चतुर्विध तपस्या और चतुर्विध मुक्ति

चतुर्विध तपस्या और चतुर्विध मुक्ति

सर्वांगीण शिक्षा का अनुशीलन करने के लिए–उस शिक्षा का जो हमें अतिमानसिक उपलब्धि की ओर ले जाती है–चार प्रकार की तपस्याओं और चार प्रकार की मुक्तियों की आवश्यकता है।

लोग साधारणतया तपस्या और आत्म-पीड़न का एक ही अर्थ लेते हैं। जब वे तपस्या के विषय में कुछ कहने लगते हैं तो वे उसे एक ऐसे तपस्वी की साधना समझते हैं, जो शारीरिक, प्राणिक और मानसिक जीवन के आध्यात्मीकरण के कठिन कार्य से बचने के लिए इसके रूपांतर को असंभव घोषित कर देता है और इसे एक दु:खदायी और अनुपयोगी वस्तु, एक बंधन और आध्यात्मिक उन्नति में बाधक समझकर निर्दयतापूर्वक इसका त्याग कर देता है। प्रत्येक दशा में वह इसे एक ऐसी वस्तु समझता है जो सुधारी नहीं जा सकती, ऐसा बोझ जिसे थोड़ी-बहुत प्रसन्नता के साथ उसे तब तक वहन करना पड़ता है जब तक प्रकृति या भगवत्-कृपा उसे उससे मुक्त नहीं कर देती। अधिक-से-अधिक यह पार्थिव जीवन उन्नति का एक ऐसा क्षेत्र समझा जाता है जिससे व्यक्ति को अधिकतम लाभ उठाना चाहिए, जितनी जल्दी हो सके उसे पूर्णता के उस बिंदु तक पहुँचना चाहिए जो इस परीक्षा को निष्प्रयोजन बनाकर इसका अंत कर देगा।

किंतु हमारी समस्या इससे बिलकुल भिन्न है। हमारे लिए पार्थिव जीवन एक मार्ग या साधन नहीं है, बल्कि इसे रूपांतर द्वारा एक लक्ष्य एवं उपलब्धि बनाना है। जब हम तपस्या के विषय में कुछ कहते हैं तो हमारा अभिप्राय यह नहीं होता कि हम शरीर से घृणा करते हैं या उससे संबंध-विच्छेद करना चाहते हैं वरन् यह कि हम आत्म-संयम और आत्म-प्रभुत्व की आवश्यकता अनुभव करते हैं। कारण, तपस्वी की सब तपस्याओं से कहीं अधिक महान्, अधिक पूर्ण और अधिक कठिन एक और तपस्या है; यह वह तपस्या है जो पूर्ण रूपांतर के लिए आवश्यक है अर्थात् चतुर्विध तपस्या जो व्यक्ति को अतिमानसिक सत्य की अभिव्यक्ति के लिए तैयार करती है। उदाहरणार्थ यह कहा जा सकता है कि बहुत ही कम तपस्याएँ उन तपस्याओं जैसी कठोर होती हैं जिसकी माँग शारीरिक शिक्षण शरीर की पूर्णता के लिए करता है।

