ईमानदारी का लेखन

ईमानदारी का लेखन

वक्तव्य

मंच पर आसीन सभी आदरणीय गुणीजन–आप सबको मैं अंजु रंजन जोहान्सबर्ग से प्रणाम करती हूँ। आज इस पुरस्कार समारोह में उपस्थित न हो पाने का मुझे उतना ही दुःख हो रहा है जितना कि भाई के विवाह में मायके न पहुँच पाने की पीड़ा किसी विवाहित बहन को ताउम्र सालती होगी। पर, मेरे लेखन में आप सबकी कृपादृष्टि, आशीर्वाद और मार्गदर्शन निरंतर बना रहे–यही कामना करती हूँ।

कोरोना महामारी ने कितनी कुरबानियाँ लीं–इससे कितनी तबाही आई और कितने घर बरबाद हुए–इसका सिर्फ अपने-अपने तरीक़े से अनुमान ही लगाया जा सकता है। मेरे आस-पास कोरोना का सैलाब था। दक्षिण अफ्रीका में लेवल पाँच का पूर्णकालिक लॉकडाउन घोषित कर दिया गया था। छब्बीस मार्च दो हजार बीस से हम सब घरों में रहने को विवश थे। पर एक डिप्लोमैट और कॉन्सल जनरल की जिम्मेदारी इन मुश्किल समय में और भी बढ़ जाती है।

मुझे इस बात का तीव्र अहसास तब हुआ जब लोगों के फोन आने लगे–ख़ासकर वहाँ पढ़ रहे छात्रों के। चूँकि लॉकडाउन में सारे हॉस्टल और कॉलेज बंद हो गए थे–उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। वे सड़क पर आ गए थे।

मुझे स्थानीय प्रशासन से स्पेशल परमिट लेकर ऑफिस आना पड़ा। पर वह परमिट लाने के लिए मेरे ड्राइवर को मेयर ऑफिस जाना था–वहाँ आर्मी के जवानों ने उसे रोक लिया। फिर दुनियाभर की अफ़रा-तफ़री और विदेश मंत्रालय के इंटर्वेन्शन के बाद सारे डिप्लोमैट को स्पेशल पास दिए गए ताकि वे ऑफ़िस खोलकर अपने देशवासी की मदद कर सकें।

यूएसए और ब्रिटेन ने अपने नागरिकों के लिए स्पेशल फ्लाइट्स भेजे और लोगों को वापस बुलवा लिया। इसने मुझे भी आईडिया दिया और मैंने भी दिल्ली को लिखा कि वे भी दक्षिण अफ्रीका में फँसे हुए भारतीय को निकालने के लिए स्पेशल फ्लाइट्स की व्यवस्था करें। इस तरह की डिमांड और सिफारिश कई देशों से पहुँची तब भारत सरकार ने ‘वंदे भारत’ मिशन लॉन्च किया जिसके तहत एयर इंडिया और दूसरे अलाइयन्स के साथ मिलकर विदेश में फँसे भारतीयों को निकालना था। उन्हें सुरक्षित भारत पहुँचाना था। इसी प्रकार अंटार्कटिका से रिसर्च के बाद लौट रहे छब्बीस भारतीय तीन महीने से पोर्ट पर फँसे थे–उन्हें लैंड नहीं करने दिया जा रहा था और उनको भारत भेजना अनिवार्य था। ये लोग सालभर के लिए रिसर्च करने अंटार्कटिका जाते हैं–अकेले परिवार से दूर–यह मिशन इतना कठिन है कि हमारे कई वैज्ञानिक वहाँ शहीद भी हो चुके हैं। और भी कई बिजनेस ग्रुप आकर फँस गए थे। लोग अधिक थे और फ्लाइट्स कम। फिर बीच की सीट को सोशल डिस्टेंसिंग के कारण उसे खाली छोड़ना अनिवार्य था–इसलिए हरेक फ्लाइट में मुश्किल से दो सौ लोग लिए जा रहे थे। इसके साथ ही भारत पहुँचने पर उनके क्वारंटीन की व्यवस्था भी करवानी थी। ऐसे में मुझे बहुत काम करना पड़ा।

