एक लेखिका की कैंसर डायरी

एक लेखिका की कैंसर डायरी

बीते दिनों मैं सुप्रतिष्ठित कथा लेखिका नीलम पांडेय से मिलने गया था। उनसे मेरा सरोकार 1985 से ही रहा है। 1987 या 88 में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सात फेरों वाला घर’ आया था, जिसका लोकार्पण शिवानी ने किया था। नीलम जी की कहानियों में रिश्तों की बुनावट इतनी महीन होती है कि आप उसे पढ़ते-पढ़ते उसी में उलझ जाने को खुद को विवश पाते हैं। उनसे मिलने पर उनकी एक डायरी हाथ लगी। उसके कुछ पन्ने यहाँ उनकी अनुमति से प्रकाशित किए जा रहे हैं। –संपादक


यही मई है और यही मुंबई। फर्क बस 17 और 18 का है…तब की डरी सहमी जिंदगी…आशंकित मन मिज़ाज…कब कौन सा क्षण आखिरी होगा..3 शिल्पायन मई 2017 को मेरी पहली कीमोथेरेपी होनी थी…मुझे किस स्टेज का कैंसर है…मेरे पास कितना वक़्त है…इसका स्पष्ट जवाब मुझे कोई नहीं दे रहा था…मुझे याद आ रही थी, छोटी बहन गीता जो अपने पहले कीमो के ठीक पाँचवे दिन ‘है’ से ‘थी’ हो गई थी…मेरा भी अंत शायद ऐसे ही होना है…मन में जीने की उद्दाम लालसा के बावजूद मैं आगत मृत्यु के लिए खुद को तैयार कर रही थी। शरीर में शक्ति न के बराबर रह गई थी। व्हील चेयर पर हॉस्पिटल पहुँची और अनिल, सुनील और सचिन ने सहारा देकर मुझे डॉ. शिल्पा के सामने बैठा दिया। निक्की, मेरे छोटे भाई की पत्नी इस सारी प्रक्रिया के बीच मेरा हाथ पकड़े रही। डॉ. शिल्पा ने मुझे बोन मैरो टेस्ट और कीमोथेरेपी प्रक्रिया, उस दौरान होने वाले दर्द के बारे में तीन-चार वाक्यों में कुछ बताया और फिर पूछा और कोई सवाल? कोई सवाल नहीं…आपके हवाले हूँ बस…जो चाहे कीजिए। समर्पण भाव क्या होता है…शायद पहली बार महसूस कर रही थी…डॉक्टर ने बड़ी करुणा भरी दृष्टि से मुझे देखा और फिर पूछा…कोई सवाल नहीं?…नहीं, मेरा जबाब तब भी यही था…निराशा की पराकाष्ठा…अब अंतिम दिनों में कैसे सवाल? सौंप दिया सब प्रभु के हाथ…वही जिलाएँगे…वही मारेंगे…और मैं ऑपरेशन टेबल पर थी…बोन मैरो टेस्ट के लिए…कीमोथेरेपी के लिए…!