इन चार प्रकार की अपेक्षित तपस्याओं के विषयों में कुछ कहने से पहले मुझे एक प्रश्न स्पष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि यह अधिकांश लोगों के मन में अत्यधिक भ्रांति और उलझन पैदा कर देता है; यह प्रश्न तपस्वी की उन क्रियाओं से संबंधित है जिनका वह आध्यात्मिक साधना के लिए अनुष्ठान करता है। ये क्रियाएँ शरीर को कष्ट पहुँचाने वाली होती हैं जिससे, उसके मतानुसार आत्मा शरीर के बंधन से छूट जाती है। परंतु वास्तव में ये आध्यात्मिक साधना के ऐंद्रिय विकार हैं। यह कष्ट पाने की एक प्रकार की विकृत आवश्यकता है जो तपस्वी को आत्म-पीड़न के लिए प्रेरित करती है। साधु द्वारा कीलों की शय्या के तथा ईसाई संतों द्वारा कोड़ों और टाट के वस्त्रों के व्यवहार में, थोड़े-बहुत प्रच्छन्न रूप में, उसी पीड़नासक्ति का अंश विद्यमान है जो न तो स्वीकार की जाती है और न की जा सकती है। यह उग्र संवेदनाओं (Sensations) को अनुभव करने की अस्वस्थ कामना अथवा अवचेतन माँग भर है। वास्तव में ये सब वस्तुएँ आध्यात्मिक जीवन से कोसों दूर हैं, कारण, ये कुरूप और हीन हैं, अंधकारमय और व्याधिग्रस्त हैं, जबकि आघ्यात्मिक जीवन प्रकाश और संतुलन का, सौंदर्य और आनंद का जीवन है। इन वस्तुओं का आविष्कार तो शरीर पर की जाने वाली एक प्रकार की मानसिक और प्राणिक क्रूरता द्वारा हुआ है और उसी से इन्हें प्रोत्साहन भी मिलता है। पर क्रूरता, अपने शरीर के प्रति की जाने पर भी, क्रूरता ही रहेगी और क्रूरता मात्र एक बहुत बड़ी अचेतनता का चिह्न है। अचेतन प्रकृतियों को अत्यधिक प्रबल संवेदनाओं की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसके बिना वे कुछ अनुभव नहीं कर पातीं और क्रूरता तो पीड़न-शक्ति का ही एक रूप है। यह बहुत उग्र संवेदनाओं को उत्पन्न करती है। इस प्रकार की क्रियाओं का प्रयोजन यह कहा जाता है कि ये अनुभूतिमात्र को नष्ट कर देती हैं जिससे कि शरीर भगवान् की ओर उड़ान में अब और बाधक न रहे। इस साधन के प्रभाव में संदेह हो सकता है। यह बात सभी जानते हैं कि यदि मनुष्य द्रुत गति से अपना विकास करना चाहता है तो उसे कठिनाइयों से भय नहीं मानना चाहिए। उल्टे, प्रत्येक बार जब वह कठिन कार्य का चुनाव करता है, उसकी संकल्प-शक्ति बढ़ती है और उसका स्नायुमंडल दृढ़ होता है। नि:संदेह तपस्या की विकृतियों और उनके अज्ञानमय परिणामों के साथ संघर्ष करने की अपेक्षा संयम और संतुलन के साथ समचित्तता और स्थिरता का जीवन व्यतीत करना कहीं अधिक कठिन है। शरीर को आवश्यक आहार और शुद्धि से वंचित रखने की अपेक्षा–जिसमें तपस्वी अपनी कठोर साधना का अभिमानपूर्ण प्रदर्शन करता है–गंभीर और निष्काम जीवन बिताना कहीं अधिक कठिन है। रोग की ओर ध्यान न देने, उसकी उपेक्षा करने और उसे विनाश-कार्य करने की खुली छूट दे देने की अपेक्षा आंतिरक एवं बाह्य सामंजस्य, पवित्रता और संतुलन के द्वारा रोग का निराकरण करना अथवा उसे वश में करना और उस पर विजय प्राप्त करना कहीं अधिक कठिन है। परंतु अपनी चेतना को सदैव उसकी शक्यता के शिखर पर स्थापित रखना और अपने शरीर को कभी भी निम्नतर आवेग के प्रभाव के अधीन कार्य न करने देना सबसे अधिक कठिन है। इस लक्ष्य को सामने रखते हुए हमें चार प्रकार की तपस्याओं का अभ्यास करना चाहिए, जिनके फलस्वरूप हमें चार प्रकार की मुक्तियाँ प्राप्त होंगी, ये ‘तपस्याएँ’ वे चार साधनाएँ अथवा ‘तपस्याएँ’ होंगी जिनका निर्देश निम्न प्रकार से किया जा सकता है :–

