बूढ़े लाला

बूढ़े लाला

“लाभडाल को तो मैंने अपनी आँखों के सामने बसते देखा”–बूढ़े लाला ने सफेद भौंहों के पीछे गहराई में छिपी दोनों आँखों को मेरी ओर गड़ाते हुए कहा। सभी देशों और सभी जगहों की विदेशी भाषाओं से अपरिचित लोगों की तरह बूढ़े लाला अँग्रेजी नामों को तोड़-मरोड़कर बोला करते हैं। जब आदमी किसी रोजमर्रा के इस्तेमाल होने वाले शब्द का अर्थ नहीं समझ पाता, तो उसमें अर्थ डालने के लिए वह तोड़-मरोड़ करने की कोशिश करता है। बूढ़े लाला ने भी ‘लव् डेल’ को इसी तरह तोड़-मरोड़कर लाभडाल बना दिया था–वस्तुत: यह बदलना उन्होंने स्वयं नहीं बल्कि किसी या किन्हीं अज्ञात पुरुषों ने किया होगा, जैसे कि उन्होंने मधुपुरी के और भी कितने ही नामों का पुन: संस्कार किया है। मधुपुरी क्या सभी हिमालय की विलासपुरियों में इस तरह का हस्तक्षेप देखा जाता है, जैसे मसूरी में हैपीवैली जनसाधारण के कंठ में पहुँचकर हापावाला हो गई। लाभडाल के हरेक घर को देखकर लोग यही समझते हैं, कि वह सतयुग में बने हैं, यद्यपि यह मालूम है कि मधुपुरी का सबसे पुराना मकान आज से 130 वर्ष पहले या 1820 ई. के आसपास बना था। लाला जिस जगह बैठकर बातें कर रहे थे, उसके पड़ोस में ही किंतु ऊपर की ओर माटी होटल है, जिसके बारे में वह और भी अच्छी तरह से कह सकते थे, क्योंकि आज से 70 वर्ष पहले जब दस-बारह वर्ष की उमर में वह मधुपुरी में आए थे, तो भी अभी मार्टिन होटल पूरी तौर से बनकर तैयार नहीं हुआ था। वह बतला रहे थे, कि इसको बनाने वाला माटी साहब था, जिसका बाप पास की रियासत के जंगलों का ठेकेदार था। लाला ने अपनी बात को और भी पक्का करने के लिए यह भी बतलाया, कि माटी साहब का बाप पक्का अँग्रेज था, अधगोरा नहीं। बूढ़े लाला का इतिहास का ज्ञान वही था, जिसे उन्होंने अपनी आँखों के सामने बनते-बिगड़ते देखा था, साल बीतने के साथ जिसमें स्मृति भी अपनी ओर से जोड़-घटाव करती आई थी। उन्हें यह नहीं मालूम था, कि पड़ोस की रियासत के जिस ठेकेदार साहब की वह बात कर रहे थे, वह जंगलों का ही ठेकेदार नहीं था, बल्कि वही पहला आदमी था, जिसने गंगा और जमुना की पहाड़ी धाराओं को लकड़ी बहाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल किया, हिमालय के इस भाग में उसी ने पहले-पहल आलू की खेती का प्रचार किया और करीब एक शताब्दी पहले देवदार का बनाया उसका विशाल बंगला अब भी गंगोत्री के रास्ते पर मौजूद है, जो अब केवल अपनी काठ की मजबूती के कारण ही खड़ा है। यदि मार्टिन होटल की तरह वह भी मधुपुरी के किसी कोने में खड़ा होता, तो आज से दस वर्ष पहले तक तो वह जरूर ही लकोदक रहता, चाहे दूसरे महायुद्ध के बाद के इन पिछले वर्षों में, खासकर अँग्रेजों के चले जाने के बाद, मधुपुरी के ऊपर जो साढ़े-साती शनि-दृष्टि पड़ी रही है, उसका शिकार हुए बिना वह भी न रहता।