अब ऑपरेशन कक्ष में…सामने डॉ. शिल्पा और उनकी टीम…असहाय सी मैं…लोकल एनेस्थीसिया के लिए मेरुदंड में इंजेक्शन की चुभन से मैं छटपटा गई…पर यह तो सिर्फ शुरुआत थी…अभी तो बोन मैरो टेस्ट के लिए मुझे दर्द की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना बाकी था…लोकल एनेस्थीसिया के बावजूद बोन मैरो टेस्ट के लिए इंजेक्शन जब रीढ़ की हड्डी में चुभाया गया तो लगा जैसे तरल आग ही मेरे मेरुदंड में प्रवाहित की जा रही हो…मेरी साँस रुक सी गई…याद आया, कल ही तो शेरॉन ने कहा था…जब दर्द असहनीय हो जाय तो लंबी और गहरी साँस लेना और छोड़ना…वही करने लगी…अपने इष्ट देव शिर्डी के साईनाथ से प्रार्थना की…मुझे इस दर्द को सहने की शक्ति दें…अब मेरी हर आती-जाती साँस में बाबा साईनाथ थे…लगभग 25-30 मिनट यह प्रक्रिया चली…पर्याप्त मात्रा में बोन मैरो का द्रव निकाल लिया गया…इसी द्रव की जाँच से यह तय होता कि कैंसर ने मेरे किन-किन अंगों को किस हद तक क्षतिग्रस्त किया है…प्रक्रिया पूरी होने पर मुझे ऑपरेशन कक्ष से आई.सी.यू. में ले आया गया…यहाँ थोड़ी देर को परिवारजनों के चेहरे दिखे जिससे तसल्ली हुई…सचिन मेरा हाथ सहलाते हुए मुझे कीमोथेरेपी के लिए तैयार कर रहा था…अब उसी की बारी थी…पर मैं उसका सिर्फ स्पर्श महसूस कर रही थी…उसके शब्द मेरे कानों तक नहीं पहुँच पा रहे थे…मैं सोच रही थी…क्या जीवन का अंत यों ही होना है बिस्तर पर पड़े-पड़े…मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए…अपर्णा याद आ रही थी…वह पटना में और मैं यहाँ मुंबई में…क्या अब मैं उसे कभी नहीं देख पाऊँगी…मात्र आठ साल की तो है वह…मुझसे इतनी जुड़ी हुई कि माँ कहती है…माँ मानती है…कैसे झेल पाएगी मेरे नहीं रहने की पीड़ा…मेरी आँखों से धारदार आँसू बह रहे थे…निक्की ने पूछा…बहुत दर्द हो रहा है दी…क्या कहती उसे…दर्द तो हो रहा था शरीर से कहीं ज्यादा मन में…।
अब कीमोथेरेपी होनी थी…मन में आशंकाएँ तो कई थीं…पर मुझे जीना है, इस निश्चय के साथ मैंने बाबा साईनाथ से शक्ति देने की प्रार्थना करते हुए खुद को इसके लिए तैयार कर लिया…नर्स ने कलाई में इंजेक्शन लगाकर सलाईन चढ़ाना शुरू किया…इसकी मैं अभ्यस्त थी इसलिए यह सामान्य प्रक्रिया थी मेरे लिए…दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में 20 मार्च से 6 अप्रैल 2017 तक, पूरे 17 दिन तक इसी तरह से तो मेरे शरीर में डायबिटीज, ब्लड प्रेशर तथा अन्य दवाएँ दी जाती रही थीं। (यह एपिसोड बाद में) सो मैंने सहज भाव से ही लिया, बल्कि इस बीच नर्स से बातें भी करती रही…करीब 20-22 मिनट के बाद अचानक जलन की एक तीखी लहर मेरी हड्डियों, मेरी मांसपेशियों, मेरे पूरे शरीर में फैल गई…बचपन में एक बिच्छू ने काटा था मुझे, उसकी जलन याद थी…आज लग रहा था जैसे सैकड़ों बिच्छूयों ने एक साथ काट लिया हो…या मुझे जिंदा जलाया जा रहा है…अपने को चीखने से मैं रोक नहीं पाई…मेरी तेज चीख से शायद पूरा वातावरण ही गूँज गया होगा…यह कीमोथेरेपी थी…नर्स ने कब सलाईन का पाइप निकाल कर कीमो का इंजेक्शन लगा दिया था, यह मैं देख नहीं पाई थी…तकरीबन 4-5 मिनट दर्द की यह जानलेवा स्थिति बनी रही, फिर धीरे-धीरे पीड़ा कम होते-होते समाप्त हो गई और नॉर्मल तरीके से सलाईन चढ़ने लगा। करीब सवा घंटे में कीमोथेरेपी का पहला साइकल पूरा हो गया। फिर भी एहतियात के लिए मुझे एक घंटे और आई.