डिरी डोलमा (भ्रमण)
- 1 April, 1950
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- 1 April, 1950
डिरी डोलमा (भ्रमण)
“मेरी आँखों के सामने था–गौरीशंकर का वही शृंग। इस समय भी उसने अपनी बाँहें दो चोटियों के कंधों पर फैला रखी थीं। वे दोनों माँ-बेटी सी दिखती थीं। उन्हें पहचानने में मैं भूल नहीं कर सकता था। वहाँ दाहिनी ओर वाली ही थी–मेरी डिरी डोलमा!”
सामने है गौरीशंकर का शृंग! अपने अगल-बगल की दो चोटियों के कंधों पर अपनी बाहें फैलाए वह मेरी ही ओर देख रहा है। मेरे और उसके बीच इस समय कोई रुकावट नहीं है। मुझे मालूम पड़ता है जैसे एक छलाँग में ही मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा।
मैं ऐसी छलाँग लगाने से कैसे बाज आ सकता था?
पर उस ऊँचाई पर मैं नहीं पहुँच सका। जा गिरा बहुत नीचे के एक खड्ड में, गौरीशंकर के तलवे के पास।
यहाँ घना जंगल है। इतना घना कि बहुत से स्थानों पर सूर्य की रोशनी तक नहीं पहुँच पाती। दिन में ही अँधेरा-सा छाए रहता है।
इस अंधकार में रास्ता भूल जाना स्वाभाविक ही है। पता नहीं, मैं कितनी देर से इस जंगल के पार निकल जाने की कोशिश कर रहा था, पर बार-बार विफल होता था। फिर-फिर लौट कर एक ही वृक्ष के नीचे जा पहुँचता था।
आखिर मैं थक कर बैठ गया। मेरी आँखों के सामने घने जंगलों ने पट्टी-सी लगा रखी थी। गौरी शंकर का शृंग तो दूर रहा, यहाँ से एक टीला भी नहीं दिखाई देता था। मैं इस नतीजे पर पहुँचने ही वाला था कि–‘अब बस…’।
इसी समय एक गाना सुनाई देने लगा। सुर भोटिया लोगों-जैसा था, जिसमें सात के बदले पाँच ही स्वर हुआ करते हैं। पर भाषा नेपाली थी–“हिमालय चुलित्यो पल्लो पटि पर्बतै शीला छ…”
इस गाने की आवाज ने प्रथम-प्रदर्शक का काम किया। जिधर से आवाज आ रही थी, मैं उसी ओर आगे बढ़ा। एक स्थान पर कँटीले झाड़ों ने मेरा रास्ता रोक रखा था। उन्हें पार करते समय मेरे शरीर के कपड़े चीथड़े भले ही हो गए, पर मैं उस जंगल के बाहर निकल आया।
सामने का दृश्य अनोखा था। शायद देवताओं की ही आँखें वहाँ झाँकी लगाया करती होंगी।
हवा ठंडी और बड़ी तेज़। एक-एक झोंका तलवार की धार-सा। अपने चहरे पर उसकी चोट बचाने की कोशिश करता हुआ मैं आगे बढ़ रहा हूँ।
मेरी आँखों के सामने का पट खुल गया है। सामने है एक पहाड़ी, गौरीशंकर के पाँवपोश की तरह। उसी की चोटी पर बैठी वह लड़की गा रही है।
पास जाने पर देखा, उसके बदन पर काले रंग का अलखला है–जैसे भोटिया औरतें बाँधा करती हैं। उसके लंबे-लंबे बाल दो लटों में गुँथे पीछे की ओर झूल रहे हैं।
चेहरे का काट तिब्बती है, फिर भी नाक लंबी और नुकीली। होंठ, पान के आकार के, पतले हैं। गालों का रंग टभकते सेब-सा है। आँखें मंगोलियन काट की–मेरे लिए कुछ अजीब-सी।
मुझे अपने सामने खड़ा देख उसे आश्चर्य नहीं हुआ। उस समय शायद मेरे चेहरे से ही भूख टपक रही थी। वह यह समझ गई। अपनी छाती से उसने रोटी-जैसी एक चीज निकाली। बिना कुछ कहे उसने मेरी ओर बढ़ा दी। मैं खाने लगा।
उसने आकाश की ओर देखा। गौरीशंकर सफेद बादलों के बीच छिप रहा था। उस तरफ के आकाश में एक छोटी-सी खिड़की एक क्षण के लिए बन गई जिसके बीच उसका प्रमुख शृंग एक बार झाँक उठा। फिर उस ओर नीलेपन के भीतर कुछ काला-काला-सा दीखने लगा। यह अवश्य ही तूफान आने के लक्षण थे।
सहसा लड़की के अंग फड़क उठे। उसने मेरी ओर देखा। शायद कुछ रहम-सा हुआ। बोली–‘चलो, मेरे साथ!’