1. प्रेम की तपस्या
2. ज्ञान की तपस्या
3. शक्ति की तपस्या
4. सौंदर्य की तपस्या

–इनका क्रम ऊपर से नीचे की ओर चलता है, किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इनमें कोई श्रेष्ठ है या हीन अथवा अधिक या कम कठिन, न ही यह वह क्रम है जिसके अनुसार इसका अभ्यास किया जा सकता है और करना चाहिए। इनका क्रम, महत्त्व अथवा इनकी कठिनाई प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न होती है, इस विषय में कोई निरपवाद नियम नहीं बनाया जा सकता। प्रत्येक को अपनी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार अपनी प्रणाली स्वयं ढूँढ़नी और कार्यांवित करनी चाहिए।

इसलिए यहाँ एक ऐसा सामान्य दृष्टिकोण दिया जाएगा जो एक आदर्श और यथासंभव पूर्ण प्रणाली का प्रतिपादन करेगा। इस प्रकार सबको अपनी योग्यता के अनुसार श्रेष्ठतम ढंग से इसे कार्यांवित करना होगा।

सौंदर्य की तपस्या अथवा साधना हमें शारीरिक जीवन की तपस्या के द्वारा कार्य की स्वतंत्रता की ओर ले जाएगी। इसका आधारभूत कार्यक्रम एक ऐसा शरीर बनाना होगा जो अपने रूपों में सुंदर, भंगिमाओं में सामंजस्यपूर्ण, चेष्टाओं में नमनीय और स्फूर्तिशाली, कार्यों में सबल तथा अपनी जीवन क्रियाओं एवं स्वास्थ्य में प्रतिरोधशील हों।

इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए ऐसा अभ्यास डालना और उनका उपयोग करना जो शारीरिक संगठन में सहायक हों; सामान्यरूप से अच्छा रहेगा; कारण शरीर एक नियमित कार्य-क्रम के अधीन अधिक सुगमता से काम करता है। किंतु साथ ही व्यक्ति को अपनी आदतों का दास भी नहीं बन जाना चाहिए, चाहे कितनी भी भली वे क्यों न हों। उसमें इतनी नमनीयता अवश्य होनी चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी आदतों को बदल सके।

उसे अपने नमनीय और पुष्ट पुट्ठों को फौलाद के समान मजबूत बनाना चाहिए जिससे समय पड़ने पर वह सब कुछ सह सके। यह बात ध्यान में रखनी अत्यंत आवश्यक है कि वह शरीर से केवल उतने ही श्रम की अपेक्षा करे जितना अत्यंत आवश्यक हो, उतनी ही शक्ति का व्यय करे जितनी उन्नति और विकास के लिए अनिवार्य हो; साथ ही उसे उस सबसे बड़ी सावधानी से बचना चाहिए जो अत्यधिक थकान उत्पन्न करके भौतिक तत्त्वों के क्षय या उनके विघटन का कारण बन जाए।