बूढ़े लाला मीलों तक फैली और बिखरी मधुपुरी के इस भाग के सजीव इतिहास हैं। उनसे पहले उनके चचा यहाँ पहुँचे थे, शायद उसी समय, जबकि मधुपुरी-निर्माण का काम जोर-शोर से हो रहा था। हजारों मजदूर काम में लगे हुए थे। उनके खाने की चीजों के बेचने वाले दूकानदारों की जरूरत थी। मधुपुरी के काफी मकान अँग्रेज स्वयं बना रहे थे, जिनको इमारतों के बनाने के लिए ठेकेदारों की भी जरूरत थी। उस समय अभी भारत के दूसरे लोग चाहे अखबारों से ज्यादा सरोकार न रखते हों, लेकिन यहाँ के शासक अँग्रेज तो प्राय: एक शताब्दी पहले ही से अपनी भाषा में अखबार पढ़ते थे, जिनमें अनेक बार मधुपुरी जैसे हिमालय के सौंदर्य भरे स्थानों और खासकर उनकी यूरोपियन आबोहवा की प्रशंसा छप चुकी थी; इसीलिए जिस तेजी से लोग गर्मियों बिताने के लिए हिमालय की ओर दौड़े आ रहे थे, उस तेजी से मकान नहीं बन पा रहे थे। लाला आज के 5 रुपए सेर घी की शिकायत करते हुए कह रहे थे–“क्या पूछते हैं, रुपए का ढाई सेर घी बिकता था, जिस भाव गेहूँ भी तो आज नहीं मिलता। मजूरी कम थी, मुनाफा भी कम था, लेकिन उसमें बरक्कत थी।” पश्चिमी हिमालय की विलासपुरियों में अधिकतर दूकानदार हरियाणा के हैं। हरियाणा मारवाड़ से लगा हुआ और कितनी ही बातों में मारवाड़ी व्यापारियों के जैसा ही देश है। मारवाड़ी व्यापारी डोरी-लोटा, मैली-कुचैली धोती लिए आसाम तथा बर्मा तक पहुँच गए, और धीरे-धीरे उनकी तीसरी-चौथी पीढ़ी करोड़पति नहीं, बल्कि साल में करोड़ों रुपया लाभ उठाने वाले धन्ना सेठों के रूप में परिणत हो गई। हरियाणा के बनिये न उतनी उड़ान कर सके, और न उतनी सफलता प्राप्त कर सके। कुछ यदि उनमें से धनी बन गए भी हैं, तो लोग उन्हें हरियाणी नहीं समझ कर मारवाड़ी समझते हैं। बूढ़े लाला के भाई-बंद, जो इन विलासपुरियों में ही नहीं, बल्कि कभी-कभी सड़कों पर अच्छे-खासे गाँवों में भी अपनी दूकानें खोलकर कारोबार करते हैं, अधिकतर कौरव-पांडव के युद्धक्षेत्र–जिसे गीता में धर्मक्षेत्र कहा गया है–के आसपास के रहनेवाले हैं। मधुपुरी में शहर के भीतर जिनकी दूकानें हैं, वह तो अब केवल दूकानदारी करते हैं, लेकिन आसपास के गाँवों के आने वाले रास्तों के छोरों पर जिनकी दूकाने हैं, वह दूकान भी करते हैं, दूकान की चीजें गाँव वालों को उधार पर भी देते हैं, और कड़े सूद पर रुपया भी लगाते हैं। यह उनकी ही हिम्मत है, जो अब भी बिना कागज-पत्र के वह हजारों रुपया लोगों को कर्ज देते हैं। कुछ सालों पहले तक पहाड़ के लोग अपनी ईमानदारी के लिए बहुत प्रसिद्ध ही नहीं, बल्कि दु:ख्यात भी थे। एक साहब एक पहाड़ी की ईमानदारी की तारीफ करते हुए यह भी बतला रहे थे, कि अठन्नी दरी पर गिरी रह गई थी। नौकर झाड़ू देने आया, तो उसे अठन्नी में हाथ लगाना भी पाप मालूम हुआ। उसने अठन्नी भर दरी काट कर उसे वहीं रहने दिया और सारे कमरे में झाड़ू लगा दिया। दरी का नुकसान अठन्नी से कहीं ज्यादा का हुआ था, क्योंकि वह नई और सारे कमरे में बिछ जानेवाली बड़ी दरी थी। बूढ़े लाला भी पहाड़ियों की इस ईमानदारी के कायल थे। वह भी उनके साथ लेन-देन का व्यापार करते रहे। लेकिन, आज की बातों को देख करके निराश थे। कह रहे थे–

“पिंडत जी, क्या बुज्झो हो, इब तो ये पहाड़ी बी चलाक हो गए। किनस्टर का किनस्टर डालडा ढो ले जावें और फिर घी के भाव साढ़े 4 रुपए सेर बेच जावें।”

बूढ़े लाला की बोली अब पूरी हरियाणी नहीं, खिचड़ी बन गई है, यद्यपि उनका लिखना-पढ़ना इतना ही है, कि वह अपना बहीखाता स्वयं लिख लेते हैं।

