दर्पण की आत्मकथा

दर्पण की आत्मकथा

मेरा जन्म कब और क्यों हुआ, यह मैं बिल्कुल नहीं जानता, और न मुझे यही मालूम है कि किन-किन तत्त्वों से मेरा निर्माण हुआ है, किन-किन अवस्थाओं से मैं गुजर चुका हूँ और किन-किन साधनों से मैं अपनी वर्तमान परिस्थिति में पहुँचा हूँ। मुझे यह सब जानने की अधिक उत्कंठा भी नहीं। ऐसा नहीं कि ये प्रश्न मेरे मन में कभी उठते ही न हों, लेकिन इनसे मेरा क्या प्रयोजन है, यही सोचकर मैं अपनी चित्तवृत्ति को शांत कर लेता हूँ। मेरा अनुमान है कि ये विविध प्रासंगिक प्रश्न उन पंडितों के लिए ही छोड़ देना अधिक श्रेयस्कर होगा, जिन्हें वस्तु से अधिक उसके विषय में जानने की पूरी जिज्ञासा रहती है।

ऐसा नहीं है कि मैं एक निरा जड़ पदार्थ हूँ। आप अगर ऐसा सोचें तो भी मुझे अधिक आपत्ति नहीं। क्या चैतन्यं भी तार-चैतन्य-अवस्था में जड़ नहीं दिखाई पड़ता? और गति भी अति गतिशील रहने पर स्थिर? लेकिन इससे आप यह भी न समझें कि मैं अपने आप को औरों से अधिक प्रबुद्ध और भिन्न मानता हूँ। क्या स्वयं प्रबुद्धता एक जड़ता नहीं है, और जड़ता एक उच्च कोटि की बुद्धावस्था? जिन्हें हम बहुत बेसमझ समझते हैं, क्या वे ही कभी-कभी दुनिया का मार्ग-प्रदर्शन नहीं करते?

हाँ, तो अपने बारे में मैं आपको अधिक कुछ नहीं बतला सकता, और मेरा अनुरोध है कि आप भी इस विषय में अधिक छानबीन न करें। हम क्या हैं इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है हम क्या सोचते हैं या क्या करते हैं। मेरी अनुभूति मेरा जीवन है, मेरे बीते काल की परिचायक और भविष्य की निर्देशक!
मुझे लोग दर्पण के नाम से पुकारते हैं। मैं अति स्वच्छ व निर्मल हूँ। जो जैसी सूरत लेकर मुझ में झाँकेगा वह वैसी ही पाएगा। स्वरूप का दर्शन कराना ही मेरा काम है। कभी-कभी लोग मेरी निर्मलता पर भी खीझ उठते हैं। मेरा अति स्वच्छ स्वभाव भी उन्हें भाता नहीं, क्योंकि अपनी प्रतिबिंबित छवि मुझ में देखकर वे मुझसे रुष्ट हो जाते हैं और बजाए अपने आप को सुधारने के, सारा क्रोध मुझ ही पर निकाल बैठते हैं। या तो वे मुझे नीचे पटक कर चूर-चूर कर देते हैं या फिर किसी निरांत कोने में या बहुत-सी वस्तुओं के नीचे दबाकर रख देते हैं। कई लोग ऐसे भी हैं जो मुझे अँधेरे में देखना अधिक पसंद करते हैं, क्योंकि अँधेरे में रहकर मैं उनका भौंडापन स्पष्ट रूप से नहीं दिखा सकता!

लोग चाहते हैं कि मैं उन्हें उनका असली रूप न दिखाकर ऐसा स्वरूप दिखाऊँ, जिसकी वे कल्पना करते हैं। लेकिन ऐसा कब संभव है? मेरी निर्मलता उन्हें धोखा नहीं दे सकती। शायद मैं इतना स्वच्छ न होता और उन्हें अपने रूप के बारे में भुलावा दे सकता तो वे मुझसे अधिक प्रसन्न रहते। लेकिन मैं विवश हूँ। धुँधलापन मुझ में नहीं, और अगर इसलिए लोग मुझसे नाराज रहते हैं तो मैं इच्छा रखते हुए भी उन्हें प्रसन्न नहीं कर सकता। कभी-कभी जगत के व्यवहार और मनुष्य की समझ पर मुझे आश्चर्य होता है। जिस गुण के कारण संसार के हाट में मेरी कीमत लगाई जाती है, उसी गुण के कारण मुझे संसार वालों का कोप-भाजन भी बनना पड़ता है। मैं हैरान हूँ, लेकिन लाचार भी!

