छींक
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
छींक
हास्य-रूपक
डॉ. रामकुमार वर्मा एकांकी और कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके एकांकी कई मानी में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। प्रस्तुत रचना शुद्ध हास्य और सरल व्यंग्य का अच्छा उदाहरण है।
नाटक के पात्र :
1. पंचम मिसिर पुराने विचारों के पंडित जी
2. गायत्री उसकी पत्नी
3. संपत पंडित जी का भतीजा
4. देवीदीन ग्वाला
समय : प्रात: काल सात बजे
[पंचम मिसिर का घर। वह सो रहे हैं। उनकी पत्नी गायत्री उन्हें जगाने की चिंता में है।
नेपथ्य में जोर से एक छींक होती है। दस सेकेंड बाद दूसरी बार फिर छींक होती है।]
गायत्री–(पंचम मिसिर को जगाते हुए) अरे, आज क्या सोते ही रहोगे? सात बज गए, इतना दिन चढ़ आया।
[पंचम मिसिर आलस भरे स्वर में अँगड़ाई लेते हैं।]
गायत्री–कल कह रहे थे, मुझे यह काम करना है, वह काम करना है। सात-सात बजे सो कर काम करोगे?
पंचम–(जम्हाई लेकर अलसाए स्वर में।)
जय जय नटवर गिरधारी
दिन भर राखो लाज हमारी॥
गायत्री–(उसी स्वर में) कुंभकरन जी की बलिहारी।
पंचम–(अलसाए स्वर में) ऐं क्या कहा? सुन नहीं पाया। हाँ, तुम भी मेरे साथ प्रार्थना किया करो। (फिर अँगड़ाई लेकर) ओह, क्या दिन निकल आया। आज बड़ी जल्दी सूरज भगवान निकल आए।
गायत्री–सूरज भगवान तो अपने समय पर निकलते हैं। पर तुम्हारी नींद तो जैसे कुंभकरन की धरोहर है। खुलने का नाम ही नहीं लेती। कल कह रहे थे, त्रिवेनी की माँ, कल ऐसी जगह जाऊँगा, वैसी जगह जाऊँगा कि बस तुम्हारे लिए सोने का हार बना-बनाया समझो। यहाँ सोने की क्या बात, चाँदी की अच्छी-सी जंजीर तक नहीं जुड़ी। सब रुपया भगवान जाने कहाँ जाता है। ये सोने का हार बनाएँगे। अरे, नींद का सोना कहो तो कहो, हार का सोना कह के काहे को जलाते हो? और उस पर ढंग ये कि उठेंगे सात बजे।
पंचम–(चैतन्य हो कर) शिव-शिव, धीरे-धीरे उठ रहा हूँ भाई! जरा उठने तो दो। आज जरा कुछ नींद लग गई तो सबेरे-सबेरे तुम सत्यनारायण की कथा बाँचने लगीं। अभी उठता हूँ, हाथ-मुँह धोता हूँ। फिर जरा मुहूर्त देखकर निकलूँगा तो देख लेना तुम्हारे द्वार पर सोना न बरसा दूँ तो पंचम मिसिर नाम नहीं। हाँ। ऐसा-वैसा नहीं हूँ। लाला हरिकिसन दास का पुरोहित हूँ जिसका सारी दुनिया में कारोबार है। हाथी झूलते हैं उनके द्वार पर, हाथी। (सहसा) अरे हाँ त्रिवेनी की माँ! मैं तो कहना ही भूल गया। हाथी के नाम पर याद आया। ऐसा बढ़िया सपना देखा है कि बस…उछल पड़ो!
गायत्री–क्या उछल पड़ूँ? यही कहोगे कि सपने में सुनार की दूकान पर गया था।
पंचम–(प्रसन्नता से) अरे त्रिवेनी की माँ, सुनार की दूकान क्या है उसके सामने। मैंने देखा कि…अहह, क्या देखा कि बस देखते ही रहो! तुम मुझे न जगाती तो हाय, हाय, मैं कहाँ से कहाँ पहुँच जाता।
गायत्री–चारपाई पर पड़े-पड़े?