उसकी आवाज में भी प्रकृति-जैसी ही स्वच्छता थी। मेरे कुछ भी सोचने की जरूरत न थी।
मैं उसके साथ चल दिया।
आँधी-पानी ने हमें रास्ते में ही आ घेरा। बौछार जैसे-जैसे तेज होती जा रही थी वैसे ही वैसे उसका चेहरा खिलता जा रहा था। बिजली चमकने पर वह खिलखिलाकर हँस पड़ती। जब कड़कने की आवाज आती तो वह उत्साह से तालियाँ पीटने लगती। कुछ दूर आगे बढ़ने पर जब झरना उछलता-फाँदता दिखाई दिया तो वह नाचने लगी। आगे जब उसे पानी की धारा मिली तो वह उसकी नकल करने लगी। उसने पहले गुनगुन की आवाज में उसके साथ अपना सुर मिलाया और फिर उसी के ताल-सुर में गाने भी लगी।
रास्ते भर वह अपनी ही धुन में मस्त रही। सिर्फ एक बार उसका खयाल मेरी ओर गया। मुझे मौन देख शायद उसे कुछ आश्चर्य-सा हुआ। उसने मेरा दाहिना हाथ खींच नृत्य के ताल में उसे घुमाते हुए अपनी पहाड़ी बोली में कुछ कहा। मैं उसके शब्द नहीं समझ पाया, पर भाव स्पष्ट था–‘मौन क्यों? यही तो मौज करने का समय है! इससे बढ़कर भी क्या और कोई अच्छा समय मस्ती का आ सकता है?’
हम लोग एक विहार के सामने आ खड़े हुए। वह काठ का बना था। उसकी दीवारें हवा के जोर से थर-थर काँप रही थीं। झोंके के आने पर उसके दरवाजों और खिड़कियों के दाँत कट-कटाने लगते थे।
हमारे वहाँ पहुँचते न पहुँचते एक जोरों का झकोरा आया। उसके वेग से दरवाजे पटापट खुल गए। मेरी संगिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी।
हम लोगों ने विहार में प्रवेश किया। जब हम बरामदे में थे, भीतर के कमरे में गूँजने वाली आवाज सुनाई देने लगी–‘ॐमणे पद्महम्! ॐमणे पद्महम्!’
जप एक खास लय में चल रहा था। बाहर की वर्षा तथा आँधी से इसकी बड़ी अच्छी संगति मिल रही थी। इसकी ध्वनि के दरवाजे पर के वृक्ष से टकराने पर एक क्षीण आवाज में उसकी प्रति-ध्वनि-सी सुनाई देती थी। लगता था, मानों कितने ही भिक्षु एक साथ जप कर रहे हों।
विहार के प्रमुख कक्ष में प्रवेश करने पर हमारे ठीक सामने दिखाई पड़ी बुद्ध की एक मूर्ति। मुद्रा थी उनकी अभयदान की। उनकी भी आँखों का काट तिब्बती था। वे इस समय आधी ही खुली थीं।
उस मूर्ति की बाईं ओर गुरु पद्मसंभव और दाहिनी ओर व्रजपाणि की मूर्ति थी। इन सब मूर्तियों के सामने धूप-बत्तियाँ जल रही थीं।
उसी प्रकाश में हमें एक ओर गद्दी पर बैठे एक लामा दिखाई पड़े। वे ही इस समय वह मंत्र-जाप कर रहे थे जो हमें बरामदे से ही सुनाई पड़ा था।
हमारी आहट पा वे उठ खड़े हुए। आगे आ उन्होंने मेरी संगिनी के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया। फिर उनकी दृष्टि मेरी ओर गई। उन्हें कुछ आश्चर्य-सा हुआ। मेरा भींगा चेहरा कुछ फीका पड़ा और भयभीत-सा देख उन्होंने मुझे भगवान बुद्ध की ओर देखने का इशारा किया। मेरी संगिनी इस समय तक उनके आगे माथा टेक चुकी थी। मेरा भी मस्तक बुद्ध भगवान के पाँवों के पास जा टिका।
भगवान के हाथ मेरे सिर पर फिरते और मुझे अभयदान देते-से जान पड़े। ‘सांगे (भगवान बुद्ध) सबकी मनोकामना पूरी करते हैं!’ लामा मेरे सिर पर हाथ फेर मुझे जगाने की चेष्टा-सी करते हुए कहने लगे–‘तुम्हारी भी मनोकामना पूरी होगी।’