उनकी आँखों की रोशनी अभी उतनी मंद नहीं है, लेकिन स्मृति अवश्य मंद हो चली है और बीच-बीच में उनकी बात का सिलसिला टूट जाता है, लेकिन याद दिलाने पर फिर उनकी स्मृति जाग उठती है। मधुपुरी के इस मोहल्ले में अब भी प्राय: रोज बघेरा फेरा डाल जाता है। कुत्तों से उसे बहुत शौक है, कह सकते हैं, कुत्ता बघेरे के लिए रसगुल्ला जैसा ही मधुर और आकर्षक है। पिछले तीन वर्षों में आठ कुत्तों को वह ले जा चुका है, इसलिए आज से साठ-सत्तर वर्ष पहले बूढ़े लाला के कहने के अनुसार यदि इस जंगल में बघरों के रेवड़ चरा करते हों, तो इसे बहुत बड़ी अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता। लेकिन मधुपुरी के दूसरे बूढ़ों की तरह बूढ़े लाला भी कहते हैं–“भगवान का वरदान है, जिनावर पर हाथ भले ही चिलाया हो, लेकिन आदमी पर बघेरे ने आज तक कभी चोट नहीं की।” चाहे फटकर बिखर गए पन्नोंवाली पोथी की तरह बूढ़े लाला के इतिहास-ज्ञान को क्रमबद्ध करना मुश्किल हो, और चाहे उसमें जाने या अनजाने काफी नमक-मिर्च भी लग गई हो, लेकिन यह तो कहना पड़ेगा कि इन जैसों के उठ जाने के साथ-साथ मधुपुरी के इतिहास के भी बहुत से पन्ने हमेशा के लिए लुप्त हो जाएँगे। बूढ़े लाला के स्मृति पटल पर अभी भी आज से साठ-सत्तर वर्ष पहले इन हरे-भरे वृक्षों से ढँके पहाड़ों में घूमने वाले अँग्रेजों और उनकी बीवियों के चित्र अंकित हैं। वह उनका नख-शिख वर्णन भी कर सकते हैं, लेकिन किसी तूलिका से कागज पर उतारना तो प्रत्यक्षदर्शी ही कर सकते थे, किंतु दुर्भाग्य से ये लोग हाथ से तूलिका पकड़ना भी नहीं जानते। नए चित्रों के बनाने की किसे फिकर है, जबकि मधुपुरी के साठ-सत्तर वर्ष पहले बने मकानों में समकालीन कितने ही चित्रों को हर साल कीड़ों को खाते और वर्षा से सड़ते देखते हैं। लाला के कहने के अनुसार उस समय की मधुपुरी देवताओं की स्वर्गपुरी थी, जहाँ तक खाने-पीने और रोजगार-बात का संबंध था। वैसे उन्हें भी गरीब काला आदमी होने से अँग्रेजों की झिड़की खानी पड़ती थी, लेकिन उन जैसे लोगों ने बचपन ही से पाठ पढ़ लिया था, जिसमें उन्हें गोरों की ठोकर खाने की नौबत नहीं आती थी, वह पहले ही पूँछ हिलाकर गुसैल साहब को मना लेते थे। अब भी, लाला के कहने से मालूम होता है कि हिंदुस्तानी राजा-महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की इज्जत को अँग्रेज तीन कौड़ी समझते थे। तो भी इससे छोटे पहाड़ी या देशवाले लोगों को गुस्सा नहीं, बल्कि एक तरह की आत्मतुष्टि मिलती थी। यह वही लोग थे, जो अपने कम-नसीब देशवासियों के सामने अकड़कर चलते और बात-बात में गाली निकालते थे। ‘छोटे’ लोगों को यह देखकर संतोष होता था, कि इनके ऊपर भी कोई है, जो इन्हें चार गालियाँ सुना सकता है, ठोकरें लगा सकता है, और यह उसके सामने चीं तक नहीं कर सकते।

लाला बतला रहे थे–हम लोग तो मधुपुरी के अँग्रेजों वाले इस मोहल्ले में बराबर घूमा करते थे, साहेब के आ जाने पर हम बिना जाने-पहचाने भी सलाम कर के चार कदम अलग हट जाते थे, और हमें कभी गाली या झिड़की सुनने की नौबत नहीं आती थी, लेकिन हिंदुस्तानी बड़े लोग तो डर के मारे इस मोहल्ले में झाँकते भी नहीं थे और वह बाजार के उधर-ही-उधर रहते थे। उस समय अँग्रेजों के प्रताप-सूर्य का मध्याह्न था। लाला बतला रहे थे, इस मोहल्ले में एक बड़ी कोठी खाली थी। सफाई का क्या कहना, मजाल है कि सड़क पर कहीं एक भी कागज का टुकड़ा या सूखी पत्ती गिरी रहती, ठाँव-ठाँव पर सफाई करने वाले जमादार तैयार थे, जो तुरंत सड़क को साफ कर देते थे। ऐसे मोहल्ले में अगर कोई कोठी मिल जाए, तो उसे नई शिक्षा और संस्कृति में अभी-अभी दीक्षित राजा या नवाब क्यों न पसंद करते? लाला को किसी ऐसे ही नवाब ने उस खाली कोठी को किराए पर ठीक करने के लिए भेजा। कोठी का एजेंट भी साहेब था, यद्यपि वह पूरा नहीं आधा ही। अधगोरों को यद्यपि अँग्रेज नीच समझते थे और खाने-बैठने में अछूतों जैसा उनके साथ बर्ताव करते थे, तो भी हिंदुस्तानियों के मुकाबिले में अधगोरे ऊँचे थे। वह अपने से ऊपर वालों द्वारा रोज-रोज मिलते अपमान का बदला हिंदुस्तानियों के सिर पर निकालते थे। बनियों और ठेकेदारों के साथ रात-दिन काम पड़ता था, भेंट-पूजा मिलती थी, इसलिए उनकी वह कदर भी करते थे। लाला का वह जवानी का समय था, जबकि राजा के लिए कोठी का किराया करने वह अधगोरे साहब के पास गए। उसने कहा–

