम के लिए बराबर तीन वर्ष तक हत्याएँ, खून और लूट का सहारा होना पड़ा। और इस प्रकार वे केवल 1000 एकड़ जमीन किसानों में बाँट सके।

उत्तर प्रदेश में उन्होंने कुल 3,25000 एकड़ भूमि इकट्ठी की एवं प्रांतीय भूदान-समिति का 5 लाख एकड़ भूमि इकट्ठी करने का अपना अलग प्रोग्राम है। बिहार में भूमि-समस्या और भी भयंकर थी अत: यहाँ विनोबा ने 40 लाख एकड़ भूमि इकट्ठी करने का नारा बुलंद किया। अत: अपने इस क्रांतिकारी-यज्ञ में विनोबा जी जिस प्रगति से आगे बढ़ रहे हैं, उसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि विनोबा जी की यह प्रणाली केवल सबसे आसान ही नहीं अपितु सबसे अधिक व्यावहारिक है।

केवल जमींदारी-प्रधान क्षेत्रों में अपने भूमि-प्राप्ति के कार्य को आरंभ करके एक प्रकार से उन्होंने वैधानिक रूप से जमींदारी खत्म होने के मार्ग को और अधिक गतिशील बना दिया है। जमींदार खत्म होने के बाद भी बहुत से जमींदार ‘खुद काश्त’ के नाम पर आज भी बहुत-सी जमीन अपने अधिकार में किए हुए हैं । और ऐसी अवस्था में जमींदारी समाप्ति का काम बहुत आगे तक नहीं बढ़ पाता; सिवाय इसके कि इससे मौजूदा-जोता को कुछ स्वामित्व के अधिकार मिल जाते हैं।

परंतु एक ही हाथ में बहुत जमीन रहने का अभिशाप आज भी चालू है। मध्य प्रदेश में तो आज के दिन 10 हजार, 25 हजार, 52 हजार एकड़ के स्वामी मौजूद हैं। विनोबा जी ने अपने प्रयत्न से ऐसे लोगों को जमीन ही नहीं बल्कि खुदकाश्त भी देकर उसे भूमिहीन किसान को देने का यह यज्ञ किया है। इस प्रकार वर्तमान-कानून से जो पूर्व-व्यवस्था बनी रहती उसे विनोबा जी ने इस भूदान-यज्ञ से बदलने की दिशा में अपूर्व कार्य किया है। और इस प्रकार एक स्वस्थ कृषि-प्रणाली के विकास को प्रोत्साहित किया है। विनोबा के इस प्रयत्न से सरकार को भूमि और जोता के सीधे संबंधों को और अधिक दृढ़ और स्थाई बनाने के कानून पास करने का मौका मिलेगा।