शारीरिक शिक्षण, जिसका लक्ष्य शरीर को उच्चतर चेतना का उपयुक्त यंत्र बनाने के लिए तैयार करना है, अत्यंत कठोर अभ्यासों की माँग करता है–ये अभ्यास हैं निद्रा और आहार में, शारीरिक व्यायामों तथा सब कार्यों में अत्यधिक नमनीयता। प्रत्येक के शरीर की भिन्न-भिन्न आवश्यकताएँ होती हैं, इसलिए प्रत्येक को ही अपने शरीर का सावधानी पूर्वक अध्ययन करके अपने लिए एक सामान्य कार्यक्रम बना लेना चाहिए, और एक बार यह कार्यक्रम भली प्रकार बन जाने के बाद कड़ाई से, बिना किसी मिथ्या कल्पना और ढील के, इसका पालन करना चाहिए, इस नियम को ‘केवल एक बार’ के बहाने भी भंग नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा फिर अनेक बार होगा, यदि तुम केवल ‘एक बार’ ही के प्रलोभन के आगे सिर झुका दोगे तो तुम्हारे संकल्प की प्रतिरोध-शक्ति क्रम हो जाएगी और फिर प्रत्येक पराजय के लिए मार्ग खुल जाएगा। इसलिए सब दुर्बलता का अंत कर देना चाहिए, रात्रि के देर तक के कार्यक्रम नहीं रखने चाहिए जिनके बाद तुम पूर्ण रूप से नि:शक्त हो जाओ, ऐसा खान-पान और भोजन आदि भी नहीं होने चाहिए जो आमाशय के सामान्य कार्य में बाधा पहुँचाएँ, कोई विक्षेप नहीं, ऐसे मन-बहलाव और आमोद-प्रमोद भी नहीं जो तुम्हारी शक्ति का अपव्यय करके तुम्हें नित्य कर्म के लिए नि:शक्त बना दें, बल्कि एक ऐसा जीवन बिताने की तपस्या करनी चाहिए जो ज्ञानयुक्त और नियमित हो, जिसमें समस्त भौतिक शक्ति शरीर के निर्माण पर केंद्रित होकर उसे यथासंभव पूर्ण बना दे। इस आदर्श लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सब प्रकार की अतियों का, छोटी-बड़ी बुराइयों का कठोरतापूर्वक त्याग करना होगा, तमाखू, मद्य जैसे हल्के विषों का भी व्यवहार नहीं करना चाहिए; इन्हें मनुष्य प्राय: ही अपनी अनिवार्य आवश्यकताएँ बना लेते हैं और ये फिर धीरे-धीरे उनकी संकल्प-शक्ति और स्मृति को नष्ट कर देते हैं। जो रुचि प्राय: सब ही, यहाँ तक कि अत्यंत बुद्धिजीवी व्यक्ति भी, भोजन में उसके बनाने तथा उसके खाने में लेते हैं और जो उन्हें अत्यधिक व्यस्त किये रहती है, उसके स्थान पर उन्हें शरीर की आवश्यकताओं के विषय में रासायनिक ढंग का ज्ञान प्राप्त करना तथा इन्हें पूरा करने के लिए विशुद्ध वैज्ञानिक प्रकार की तपस्या करनी चाहिए। भोजन-संबंधी इस तपस्या के साथ एक और तपस्या अर्थात् निद्रा की तपस्या भी जोड़ देनी होगी। इस तपस्या का अर्थ निद्रा का त्याग करना नहीं बल्कि यह जानना है कि निद्रा किस प्रकार ली जाय। निद्रा का अर्थ अचेतनता के गत में गिरना नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की निद्रा शरीर को ‘ताजा करने’ के स्थान पर उसे और सुस्त बना देती है। यदि खान-पान में संयम रखा जाए और सब अतियों से बचा जाए तो नींद आने से पहले व्यर्थ ही अधिक समय नष्ट नहीं होता। निद्रा के घंटों की अपेक्षा निद्रा की प्रगाढ़ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। निद्रा से सच्चे अर्थों में लाभदायक विश्राम प्राप्त करने के लिए बिस्तर पर जाने से पहले साधारणतया एक प्याला दूध अथवा फल या सब्जी का रस पी लेना अच्छा होगा; हल्के भोजन से नींद शांतिपूर्ण आती है, पर अत्यधिक भोजन से सदैव बचना चाहिए, क्योंकि इससे बुरे स्वप्न आकर नींद में व्याघात डालते हैं और बेचैनी पैदा करते हैं तथा उसे स्थूल, तामसिक और भारी बना देते हैं। मन को निर्मल करना, भावों को स्थिर करना तथा इच्छाओं और उनकी सहवर्ती वेग को शांत करना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि सोने के पूर्व कोई बहुत बोल चुका हो या जोशीला वाद-विवाद कर चुका हो, अथवा कोई अत्यधिक रोचक या उत्तेजक पुस्तक पढ़ चुका हो तो उसे एकदम सो नहीं जाना चाहिए वरन् कुछ देर विश्राम कर लेना चाहिए जिससे मन की हलचल शांत हो जाए, जबकि बाकी अंग सो रहे हों तो मस्तिष्क अपनी अस्त-व्यस्त गति में न उलझा रहे। जिन्हें ध्यान करने का अभ्यास है उनके लिए वह अच्छा होगा कि वह सोने से पहले कुछ क्षण, उच्चतर और महत्तर चेतना के लिए अभीप्सा करते हुए किसी महान् और शांतिपूर्ण विचार पर अपना चित्त एकाग्र करें। उनकी निद्रा को इससे अत्यधिक लाभ पहुँचेगा और वे अपनी निद्रावस्था में अवचेतना के गर्त में गिर जाने के भय से बहुत हद तक मुक्त हो जाएँगे।