पाँच हजार क्या, बीस हजार साल किराया देने पर भी मैं इस कोठी को ‘काला आदमी’ को नहीं दे सकता। वह बड़े गंदे रहते हैं। हमारी कोठी को चौपट कर देंगे और हमें उसे फिर से सफाई कराने और सजाने में बहुत खर्च करना पड़ेगा। साथ ही एक बार जब काला आदमी कोठी में बैठ गया, तो साहेब लोग इसे किराए पर लेना पसंद नहीं करेंगे।

लाला को राजा साहब से सरोकार था, उनके यहाँ सौदा पहुँचाते थे और खासा नफा कमाते थे। साहब के रूखे नहीं, बल्कि अपमानजनक वार्तालाप को उन्होंने राजा साहब से नहीं बतलाया। वह यह भी नहीं कह सकते थे, कि कोठी खाली नहीं है, क्योंकि राजा साहब अखबार में उसका विज्ञापन देख चुके थे। उन्होंने इतना ही बतलाया–शायद कोठी में कोई आने वाला है। साथ-साथ यह भी कह दिया, कि सरकार, क्यों इस कोठी को लेते हैं, यहाँ साहेब बड़ा जुल्म करते हैं, रास्ता चलते लोगों को ठोकर मार देते हैं, शराब पीकर लोगों की इज्जत उतारते-फिरते हैं। राजा साहब चाहे आधुनिकता में कितने ही रंगे हों, लेकिन उससे आत्मसम्मान तो घटता नहीं बल्कि बढ़ता है। उन्होंने लाला के सामने कुछ शेखी जरूर बघारी, लेकिन अंत में उन्हीं की राय को पसंद किया।

एक वह जमाना था, जब मधुपुरी के इस मोहल्ले में हिंदुस्तानी उसी तरह रह सकते थे, जिस तरह कुत्ते-बिल्ली, और एक आज है, जबकि मार्टिन साहब के नाम से बने विशाल होटल में ही कुछ यूरोपियन स्त्री-पुरुष गर्मियों में दीख पड़ते हैं। यदि अँग्रेजों के भरोसे ही मार्टिन होटल को चलना होता, तो उसके चार कमरे भी आबाद न होते। भारत से अँग्रेजों के जाने के साथ-साथ दिल्ली एक स्वतंत्र देश की राजधानी बनी, और वहाँ देश-देश के राजदूत आकर रहने लगे, जिन्हें दिल्ली के 460 डिग्री गर्मी वाले दिनों में मोटर के चार घंटे के रास्ते पर ही अवस्थित मधुपुरी जैसी शीतल-मंद-सुगंध वायु-जल वाली पुरी का नाम सुनाई पड़ा। वह अपने परिवारों को और स्वयं भी यहाँ आकर गर्मियाँ बिताने लगे। बाकी सभी बँगले अब हिंदुस्तानियों के हैं। अँग्रेजों के जाने के समय भगदड़ मच गई थी, अँग्रेज मिट्टी के मोल अपने बँगलों को बेचकर भाग रहे थे। सेठों-महाजनों के पास लड़ाई की कमाई के काफी रुपये थे। उन्होंने इन बँगलों को खरीद लिया। अँग्रेजों ने जिस भाव अपने बँगले बेचे थे, आज छह वर्ष बाद उससे भी कम दाम पर बँगले बिकने के लिए तैयार हैं, लेकिन कोई ग्राहक नहीं मिलता। फर्क इतना जरूर है, कि अँग्रेजों के हाथ से लिए जाने वाले बँगलों में नफीस फर्नीचर भरे हुए थे, वह सजे-सजाये थे; जबकि आज मिलने वाले बँगले छह वर्षों की उपेक्षा के शिकार हैं, उनका प्राय: सारा असबाब लुट या बिक चुका है। बूढ़े लाला मधुपुरी के इस मोहल्ले में अब अपने भारतीय भाइयों को बिराजते देखकर खुश नहीं होते। आज हिंदुस्तानियों को घुड़की या ठोकर खाते ही वह नहीं देख रहे हैं, बल्कि यह भी देख रहे हैं, कि शुद्ध यूरोपियन स्त्री-पुरुष भी अब आशा नहीं रखते, कि बिना परिचय के कोई हिंदुस्तानी उनके सामने सिर झुकाएगा–परिचय होने पर भी सिर नहीं झुकाएगा, बल्कि बराबर के तौर पर हाथ मिलाएगा।

