मलखान सिंह सिसौदिया–कविता में मृत्युंजय संकल्प

मलखान सिंह सिसौदिया–कविता में मृत्युंजय संकल्प

चार सितंबर 1921 ई. को एटा जनपद (उ.प्र.) के कुठिला लाइकपुर गाँव में जन्मे मलखान सिंह सिसौदिया का यह जन्मशती वर्ष है। गत दशक में कई साहित्यकारों की जन्मशतियाँ धूमधाम से मनाई गईं, उनका पुनर्मूल्यांकन भी हुआ। लेकिन जो कवि अपनी वैचारिकता, संवेदनशीलता और काव्यशिल्प की दृष्टि से नागार्जुन, शमशेर, केदार, त्रिलोचन, रामदरश मिश्र आदि की पंक्ति में ससम्मान प्रतिष्ठित होने योग्य हैं, जिसके विषय में डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने विश्वासपूर्वक लिखा है कि ‘साहित्य में प्रगतिशीलता का इतिहास सिसौदिया की कविताओं के उल्लेख के बिना अधूरा रहेगा’ उस कवि की जन्मशती पर आलोचकों और संपादकों का मौन आश्चर्यजनक है। अपनी संस्मरणकृति ‘बेहतर दुनिया के लिए संघर्षों के सहयात्री’ में सिसौदिया जी ने यशपाल, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे, त्रिलोचन, शील, सव्यसाची, रामदरश मिश्र, रमेश रंजक आदि का आत्मीय स्मरण किया है। उनका पहला संग्रह ‘बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ’ रामविलास जी के प्रयास से छपा था और उनकी प्रबंधकृति ‘सूली और शांति’ की भूमिका भी उन्होंने ही लिखी थी। उनके जीवनकाल में उनकी कविताओं के वैशिष्ट्य की चर्चा अन्य आलोचकों डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, डॉ. कुँवरपाल सिंह, डॉ. रणजीत, डॉ. देवेश ठाकुर आदि ने समय-समय पर की। उनकी अमृतजयंती पर प्रकाशित ‘अभिनव प्रसंगवश’ के विशेषांक का संपादन डॉ. रामदरश मिश्र ने किया, लेकिन उनके कविकर्म की व्यापक पड़ताल, पुनर्मूल्यांकन और उनकी उपलब्धियों को रेखांकित करने वाले प्रयास कम ही हुए। कवि को भी इस अभाव का दंश अनुभव होता रहा है–‘तुम्हारे द्वारा रद्दी की टोकरी में फेंकी गई/मेरी रचनाओं को/काल-संपादक निकाल छाँटेगा/उन्हें युग के पन्नों पर सजाकर छापेगा।’

‘काल-संपादक’ शीर्षक कविता में व्यक्त मलखान सिंह सिसौदिया का यह मंतव्य जहाँ एक ओर आलोचकों द्वारा उनके काव्य की उपेक्षा की ओर संकेत करता है, वहीं कवि के इस आत्मविश्वास का सूचक भी है कि उसने सार्थक रचना-कर्म किया है और कभी न कभी उसका उचित मूल्यांकन अवश्य होगा। इसमें संदेह नहीं कि श्री सिसौदिया ने ‘बंगाल के प्रति तथा अन्य कविताएँ’, ‘दीवारों के पार’, ‘सूली और शांति’, ‘कुआँ बोलता नहीं’, ‘अँधियारों से लड़ता हुआ’, ‘बात की चिड़िया’, ‘संपाति-चिंता’ शीर्षक संग्रहों में जो काव्य लिखा है, उसका एक बड़ा हिस्सा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन जैसा कि डॉ. कुँवरपाल सिंह ने लिखा है, इस जन-प्रतिबद्ध कवि की ओर साहित्य-पारखियों की दृष्टि कम ही गई है। ‘प्रगतिवाद’ के दौर में प्रारंभ हुई उनकी कविता-यात्रा की उपलब्धियाँ खासी हैं और बकौल रमेश रंजक वे कबीर और नजीर अकबरवादी की परंपरा के सशक्त कवि हैं। उनके प्रारंभिक संग्रहों–‘बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ’ तथा ‘अँधियारों से लड़ता हुआ’ में यथास्थिति के प्रति कवि का विद्रोह मुखरित हुआ है। रमेश रंजक ने कहा है, ‘दीवारों के पार’ का संवेदनाजगत परदर्शी है। ‘सूली और शांति’ का मूलस्वर ‘विश्व शांति’ है। जगदीश गुप्त ने इस कृति के संबंध में लिखा है कि वर्णनात्मक होने पर भी काव्यात्मकता अक्षुण्ण रही है। इसी कृति को ध्यान में रखते हुए डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ने लिखा है–‘डॉ. सिसौदिया अपनी काव्य यात्रा में व्यष्टि से समष्टि राष्ट्र से अंतराष्ट्रीय और संसार से प्राणिमात्र तक अपना नाता जोड़कर विश्वव्यापी आकार-प्रकार पाते हैं।’ ‘कुआँ बोलता नहीं है’ कवि की एक प्रौढ़ रचना है। डॉ. कुंदनलाल उप्रेती के विचार में–‘संपूर्ण संग्रह की कविताओं के अध्ययन से यह स्पष्ट पता चलता है कि कवि आधुनिक राजनीतिक आर्थिक स्तरों पर छाई विसंगतियों पर धारदार नजर रखे हुए हैं।’ प्रारंभ से अंत तक की सिसौदिया की अधिकतर कविताएँ परिवेश-संपृक्ति और सामाजिक संघर्ष की कविताएँ हैं। इनमें एक धोषित और सुविचारित पक्षधरता है। डॉ. भगवान सहाय पचौरी के साथ बातचीत में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है कि मुझे काव्य-लेखन में संघर्षरत जननायकों और व्यक्तियों की अपेक्षा जनता के संघर्षों से कहीं अधिक प्रेरणा और ऊर्जा मिली है। ‘बात की चिड़िया’ और ‘संपाति-चिंता’ में भी कवि के जनधर्मी तेवर यथावत् हैं।

