नाम में क्या धरा है?

नाम में क्या धरा है?

नाम में क्या धरा है? जो लोग कलकत्ता में ‘खोट्टा’ बन गए, वही बंबई में जाकर ‘भैया’ कहलाए! ‘मेहतर’ का अर्थ है बड़ा, किंतु समाज ने इन्हें कैसा छोटा बना डाला है! हाँ, नाम में क्या धरा है?–हिंदी के इस वृद्ध-वशिष्ठ की लेखनी का चमत्कार देखिए।

अँग्रेजी में कहावत है कि नाम में क्या धरा है, गुलाब को गुलाब न कहने पर भी उसकी मीठी महक फैलती ही रहेगी। बात ठीक है, पर किसी अंश तक ही, क्योंकि किसी वस्तु का नाम हम अपनी पहचान के लिए रख लेते हैं। यदि पहचान का प्रयोजन न हो, तो नाम में सचमुच कुछ धरा नहीं है। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है कि नाम जाने बिना ‘करतलगत न परत पहिचाने।’

अपने ही देश में एक प्रदेश के मनुष्य को दूसरे प्रदेश में जिस नाम से हम पहचानते हैं, उससे और लोग नहीं पहचानते। बात यह है कि एक प्रदेश का मनुष्य दूसरे प्रदेश में जो काम करता है, उसी काम पर वहाँ उसका नाम पड़ जाता है। गौड़ के राजा आदिशूर के समय में कान्यकुब्ज से पाँच ब्राह्मणों और पाँच कायस्थों ने वहाँ जाकर कुलीनता की प्रतिष्ठा की थी। परंतु आधुनिक समय में इस उत्तर प्रदेश से जो बहुत से लोग बंगाल गए और उनमें अधिकतर वहाँ दरबानी या जमादारी करने लगे, तो वहाँ ‘दरबान’ या ‘जमादार’ कहाए। बिहार के भोजपुर भाग के और हमारे यहाँ के बलिया, गाजीपुर आदि पूर्वी जिलों के लोग जो दरबानी व जमादारी करने गए और सत्तू खाते देखे गए, तो ‘छातूखोर’, मडुआ नाज खाया, तो मडुआवादी व ‘मेड़ो’ कहाए। कहार कुर्मी गए और खिदमतगारी करने लगे, तो ‘खोट्टा’ कहाए। खोट्टी प्राकृत में दासी को कहते हैं और ई को आ से बदल देने पर स्त्रीलिंग शब्द पुल्लिंग बन ही जाता है।

गुजरात, महाराष्ट्र अथवा बंबई में इधर के आदमियों ने सेठों की नौकरी, अवश्य ही दरबानी, की और जैसा बनारस में मालिक को भैयाजी कहने का दस्तूर है, उन्हें भैया कहा तो झट उन्होंने इनका नाम ही ‘भैया’ रख दिया। दुपल्ली टोपी पहनकर जहाँ मनुष्य बंबई में पहुँचा कि उसे लोगों ने भैया कहना शुरू किया, क्योंकि दुपल्ली टोपी पहनने वाले दरबान का नाम ही पहले पहल ‘भैया’ पड़ा था। इस दुपल्ली टोपी की मर्यादा एक सज्जन ने बंबई में बढ़ाई और वे थे पटने के प्रसिद्ध बैरिस्टर सैय्यद हसन इमाम साहब। ये 1918 की स्पेशल कांग्रेस के सभापति थे और इन्होंने बंबई में चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी के ऊपर दुपल्ली टोपी पहन रखी थी। इन्हें किसी ने ‘भैया’ नहीं कहा। कांग्रेस के प्रेसिडेंट को ‘भैया’ कहने का साहस कौन कर सकता था? हम समझते हैं कि इससे बंबई में दुपल्ली टोपी की प्रतिष्ठा में अवश्य ही वृद्धि हुई। यह ‘भैया’ पदवी मध्यप्रदेश के मराठी भाग में भी प्रचलित है।

उड़ीसा निवासियों का अधिकांश जो कलकत्ते में जीविका के लिए जाता है, वह श्रमजीवी ही होता है। जब वहाँ लोग पालकियों पर चलते थे, (पंडित ईश्वरचंद्र विद्या सागर पालकी पर ही चलते थे), तब पालकी के कहारों का काम ये उड़िये ही करते थे। इस लेखक ने 19 वीं शती के अंतिम दशक में बहुत से लोगों को पालकियों पर चलते और उड़ियों को पालकियाँ उठाते देखा है। उन दिनों पालकी का भाड़ा घोड़ा गाड़ी के भाड़े से कम था। आज रिक्शा की जो स्थिति है, प्राय: वही पालकी की थी। अब 30 वर्षों से कलकत्ते में पालकी देखने को भी नहीं मिलती। उड़ियों का दूसरा काम लोहा ले जाना अथवा कपड़े की गाँठ लादने वाली ठेलिया खींचना था और है। सिर पर भी कुछ थान धोती, पुड़िया आदि रखकर एक दूकान या गोदाम से दूसरी दूकान पर पहुँचाने का काम भी उड़िये ही करते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार में दरबान या खिदमतगार और उड़ीसे में ठेलिया खींचने वाले ही बसते हैं। भारतीय जनतंत्र के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बिहारी, प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेशी और मंत्री श्री हरेकृष्ण महताब उड़ीसावासी हैं। बाबू ईश्वरदास जालान बिहारी मारवाड़ी बंगाल ऐसेंबली के स्पीकर हैं।