2

बूढ़े लाला दस-बारह वर्ष के थे, जबकि वह पहले-पहल मधुपुरी आए, यह हम बतला चुके हैं। शायद उन्हें हरियाणे के कस्बे का पैतृक अपना घर अब भी याद हो, लेकिन उनके बेटों ने उस घर को कभी नहीं देखा और अब तो लाला की चौथी पीढ़ी भी आने के लिए तैयार है। बूढ़े लाला की औरस संतान होने का उन्हें इतना ही फल मिला है, कि वह अधकचरी हरियाणी भाषा घर में अब भी चलती है, जिसका एक कारण यह भी है, कि अपनी जाति में ब्याह करने के लिए अब भी उन्हें हरियाणा से संबंध रखना पड़ता है–किंतु अब तो कितने ही अपने प्रवासी भाइयों के परिवारों में यहीं ब्याह करने लगे हैं। बूढ़े लाला मधुपुरी आने के दस-बारह वर्ष बाद जवान हुए। अभी घर की स्थिति ऐसी नहीं थी, कि इतना जल्दी ब्याह हो जाता। उसके लिए उन्हें और कुछ सालों तक इंतजार करना पड़ा। तीस वर्ष के बाद उनका ब्याह हुआ, दस वर्ष और बीते, जबकि उन्हें पहली संतान का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्तमान शताब्दी के साथ उनकी जवानी शुरू हुई थी। शिक्षा-दीक्षा से वास्ता न रखते भी लाला के चचा फिर स्वयं मार्टिन होटल के ठेकेदार थे। खाने-पीने की चीजों के पहुँचाने का काम उन्हें मिला था। सौ-सौ अँग्रेजों के परिवारों के रहने लायक होटल का ठेकेदार होना बड़े सौभाग्य की बात थी। लाला अपने होटल की तारीफ कर रहे थे–“जार्ज पंचम की महारानी आकर हमारे होटल में ठहरी। आज भी उस कमरे को किराये पर नहीं दिया जाता, जिसमें महारानी ठहरी थी। उसमें उसका फोटो टँगा हुआ है।” लाला को यह कल की बात मालूम होती है, जबकि इंग्लैंड की रानी और भारत की साम्राज्ञी मार्टिन होटल में कुछ समय के लिए ठहरीं। उस वक्त होटल की चारों ओर गोरों का पहरा लगा हुआ था, बड़े-बड़े फौजी अफसर कांस्टेबल की तरह वहाँ चौकसी कर रहे थे। मोहल्ले के दूसरे कितने ही बँगले भी अँग्रेज स्त्री-पुरुषों से भरे हुए थे। महारानी परदे में नहीं थीं, तो भी उनका दर्शन दुर्लभ था–“गोरों की पाँती लगी हुई थी, भला काला आदमी कैसे वहाँ पहुँचकर महारानी का दर्शन करता।” लेकिन बूढ़े लाला अपने चचा की जगह पर मार्टिन होटल के बनिया थे, उन्हें वहाँ रोज चीज़ें पहुँचानी पड़ती थीं। बैरों–खानसामों से अच्छा संबंध रखना ठेकेदारी की सफलता के लिए आवश्यक था ही। यद्यपि महारानी और उनके खास आदमियों के लिये बेरे और खानसामे का काम भी अँग्रेज ही कर रहे थे, लेकिन तो भी लाला को महारानी के दर्शन का सौभाग्य एक खानसामे की सहायता से प्राप्त हो गया।