पंचम–अरे, हँसी समझती हो त्रिवेनी की माँ। अरे मैंने वह देखा कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं देख सकते।
गायत्री–सो क्या देखा है, मैं भी तो सुनूँ।
पंचम–सुनाऊँ! मैंने देखे हैं विष्णु भगवान! बतलाओ, देखे हैं किसी ने विष्णु भगवान सपने में? अहाहा। क्या सीन था–विष्णु भगवान शेषनाग पर सो रहे हैं। नाभि से धनुष-बान की तरह कमल की डंडी निकल रही है। साक्षात् लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं। तो, मैं भी दूसरी तरफ से पहुँचा और दूसरा पैर दबाने लगा। विष्णु भगवान ने मेरी तरफ देखा तो पूछा–क्या चाहते हो पंचम मिसिर! मैंने कहा–हे दीनबंधु, दीनों के रखवाले, वंशीवाले आपकी माया में भूला हूँ पर मैं यही चाहता हूँ कि लाला हरिकिसन दास की लड़की जानकी की शादी मनोहर लाल के लड़के से लगा दूँ।
गायत्री–वाह, तुमने भी विष्णु भगवान से क्या माँगा। अरे सोना-चाँदी कुछ माँगते।
पंचम–अरे त्रिवेनी की माँ। माँगी तो वो चीज है कि खुद विष्णु भगवान चक्कर में पड़ जाएँगे। सुनो, हरिकिसन दास की लड़की जानकी की शादी तो बहाना है बहाना। इस शादी के लगाने से घर में इतनी लक्ष्मी आएगी कि दो साल बाद त्रिवेनी की शादी कर लेना। विष्णु भगवान की लक्ष्मी शेषनाग को छोड़ कर तुम्हारे घर आ जाएँगी, तुम्हारे घर।
गायत्री–अच्छा, तो विष्णु भगवान ने क्या कहा?
पंचम–उन्होंने गनेश जी को बुलाया और उनके चूहे पर मुझे बिठलाया।
गायत्री–चूहे पर बिठलाया?
पंचम–हाँ, हाँ साक्षात् चूहे पर बिठलाया। गनेश जी का चूहा कोई मामूली चूहा था, वह था एक बड़े हाथी के बराबर–जैसा हाथी हरिकिसन दास का है न?
गायत्री–फिर?
पंचम–फिर जैसे ही मैं चलने को हुआ कि लक्ष्मी जी ने बड़े जोर से छींका।
गायत्री–लक्ष्मी जी ने?
पंचम–हाँ, हाँ साक्षात् लक्ष्मी जी ने। मुँह फेर कर ऐसे जोर से छींका।
गायत्री–अरे, वो तो संपत ने छींका था जब तुम सो रहे थे।
पंचम–संपत ने? नहीं मुझे तो ऐसा मालूम हुआ कि साक्षात् लक्ष्मी जी ने छींका था।
गायत्री–नहीं संपत ने छींका।
पंचम–तो अगर लक्ष्मी जी ने नहीं छींका, तो मेरा काम बना-बनाया है। पर इस संपत को छींकने की क्या जरूरत पड़ गई? मेरे जागने में छींके तो छींके, मेरे सोते में भी छींकता है।
गायत्री–छींक आ गई होगी।
पंचम–ऐसे कैसे आ गई होगी। छींक अच्छी नहीं होती त्रिवेनी की माँ। हाँ, उससे बड़े-बड़े राज्य उलट जाते हैं।
गायत्री–खैर तुम्हारा राज्य तो नहीं उलटा।
पंचम–उलटे या न उलटे, उसे देख लूँगा, हाँ।
गायत्री–अच्छा तो बाद में देख लेना, अभी तो उठो।
पंचम–देखो त्रिवेनी की माँ। मैंने रात में पंचांग देख लिया है। हरिकिसन दास के यहाँ जाने का मुहूर्त नौ बजकर पंद्रह मिनट पर है। अभी काफी देर है। पर मैं इस गधे संपत को देख लेना चाहता हूँ। (पुकारते हुए) संपत, संपत।
संपत–(बाहर से) जी पंडित जी।
पंचम–इधर तो आ, पंडित जी के बच्चे। घूमने के लिए काफी समय मिलता है, पर घर का काम करने में नानी याद आती है।
संपत–जी पंडित जी।
पंचम–(चिढ़ाकर) जी पंडित जी। क्यों रे, कल मैंने तुझसे क्या काम करने को कहा था?
संपत–(डरते हुए) पंडित जी आपने कहा था…आपने कहा था…
पंचम–हाँ, हाँ, क्या कहा था, बोलता क्यों नहीं?