‘कविता की लड़ाई’ शीर्षक कविता में डॉ. मलखान सिंह सिसौदिया ने रक्त पसीने की कविता को वास्तविक कविता माना है। यह कविता अन्याय-अत्याचार द्वारा रौंदी जाती मानवता की रक्षा और अँधेरों से लड़ने को सूरज तुल्य है। इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि सिसौदिया जी जन-जीवन के गहरे लगाव की अपेक्षा रखते हैं और स्वयं उनकी कविता का चरित्र इसी किस्म का है। ‘बंगाल के प्रति’ कविता में उन्होंने कलम की सकारात्मक भूमिका की चर्चा की है–‘तेरे घावों के लिए अगर, मेरी कविता न बने मरहम क्यों पाषाणी को अपनाऊँ, क्यों तोड़ न दूँ, मैं आज कलम।’ ‘मेरे हथियार’ शीर्षक कविता में ‘व्यर्थ नहीं होगी वैसे ही मेरी छोटी काव्य-कला’ लिखते हुए भी उन्हें कविता की शक्ति में पूरा विश्वास बना हुआ है। ‘मेरी अभिलाषा’ में उनका यह अभिप्राय स्पष्ट है कि वे अपनी कविता को अत्याचार के विरोध में एक सशक्त प्रतिवाद बनाने के लिए प्रतिश्रुत हैं–मेरा शब्द-शब्द बन जा, आज आग की चिनगारी/इस धरती पर नहीं कहीं भी बच पाए अत्याचारी। इसी प्रतिश्रुति का फल है कि श्री सिसौदिया जी की प्रारंभिक कविताओं में एक ओर फासिस्ट शक्तियों का खुला विरोध है तो दूसरी ओर साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी ताकतों पर तीखी टिप्पणियाँ दृष्टव्य हैं। जिस कवि का दावा है–‘मानवता का वारिस मैं इस भू पर’, निश्चय ही उसकी कविता का तेवर मानवधर्मी होगा। ‘बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ’ में कवि ने इस पक्षधरता का पर्याप्त प्रमाण दिया है। इस संग्रह की ‘जनगीत’, ‘देश ने करवट बदली’, ‘गुमराह देशभक्त से’ आदि कविताओं में द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग ले रही फासिस्ट शक्तियों की भर्त्सना की गई है।