सी.यू. में ही रखा गया। इसके बाद मुझे घर ले जाने की अनुमति दे दी गई। अब मेरी डॉक्टर को यह देखना था कि इस कीमोथेरेपी के प्रति मेरी देह कैसे प्रतिक्रिया करती है, साथ ही बोन मैरो टेस्ट के रिपोर्ट की भी प्रतीक्षा की जा रही थी।
पूरा एक सप्ताह बीत चुका था। आज भी गुरुवार का दिन था। आज कीमोथेरेपी की दूसरी साइकल होनी थी पिछले सप्ताह की कीमोथेरेपी को मेरी देह ने बड़े ही सकारात्मक तरीके से स्वीकार किया था। कीमोथेरेपी के साइड इफेक्ट्स के कोई नकारात्मक लक्षण मुझमें दिखाई नहीं दे रहे थे। न तो मेरा पेट खराब हुआ, न वमन की शिकायत और न ही चक्कर आने जैसी कोई और बात। शारीरिक कमजोरी जरूर पहले की ही तरह बनी हुई थी। तब भूख न के बराबर रह गई थी–लंच हो या डिनर एक चम्मच चावल और एक चम्मच दाल यही मेरा पूरा भोजन था। पिछले 20-25 दिनों में मेरा वजन 73 किलो से घट कर 58 कि.ग्रा. हो चुका था। इस बीच बोन मैरो टेस्ट की रिपोर्ट भी आ चुकी थी। कैंसर कोशिकाएँ अभी तक मेरी किडनी तक नहीं पहुँच पाई थी। यह बहुत बड़ी राहत की बात थी। यानी मेरा कैंसर अभी तक थर्ड स्टेज का ही था। अब मेरी डॉक्टर भी थोड़ी उत्साहित दिख रही थी। परिवारजनों के चेहरों से चिंता और बेबसी की लकीरें भी कुछ कम हो चली थी। भाई ने कहा–‘दीदी हम सब बहुत लकी हैं। तुम बाल-बाल बच गई। कैंसर ने अभी तक तुम्हारी किडनी को नहीं छुआ है। अब इलाज बहुत मुश्किल नहीं है।’ पर इन सब बातों का मुझ पर कोई बहुत ज्यादा असर नहीं होता था…मुझे लगता था–सब मुझसे झूठ बोल रहे हैं। सारे भाई, भाभियाँ, डॉक्टर सब ऐसे ही बोलते हैं। ऐसे ही तो दो साल पहले हमने गीता (मेरी छोटी बहन) को कहा था कि उसे फर्स्ट स्टेज का कैंसर है और चिकित्सा कराने से, कीमोथेरेपी कराने से ठीक हो जाएगा। जबकि उसका लास्ट स्टेज था और पहली कीमोथेरेपी के मात्र पाँच दिन बाद ही दर्द से तड़पते हुए उसने प्राण त्याग दिए थे। उसकी अंतिम साँसों की साक्षी थी मैं। मन आशा-निराशा के बीच झूल रहा था। कोई अंदर से कहता–‘अभी न होगा मेरा अंत।’ मेरी कीमोथेरेपी हर सप्ताह होनी थी। आज दूसरा चक्र हुआ। सब कुछ पिछली बार की तरह ही हुआ, फर्क बस इतना कि इस बार मैं दर्द से चीखी नहीं बस दाँत भींच कर लंबी-लंबी साँस लेते और छोड़ते हुए इस पीड़ा को झेल लिया। पिछले बार के अनुभव से आश्वस्त थी कि चार-पाँच मिनट में ही यह दर्द समाप्त हो जाएगा। और ऐसा ही हुआ भी।