मेरी भी कोई मनोकामना है, मैं भूला ही हुआ था। लामा द्वारा जगा दिए जाने पर मैंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। नजर मेरी जा अँटकी उस लड़की पर जो मुझे वहाँ ले आई थी।
वह इस समय मुझे साक्षात् सौंदर्य और माधुर्य से गढ़ी गई दीख रही थी। उसके चहरे पर अब पानी की बूँदें अँटकी हुई थीं। मालूम पड़ता था जैसे उनसे उसने अपना शृंगार ही किया हो। खुशी और आनंद से उसका चेहरा इस समय भी चमक रहा था। मेरी दृष्टि अपने चेहरे पर गड़ी देख वह मुसकुरा उठी।
‘यह क्या वही है?’ मैं इस दुविधा में ही था कि मेरा हाथ खींच लामा मुझे बगल के कमरे में ले आए।
उनके हाथ मुझे कुछ काँपते-से जान पड़े।
‘वासना–’ लामा का स्वर सचमुच काँप रहा था–‘वासना पूरी करने की भीख सांगे से कभी भी न माँगना। मैं धोखा खा चुका हूँ। आज भी मैं उसी मुसीबत का मारा भुगत रहा हूँ।’
कमरे में घोर अंधकार था। काठ की छत पर पानी की बौछारें अजीब अजीब सुर निकाल रही थीं। खिड़की से आनेवाली हवा भी अजीब सिसकारी-सी भर रही थी। लगता था, जैसे वे हमें ही जगा-जगा कर बहुत-सी विस्मृत घटनाओं की याद दिलाने आई हैं।
मुझे थोड़ी थकावट थी, इसी कारण मैंने आँखें भी बंद कर लीं पर फिर भी सो नहीं सका।
उसी कमरे में लामा की भी चटाई बिछी थी। प्रकृति के झोंके उन्हें वास्तव में ही झकझोर रहे थे। पता नहीं वे अपनी भूल स्वीकार कर रहे थे, अपने ही मन को समझा रहे थे वा प्रार्थना कर रहे थे– उनकी आवाज उस काठ के मकान से भी अधिक काँपने लगी। बुदबुदाते हुए-से वे कह रहे थे–“उस समय मैं नौ वर्ष का था। भिक्षु के भड़कीले वस्त्र मुझे बड़े अच्छे लगते थे। मेरी इस रुचि का खयाल कर मेरे माता-पिता ने अपने भाइयों में मुझे ही लामा बनवाया।” लामा ने एक आह के ढंग की साँस ली–“रहने लगा मैं गुंबा (बौद्ध विहार) में। पंडित लामाओं से मैंने बहुत से धर्मग्रंथों की शिक्षा ली। उन दिनों वह शिक्षा मेरे लिए शुष्क नहीं थी।”
“तब मैं जवानी की सीढ़ियों पर चढ़ रहा था। एक दिन काजी (सिक्किम के जमींदार) की लड़की विहार में पूजा करवाने आई। मेरी दृष्टि उस पर गड़ गई। उस दिन से मैंने हजार कोशिश की, पर मेरी दृष्टि धर्मग्रंथों की ओर पहले की भाँति एकाग्र न हो पाई। मैंने सांगे के सामने बड़ी प्रार्थना की। सांगे मुझ पर प्रसन्न हुए भी दिखाई दिए। उनसे मैंने अपनी मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना की।”
“क्या? वासना की सामग्री?” उन्होंने मुझे सचेत किया।
“हाँ!” मेरे मुँह से निकला।
“एवमस्तु”
“सांगे की वाणी कभी विफल नहीं होती! अगले दिन ही मुझे एक ग्रंथ की खोज में ऊँचे पहाड़ों में छिपे एक विहार में जाना था। मेरा रास्ता था मिरगिनला (15000 फुट) होकर। जब मैं एक घाटी पर पहुँचा तो पत्थरों की बौछार-सी होने लगी। सब लोग तितर-बितर हो भाग गए। पर तुरंत ही आकाश साफ हुआ। पहली दृष्टि में ही मैं देखता हूँ कि मेरे सामने एक अपूर्व सुंदरी खड़ी है। मुझे काजी की लड़की याद आई। पर साथ ही यह भी खयाल आया कि जो मेरे सामने खड़ी थी उसके पाँवों की धूल बराबर भी शायद काजी की लड़की न होगी। किसी का सौंदर्य जब जँचने लगता है तो ऐसा ही जँचता है।”