रात्रि की इस तपस्या के बाद जबकि व्यक्ति पूर्णतया शांत और सुखद नींद लेता है, दिन की तपस्या आती है–ऐसे दिन की जो बुद्धिमत्तापूर्वक व्यवस्थित किया गया हो, साथ ही जिसका कार्यक्रम कुछ ऐसे उन्नतिशील क्रमबद्ध व्यायामों में–जो शरीर सुधार के लिए आवश्यक हैं–तथा किसी भी प्रकार के कर्म में बँटा हो, क्योंकि ये दोनों शारीरिक तपस्या के अंग हो सकते हैं और होने चाहिए। प्रत्येक को वही व्यायाम चुनने चाहिए जो उसके शरीर के लिए अधिकतम उपयुक्त हों और यदि संभव हो तो, इस विषय में किसी ऐसे निपुण व्यक्ति की सहायता ले लेनी चाहिए जो व्यायामों के अधिकतम लाभ को दृष्टि में रखते हुए उन्हें संयुक्त तथा क्रमबद्ध करना जानता हो। इनका चुनाव या अभ्यास मन की तरंग के अधीन नहीं करना चाहिए। किसी को ‘यह’ या ‘वह’ व्यायाम इसलिए नहीं करना चाहिए कि वह अधिक सरल या रोचक है, न ही किसी आवेग में आकर व्यायाम में कुछ परिवर्तन करना चाहिए जब तक कि शिक्षक ही उसे आवश्यक न समझ ले। प्रत्येक शरीर की पूर्णता अथवा केवल उसकी उन्नति भी एक समस्या है जिसे हमें हल करना है और इसका हल करने के लिए अत्यधिक धैर्य, अध्यवसाय और नियमितता की आवश्यकता है। मनुष्यों के सामान्य विचार के विपरीत खिलाड़ी का जीवन मनबहलाव और विक्षेप का जीवन नहीं होता बल्कि वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए क्रमबद्ध प्रयत्न और कठोर अभ्यासों का जीवन होता है, इससे अनुपयोगी और हानिकारक धारणाओं के लिए कोई स्थान नहीं रहता।