भूदान-यज्ञ के दो पक्ष हैं–(1) इस आंदोलन का आर्थिक पक्ष और आंदोलन का (2) सामाजिक पक्ष। इन्हीं दो तथ्यों पर इस ‘यज्ञ’ का श्रीगणेश हुआ है। जहाँ तक आर्थिक पक्ष का प्रश्न है वहाँ तक यह हमारे दिल और दिमाग में विषमतावादी वर्तमान अर्थ-रचना के विरुद्ध एक ‘चोट’ लगाता है। हम यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि आज कि स्थिति में सैकड़ों और हजारों एकड़ जमीन अपने कब्जे में रखना केवल अनैतिक ही नहीं गंभीर सामाजिक अपराध है। इस स्थिति का समाज पर दोहरा प्रभाव पड़ा है कि एक ओर एक परिवार अकर्मण्य और निष्क्रिय होता चला गया है क्योंकि हजारों एकड़ जमीन से कम-से-कम उत्पादन भी लिया जाए तो भी एक परिवार के विलास और ऐष के लिए वह काफी होता है। दूसरी ओर भूमि के केंद्रित होने से जिन्हें आवश्यकता थी उन्हें जमीन मिल न सकी–और ऐसे लोग आज अभाव से पीड़ित हैं। साथ ही साथ जमीन को उपजाऊ बनाने के जो प्रयत्न होने चाहिए थे वह न हो सके । भूमि-आंदोलन का प्रथम प्रभाव यह पड़ेगा कि वितरण होने से थोड़ी जमीन से अधिक उत्पन्न करने की प्रवृत्ति लोगों में बढ़ेगी। आज तक समाज ने भू-स्वामियों और अधिक जमीनवालों की विशेष इज्जत की है। आज जब उन्हें यह मालूम पड़ेगा कि भू-स्वामित्व विशेष आदर नहीं, विशेष निंदा का कारण बनेगा तो एक अंश में जमीन के साथ व्यक्ति का अनावश्यक ममत्व और मोह घटेगा। ऐसी अवस्था में समाज की वर्तमान रचना पर दो सुंदर आर्थिक प्रभाव पड़ेंगे–(1) आर्थिक निर्भरता की समाप्ति (2) स्वावलंबन और श्रम का विकास, अर्थात् ग्राम्य-जगत में धन या पूँजी का संग्रह चंद हाथों में न होकर ग्राम के प्रत्येक परिवार में बट जाएगा। इस से विलास और गरीबी दोनों को देश से जाना पड़ेगा। एक समत्व की भावना आपस में बढ़ेगी। एक भू-स्वामी और सैकड़ों मजदूर वाले देश का नक़शा आँखों से ओझल हो जाएगा। पूँजी और भू-साधन का यह विकेंद्रीकरण देहात में अन्य सहयोगी-साधनों को जन्म दे सकता है। थोड़ी पर उपजाऊ खेती के कृषक स्वामी धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़े होकर अन्य सहायक कृषि-उद्योगों को बढ़ावा दे सकते हैं, अत: आर्थिक दृष्टि से जो बात बहुत छोटी प्रतीत होती है उसका अंत बड़ा व्यापक और महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध ‘आँकड़ों’ के आधार पर ही यदि विचार करें तो पता चलेगा कि कुल मिलाकर आज तक विनोबा जी ने लगभग 7 लाख एकड़ जमीन इकट्ठी कर ली है । विनोबा-शास्त्र के आधार पर यदि फैलाए तो आज इस आंदोलन ने लगभग 1 लाख परिवारों को स्थाइ रोजी दे दी है। यह रोज़ी ऐसी है जो मालिक की खुशी ना खुशी के साथ खत्म नहीं होगी बल्कि 1 लाख परिवारों को सदा जीवन के साधन देती रहेगी और यदि संत का स्वप्न पूरा हो जाए तो देश के कितने लोग जो आज दासता और गुलामी में जकड़े हैं, चिर दासता से मुक्ति पा कर भू-स्वामी बन कर स्वावलंबी हो सकेंगे क्या वह आर्थिक पक्ष की बात नहीं है।

आर्थिक लाभ से अधिक लाभ आंदोलन से प्रेरणा मिलाने का है। यह आंदोलन धीरे-धीरे देश में प्रेरणा का एक नैतिक धरातल कायम कर रहा है जो एक ओर भू-पतियों को स्थिति की गंभीरता से सावधान करता है और दूसरी ओर निर्धन श्रमिक और भूमिहीनों के मन में आत्मगौरव और उत्तरदायित्व का भाव भरता है। सदियों से हथियाई ज़मीन से चिपटे रहने की प्रवृत्ति थी उस सामंतवादी मन:स्थिति को एक बिचारात्मक धक्का (Shock) लगा है। और एक से प्रकार यह मानसिक क्रांति वाह्य क्रांति से अधिक शक्तिशाली है।

हाँ, यह हमें अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि स्वयं अपने में यह आंदोलन पूर्ण या ‘इति’ नहीं है। इस प्रारंभिक-यज्ञ के साथ, इस मानसिक तैयारी के साथ-साथ हमें विधान का भी सहारा लेना पड़ेगा । लेकिन इस तैयारी के बाद लाए-गए वैधानिक सुधार जनता और स्वयं भूपति जल्दी हजम कर सकेंगे ! नहीं तो आज की तरह एक ओर सरकार जमींदारी खत्म करती है, दूसरी ओर न्याय का पल्ला पकड़ने का बहाना करके मामले को सुप्रीम-कोर्ट तक पहुँचाने के लिए जमींदार और जागीदार व्यवहार को महीनों और सालों तक रोके रहते हैं। यह आंदोलन एक विशाल, स्थाई सामाजिक क्रांति की भूमिका हैं। अरुणोदय से पूर्व उषा का प्रतीक है। और, यदि इस आंदोलन की मशाल लेकर हमारे चोटी के नेता–चुनाव-आंदोलन के समान देहात में फैल गए होते तो इस अहिंसक आर्थिक-क्रांति के बीज देश के कोने-कोने में पड़ जाते और इससे हिंसा रक्तपात एवं बलद्वारा स्थापित समाज से कोटिश: शक्तिशाली स्वस्थ समाज की रचना देश में कम समय में हो गई होती!


Image: Agricultural Scenes Tomb of Nakht Ancient Egypt
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