“वह पत्थरों की आड़ में खड़ी थी। सूर्य की पहली किरणें उन पत्थरों पर पड़ रही थीं। और वे खिले कमल-से दिखाई दे रहे थे। उन खिले कमलों में से ही आविर्भूत हो रही थी वह सुंदरी। मेरे मुँह से निकला–“पेम-लामु! (कमलिनी!)”
उसने सर हिलाकर कहा–“हाँ! मैं वहीं हूँ।”
“कितने दिनों से मैं तुम्हें ढूँढ़ रहा था!”
“कहाँ?” उसने व्यंग के स्वर में कहा–“अपने विहार में या धर्मग्रंथों में?”
“अब मुझे उनकी याद न दिलाओ!” मैंने उससे विनती की–“अब मुझे तुम…”
“पर एक शर्त है” उसने बीच में ही टोका–“मानोगे?”
“अवश्य!”
“तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि मुझसे अधिक तुम और किसी को भी न चाहोगे!”
“वचन देता हूँ।” मैंने खुशी-खुशी कहा।
“ठीक?”
“हाँ, ठीक।”
“तब मैं तुम्हारे साथ रहने के लिए तैयार हूँ।”
“जिस विहार में जाने और जिन पुस्तकों की खोज करने मैं निकला था उनकी बातें मैं भूल गया। घाटी-पार के पहले गाँव में ही हमने डेरा डाला। सुंदरी मेरे साथ रहने लगी। उसका नाम और भी सुंदर बनाने के विचार से मैंने कर दिया–‘पेलाम’।”
“अब उसके लिए गहने-कपड़े जुटाने की मुझे चिंता हुई। मैं उसे तारा की मूर्ति से भी अधिक सजाए रखना चाहता था। मुझे इन बातों के लिए चिंतित देख उसी ने एक रास्ता बतलाया–“कंचनजंघा शृंग के चारों ओर जो बरफ जमी रहती है उसके नीचे बहुत-से रत्न छिपे हैं, चलो, हम उनमें से कुछ बटोर लाएँ।”
“मैं उसके साथ निकल पड़ा। क्या बताऊँ मैं उसके पहाड़ों पर चढ़ने की फुर्ती की बात! ऊँचे पत्थरों पर उसके पाँव मानो उड़ते-उड़ते चल रहे थे। बरफ आ जाने पर तो सचमुच उसके पाँवों में पंख से लग जाते थे।”
“उसे खोज अधिक नहीं करनी पड़ी। उसने अपने एक परिचित स्थान से बरफ हटाई। निकला उसके भीतर से चमकता हुआ एक हीरा। निखालिस हीरा। इसमें संदेह नहीं। उसे ले हम लोग घर लौटे।”
“उस हीरे को सौदागर के हाथ बेच हम लोग बड़े सुख से रहने लगे। उसी सुखी जमाने में उसने मुझे एक और अनमोल रत्न भेंट किया। वह है यही लड़की जो तुम्हें यहाँ ले आई है। यह भी अपनी माँ से कम सुंदरी नहीं थी, इसीलिए तारा देवी के नाम पर मैंने उसका नाम दिया–‘डिरी डोलमा’।
“मेरे वे कितने सुखी दिन थे जब वह मेरे घर आई थी। और वे सुखी दिन अधिक काल तक न रहे। न जाने वह मेरा कौन-सा दुर्भाग्य था जो फिर से घेर लाया काजी की लड़की को मेरे सामने। जीवन में पहले पहल उसी ने मेरा मन चंचल किया था। पेलाम को देख मैं उसे भूल-सा ही गया था, पर अब जब वह सामने आई तो मेरा मन फिर पहले दिन की ही भाँति बेकाबू हो उठा। पेलाम को मैंने जो वचन दिया था वह मैं भूल गया। स्त्रियों का सौंदर्य भी तो बदलता रहता है न! कौन किससे बाजी ले जाएगा, इसका भला किसे पहले से पता चल सकता है?”