कर्म में भी तपस्या की आवश्यकता है जिसका अर्थ है कि अपनी कोई पसंद न हो और जो करना है उसे रुचिपूर्वक किया जाए। जो मनुष्य पूर्णता प्राप्त करना चाहता है उसके लिए कोई काम छोटा या बड़ा अथवा महत्त्वपूर्ण या साधारण नहीं होता। जिसके अंदर आत्म-प्रभुत्व और उन्नति की अभीप्सा है उसके लिए सभी कार्य समान रूप से उपयोगी हैं। यह कहा जाता है कि मनुष्य केवल वही काम भली प्रकार कर सकता है जिसमें उसकी रुचि है। यह सत्य है पर इससे भी अधिक सत्य यह है कि वह प्रत्येक कार्य में यहाँ तक कि अत्यंत तुच्छ प्रतीत होने वाले कार्य में भी रस प्राप्त करना सीख सकता है। इस सफलता का भेद पूर्णता की तीव्र अभीप्सा में निहित है। तुम्हें कोई भी कार्य या कर्त्तव्य सौंपा जाए, वह तुम्हें उन्नति करने के संकल्प से करना चाहिए, जो भी कार्य तुम्हें करना हो उसे यथासंभव भली प्रकार से ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसकी पूर्णता के लिए सतत् प्रयत्न करते हुए उसे अधिक सफलता के साथ करने में लग जाना चाहिए। इस प्रकार सभी कार्य, अति स्थूल, साथ ही अत्यधिक कलापूर्ण और बौद्धिक कार्य भी निरपवाद रूप में रोचक बन जाएँगे। उन्नति का क्षेत्र असीम है, उसमें तुच्छ से तुच्छ वस्तु के लिए भी स्थान है।

इन सबका स्वाभाविक परिणाम होगा कर्म में मुक्ति, क्योंकि कार्य करते समय व्यक्ति को सब सामाजिक रूढ़ियों और सब प्रकार की नैतिक धारणाओं से अलग रहना चाहिए; पर इसका अर्थ अनियम और असंयम का जीवन बिताना नहीं है। इसके विपरीत, जिस नियम के अनुसार हमें चलना है वह सब सामाजिक नियमों से कहीं अधिक कठोर है, क्योंकि इसे किसी प्रकार की धोखा-धड़ी सह्य नहीं है; यह पूर्ण सच्चाई की माँग करता है। सब प्रकार के शारीरिक कर्म पूर्णतया इस प्रकार व्यवस्थित कर लेने चाहिए कि शरीर की शक्ति में उसके संतुलन और सौंदर्य में वृद्धि हो। इस लक्ष्य को सामने रखते हुए मनुष्य को सब प्रकार के सुखों तथा कामुक उपभोग से बचना चाहिए। प्रत्येक कामुक चेष्टा का अर्थ है मृत्यु की ओर जाना। इसी कारण प्राचीन काल से और गुह्य ज्ञान के सभी पवित्र स्थानों में यह अमरत्व के अभिलाषियों के लिए वर्जित कर्म था। इस कर्म के बाद ही निश्चेतना का एक ऐसा कम या लंबा काल आता है जो सब प्रकार के प्रभावों के लिए द्वार खोल देता है और चेतना को निम्न स्तर पर ले आता है। निस्संदेह जो अपने आपको अतिमानसिक जीवन के लिए तैयार करना चाहता है उसे कभी भी अपनी चेतना को, सुख-भोग या विश्राम और मनबहलाव के बहाने भी, असंयम और निश्चेतना के निम्नतर स्तर पर नहीं उतरने देना चाहिए। विश्राम शक्ति और प्रकाश में लेना चाहिए, अंधकार और दुर्बलता में नहीं। अतएव, उन सब लोगों के लिए जो उन्नति की अभीप्सा करते हैं संयम ही नियम है, पर विशेषकर जो लोग अपने आपको पूर्ण रूपांतर तथा अतिमानसिक अभिव्यक्ति के लिए तैयार करना चाहते हैं उन्हें इस संयम के स्थान पर इन बातों का पूर्ण त्याग कर देना होगा; पर यह कार्य जोर-जबर्दस्ती और दबाव से नहीं वरन् एक प्रकार की आंतरिक शोधन-क्रिया के द्वारा करना चाहिए, जिससे वे शक्तियाँ जो साधारणतया प्रजनन के कार्य में खर्च होती हैं विकास और पूर्ण रूपांतर की शक्तियों में परिवर्तित हो जाएँ। यह तो मानी हुई बात है कि पूर्ण और सच्चे अर्थों में हितकारी फल प्राप्त करने के लिए सब प्रकार के कामुक आवेगों और इच्छाओं को मानसिक और प्राणिक चेतना से, साथ ही शारीरिक संकल्प में से भी निकाल देना चाहिए। समस्त आमूल और स्थाई रूपांतर अंदर से बाहर की ओर होता है; बाह्य रूपांतर तो आंतरिक रूपांतर का ही स्वाभाविक, अतएव अनिवार्य परिणाम होता है।