कीमोथेरेपी के चौथे साइकल के साथ मेरी तबीयत सुधरने लगी थी। हालाँकि अभी तक मैं व्हील चेयर पर ही चलती थी। पर इसकी वजह कैंसर से कहीं ज्यादा विगत 30 मार्च 2017 को हुआ मेरा Hip Bone Replacement का ऑपरेशन था। क्योंकि मेरे चेहरे पर जीवन के लक्षण अब दिखने लगे थे। मेरे भोजन की मात्रा भी अब एक चम्मच से बढ़ कर एक छोटी कटोरी तक हो गई थी। धीरे-धीरे खाने-पीने के प्रति रुचि भी बनने लगी थी। विटामिन, आयरन और calcium के इंजेक्शन मेरी मृत शिराओं में जीवन रस बनकर बहने लगे थे। एक और अच्छी बात यह हुई कि मेरी डॉक्टर ने बताया कि मल्टिपल माइलोमा (जो कैंसर मुझे था) सामान्यत: 70 की उम्र के बाद होता है। चूँकि मुझे जल्दी हो गया है अतएव चिकित्सा में बहुत मुश्किल नहीं होगी। पर कम-से-कम 16 साइकल कीमोथेरेपी की होगी। इसके पश्चात ही आगे की चिकित्सा प्रक्रिया तय की जाएगी। मित्रों और शुभचिंतकों के फोन कॉल, whatsapp मैसेज मेरा मनोबल निरंतर बढ़ा रहे थे। कीमोथेरेपी के चौथे साइकल के बाद मैंने पहली बार facebook पर कैंसर और कीमोथेरेपी से संबंधित पोस्ट डाली तो गुरुजनों के आशीष और मित्रों की शुभकामनाओं ने मन प्राण को एक नई ऊर्जा से भर दिया। एक विश्वास जगा। एक निश्चय…मुझे इस कैंसर से आखिरी साँस तक जूझना है और जीतना भी है। मैं धैर्य पूर्वक कीमोथेरेपी के सारे साइकल कंप्लीट करने की प्रतीक्षा करने लगी। हालाँकि देह ने चौथे साइकल के बाद थोड़ी बगावत शुरू कर दी थी। दोनों पैरों के तलवों में हर समय तीखी जलन बनी रहती थी। डॉक्टर ने इस जलन को कम करने के लिए दवा तो दी थी पर वह बहुत ज्यादा काम नहीं कर रही थी। मैं कभी तलवों में कोल्ड क्रीम की मालिश करवाती, कभी आइस पैक लगवाती और कभी बाल्टी में खूब ठंडा पानी भर कर तलवों को डुबाए रखती…सबसे बड़ी राहत की बात यह थी कि मुझे हॉस्पिटल में रहना नहीं पड़ता था, कीमोथेरेपी के बाद मैं घर लौट आती। यहाँ ज्यादातर मैं सोती रहती। निक्की ने डॉक्टर की सलाह से मेरा डाइट चार्ट बना डाला था और उसके अनुसार हर दो घंटे के बाद मुझे जबरन कुछ-न-कुछ खिला या पिला देती थी और मैं इस उम्र में, उन सब से बड़ी होने के बावजूद ना नुकुर करती या गुस्से में मुँह फूला कर बातचीत भी बंद कर देती थी। बहुत गुस्सा आता था। चिड़चिड़ापन बना रहता था।
जैसे-जैसे कीमोथेरेपी के साइकल बढ़ रहे थे मेरे तलवों की जलन बढ़ती जा रही थी। दवा से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा था। डॉक्टर को कहती तो उनका जवाब होता–‘कीमोथेरेपी में ऐसा होता है। इसे बर्दाश्त करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।’ पर इस दर्द और जलन के बीच एक अच्छी बात यह हुई कि अब मैं अपने पैरों से कुछ कदम चलने लगी थी। ऑपरेशन हुए दो माह से ज्यादा हो चुके थे। मेरी physiotherapist ने पहले सहारा देकर फिर खुद से दीवार पकड़ कर चलना सिखाया। चार-पाँच दिन में ही मैंने दीवार का सहारा लेना छोड़ दिया और अपने पैरों से चलने लगी। बेशक कदम बहुत छोटे-छोटे होते थे। सौ-डेढ़ सौ कदम से ज्यादा मैं चल भी नहीं पाती थी फिर भी खुश कि मेरे पैर मुझे वापस मिल गए। पूरे दो महीने तक बिस्तर पर पड़ी रही थी। उस दौरान अक्सर लगता था कि अब कभी अपने पैरों से चल नहीं पाऊँगी। व्हील चेयर पर ही अब जिंदगी कटेगी। अपने पैरों से चल सकने के एहसास से थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ा। हालाँकि हॉस्पिटल के गेट से कीमोथेरेपी कक्ष तक की दूरी अभी भी व्हील चेयर से ही तय कर पाती थी। फिर भी बढ़ते आत्मविश्वास ने कीमोथेरेपी