उनकी साम्राज्यवादी शोषण और उपनिवेशवादी मनोवृत्ति का विरोध करने वाली कई कविताएँ स्थायी महत्त्व की हैं। ‘आज फिर स्वाधीनता दिन’ कविता में आजादी की लड़ाई और उभरती जन-चेतना का ब्यौरा दृष्टव्य हैं। लेकिन श्री सिसौदिया की इन शुरू की कविताओं में ‘समय की प्रमाणिकता’ जितनी हैं, उतनी कलात्मकता और विचार तथा अभिव्यक्ति की संश्लिष्टता नहीं हैं। कई स्थलों पर सूचनाधर्मिता है, ‘विचार’ कविता की सतह पर तैर रहे हैं, लेकिन बाद की ‘गिद्ध’ कविता इन कमजोरियों से मुक्त एवं प्रभावपूर्ण रचना है। ‘कुआँ बोलता नहीं है’ संग्रह की कविताओं पर राय देते हुए डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने लिखा है–‘उनकी अंतर्वोधी दृष्टि का विस्तार व्यक्ति से विश्व और घटनाओं से इतिहास तक है। उन्होंने व्यक्ति के जीवन संधर्ष को मानव-मुक्ति के व्यापक संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखा और चित्रित किया है।… उनमें मानवीय संवदेना, अनुभूति और विचार का घनत्व स्वतः कविता बनकर फूटा है।… लेकिन ये सब हैं कला संयम से अनुशासित।’ मानव-मुक्ति के बड़े सरोकार से संबंद्ध ‘गिद्ध’ और ‘अग्निगर्भा चट्टानें’ सदृश कविताएँ इस कला-संयम का सबूत देती है। ‘गिद्ध’ कविता का यह अंश दृष्टव्य है–‘इसलिए जब मानव-कल्याण, विश्व मैत्री/युद्ध-वर्जन, सहजीवन की बात चलती है/तो गिद्ध मँडराना छोड़कर/उदास हो जाते हैं/सूखे पेड़ों की फुनगियों, मकबरों की कलगियों/खँडहरों की मुंडेरों पर बैठ/अपनी जाति-प्रजाति के विनाश की आशंका से/गहरी चिंताओं में डूब जाते हैं।’

इन पंक्तियों में स्थिति की भयावहता और उस पर कवि का व्यंग्यात्मक प्रहार भली-भाँति संश्लिष्ट है। ‘अग्निगर्भा चट्टानें’ में दक्षिण अफ्रीका के शोषित-उत्पीड़ित अश्वेतों के आक्रोश विद्रोह को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया गया है–‘कोयले की इन अग्निगर्भा चट्टानों में/छिपी हुई है भीषण विस्फोटकता/उनमें भरी हुई है अंगार पिंड़ों-सी/महाविनाशकारी दाहकता।’

अपनी कई कविताओं में श्री सिसौदिया परिवेश के प्रति अत्यंत सजग दिखाई देते हैं। उनकी कुछ कविताएँ किसी घटना या हादसे की तात्कालिक प्रतिक्रिया लगती है। गाँधी, जिन्ना की बातचीत से उत्साहित होकर यदि ‘देश के दो हाथ मिलकर’ शीर्षक गीत लिखा गया है तो इस बातचीत की असफलता ने ‘सेतुबंध’ कविता को जन्म दिया है। मंचूरिया में लाल सेना के प्रवेश पर ‘ज्योति भरने एशिया में’ लिखी गई है, 46 के नौसैनिक विद्रोह पर ‘नीला रंग सुर्ख होना है’ की रचना हुई है। आज इन कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व अधिक है, लेकिन इनमें काव्यत्व भी भरपूर है। कविताओं में एक तरह की निर्णयशीलता है, जो जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता से संयुक्त होने के कारण आज भी प्रासंगिक है। नौसैनिक-विद्रोह पर लिखी कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस संदर्भ में पठनीय हैं–‘नूतन हिंदुस्तान बनेगा, भेदभाव की कब्र खनेगा।/जोर-जुल्म शैली बदलेगी, शोषण की अर्थी निकलेगी।’ चाहे दीपावली पर लिखी कविता हो या वसंत के आने का उल्लेख अंततः कवि समता, समानता, स्वतंत्रता आदि जनतांत्रिक मूल्यों के प्रसार का हामी है। ‘शोषण-अमरबेल जीवन तरु-रस न चूस पाएगी’ तथा ‘जन स्वतंत्रता की ड्यौढ़ी पर ममता दीप जलाएँगे’ जैसी पंक्तियों में कवि के परिवर्तनकारी विचारों को पढ़ा जा सकता है।