यदि तुम आगामी जीवन की तैयारी करना और उसका एक सक्रिय और योग्य अंग बनना चाहते हो तो तुम्हें वर्तमान जीवन के अनुसार अपने को ढालना और इसमें सफल होना अस्वीकार कर देना चाहिए। यदि तुम पूर्ण सौंदर्य और सामंजस्य में रहने के आनंद की ओर खुलना चाहते हो तो तुम्हें सब सुख-भोगों को छोड़ देना होगा।

यह हमें स्वभावत: ही प्राण की तपस्या पर ले आता है, यह संवेदनाओं (Sensations) की तपस्या है अर्थात् शक्ति की तपस्या, प्राणिक सत्ता वस्तुत: शक्ति की, चरितार्थ करने वाले उत्साह की भूमि है। प्राण में ही विचार अपने आपको संकल्प में परिवर्तित करके कार्य को गति देता है। यह भी सत्य है कि प्राण इच्छाओं और कामनाओं का, प्रबल आवेगों और उनकी उतनी ही प्रबल प्रतिक्रियाओं का तथा विद्रोह और विषाद का क्षेत्र है। साधारणतया इनका इलाज यही होता है कि प्राण का गला घोंट दिया जाए, उसे सब संवेदनाओं से वंचित करके भूखा मार दिया जाए, क्योंकि संवेदना ही इसका मुख्य भोजन है; इनके बिना यह सो जाता है और फिर शिथिल पड़कर अंत में शून्य हो जाता है।

प्राण को वस्तुत: तीन स्रोतों से भोजन प्राप्त होता है। सबसे अधिक सुगम पहुँच तो उसकी नीचे के स्रोत अर्थात् संवेदनाओं के द्वारा भौतिक शक्तियों तक है।

उसका दूसरा स्रोत उसके अपने स्तर पर ही है। पर उसे वह तभी प्राप्त कर सकता है जब कि वह वैश्व प्राणिक शक्तियों से संबंध स्थापित करके काफी विशाल और ग्रहणशील हो जाता है।

तीसरा स्रोत ऊपर की ओर है जिसके प्रति वह साधारणतया तभी खुलता है जब कि वह उन्नति के लिए तीव्र अभीप्सा कर रहा होता है, इस तक पहुँचने के लिए प्राण को आध्यात्मिक शक्तियों और प्रेरणाओं को अपने अंदर लाकर उन्हें आत्मसात् करना पड़ता है।

इन तीनों स्रोतों के साथ एक और स्रोत जोड़ देने का थोड़ा-बहुत प्रयत्न मनुष्य सदा से ही करता रहता है जो उसके बहुत से कष्टों और दुर्भाग्यों का कारण बन जाता है। यहाँ वास्तव में अपने साथियों के साथ उसका प्राणिक आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान दो व्यक्तियों में होता है जिसे वे प्रेम समझने की भूल कर बैठते हैं पर यह उन दो शक्तियों के पारस्परिक आकर्षणमात्र से अधिक कुछ नहीं होता जो आदान-प्रदान में सुख अनुभव करती हैं।