फिर भी मेरी यह शिकायत नहीं। कुरूप के दर्शन मैं स्वयं नहीं करना चाहता। वह अगर मुझ से दूर रहता है, चाहे रुष्ट हो कर ही सही, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। कष्ट तो मुझे तब होता है जब कि कोई भौंडी सूरत वाला मुझ में अपना घृणित रूप देख कर भी आह्लादित होता है, और मुझे बार-बार अपनी असुंदरता के ही नहीं, अपनी भद्दी कुरुचि के भी दर्शन कराता है। मैं इस कुत्सित प्रसन्नता को सहन नहीं कर पाता और बहुत चाहता हूँ कि चूर-चूर होकर गिर पड़ूँ या गिर कर ही चूर-चूर हो जाऊँ। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि वह वीभत्स व्यक्ति बड़ी मजबूती से अपने गंदे पंजे मेरे चारों ओर फैलाए रहता है!

सौंदर्य की चाह हर एक को है। यही मेरे अस्तित्व का एकमात्र कारण और मेरे जीवन की आशा है। हर व्यक्ति, चाहे वह कितना ही घृणित क्यों न हो, अपने आप को सुंदर देखना चाहता है। मेरा विश्वास भी है कि मुझे एक-न-एक दिन अवश्य उस सर्वांग सुंदर के दर्शन होंगे, जिसके लिए मैं जी रहा हूँ। मैं उसी दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ और दूसरों को भी उस स्वरूप के अस्तित्व का परिचय देता हूँ। लोग चाहे मुझे गलत समझें, लेकिन मैं हर एक को उसके सच्चे रूप के दर्शन करा कर उसी मंजिल पर पहुँचाना चाहता हूँ।

आप कहेंगे कि तुम तो जड़ हो, तुम्हें क्या प्रयोजन इस सुंदर-असुंदर की भावना से? तुम में यह व्यक्तिगत चाह और पक्षपात क्यों? तुम्हारा काम है जो जैसा है उसको उसके स्वरूप का दर्शन कराना। तुम इन व्यर्थ की वासनाओं में अपने आप को क्यों लपेटते हो? आपका कहना शायद सच हो लेकिन मैं भी अपने आप को इतना जड़ अनुभव नहीं करता। चेतन की चैतन्यता अभी मुझ में है, और अभी भी मेरा यह बोध कि मैं समझता हूँ, गया नहीं। जिस दिन प्रबोधता का यह भार भी मैं हटा सकूँगा, उस दिन शायद मेरी व्यक्तिगत इच्छाएँ, वासनाएँ न रहें, लेकिन तब तक तो मैं प्यार-घृणा के दायरे से अपने आपको ऊँचा नहीं उठा सकता। अभी तक मैं अच्छा-बुरा, सुंदर-असुंदर, सुख-दुख की भावनाओं से ग्रस्त-त्रस्त हूँ।

मैं अभी संपूर्ण जड़ नहीं। फिर भी प्रभु से मैं रोज प्रार्थना करता हूँ कि प्रभु, मुझे जड़ बना! मेरी चैतन्यता नष्ट कर! प्रबोधता का यह मिथ्या अहंकार मिटा! मैं इस भार से दबा जा रहा हूँ। व्यक्तिगत भावनाएँ मुझमें उथल-पुथल मचाती हैं, मेरी शांति भंग करती हैं, मुझे सताती हैं। तू सँभाल अपना भला-बुरा, सुंदर-असुंदर, प्यार-घृणा! मैं यह सब नहीं चाहता। मुझे तो केवल जड़ बना, विशुद्ध जड़, संपूर्ण जड़!


Image: Butter Cups Red Clover and Plantain
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Artist: Albrecht Durer
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