बूढ़े लाला को बाजार की सभी चीजें होटल में पहुँचानी पड़ती थीं। साग-सब्जी चावल, दूध ही नहीं, बल्कि भक्ष्याभक्ष्य माँस भी उनके ठेके में था। शराब और दूसरी यूरोपीय विलास की चीजें होटल सीधे अँग्रेज स्टोर से मँगा लिया करता था। उस समय मधुपुरी में बड़ी-बड़ी यूरोपियन फर्मों की दूकानें थीं, अँग्रेज वहीं से अपने लिए चीजें खरीदा करते थे। बूढ़े लाला ने माँस का स्वाद कभी नहीं चखा। पीढ़ियों से निरामिषाहारी परिवार के होने के कारण उसके लिए उनके मन में एक तरह की घृणा पैदा हो गई थी, यद्यपि पकते माँस के मसाले की सुगंध उन्हें बुरी नहीं लगती थी। उनके घर में भी गरम मसाले का व्यवहार होता था, प्याज की जगह हींग की छौंक दी जाती थी और पुरखों की तरह वह और उनकी बीबी भी यही समझते थे, कि हींग बड़ी शुद्ध चीज है। उन्हें जब बतलाया गया, कि हींग है तो एक पेड़ की गोंद, किंतु वह जिस देश से हिंदुस्तान में आती है, वहाँ के सभी लोग माँसाहारी हैं, और सो भी अभक्ष्य माँस के सदा खाने वाले। जिस तरह आजकल घी में डालडा मिलाकर अधिक नफा कमाने का प्रयत्न किया जाता है, उसी तरह वहाँ भी हींग में मिलावट की जाती है और वह मिलावट होती है अभक्ष्य ताजा खून की। हींग भी वहाँ से दो-दो, चार-चार सेर ताजी खाल में भर-सी कर भेजी जाती है। जिस समय लाला हींग की महिमा को सुन रहे थे, उस समय उनकी बूढ़ी सेठानी भी पास में बैठी थीं। उनको तो वहीं कै सी आने लगी। लेकिन, यह नहीं आशा की जा सकती, कि जिस हींग को पीढ़ियों से पुरखा लोग शुद्ध समझकर बरतते आए थे, उसे वह अब छोड़ देंगे। लाला के घर में अभी भी लहसुन-प्याज का प्रवेश नहीं है और हींग पहले की तरह अबाध गति से व्यवहार में लाई जाती है।

लाला के लिए माँस आजन्म वर्जित रहा, उनकी अगली पीढ़ी ने थोड़ा आगे कदम जरूर बढ़ाया, किंतु शराब के बारे में लाला अपने पुरखों के रास्ते पर कायम नहीं रह सके। उनके गुरु ने, जो उनकी अपनी ही जाति के थे, समझा दिया था–“यह तो अंगूर का पानी है, इसमें माँस-मछली वाली कोई बात नहीं है। उसी अंगूर का हम सिरका खाते हैं, जिसकी ही यह शराब है।” इतनी व्याख्या के बाद उन्होंने फिर शराब के गुण बतलाए और जवानी को और भी ताजा करने के लिए लाला ने अपने मुँह में एक दिन प्याला लगा ही दिया। एक बार लगकर भला प्याला कब छूट सकता था, और सो भी जबकि वह उन्हें मुफ्त मिलता रहता था। मार्टिन होटल में शराब की धाराएँ बहती थीं, एक-से-एक अच्छी शराब–व्हिस्की, शम्पेन, बरांडी। बैरे-खानसामों को भी लाला से कुछ मिलता था और लाला को उनसे। होटल का छोटा मैनेजर इंग्लो इंडियन था, जिसके साथ लाला का अधिक हेल-मेल था, इसलिए जवानी में ही शराब पीने में लाला पूरी तौर से दीक्षित हो गए। अब बुढ़ापे में अँग्रेजों का राज्य नहीं रहा। मार्टिन होटल अब भी है, लेकिन उसके हिंदुस्तानी मालिकों में उतनी साखर्ची नहीं है और ठेका भी अब बूढ़े लाला के हाथ में नहीं है, इसलिए तरुणाई में ली हुई दीक्षा का अब पूरी तौर से पालन नहीं हो सकता। तो भी अँग्रेजों के शासन के भारत से उठने तक लाला का अभी वह युग मौजूद था, जिसे लाला चाहे सतयुग न कहते हों, लेकिन सुनहला युग छोड़ और उसे कुछ नहीं कह सकते–सचमुच उस समय सोने की वर्षा हुआ करती थी। लाला ने शराब की दीक्षा एकांत में ली थी और आज भी उसको उन्होंने उसी तरह गुप्त रखा, लेकिन यह हो कैसे सकता था, कि घरवाले बोल चाल या मुँह की गंध से न जान लेते हों, कि लाला ने शराब पी है। इस बुरी लत को वह अपने ही तक सीमित रखना चाहते थे, लेकिन सुगंध अगली पीढ़ी तक पहुँच कर रही। एक बेटा तो शराब के पीछे पागल हो गया। बाप ने अलग कर दिया, उस पर भी पीने-खाने के पीछे इतना उड़ाया, इतना कर्ज लिया, कि आज वर्षों से वह मधुपुरी से लापता है। कुछ लोग कहते हैं, अब वह नहीं रहा और कुछ लोग कसम खाने के लिए तैयार हैं, कि अभी भी वह अमुक शहर में मौजूद है। उसकी बीबी को देखकर अफसोस भी करते हैं। एक महिला ने हँसते हुए कहा–ऐसे पति तो अपनी पत्नी को सदा-सुहागिन बना जाते हैं। चाहे वह वर्षों पहले मर भी गए हों, लेकिन स्त्री को आजन्म विधवा होने का डर नहीं रहता। लेकिन, सदा सुहाग को लेकर स्त्री को भला कैसे संतोष होगा, जबकि घर छोड़ गए पति के बिना उसे अपनी चार संतानों के पालन-पोषण का भार उठाना पड़ रहा हो।