संपत–पंडित जी, आपने कहा था कि चूहेदानी में नेवला पकड़ कर रख लेना।
पंचम–तो चाहे मुझे सपने में चूहा दिख जाय, लेकिन चूहेदानी में तुझसे नेवला पकड़ते नहीं बनेगा।
गायत्री–चूहेदानी में नेवला?
पंचम–हाँ, चूहेदानी में नेवला। नेवला शकुन की चीज है। मैंने इससे कहा था कि मुझे कल एक बड़े काम पर जाना है और हमारे शास्त्रों में लिखा है कि घर से चलते समय अच्छा शकुन होना चाहिए। नेवले का दिखना अच्छा शकुन माना जाता है। मैंने सोचा कि चलते वक्त नेवला कैसे दिखेगा, तो मैंने संपत से कहा कि चूहेदानी में नेवला पकड़ लेना और चलते वक्त मुझे दिखला देना।
गायत्री–सगुन का अच्छा इंतजाम किया था आपने।
पंचम–तो, क्यों रे, तूने चूहेदानी में नेवला पकड़ा?
संपत–जी…जी…नेवला आया ही नहीं। मैंने कई बार पिजड़े में रोटी डाल-डाल कर नेवले को दिखलाया पर वह आया ही नहीं।
पंचम–तो तेरी तरह नेवले के दिमाग भी चढ़े हैं। कमबख्त समझते हैं कि उनका देखना शकुन है तो चोरबाजारी करते हैं। मौके पर नहीं दिखेंगे। पंचांग में इन कमबख़्तों का दिखना अपशकुन माना जाए, तब तो बात है।
संपत–ऐसा जरूर कर दीजिए पंडित जी।
पंचम–(चिढ़ाते हुए) ऐसा जरूर कर दीजिए पंडित जी! और हाँ, तूने देवीदीन ग्वाले से कह दिया है कि जब मैं घर से चलूँ तो गाय और बछड़ा लेकर मेरे सामने दूध दुह दे।
संपत–देवीदीन से तो कह दिया है।
गायत्री–तो क्या यह भी कोई सगुन है?
पंचम–पंचम मिसिर की पत्नी हो कर इतना भी नहीं जानती कि यह कार्य-सिद्धि का सब से बड़ा शकुन है? और हाँ, तुमने दही मँगा लिया है।
गायत्री–वह तो घर ही में है।
पंचम–बस तो ठीक है, मैं उसे खा कर जाऊँगा। संपत, बाहर जा कर देख कि अभी ग्वाला तो नहीं आया।
संपत–बहुत अच्छा पंडित जी।
[प्रस्थान]
पंचम–बात यह है त्रिवेनी की माँ, कि हमारे शास्त्रों और पुरानों में जो कुछ लिखा है वह झूठ थोड़े ही हो सकता है? आज कल की दुनिया बदल गई है, चारों तरफ क्रिस्तानी विद्या फैली हुई है। कोई पुरानों की बात मानना नहीं चाहता, पर जब तक दुनिया में पंचम मिसिर हैं तब तक तो पुरानों की बात मैं मनवा कर ही रहूँगा। लाला हरिकिसन दास तक मेरी बात मानते हैं। और ये संपत, अपने ही घर का लड़का इन बातों को हँसी समझता है। दिया तले अँधेरा।
संपत–(आ कर) पंडित जी, अभी देवीदीन नहीं आया।
पंचम–जब आए तब मुझे खबर देना, समझे? अब मैं उठता हूँ।
[उठते ही संपत जोर से छींकता है]
पंचम–(उबल कर) इस गधे ने फिर छींका। क्यों वे संपत। लगाऊँ दो तमाचे। तू मेरा भतीजा होकर मेरे घर में रहता है, तो इसका यह मतलब है कि तू मेरे कामों में हमेशा अड़ंगा डाले?