अतएव, यदि हम अपने प्राण को भूखों नहीं मारना चाहते, तो हमें संवेदनाओं को न तो त्यागने की आवश्यकता है और न ही उन्हें कम अथवा नि:शक्त करने की। उनसे दूर भागना भी ठीक नहीं, वरन् उनसे बुद्धिमत्ता और विवेकपूर्वक लाभ उठाना चाहिए। ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करने के लिए संवेदनाएँ बहुत बढ़िया साधन हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि हम उन्हें सुख का साधन मानकर, आमोद-प्रमोद तथा आत्म-तुष्टि के अंध एवं अज्ञ प्रयत्न में, अहंकारवश उनका प्रयोग करें।

इंद्रियों में प्रत्येक वस्तु को, बिना अरुचि और अप्रसन्नता के, अनुभव करने की सामर्थ्य होनी चाहिए, साथ ही उन्हें विभिन्न प्राणिक स्पंदनों के स्वभाव, मूल और परिणाम को विवेकपूर्वक समझने की शक्ति प्राप्त करके उसका अधिकाधिक विकास भी करना चाहिए, जिससे उन्हें इस बात का ज्ञान हो जाए कि ये स्पंदन शरीर और प्राण के सामंजस्य, सौंदर्य और स्वास्थ्य के लिए हितकारक हैं अथवा उनके संतुलन और विकास को हानि पहुँचाने वाले हैं। इसके अतिरिक्त भौतिक और प्राणिक लोकों को उनकी समस्त जटिलता सहित समझने और उनका अध्ययन करने के लिए साधन के रूप में भी इनका उपयोग होना चाहिए। इस प्रकार ये रूपांतर के महान् प्रयत्न में अपना उपयुक्त स्थान प्राप्त कर लेंगे।

प्राण को निर्बल बनाने से नहीं बल्कि उसे प्रकाशयुक्त दृढ़ और शुद्ध करने से ही व्यक्ति अपना सच्चा विकास कर सकता है। संवेदनाओं से अपने आपकों वंचित करना भी उतना ही हानिकारक है जितना कि भोजन से वंचित करना। परंतु जिस प्रकार भोजन का चुनाव शरीर के विकास के लिए और उसके विशेष व्यापार को ध्यान में रखकर बुद्धिमत्तापूर्वक किया जाना चाहिए उसी प्रकार संवेदनाओं का चुनाव और नियंत्रण भी विशुद्ध वैज्ञानिक ढंग की तपस्या से इस अत्यधिक सक्रिय यंत्र की उन्नति और पूर्णता को ही ध्यान में रखते हुए करना चाहिए, क्योंकि इसका भी विकास में उतना ही आवश्यक स्थान है जितना कि सत्ता के दूसरे भागों का।

प्राण को शिक्षा देने से, उसे अधिक शिष्ट, अधिक विवेकशील और सूक्ष्म तथा चुस्त बनाने से–‘चुस्त’ को सर्वोत्तम अर्थों में लेते हुए–हम उसकी उन उग्रताओं और क्रूरताओं को वश में कर सकते हैं जो प्राय: ही उसकी स्थूल और अज्ञानमय क्रियाएँ होती हैं और जिनमें सदैव सुरुचि का अभाव रहता है।

वास्तव में जब प्राण को शिक्षित तथा प्रकाशयुक्त कर दिया जाता है तो वह उतना ही महान्, वीर और नि:स्वार्थ हो सकता है जितना कि वह, साधारणतया अपने स्वभाव से तथा बिना शिक्षा के, अशिष्ट, अहंकारी और विकारपूर्ण होता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति इस क्षणिक सुख की खोज को अतिमानसिक पूर्णता की अभीप्सा में रूपांतरित करना जान ले तो यह पर्याप्त है। इसके लिए यदि प्राण को लगातार सच्ची निष्ठा के साथ बहुत समय तक शिक्षा दी जाए तो एक ऐसा समय आएगा जबकि उद्देश्य की महानता और सुंदरता पर उसका विश्वास जम जाएगा और वह दिव्य आनंद को प्राप्त करने के लिए इन तुच्छ और भ्रांतिपूर्ण ऐंद्रिय संतोषों को त्याग देगा।

-क्रमश:


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