भ्रष्ट व्यवस्था की उत्सवधर्मिता का आख्यान

भ्रष्ट व्यवस्था की उत्सवधर्मिता का आख्यान

जब रोम जल रहा था, तब सम्राट नीरो बाँसुरी बजा रहा था। यह किस्सा इतिहास में लगातार उपस्थित है, क्योंकि विसंगतियों की ताल पर नृत्य करने का फैशन हमेशा रहा है। परिवेश की भ्रष्टताओं के बीच सब ओर व्याप्त शोषण से जूझते हुए किसान के मजदूर बन जाने की त्रासदी सांप्रत सृजन की लोकप्रिय और सुपरिचित कथा है। प्रेमचंद के ‘गोदान’ (1936) से मन्नू भंडारी के ‘महाभोज’ (1979) तक और इन कृतियों के आगे-पीछे अनगिनत रचनाओं में बार-बार इसी त्रासदी को दुहराया गया है। उपन्यास के पाठक गवाह हैं कि इसी कभी न बदलने वाली की ताजातरीन तस्वीरों का अलबमीकरण है पंकज सुबीर का यह नया उपन्यास–‘अकाल में उत्सव’।

सूखा पानी गाँव के ओलापीड़ित किसान राम प्रसाद ने कुएँ में रस्सी से लटककर आत्महत्या कर ली, ठीक उसी समय सरकारी अमले नगर उत्सव में व्यस्त थे। ‘अकाल में उत्सव’ की कुल कहानी इतनी-सी है, जिसे पंकज सुबीर ने अपनी कथाकारी के कौशल से विश्वसनीय और सोद्देश्य बनाया है। इस प्रयास में कथाकार की मीडियाकरी का भी भरपूर सहारा मिला है। तभी समर्थन मूल्य के गणित से लेकर गेहूँ और डीजल के घटते-बढ़ते भाव का ब्योरा यहाँ है। अवसर मिलते ही कई चुटकुलों और स्थानीय रोचक प्रसंगों को भी इस उपन्यास की आधिकारिक कथा में पिरोया गया है। समूचा उपन्यास किसान राम प्रसाद के संकटों पर एकाग्र है, लेकिन पंकज सुबीर के लिए उन संकटों के लिए उत्तरदायी शहरी परिस्थितियों, व्यवस्था की बेपनाह विसंगतियों और अफसरों की वीतराग आदतों से बचकर निकलना संभव नहीं हुआ है। जिलाधीश श्रीराम परिहार के लिए रामप्रसाद के गाँव ‘सूखा पानी’ का नाम विचित्र और विनोदपूर्ण है, जबकि यह नाम ‘सूखा पानी’ उपन्यासकार के लिए प्रतीकात्मक और अर्थपूर्ण है। सूखा पानी का किसान राम प्रसाद दिनभर भूखा खड़ा रहता है–कभी बैंक के दरवाजे पर तो कभी सरकारी दफ्तर के दर पर। कोई राहत नहीं। अंत में सूखा पानी के खेतों की फसल ओलों का शिकार होती है, यह भी उपन्यासकार की प्रतीकात्मकता का ही फल है। समूचे उपन्यास में स्थितियों और तथ्यों की प्रस्तुति के लिए कथाकार ने प्रतीकों का सार्थक उपयोग किया है। इस कार्य में उनकी सूक्तियों का संसार सहायक हुआ है। जैसे-1.शहर एक अंधी सुरंग है, जिसमें घुसकर वापस लौटने का रास्ता नहीं है। पृ.-10, 2. सरकारी व्यवस्था शेर के शिकार करने के समान होती है, जब शेर अपने शिकार में से भर पेट खा लेता है तो बाकी का शिकार अपने से छोटे जानवरों के लिए छोड़ देते हैं–पृ.-15, 3. सरकारी व्यवस्था में देश की राजधानी होती है शेर, वह शिकार करती है योजनाओं का। पृ.-16, 4. धृतराष्ट्र को हर युग में देखने के लिए संजय की आवश्यकता पड़ती थी, पड़ती है ओर पड़ती रहेगी। पृ.-28, 5. चीरहरण को रोकना तो सब चाहते हैं, मगर उससे भी बड़ी हकीकत यह है कि चीरहरण को देखना भी सब चाहते हैं। पृ.-38, 6. किसान तो गरीब की जोरू है जिसे हर कोई अपनी लुगाई मानकर चलता है। पृ.-38, 7. दुनिया के सारे धर्मस्थल असल में भय का कारोबार करने वाली दुकानें हैं। पृ.-163

ऐसी सूक्तियों के सादृश्यलोक के माध्यम से पंकज सुबीर ने प्रशासनिक व्यवस्था, मार्च लूट, कवियों और पत्रकारों से लेकर अस्पतालों की नरक यात्रा और बैंकों के कामकाज के कछुआपन पर व्यापक बातचीत की है। भ्रष्टाचार के बारे में ए.डी.एम. राकेश पांडेय ने कहा है–‘किस विभाग में भ्रष्टाचार नहीं है? एक विभाग का नाम बता दीजिए जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। हमारे सिस्टम में भ्रष्टाचार अब एक टूल हो चुका है, जिसके बिना मशीन काम नहीं करती।’ (पृ.-172) भ्रष्टाचार को मिटाने का हर प्रयास एक नए भ्रष्टाचार का उदय करता है। उपन्यासकार ने भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाने वाले लोगों के समानांतर रामप्रसाद, कमला और ऐसे ही गरीबों को सामने रखा है।

‘अकाल में उत्सव’ के कथाकार ने ‘सूखा पानी’ गाँव में बसे लोगों और आसपास के शहराती लोगों की भाषा में बुंदेली की छौंक के माध्यम से आंचलिक चेतना का विस्तार किया है। इस क्रम में पंकज सुबीर ने ढेर सारे बुंदेली शब्दों के अर्थ सूचित किए हैं। इस किस्म के शब्दार्थ परोसने की जरूरत न रेणु के यहाँ थी और न राही मासूम रजा के यहाँ थी। इस उपन्यास में कई ठेठ स्थानीय शब्द अपने आपमें विलक्षणता प्रदर्शित करते हैं। चुरमना, जानपाड़ा, छर्रा, धोक जैसे शब्द अपनी प्रयोगवत्ता में ही अर्थ बतलाते हैं। मोहन राठी कहावतों के जादूगर की तरह इस उपन्यास में अनवरत कहावतों का रोचक और सार्थक उपयोग करता है।

सोद्देश्य भाषा और रचनात्म्क संविधान का उपयोग करते हुए पंकज सुबीर ने अपने उपन्यास में भ्रष्टाचार के बरक्स शोषण और गरीबी के सच को संप्रेषित किया है। इस प्रयास में कहीं-कहीं कथाकार पर पंकज सुबीर का मीडियाकर स्वभाव प्रबल हो गया है। फिर भी अपनी भाषिक कौंध और सार्थक संकल्प के ‘अकाल में उत्सव’ की पठनीयता स्वयंसिद्ध है, क्योंकि किसान की बेचैनी को कलमकार ही समझता है।


Original Image: Pauvre Fauvette
Image Source: WikiArt
Artist: Jules Bastien Lepage
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