श्री सिसौदिया की रचनाओं में जन-संघर्ष पर केंद्रित कविताओं में जितनी वैचारिक ऊर्जा है, आत्मसंघर्ष की रचनाओं में भी उसी प्रखरता और दृढ़ता के दर्शन होने हैं। सन् बयालीस की जनक्रांति में भाग लेते समय सिसौदिया जी को कुछ समय भूमिगत होना पड़ा था। इसका कुप्रभाव उनके स्वास्थ्य पर जीवनपर्यंत रहा। ‘बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ’ की भूमिका में डॉ. रामविलास शर्मा ने कवि की इस बात के लिए सराहना की है कि उसने व्यक्तिगत बीमारी के बावजूद साहित्यिक गतिरोध को तोड़ने के लिए भागीरथ प्रयास किया है और ऐसे प्रयास के लिए साधारण मनोबल काफी नहीं होता। ‘तू खोटा कि खरा सोना है’ जैसी कविताओं में यह असाधारण मनोबल मौजूद है। ‘यों अधीर हो-होकर तुझको, मन विश्वास नहीं खोना है’ आदि पंक्तियाँ कवि के आत्मविश्वास की गवाही देती है। ‘खुद को मेरा कवच बनाया’, ‘तुम्हें न मरने दूँगा’ शीर्षक कविताएँ पत्नी को संबोधित है। इन कविताओं से पता लगता है कि श्री सिसौदिया केवल आग और अलाव के कवि नहीं हैं, राग और लगाव की कविताएँ भी उन्होंने सफलतापूर्वक लिखी हैं। हालाँकि प्रतीकों और संकेतों का उपयोग कवि ने शुरू की कविताओं में भी किया है, ‘सड़क’ और ‘चौराहे’ को संबोधित कविताएँ प्रमाण हैं, इसके बावजूद ‘कुआँ बोलता नहीं है’ संग्रह की कविताओं में अभिव्यंजना को अधिक सांकेतिक और बिंबात्मक बनाने की कोशिश मिलती है। ‘गिद्ध’, ‘बिच्छू’, ‘कुआँ’, ‘साँप’, ‘गिरगिट’, आदि किसी न किसी असंगति या विसंगति के द्योतक है। लेकिन ये प्रतीक और बिंब जटिल और संप्रेषण के स्तर पर दुर्बोध नहीं हैं। इसका एक कारण इनका लोकधर्मी होना है। उदाहरण के लिए, कुएँ से निकल रहे पानी का यह चित्र कोई गाँव की माटी से उगा कवि ही प्रस्तुत कर सकता था–‘फिर, चुलबुले बच्चे की तरह/चरस में बैठकर चुलबुलाता/बरत से खिंचता/पारचा पर उछलकर चपलता से बरहे में लुढ़कता-फुदकता-हुड़कता।’

श्री सिसौदिया के अधिकतर काव्य की शक्ति वृहत्तर जन समुदाय के जीवन से गहरी संपृक्ति में निहित है। ‘शब्दों का संग्रह’ कविता में उन्होंने शब्दों से जो कहलाया है, वही उनकी कविता का तेवर भी है। यही कारण है कि वे कभी चुके नहीं और कविता उनकी अभिव्यक्ति का अनिवार्य साधन बनी हुई रही। उनके अनुसार–‘अपनी जनयित्री कोख के सत्य की ओर/अपना रुख तोड़ते हैं/जोखिम की चिंता न कर/अपनी अंतरात्मा से/अपने को जोड़ते हैं।’

अपनी अंतिम कविता पुस्तक ‘संपाति-चिंता’ में श्री सिसौदिया ने मिथक का सहारा लेकर समकालीन बोध को उभारा है। जटायु के भाई संपाति की सूर्य की दिशा में उड़ान को कवि ने ‘सर्वोच्चता’ और ‘ग्रीवाभंजक’ ऊँचाई को चुनौती देने वाला माना है। उनके अनुसार–‘संपाति नाम है दुर्घर्ष प्रकृति पर जय का/नियति पर विजय का/तारुण्य के चुनौती भरे निर्णय का/मृत्युंजयी संकल्प, निस्संशय का।’

श्री सिसौदिया की संपूर्ण काव्य-यात्रा संशय रहित मृत्युंजय संकल्प से आविष्ट है और उसकी जड़ें जन सामान्य के जन-संघर्ष और देश की सांस्कृतिक-सामाजिक मनोभूमि में गहरे धँसी हुई हैं। सन् 2010 ई. में दिवंगत हुए मलखान सिंह जी की कुछ कविताएँ अभी संग्रहबद्ध नहीं हो पाई हैं। अच्छा हो कि उनके परिवारजन और आत्मीय लोग उनकी रचनावली के प्रकाशन का संकल्प लें और उनकी अप्रकाशित-असंग्रहबद्ध रचनाओं को भी उनमें सहेजा जाए।


Image : Paul Gauguin_s Armchair
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Artist : Vincent van Gogh
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