बूढ़े लाला ने, काफी समय हुआ, लड़कों को अपने बस में न देखकर उन्हें अलग कर दिया। उनका खर्च बढ़ा हुआ था, आमदनी थी, लेकिन उसे बाँट देने पर अपना काम नहीं चलता। शराब में तो बरबाद होने का उन्हें डर नहीं था, जबकि मार्टिन होटल के वह ठेकेदार थे और उनके विश्वास के अनुसार भगवान ने दया करके मार्टिन होटल को उनके हाथ से जाने नहीं दिया–सिवाय पिछले छह वर्षों के, जबकि लाला 70 वर्ष से ऊपर के होकर अब हर वक्त मृत्यु की बाट जोहते हैं और लोग कहते हैं, चित्रगुप्त परवाना ही काटना भूल गया है। लेकिन, शराब के अलावा एक और भी खर्चीली आदत थी, जिसको लाला ने तरुणाई में ही सीखा था। वह था जूआ खेलना। ब्रिज का जूआ पढ़े-लिखे लोग खेलते हैं। अँग्रेज भी उसे खेलते थे, और मधुपुरी में उसे हिंदुस्तानी नर-नारी भी खेलते हैं। वह गरीबों या अशिक्षितों का जूआ नहीं है। कुछ लोगों ने तो ब्रिज के खेल को पेशा बना लिया है, और वह उसी के बल पर बड़े सुख और ऐश की जिंदगी बिताते हैं! बूढ़े लाला देशी जूए के एक अच्छे खिलाड़ी थे। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता, कि वह हमेशा जीतते ही रहते थे, लेकिन, उनके अपने पक्के मकान और थोड़ी-बहुत दूसरी संपत्ति को दिखलाकर लोग कहते हैं, कि यह सब जूए की महिमा है।

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बूढ़े लाला ने दो शताब्दियों के बहुत बड़े भाग को ही नहीं देखा, बल्कि दो-दो महायुद्धों को अपने सामने लड़े जाते देखा। पहले महायुद्ध में वह जवान थे, जिसका मतलब है, तजर्बा अधिक काफी नहीं था। उस समय भी महँगाई हुई थी, उस समय भी उन्होंने कुछ कमाया जरूर था, लेकिन अपने पूरे तजर्बे का फायदा उठाने का मौका उन्हें दूसरे महायुद्ध में ही हुआ। इस वक्त व्यापारी को जीतने वाले जुआड़ी का सा फायदा हो रहा था। लाला ने जूए की कला के साथ-साथ चोर बाजारी की कला में भी निपुणता प्राप्त कर ली, और लड़ाई के सालों में उन्होंने खूब नफा कमाया। ठेकेदारी के अलावा उन्होंने जो एक छोटी-सी दूकान खोली थी, वह भी चमक उठी। मधुपुरी के दूसरे सेठों ने जहाँ 10-10, 20-20 लाख पर हाथ फेरा, वहाँ तक पहुँच तो बूढ़े लाला की नहीं हो पाई, क्योंकि उनकी दौड़ उतनी लंबी नहीं थी, तो भी काफी पैसा कमाया। दो-एक बातों में साखर्ची रखते हुए भी लाला पैसों की कीमत जानते थे। और कम-से-कम खर्च करके ज्यादा-से-ज्यादा फायदा कमाने के पक्षपाती थे। उन्हें मकान बनाने की इच्छा हुई, क्योंकि लड़ाई के समय उनके पास काफी पैसा आ गया था। उन्होंने यह जरूरत नहीं समझी, कि किसी इंजीनियर से सहायता ली जाय। म्युनिसिपैलिटी में नक्शा दिए बिना अगर मकान बनाने की इजाजत मिल जाती, तो उनके भावी मकान का रूप कागज पर न उतरकर जमीन पर ही धीरे-धीरे खड़ा होता। लाला ने किसी मामूली ड्राफ्टमैन से बनवाकर जिस नक्शे को मंजूरी के लिए पेश किया, वह भी उनके दिमाग की उपज थी। उन्होंने ठीक दियासलाइयों के डब्बों को अपने मकान के लिए आदर्श स्वीकार किया, और छोटी-छोटी कोठरियों वाले डब्बों जैसे दुमहले मकान को खड़ा कर दिया। साहेबों के राज्य में चाहे उनका यह महल्ला कितना ही भरा-पूरा था, किंतु अब तो मार्टिन होटल को छोड़कर बाकी बँगलों में सालों से न चिराग जला और न पानी का नल खुला। मकान को बूढ़े लाला ने बड़ी साध से बनाया था, अवकाश के एक-एक इंच का उन्होंने सदुपयोग किया, और अधिक-से-अधिक कोठरियाँ बनाईं, जिसमें अधिक से अधिक किरायेदार रखे जा सकें। अपनी देख-रेख में बनाने के कारण मकान में चोर-बाजार से नहीं बल्कि असली दाम पर खरीदे सीमेंट, लोह, लकड़ी आदि का बड़ी साखर्ची से इस्तेमाल किया गया। उसे उन्होंने नकली नहीं बल्कि सकली बनाया था। किरायेदार यदि यह शिकायत करें, कि इसमें गुसलखाने का इंतजाम नहीं, पेशाब-पाखाने का ठीक प्रबंध नहीं, तो बूढ़े लाला यही समझते हैं, कि न लेनेवाले खरीदार ऐसा ही कहा करते हैं। लाला का दियासलाई महल भी वर्षों से बिना किराए का पड़ा हुआ है। मिलने-जुलने वालों से कहते हैं–कोई किरायेदार मिले तो बतलाएँ। किराये पूछने पर कहते हैं–सरकारी हिसाब से पंद्रह सौ किराया है, हजार तक पर भी दे देंगे। यह देखते हुए भी उनको खयाल नहीं होता, कि इसी मोहल्ले में 35 सौ किराये वाली कोठी को इसी साल 5 सौ रुपये में दिया गया था। एजेंट ने कहा था–कम-से-कम कोठी की मरम्मत तो हो जाएगी। बूढ़े लाला की कोठी इतनी मजबूत बनी है, कि मरम्मत की आवश्यकता अभी वर्षों नहीं होगी। लाला बेचारे अपने इस्तेमाल में भी कोठी को नहीं ला सकते, क्योंकि तब म्युनिसिपैलिटी का टैक्स चुकाना पड़ेगा। जिस कोठी को उन्होंने अपने बुढ़ापे का संबल समझा था, आखिर वह बेकार खड़ी है, अपने लिए भी उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