इस देश में भंगी का काम जिससे नीचा न समझा जाए, इसलिए बादशाहों और नवाबों ने भंगी को ‘मेहतर’ और ‘हलालखोर’ नाम दिए। मेहतर का अर्थ है बड़ा और यह यद्यपि फारसी शब्द है, तथापि संस्कृत के महत्तर से संबद्ध है। महत् शब्द का अर्थ वर व श्रेष्ठ है और इसलिए महत्तर का अर्थ है वरतर। चित्राल के शासक मेहतर कहाते ही हैं, पर वे भंगी नहीं हैं, राजा हैं। आजकल भंगी अपने को जमादार कहना और कहलाना पसंद करते हैं। हलालखोर कहने का उद्देश्य यह था कि वह हराम का पैसा नहीं खाता। महात्मा गाँधी ने अछूतों को ‘हरिजन’ नाम दिया है। पहले जब अछूत कहते थे, तब वह अच्युत का पर्यायवाची शब्द था। अच्युत का अर्थ ‘न गिरा हुआ’ व अपतित है। पर लोगों ने उसे अछूत कर दिया। बंगाली और आसामी अब भी अच्युत ही कहते हैं।

अब देश के बाहर देखिए। जिस समय इस देश से ब्राह्मण पंडित और बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचारार्थ भारत के बाहर जाते थे, उस समय विदेशी उन्हें किस नाम से पुकारते थे यह हम नहीं जानते। अवश्य ही वह आदर और सम्मान का नाम होगा। परंतु जब इस देश से 1870 के बाद मजदूरी करने के लिए उपनिवेशों में लोग भेजे गए, तब वहाँ उनकी संज्ञा ‘कुली’ हुई। दास प्रथा उठ जाने से सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता हुई और उसकी पूर्ति करने को भारत सचिव लार्ड सैलिसबरी ने यहाँ से शर्तबंद कुली भेजने की व्यवस्था की। साधारणत: उपनिवेशों में भारतवासी कुली ही समझा जाता है, यद्यपि बहुत से भारतवासियों ने वहाँ संपत्ति भी उपार्जन कर ली है। धनी व सुशिक्षित को जैमिका व ट्रिनिडाड में आदर के लिए ‘कुली-प्रिंस’ कहते हैं।

यहाँ के उत्तर और दक्षिण दोनों भागों से लोग मालय प्रायद्वीप में गए हैं। उत्तर से जानेवालों को वहाँ ‘बंगाली’ कहते हैं और दक्षिण भारतीय को ‘रामासामी’ (रामस्वामी)। कोई 37-38 वर्ष की बात है, मालय के किसी स्थान से एस. एस. बंगाली की हिंदी में लिखी चिट्टी ‘भारतमित्र’ में पहुँची थी। हम आश्चर्य में थे कि बंगाली की चिट्ठी अँग्रेजी व बंगला के बदले हिंदी में क्यों आई? बहुत दिनों तक सोचते रहे, पर कोई बात समझ में न आई। अब पता लगा है कि सचमुच हमारे यहाँ के बंगाली वहाँ प्राय: नहीं हैं। बंगाली नाम से प्रसिद्ध वहाँ अबंगाली ही हैं। जो हिंदी भाषी मालय में हैं, वे गाय पालते और दूध का व्यापार करते हैं, इसलिए ये ‘सुसु बंगाली’ कहाते हैं। गुजराती और सिंधी वहाँ कपड़े का व्यापार करते हैं, इसलिए ‘बंबई बंगाली’ प्रसिद्ध हैं। दाढ़ी-मूछ वाले केशधारियों की संज्ञा ‘सिख बंगाली’ है।

दक्षिण अर्थात मद्रास से जो लोग मालय में गए हैं, वे ‘रामासामी’ (रामस्वामी) कहाते हैं। रामस्वामी नाम तमिल भाषियों के ही होते हैं, परंतु मालय में मद्रासी मात्र रामासामी है। इसकी आवश्यकता नहीं है कि वह तमिलभाषी ही हो। तमिल, तेलुगू और मलयालम चाहे जो भाषा बोलता हो, पर मद्रास से ही गया हो तो अवश्य ‘रामासामी’ है। मलबारियों व केरलवासियों की संस्था वहाँ ‘केरल समाजम्’ है। पर ये भेद वहाँ आपसवालों विशेषकर मद्रासियों के लिए हैं। शायद उत्तरवाले भी सभी मद्रासियों को ‘रामासामी’ और ये सभी उत्तरवालों को ‘बंगाली’ कहते हों। वहाँ कुछ पुराने चेट्टी व सेठी भी हैं, जो कुछ बातों को छोड़कर मालयी हो गए हैं। यहाँ तक ये अपनी भाषा भी भूल गए हैं।

एक नया काम मालय में हो रहा है। वह यह कि हमारे देशवासी चीनी लड़कों को गोद लेते हैं। एक तमिलभाषी ने एक चीनी लड़के को गोद लिया है! कहते हैं कि यह ऐसी फर्राटे की तमिल बोलता है कि सुनने वाले दंग रह जाते हैं। यदि भारतवासी भी अपने लड़के चीनियों को गोद देते, तो एक नई जाति उत्पन्न हो जाती। पर जब वह लड़का सयाना होगा और भारतीय लड़की से ब्याह करेगा तो नई जाति बन ही जाएगी।