“उस काजी की लड़की को मेरे हीरा बेचने की बात मालूम थी। उसने अपनी कीमत बतलाई–उसी ढंग का एक हीरा।”
“मुझे यह कोई बड़ी बात नहीं लगी। मैंने पेलाम को फिर से कंचनजंघा की बरफ पर चलने के लिए राजी कर लिया। हम जा भी पहुँचे ठीक उस पहले वाली जगह पर। वह हीरा निकालने के लिए बरफ हटाने लगी। बरफ के नीचे से चमकता हीरा भी निकलता दिखाई दिया। उसे निकालते-निकालते उसने कहा–“यह हीरा तो पहले से कहीं अच्छा है। इसे मैं स्वयं पहनूँगी।”
“न” मैंने कहा–“इसे मुझे देना है।”
“किसे? क्या इसके लिए मुझसे भी उपयुक्त और कोई है?”
“वह काजी की…”
“मेरे मुँह से पूरी बात भी न निकल पाई थी की एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई। अब तक हम दोनों बरफ की जिस एक ही चट्टान पर खड़े थे, उसमें एक दरार पड़ गई। वह मुझसे दूर हटने लगी। मैंने उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, पर उसे छू न सका। उसने वितृष्णा की एक दृष्टि मेरी ओर फेर कहा–“वचन याद नहीं? अब विदा!”
“अगले क्षण ही वह लुप्त हो गई।”
“मैंने बहुत से पहाड़ों में उसे ढूँढ़ा, पर कहीं भी पता न चला। घर लौटा तो वहाँ काजी की लड़की भी न मिली। वह तो पेलाम की ही हिकमत थी। उसी ने मेरी परीक्षा लेने के लिए काजी की लड़की का स्वरूप धारण किया था!”
“मेरा मन और भी चंचल हो उठा! वासना की सामग्री मुझे मिली, पर फिर भी मैं अतृप्त ही जो रह गया!”
“तब से मैं सांगे के सामने माथा टेक बैठता हूँ, पर मुझे शांति नहीं मिलती। बीच-बीच में निकल पड़ता हूँ उस पहाड़–बरफ से ढँके पहाड़ की ओर। हीरे-जवाहरात की खोज में नहीं! उस अनमोल हीरे–पेलाम की खोज में! जानता हूँ यह वासना का अभिशाप है जिसका वरदान मैंने स्वयं माँगा था। अब भटकता-भटकता फिरता हूँ। हमेशा भटकता रहता हूँ।”
“पर वह नहीं मिलती।”
आखिरी वाक्य कह लामा चुप हो गए। वृष्टि बंद हो गई थी, हवा भी शांत! चारो तरफ नि:स्तब्ध था। पूछने के लिए तो और कोई था नहीं, मेरा मन अपने आप से ही पूछने लगा–“और मुझे क्या वह मिलेगी?”
अगले दिन का प्रभात शायद मेरे जीवन का सबसे सुंदर प्रभात था। गौरीशंकर की सबसे ऊँची चोटी पर सूर्य की पहली किरणें अमृत ढाल रही थीं। धीरे-धीरे उसी अमृत में वह शृंग स्नान करने लगा। फिर और शृंगों की बारी आई। वे सब के सब उस स्नान से अमर बनते जा रहे थे।
फिर हम मर्त्यलोक वालों की बारी आई। इस ढंग का स्नान शायद पहले कभी और किसी ने नहीं किया होगा। लगता था, मानों सारा मर्त्यलोक ही दिव्यलोक में परिणत हो गया हो!
और डिरी डोलमा?