लाला बूढ़े हो गए, लेकिन उनका मन तो वही है। बुढ़ापे में भी न वह अपनी पत्नी से दबते हैं, और न बेटों की मजाल है कि उनके सामने ‘हाँ जी’ छोड़ और कुछ कहें। अब भी वह अपने पुराने जीवन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। कह देते हैं–बहुत बीत गई, अब क्या है! खर्च कम करने के लिए अपने कुछ लड़कों को अलग कर दिया, लेकिन उससे क्या बनने वाला था! कर्ज बढ़ चला। कड़ा सूद और महाजनी करने के लिए बनिये बेकार ही बदनाम हैं। मौका लगने पर दूसरे भी उससे लाभ उठाने से बाज नहीं आते। मधुपुरी की कई कोठियों और बँगलों के मालिक एक खानदानी सामंत–राजा साहब…हैं जो साढ़े छह सैकड़ा महीना सूद पर कर्ज देते हैं, और गैरकानूनी न हो जाए, इसके लिये पाँच वर्ष का आगे का सूद पहले ही से जोड़ कर के कागज लिखवा लेते हैं। दूसरे राजा और जमींदार जमींदारी जाने के भय से जिस समय छाती पीट रहे थे, उससे बहुत पहले ही से राजा साहब ने अपने लिए रास्ता निकाल लिया था। पिछले दस वर्षों में उनके पास कितने ही अच्छे-अच्छे बँगले और कोठियाँ आ गई हैं। यदि मकानों का मूल्य मिट्टी के बराबर न हो गया हो तो उनके पास पचीसों लाख की संपत्ति है। स्थावर संपत्ति पास हो, तो राजा साहब का दरवाजा कर्ज के लिए हरेक आदमी के वास्ते खुला हुआ है। बूढ़े लाला का उनसे पुराना परिचय है। पहले भी कर्ज देने-दिलाने में राजा साहब की सहायता करते थे, और जरूरत पड़ने पर रियायती दर पर खुद भी पैसे ले लिया करते थे। राजा साहब ने बूढ़े लाला के दियासलाई के महल तथा और भी अचल संपत्ति के ऊपर कई हजार कर्ज दे रखा है, जिसके उतरने की अब आशा नहीं है। बूढ़े लाला सचमुच चंद दिनों के मेहमान हैं, लेकिन अगली पीढ़ी का उन्होंने क्या ठेका लिया है? आखिर वह भी तो दस-बारह साल की उमर में खाली हाथ मधुपुरी में आए थे!


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Artist: -Rembrandt
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