के प्रति मुझे सकारात्मक बना दिया था। अब यह मेर लिए एक रूटीन प्रक्रिया हो गई थी। हर सप्ताह गुरुवार के दिन निक्की के साथ हॉस्पिटल जाना और कीमोथेरेपी कराना। वह पाँच मिनट वाला तीखा तेज दर्द तो अब भी होता था पर उसके पहले और बाद में कीमोथेरेपी के दौरान मैं खुश ही रहती और बड़े आराम से नर्सों से बातचीत करते हुए गुजार लेती। नर्सें भी अब मुझे पहचानने लगी थीं। एक वाकया याद आ रहा है, शायद आठवें साइकल की बात है। कोई नई नर्स थी। कीमोथेरेपी कक्ष में मुझसे पूछा कि पेशेंट कहाँ है। मेरे यह बताने पर उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मुझे कैंसर है और मेरी ही कीमोथेरेपी होनी है। खैर डॉक्टर ने उसकी दुविधा दूर की। इन दिनों कीमोथेरेपी के दौरान एक और परेशानी यह आ रही थी कि दवा inject करने के लिए मेरी नस ही नहीं मिलती थी जल्दी। जहाँ inject किया जाता, वही जगह फूल जाती और वहाँ से इंजेक्शन निकालना पड़ता। पाँच-छह बार के ऐसे निष्फल प्रयास के बाद सही नस मिलती तब जाकर कीमोथेरेपी की प्रक्रिया पूरी होती…इससे बहुत तकलीफ होती थी। मुझे गुस्सा भी आ जाता था और मैं नर्सों पर चिल्लाती थी कि उन्हें इंजेक्शन लगाना नहीं आता…पर एक बार जब सही जगह पर दवा inject हो जाता तो मेरा क्रोध शांत हो जाता और मैं नर्सों से चिल्लाने के लिए सॉरी भी कह लेती…कीमोथेरेपी की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर घर लौटते समय निक्की मुझे खुश करने के लिए नैचुरल्स में मेरे पसंदीदा फ्लेचर टेंडर कोकोनट का आइसक्रीम खिलाती और तब हम घर आते। मुझे अच्छा लगता था यह सब और कुछ समय के लिए मैं भूल ही जाती कि मुझे कैंसर भी है। एक बात जो इस दौरान बड़ी शिद्दत से मैंने महसूस की कि घर हो या हॉस्पिटल हर जगह हर व्यक्ति इस बात का खयाल रखता कि मेरा मूड खराब न हो या मैं खुश रहूँ। शायद खुश रहना भी कैंसर की एक दवा है।
जिंदगी गुजर रही थी आहिस्ता-आहिस्ता। पर हर नया दिन अब मुझे नई ऊर्जा देने लगा था। कीमोथेरेपी का हर अगला साइकल मुझे सामान्य जीवन, एक नॉर्मल लाइफ की ओर अग्रसर कर रहा था। बेहद सकारात्मक भाव से मैं गुरुवार की प्रतीक्षा करती, जबकि कीमोथेरेपी होती थी। इसका डर अब मेरे मन से पूरी तरह से निकल चुका था। निश्चित मृत्यु के काले अँधेरे की जगह अब जीवन का प्रकाश मिलने लगा था मुझे। इसके लिए कीमोथेरेपी का दर्द झेलना बहुत छोटी बात लगती थी। पैर के तलवों में जलन अब भी होती थी पर उसके साथ जीना सीख लिया था मैंने। सोचती कि लोगों को तो कीमोथेरेपी की प्रतिक्रिया से कितनी-कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी वमन होता है तो कभी पेट खराब हो जाता है। कभी सर के सारे बाल गिर जाते हैं। मेरे साथ तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। बस जलन ही तो है, झेल लूँगी। दर्द और जलन के प्रति मेरे इस स्वीकार या समर्पण भाव ने दर्द को झेलने में मेरी बड़ी सहायता की। इन दिनों नींद बहुत ज्यादा आती थी। बिस्तर पर जाते ही, चाहे कोई भी वक़्त हो, सुबह, दोपहर, शाम या रात मुझे तुरंत नींद आ जाती थी और इस नींद