संपत–मेरा कोई कसूर नहीं है पंडित जी।
पंचम–तो किसका, मेरा है? मैंने छींका है? देखो त्रिवेनी की माँ, मैं उठा और इसने छींका। यानी आज मेरा कोई काम न होगा। मुझे लाला हरिकिसन दास के यहाँ जाकर मुहूर्त बताना था, तो मैं न जाऊँ? और आज के दिन हाथ खाली। यह संपत ऐन मौके पर छींकता हैं, मैं इस गधे की नाक काट डालूँगा, हाँ। गनेश जी की सूड़ की तरह नाक बढ़ा ली है, जब देखो तब छींक! जब देखो तब छींक।
त्रिवेणी–(आ कर) कहीं गनेश जी की नाक छींकने से ही तो नहीं बढ़ गई है।
पंचम–ऐसी बात कहने से तुम मेरा गुस्सा दूर करना चाहती हो, मैं जानता हूँ। लेकिन यह छींक अच्छी नहीं होती। मैं बताए देता हूँ।
त्रिवेणी–तो मैं यह जानना चाहती हूँ कि छींक की बात किस पुराण में लिखी है। जा रे संपत, बाहर जा।
[संपत बाहर जाता है]
पंचम–मैं जानता हूँ, तुम उसको बचाना चाहती हो।
त्रिवेणी–बचाने की बात नहीं है। पर सुबह-सुबह से गुस्सा करना ठीक नहीं है। जो बात न बिगड़ती हो, गुस्सा करने से वह बात और बिगड़ जाती है।
पंचम–जब छींक हो गई हो तो गुस्सा आने न आने की कौन बात है, बात तो बिगड़ेगी ही।
त्रिवेणी–तो मैं वह जानना चाहती हूँ कि छींक की बात किस पुराण में लिखी है?
पंचम–छींक की बात जलपुराण में लिखी है।
त्रिवेणी–जल पुराण में?
पंचम–क्यों, क्या तुम्हें शक है। अरे हमारे यहाँ बहुत से पुराण हैं। अग्निपुराण, वायुपुराण है तो एक जलपुराण भी है।
त्रिवेणी–पर जलपुराण का नाम तो कभी सुना नहीं।
पंचम–तो सुना तुमने किस किस-किस का नाम है? और पंडित लोग किसी नई बात की खोज तो करते नहीं। अरे, इतना नहीं समझती कि जब तीन लोक के जानने वाले हमारे ऋषि-मुनियों ने अग्निपुराण लिखा, वायुपुराण लिखा तो क्या जलपुराण न लिखा होगा?
त्रिवेणी–नहीं, जरूर लिखा होगा। तो जलपुराण का छींक से क्या संबंध।
पंचम–अब तुमको यह भी समझाऊँ? अरे जल के देवता कौन है? वरुण भगवान; और वरुण भगवान का स्थान है नाक। इसीलिए छींक में नाक से पानी निकलता है। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने छींक का वर्णन जलपुराण में किया है।
त्रिवेणी–ठीक है। अब बात समझ में आई। और पंडित आपकी तरह न समझा पाते होंगे।
पंचम–किसी ने इतना पढ़ा भी है, जितना मैंने पढ़ा है? तभी तो सेठ हरिकिसन दास मेरा लोहा मानते हैं। और उनके सामने एक ही पुरोहित हैं पंचम मिसिर! हाँ।
गायत्री–तो उठो, फिर जल्दी से तैयार हो जाओ। सेठ जी के यहाँ जाने का समय हो रहा है।
पंचम–अच्छी बात है, उठता हूँ।
[जैसे ही वह उठते हैं, एक बिल्ली के बोलने की आवाज, वह सामने से निकल जाती है]
पंचम–हाय रे भगवान! इस कमबख्त को इसी समय मरना था। यह बिल्ली रास्ता काट कर निकल गई। इसका सर्वनाश हो।
गायत्री–सचमुच यह बिल्ली कहाँ से आ गई।
पंचम–जहन्नुम से। रास्ता देखती रही कि कब मैं सो कर उठता हूँ। उठा और सामने से निकल गई तीर की तरह जैसे मेरे घर में इस काली कलूटी का राज है। इस योनी को भगवान ने पैदा ही क्यों किया। सिवा रास्ता काटने के इस योनी ने सीखा ही क्या है। और मेरा ही रास्ता काटने के लिए इसे मिला। और किसी का रास्ता इसे नहीं मिला। और आज ही, जब मैं सेठ हरिकिसन दास के पास जा रहा हूँ। किस्मत ही उलटी है। कहीं संपत छींकेंगा, कहीं बिल्ली रास्ता काटेगी।
गायत्री–तो बिल्ली पर किसका जोर है।
पंचम–किसी का नहीं तो काटा करे चौबीसों घंटे मेरा रास्ता? इसने मेरा रास्ता काटा है, मैं इस कलूटी का सिर काटूँगा।
गायत्री–ब्राह्मण हो के सिर काटेंगे? हत्या नहीं होगी?