उसके संबंध में तो यह विश्वास करना ही असंभव था कि वह वास्तव में देवबाला नहीं है। इस पृथ्वी पर वह यों ही भूलती-भटकती आ गई है। आदमियों के व्यवहार से वह बिलकुल अपरिचित है, उनसे कहीं अधिक वह प्रकृति के निकट है।
वह पहाड़ों की ओर जाने के लिए बाहर निकली थी। जँगले से ही मैंने उसे देखा और पुकार कर कहा–‘मैं भी चलूँगा।’
लामा सांगे के सामने धूपबत्ती जला रहे थे। मुझे जाने के लिए तैयार देख उन्होंने पूछा–“किधर?”
मैंने पहाड़ों की ओर इशारा किया।
“डिरीडोलमा के साथ?”
मैंने हुँकारी दी।
“सावधान! पहाड़ों पर तुषार के बड़े-बड़े बवंडर आया करते हैं। डोलमा तो उनमें ही पली है–पर तुम…?”
बिना कुछ उत्तर दिए मैंने बुद्ध भगवान की मूर्ति को प्रणाम किया और बाहर निकल आया।
हम हिमालय के उस अंचल में जा निकले जो हमेशा ही हिम से ढँका रहता है। वहाँ उसने मुझे कई बड़े आश्चर्य की चीजें दिखलाईं। बातें वह बरफ और पहाड़, तूफान और बादलों की ही करती रही।
एक जगह ऊपर उठते समय मेरे पाँव फिसल गए। इससे हमारे नीचे के तुषार का मखमली गद्दा कुछ छिल गया। दिखाई दिए कुछ खिले हुए फूल। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसे पुकार मैंने वे फूल दिखलाए।
“उन्हें न तोड़ना”–पहली बार उसकी बोली में भय का आभास मिला–“वह हमारे लिए अभिशाप हो जा सकता है।”
“अभिशाप?”
“हाँ, जैसा मैंने सुना है, मैं तो उसे अभिशाप ही कहूँगी। यह फूल ले लेने पर प्रकृति की ओर से मन विमुख हो जाता है और उस ओर दौड़ने लगता है जिसे आदमियों की दुनिया में सबसे बड़ा सुख गिना जाता है। आदमी मन में एक अजीब प्रकार की बेचैनी अनुभव करता है, पर उसी का नाम वह देता है–सुख। फिर जैसे ही तुम उस मानसिक सुख का घेरा बाँध उसे स्थूल शारीरिक सुख के रूप में अनुभव करना चाहोगे, ये फूल सूख जाएँगे। तब एक बहुत बड़ा अनिष्ट आ घटेगा। उस समय तुम कल्पना में भी भूल जाओगे कि कभी तुम भी सुखी थे। यह क्या अभिशाप नहीं?”
“पर उसके पहले कुछ देर के लिए तो सुख अनुभव करूँगा?”
“हाँ, कुछ ही देर के लिए।”
“जीवन में मैंने कभी भी तो सुख अनुभव नहीं किया, क्यों न उसे भी एक बार आजमा देखूँ!” यह कहते हुए मैंने दो फूल तोड़ लिए। एक मैंने अपने हाथ में रखा और दूसरा दिया उसे।
उसकी प्रकृति जादू की भाँति पलट गई। भाव की कमी के कारण दीखने वाला रूखापन उसके चेहरे से जाता रहा। अभी कुछ देर पहले दीखता था मानों आदमियों के भाव-जगत् से उसकी कभी भेंट ही नहीं, पर अब दीखने लगा मानों उसका उसी जगत् में जन्म हुआ और उसी में विकास होता रहा है।
सुख?
मेरे लिए कल्पना के सुख से भी अधिक मधुर और प्रिय। उसके चेहरे पर बरफ के तूफान के समय से भी अधिक आनंद!