में जाने की प्रक्रिया को भी मैं खूब महसूस करती। मैं जगे रहने की कोशिश करती पर नींद मुझे बेबस कर देती। शरीर शायद अपनी अंदरूनी मरम्मत कर रहा था। पर मन ही तो है, आशा-निराशा के खेल चलते रहते। कभी-कभी मुझे इस नींद से भय लगता। ये जो न चाहते हुए भी मैं ऐसी गहरी नींद सो जाती हूँ यह कहीं मृत्यु का पूर्वाभ्यास तो नहीं है? कहते हैं कि नींद छोटी मृत्यु है और मृत्यु कभी न टूटने वाली बड़ी नींद। मैं आशंकित रहती, ये जो नींद मुझे आ रही है क्या इसके बाद आँख खुलेगी या यह नींद ही चिर निद्रा में बदल जाएगी? इन दिनों एक अच्छी बात यह भी हो रही थी कि अब नींद में मुझे पहले की तरह बुरे डरावने सपने आने बंद हो गए थे। सपनों के शकुन शास्त्र के अनुसार वे सपने आगत मृत्यु की सूचना देने वाले होते हैं। ऐसे सपनों की शुरुआत तो 24 मार्च की रात से ही हो गई थी जब मैं दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में अपने पैरों की टूटी हुई हड्डियों के ऑपरेशन की प्रतीक्षा कर रही थी। सबको पता था कि मुझे कैंसर है बस मुझे नहीं बताया गया था। डॉक्टर मेरे कैंसर को देखते हुए Hip Bone Replacement का ऑपरेशन करने को तैयार नहीं हो रहे थे! खैर, वह सब फिर कभी। अब नींद के छोटे-छोटे शांत झोंके आते थे, जिनसे जागने के बाद मैं खुद को तरोताजा महसूस करती और मन का भय पूरी तरह से निकल जाता था।
2017 के जुलाई मध्य आते-आते कीमोथेरेपी के 12 साइकल हो चुके थे। मैं लगभग स्वस्थ हो चली थी। कुछ छोटी-छोटी तकलीफों को छोड़कर, पर चूँकि उनके साथ जीने का संकल्प कर लिया था तो अब तकलीफें पीड़ा नहीं देती थी। कैंसर के मरीज के लिए जीवन अपने आप में ही बहुत बड़ी बात होती है। ऐसे में छोटी-छोटी तकलीफों की शिकायत कैसी? एक बात और भी थी, अपनी चिकित्सा के दौरान कीमोथेरेपी या जाँच के समय विभिन्न आयु वर्ग के इतने कैंसर मरीजों से मिली, उनकी व्यथा-कथा सुनी, उनके दर्द को जाना तो अपनी पीड़ा बहुत ही कम लगने लगी। कैंसर के क्रूर पंजों में फँसे हुए छोटे-छोटे बच्चे, किशोर, युवा, मध्य वय के स्त्री-पुरुष देखकर कलेजा मुँह को आ जाता था। एक गाना याद आता–‘दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है’ सच तो यही था। मैंने तो अपना काम करने वाला वक्त अपनी पूरी कर्मठता से जी लिया है। परिवार को, समाज को, सरकार को अपने होने का देय चुका चुकी हूँ। अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुकी हूँ। अब तो वैसे भी अपने लिए जीने का, आराम करने का, पढ़ने-लिखने का वक़्त है…उम्र के छठे दशक की शुरुआत हो चुकी है। अब क्या सोचना। जीवन मिल जाय तो बहुत अच्छा और अगर न भी मिल पाए तो बहुत अफसोस की बात नहीं है। पर ये बच्चे, ये युवा, जिनका जीवन अभी शुरू ही हुआ है। भविष्य की अनंत संभावनाएँ जिनके सामने हैं। वे कैंसर के मरीज! अनायास ही मन में प्रार्थना उग आती–‘प्रभु, मेरा जो करना हो, करो! अब अपने लिए कुछ नहीं माँगती मैं, न ही भविष्य में माँगूगी। पर अपने जीवन में कुछ भी पुण्य कर्म किए होंगे मैंने तो इन बच्चों को मृत्यु के कैंसर के इन क्रूर पंजों से मुक्त कर दो। इन्हें जीवन दान दे दो।’ दर्द की इस सहभागिता ने मेरे मन से कैंसर का, मृत्यु का भय पूरी तरह से दूर कर दिया था। कैंसर अब मात्र एक मर्ज रह गया था मेरे लिए, जैसे कि मेरी डायबिटीज या मेरा हाई ब्लडप्रेशर, मन से यह भय निकलते ही मुझे पटना की याद आने लगी। मेरा शहर, मेरे लोग, मेरा घर, पटना का मेरा परिवार खास कर अपर्णा को देखने के लिए मन बावरा-सा होने लगा। पर हर गुरुवार को होनेवाली कीमोथेरेपी इसमें बाधक बन रही थी। इसका एक उपाय यह निकाला कि बुधवार को वापसी का टिकट लेकर मैं शुक्रवार की सुबह की फ्लाइट से भाई के साथ पटना आ गई। पटना जैसे दोनों हाथ फैला कर मेरा स्वागत कर रहा था। मात्र पाँच दिन ही रही मैं तब यहाँ पर खुशियाँ जैसे पाँच साल की मिल गई। अपर्णा के साथ मस्ती की। दोस्तों, रिश्तेदारों, पुराने सहकर्मियों से मिली। खूब सारी बातें कीं। इसी बीच रामप्रकाश सर (श्री रामप्रकाश सिंह, बिहार प्रशासनिक सेवा) से मिलना हुआ, जो पाँच साल पहले मल्टिपल माइलोमा को पराजित कर आज पूर्णत समान्य और एक्टिव जीवन जी रहे थे। मैं जब उनसे मिली तो वे नया सचिवालय के अपने कार्यालय कक्ष में ढेर सारी संचिकाओं के साथ काम में व्यस्त थे। प्रसन्न चित्त, हँसमुख, सक्रिय रामप्रकाश सर से मिलकर मेरा उत्साह और ऊर्जा दोनों ही बढ़ गए। उन्होंने कैंसर की चिकित्सा प्रक्रिया से संबंधित अपनी पुस्तक, जो मृत्यु थी ही नहीं मुझे दी। उसी रात को मैं वह पूरी पुस्तक पढ़ गई और आश्वस्त हो गई कि जल्दी ही मैं भी पूरी तरह से कैंसर मुक्त जीवन जीऊँगी। मुझे भी तो मल्टिपल माइलोमा ही है! जब रामप्रकाश सर ठीक हो सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मुझे तो स्वस्थ होना ही है। बस डॉक्टर के परामर्श के अनुसार मुझे कीमोथेरेपी के सारे साइकल पूरे कर लेने हैं।
अगस्त 17 के तीसरे सप्ताह तक कीमोथेरेपी के 16 साइकल पूरे हो चुके थे। तब तक पैरों के तलवों में जलन इतनी बढ़ चुकी थी कि एक कदम चलने में भी तकलीफ होती थी। मेरी डॉक्टर ने इस जलन के कारण कुछ दिनों तक कीमोथेरेपी स्थगित रखने का निर्णय लिया और इस बीच कैंसर से संबंधित कुछ टेस्ट कराए। जिससे यह निष्कर्ष निकला कि मेरी देह अब लगभग 97-98 प्रतिशत कैंसर मुक्त हो चुकी है। यह बहुत बड़ी राहत की बात थी। यह तो मैं भी जानती थी कि मल्टिपल माइलोमा की अभी तक कोई ऐसी चिकित्सा नहीं निकली है कि यह शत-प्रतिशत ठीक हो सके। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार बस इसे आगे फिर से बढ़ने न देने की कोशिश की जा सकती है। डॉक्टर इसके लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट कराने की सलाह दे रहे थे जिसके कराने से अगले 10 वर्षों तक कैंसर के न लौटने की उम्मीद बनती थी। पर यह प्रक्रिया बहुत कष्टकारी और समय साध्य थी। इस प्रक्रिया में मेरी रीढ़ की हड्डी से बोन मैरो निकाल कर उसे शुद्ध कर फिर से रीढ़ की हड्डी में डाला जाता। इसके लिए मुझे आइसोलेटेड होकर डेढ़-दो महीने तक हॉस्पिटल में रहना होता। जिसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं थी। दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में रहने का अनुभव मुझे अभी भी याद था जहाँ मात्र 17 दिनों में ही मैं डिप्रेशन में आ गई थी। फिर, इसकी कोई पूरी गारंटी भी नहीं थी कि कैंसर वापस नहीं ही लौटेगा। कभी-कभी छह महीने में ही यह वापस लौट आता है। डॉक्टर से इस विषय पर मेरी लंबी बात हुई और सभी संभावनाओं को देखते हुए मैंने निर्णय लिया कि मैं यह नहीं कराऊँगी। कैंसर की अब तक की पूरी चिकित्सा प्रक्रिया के दौरान यह मेरा पहला स्वतंत्र निर्णय था। मैं अब खुद को और तकलीफ देने की मनःस्थिति में बिल्कुल नहीं थी। और न ही दो माह तक हॉस्पिटल में एकाकी रहना चाहती थी। मैंने तय किया कि दवाओं और परिवर्तित जीवन शैली से ही इसे रोकने की कोशिश करूँगी और जो शेष जीवन है उसे अपने मनचाहे ढंग से परिवारजनों, इष्ट मित्रों के साथ, पुस्तकों और कलम-कागज के साथ बिताऊँगी। घर में लोग मेरे निर्णय से सहमत नहीं थे बल्कि थोड़े नाराज भी थे पर मैं अपने निर्णय से पूरी तरह संतुष्ट थी। मेरा शरीर अब कीमोथेरेपी के प्रति विद्रोह करने लगा था, इसलिए डॉक्टर ने निर्णय लिया कि अब मुझे दवाओं पर मेंटेनेंस प्रोग्राम के तहत रखा जाएगा और हर तीन माह के बाद कैंसर सेल्स की तत्कालीन स्थिति संबंधित जाँच होगी। इसके लिए मैं सहर्ष तैयार थी। अगस्त के अंतिम सप्ताह में तीन माह की अपनी दवाएँ और इंजेक्शन लेकर मैं पटना अपने पुराने परिवेश में आ गई। तबीयत में और तेजी से सुधार होने लगा। जीवन में अब चारों ओर प्रकाश-ही-प्रकाश था। उजालों से मेरी दुनिया भरी हुई थी। हर तीन महीने के बाद मुंबई जाना और कैंसर सेल्स के निष्क्रिय रहने का प्रमाण पत्र लेकर लौट आना अब रूटीन सा हो गया था। इस बीच जीवन बिल्कुल सामान्य रहता है। अपने अनुभवों से मैंने यह जाना कि कैंसर गंभीर बीमारी जरूर है। समय रहते समुचित चिकित्सा न हो पाए तो मृत्यु भी हो सकती है। पर बात इतनी भयानक भी नहीं है कि कैंसर को साक्षात मौत ही समझ लिया जाय। यह सही है कि मैं अब बहुत ज्यादा शारीरिक श्रम नहीं कर पाती पर उससे क्या? जरूरत ही क्या है शारीरिक श्रम की। अपने होने का देय दूसरे रूपों में भी तो चुकाया जा सकता है। जो आजकल मैं खूब करती हूँ–शाम को अपर्णा और उसके दोस्तों के साथ खेलती हूँ। कभी-कभी उन्हें कहनियाँ सुनाती हूँ, जो मित्रगण घर आते हैं उनसे गप्पें मारती हूँ। कभी शाम को कहीं घूमने निकल जाती हूँ। दिन बीतता है पुस्तकों के साथ। उम्र के तीसरे पहर के जीवन में और क्या चाहिए। मात्र एक उद्देश्य में बस गया है अब जीवन। कैंसर के संबंध में भ्रांतियाँ दूर करना। यह बताना कि कैंसर होने का अर्थ सीधे मृत्यु होना नहीं होता। यह मात्र एक बीमारी है किसी भी अन्य बीमारी की तरह। इससे डरने की नहीं बल्कि समुचित चिकित्सा कराने की जरूरत है। अँधेरे के बादल तो थोड़े वक़्त के बाद विदा हो ही जाते हैं और जीवन उतनी ही मासूमियत से फिर मुस्कुराने लगता है जैसी…तूफानी बारिश वाली रात के बाद धुली निखरी सुबह, कैंसर कथा समाप्त हुई।


Image name: Chemotherapy iv
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नीलम पांडेय द्वारा भी