जोहान्सबर्ग को सभी शहरों का असेंबली प्वाइंट बनाया गया। मतलब पूरे साउथ अफ्रीका के भारतीय हमारे कॉन्सलट के प्रांगण में एकत्रित हुए और वहीं पर उनका कोविड टेस्ट हुआ, उन्हें खाना दिया गया–मास्क और हेडबैंड व सेनिटाइजर पकड़ाए गए–यह फोटो खींचकर तुरंत ट्विटर पर पोस्ट करना भी एक महत्त्वपूर्ण काम था। उसके बाद सभी यात्रियों को बस में बिठाकर एयरपोर्ट ले जाना–वहाँ उन्हें उसी प्रक्रिया से एयरपोर्ट अथॉरिटी द्वारा दुबारा गुजारा जाता था। हमने कारों से तीन हजार लोगों को भारत पहुँचाया जो दक्षिण अफ्रीका में फँसे हुए थे। दिन-रात बाहर रहकर इक्सपोज होना बहुत आसान था और उसके बाद मुझे और मेरे ऑफिस के करीब साठ प्रतिशत लोगों को कोविड हो गया। पर भारत पहुँचाए गए लोगों की शुभेच्छाएँ और आशीर्वाद मेरे साथ थे कि उनके पुण्य से कोई कैजुअल्टी नहीं हुई और हम सब ठीक हो गए। कोरोना के दौरान भी जिंदगी आसान बिलकुल न थी। मैं अकेली तीन बच्चों के साथ यहाँ रह रही हूँ और नौकरी, घर व बच्चे सँभाल रही हूँ। अचानक पहले फेज में कोविड हो जाय–तो लोग कितना पैनिक हो जाते हैं। मेरे ड्राइवर, सिक्योरिटी गार्ड और अन्य लोग भाग खड़े हुए। मेरे घर के आगे आर्मी घेरा डालकर खड़ी थी कि कहीं हमलोग बाहर निकलकर कोरोना फैला तो नहीं रहे! ऐसे में बड़ी बिटिया की छमाही परीक्षा भी थी। दो पेपर तो उसने ऑनलाइन कोविड पॉजिटिव रहते हुए लिखे, क्योंकि मैंने उससे झूठ कह दिया कि उसका कोविड टेस्ट नेगेटिव आया है। वह बार-बार कहती कि–‘ममा मेरा शरीर बहुत दर्द कर रहा है और मुझे जोरों की कँपकँपी हो रही है ‘तब मैं ऊपर से हँसकर टाल जाती कि साधारण फ़्लू में भी ऐसा होता है पर मैं भीतर से डर जाती–‘हे भगवान! मेरी बच्ची की रक्षा करो।’

मुझे भी कोविड था और उस दौरान मैं ऐसे ही कितने डर और डिलेमा से गुजर रही थी–चैन नहीं आ रहा था। पूरे शरीर में कमजोरी व्याप रही थी–छोटे बच्चों को भी अलग नहीं कर सकती थी क्योंकि कोई भी देखभाल के लिए नहीं था! उस मन:स्थिति में सारी बातों को लिखने में बेहद राहत महसूस किया। उसी का परिणाम है–‘मेरी कोरोना डायरी।’ यह परंपरागत डायरी है कि नहीं यह तो विषेषज्ञ और पाठक तय करेंगे–पर उसके सारे प्रसंग सौ प्रतिशत सच्चे हैं–ईमानदारी से लिखे गए हैं। मैं ‘नई धारा’ को धन्यवाद करती हूँ कि उन्हें मेरी कोरोना डायरी पसंद आई और उसे ‘नई धारा रचना सम्मान’ के लिए चुना। यह मेरे लिए बेहद गर्व और सम्मान की बात है।

मैं आदरणीय डॉक्टर शिवनारायण जी को प्रणाम करती हूँ और धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने मुझे बहुत स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन किया है–आज इस पुनीत बेला में स्वयं सम्मान ग्रहण करने नहीं आ पा रही हूँ–तो कोरोना के ही चक्कर में! पर आशा करती हूँ कि उनका मेरे प्रति स्नेह और गार्जियनशिप हमेशा बना रहेगा। मैं डॉक्टर प्रमथ राज सिंह जी का भी बहुत धन्यवाद करती हूँ। आशा थी कि इस बार उनसे मिल पाऊँगी पर अभी तो बहुत जिंदगी और मायके शेष हैं–आपके आशीर्वाद के लिए जल्दी पहुँच पाऊँगी–ऐसी कामना करती हूँ। अंत में सभी अग्रजों को प्रणाम करती हूँ और पुरस्कार चयनकर्ताओं का भी हार्दिक धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने मुझ जैसी नवोदित लेखिका को इस सम्मानित पुरस्कार के लिए चुना। आप सबसे जल्दी ही मुलाक़ात होगी।


Image Source : Nayi Dhara Archives

अंजु रंजन द्वारा भी