पंचम–तो अपनी जिंदगी में किस-किस बात का ध्यान रखूँ? यहाँ बिल्ली रास्ता भी न काटे, और हत्या भी न लगे।
गायत्री–चलिए जाने दीजिए। दो असगुन मिल कर एक सगुन में बदल गए। अब उठिए, छींक के असगुन को बिल्ली ने काट दिया। उठो, चल कर मैं भी नहाती हूँ।
[प्रस्थान]
पंचम–जो कुछ होना होगा, देखा जाएगा, अब उठता हूँ।
[बाहर से देवीदीन की आवाज]
देवी–पंडित जी महाराज
पंचम–अब यह कौन आ गया। आज उठना भाग्य में नहीं बदा है। कौन है?
देवी–मैं, पंडित जी महाराज। देवीदीन। संपत भैया कहे रहें कि होत भिन्सार आपके गैया और बछवा लेके हमार घर के समनवै दुहि जायो। कौनो ससुर हमार गैया कानी हौद में कर दीन है। अब गइया तो आह नहीं सकता। आज्ञा होइ तो भैंस लाइकै दुहि देई। मुदा आपका सगर दूध लेइ का पड़ी।
पंचम–क्या तुम्हारी गाय कानी हौद में चली गई।
देवी–अब का बताई पंडित जी महाराज। हमार गइया जानो उई ससुर के सरबस खाइलीन रहे, ठौंक दिहिस कानी हौद मां। अब उइका चारज आठ आना दुहरुपैया लागी। जितेक घंटा के देर होई उतेक आना रुपैया बाढ़त जाई। आप तीन रुपैया उधार देह देयं तो छुड़ाइ लेई। आपन दूध के हिसाब मां उहिका काट लेंय।
पंचम–दूध के हिसाब में काट ली की बात तो दूर, ऊपर से और जुरमाना दो सुबह-सुबह। (देवीदीन से) भाई देवीदीन, इस वक्त तो रुपैया नहीं है। सुबह-सुबह कौन रुपैया निकाले।
देवी–तो पंडिताई आप ऐसनै करत हौं। हमार गाँव में एक पंडित जी रहें, उनके घर मां अस लच्छमी रहे कि तीन रुपैया का, तीन हजार जौन बखत चाहे तौन ले लेव। मुदा ब्याज आपन लगावत रहें। तुमहूँ ब्याज लै लेव।
पंचम–ब्याज की बात नहीं। अब इस वक्त लौट जाव।
देवी–तो दूध के बरे भैंसिया ले आई।
पंचम–नहीं, उसे भी लाने की जरूरत नहीं है। आज दूध नहीं लगेगा। (अलग) अच्छा शकुन रहा, गाय के बदले भैंस।
देवी–जैसी मरजी, पालागी (अलग) ऐसने पंडित जी बना है। आपन टेंट के काम छोड़ ऐलि हैं, मुझ गरीबन का जरिकौ मदद नाहीं कइ सकत।
पंचम–क्या कह रहे हो देवीदीन।
देवी–कुछ नहीं पंडित जी। (जोर से छींकता है।) ई ससुर छींक।
पंचम–सुबह-सुबह छींकता क्यों है।
देवी–का बताई पंडित जी। आपके बगलिया में कौनों मरिचा पिसाई रहा है। ओईसे जौन का देखौ तौनों छींकत है। अब हिन संपत भैयो छींकत रहे। आक् छीं।
[देवीदीन छींकता है। संपत का दौड़ते हुए प्रवेश ]
संपत–पंडित जी चूहेदानी में रोटी रखी थी तो उसमें रात चूहे फँस गए थे। उनको खाने के लिए बिल्ली इधर-उधर घूम रही थी। यहाँ से तो नहीं निकली।
पंचम–तो तूने ही वह बिल्ली खदेड़ी थी? उसे चूहे खाने के लिए नहीं मिले तो शायद मुझे ही खाने आई थी। ठहर, आज मैं तेरी छींक निकालता हूँ। अरे मुझे भी छींक आ रही है? एं, ये छींक…आक् छीं, आक् छीं।