“क्यों न यही सुख स्थायी रहे?” मैं उससे पूछने लगा।
वह काँप उठी।
“यहाँ बहुत से रत्न छिपे हैं। ढूँढ़ने पर हमें भी कुछ मिल ही जाएँगे! उन्हें लेकर हम लौट चलें आदमियों की दुनिया में। उतना सुखी जीवन तो शायद नीचे की दुनिया के किसी आदमी ने कल्पना में भी न देखा होगा।”
वह कुछ न बोली। मैंने समझा, शायद उसे मेरा प्रस्ताव पसंद नहीं। मैं उसे पकड़ अपनी ओर खींच लाया। उसने आपत्ति नहीं की।
उसका स्पर्श कितना कोमल था। बरफ के नीचे उगे फूल देख मुझे जितना आश्चर्य हुआ था, इस समय उससे भी अधिक चकित हो उठा। मैंने कभी खयाल भी नहीं किया था कि सदा पहाड़ों में घूमती रहने वाली इतनी स्निग्ध और रूई के फाहे की तरह नरम हो सकती है।
उसकी बाँह सिर्फ एक क्षण के लिए मेरी गरदन अपनी ओर खींच पाई थी। मेरी नजर उसके हाथ के फूल पर पड़ी।
वह मुरझा चला था।
हमारे सामने का दृश्य ही बदल गया। एक क्षण पहले जो प्रकृति हँस-हँस कर बातें करती दीखती थी, उसी ने महाविकराल रूप धारण कर लिया। हमने जैसे उसका सबसे बड़ा अनिष्ट किया हो।
हू-हू कर हवा चलने लगी। वह अपनी फूँक से ही हमें नीचे लुढ़का देना चाहती थी। उससे भी जब हम विचलित होते न दिखाई दिए तो वह अपना स्वर कर्कश से कर्कश बना मानों हमें डपट कर वहाँ से चले जाने का हुक्म देने लगी।
उधर गौरीशंकर शृंग ने भी हम पर आक्रमण शुरू किया। पहले उसने तुषार के कणों से हमारे चेहरे पर आघात किया। वे हमें गोलियों-जैसे लगे। उनसे भी जब हम विचलित न हुए तो वह ऊपर से पत्थर और फिर चट्टान पर चट्टान हमारी ओर लुढ़काने लगा। उन चट्टानों के टकराने की आवाज हजार तोपों के एक साथ छूटने-जैसी थी।
अब हमें अनुभव होने लगा कि हमने वास्तव में ही शंकर के ध्यानस्थल में पहुँच कर उनकी समाधि में विघ्न डालने की धृष्टता की है।
“मैंने तुम्हें सावधान किया था न?” कहीं बहुत दूर से लामा कह रहे थे।
कितनी कोशिश करने पर भी मेरी आँखों के सामने सांगे भगवान की अभयदान देने वाली मुद्रा नहीं आ रही थी।
उन सब के खिलाफ़ मैं कुछ देर तक संघर्ष करता रहा। वे मेरी पकड़ से उसे छुड़ा ले जाना चाहते थे। मैं उसे छोड़ने के लिए राजी नहीं था।
उस तूफान में वह पत्ते की तरह काँप रही थी। अपने संघर्ष के सिलसिले में उसने एक क्षण के लिए कस कर मेरा आलिंगन किया–शायद मेरे साथ जकड़े रहने के खयाल से।
पर अगले क्षण ही किसी बिजली के जैसे झटके ने उसे मुझसे दूर फेंक दिया। वहाँ उसके पाँवों के नीचे का तुषार हटने लगा। वह नीचे जाने लगी। एक पत्थर उसकी पकड़ में आया। एक क्षण के लिए वह रुकी। उसकी आखिरी दृष्टि मेरी ही ओर थी।
फिर उस पत्थर ने भी जवाब दे दिया!
वही तूफान मुझे बेहोशी की हालत में ही लुढ़काता-पुढ़काता नीचे ले आया। आँखें खोलने पर मैंने देखा–सब शांत हो चुका था।
मेरी आँखों के सामने था–गौरीशंकर का वही शृंग। इस समय भी उसने अपनी बाँहें दो चोटियों के कंधों पर फैला रखी थीं। वे दोनों माँ-बेटी-जैसी दीखती थीं। उन्हें पहचानने में मैं भूल नहीं कर सकता था। वहाँ दाहिनी ओर वाली ही थी–मेरी डिरी डोलमा।
वह मानो मेरी ही ओर देख रही थी। यह दृष्टि ठीक उसकी उस दिन की आखिरी दृष्टि-जैसी ही थी।
मैं उस ओर और नहीं देख पाया।
लौट पड़ा पीछे की ओर।
Image Source: WikiArt
Artist: Nicholas Roerich
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