गजल में एक नया आस्वाद

गजल में एक नया आस्वाद

आलोच्य पुस्तक की शीर्षक का निहितार्थ ठीक से उजागर हो सके, इसे ध्यान में रखकर द्विज जी ने, संग्रह में ‘हजारों सदियों का सारांश कुछ कथाएँ हैं’ शीर्षक से आठ शेर की एक रचना भी, लगभग आरंभ में ही शामिल की है। इन अश्आर को जिस तरह अभिव्यक्ति की सतह पर लाया गया है उस से, मिथकों के जरिये जीवन की जो अवधारणा सामने आती है, उसे भी नया और तरो-ताजा संदर्भ मिलता है, लेकिन यह आंतरिक है।

द्विज जी, जिस माटी-पानी, हवा और हरारत से हैं, उसकी उनके मन में गहरी छाप है, बल्कि कहना चाहिए, वह उनकी गजलगोई में अहम किरदार की तरह है, जो हर मोड़ पर मिल जाती है, उदाहरण स्वरूप पर्वत और उसका ‘पर्वतपन’। संग्रह के शुरू में ही दो गजलें पर्वतीय-क्षेत्र के जीवन और मानव मात्र के लिए उसकी उपादेयता का लगभग आख्यान रचती हुई हैं। शीर्षक है ‘ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने’ और ‘छलनी कदम-कदम पे है सीना पहाड़ का’! ऐसा होना स्वाभाविक भी है और इससे यह अंदाजा भी होता है कि, देश-दुनिया की चौतरफा चिंता के बीच, रचनाकार ने स्थानिक जीवन-मूल्यों की चिंता को भी शिद्दत और यथोचित-प्राथमिकता के साथ जिया है।

लेकिन, यहाँ यह इंगित करना भी जरूरी है कि द्विज जी की पहाड़ संदर्भित और ‘हर किसी का अपना कोई है अभी तक गाँव में’ जैसी रचनाओं का जो स्वरूप प्रस्तुत हुआ है, वह पहली नजर में… गजल के फार्म का अतिक्रमण करता-सा मालूम होता है, लेकिन निगाह जब नीचे दर्ज जैसे, शेरों पर पड़ती है तो…ऐसी शिकायत धीरे-धीरे अपने आप, धुलती भी जाती है, ऐसे कुछ शेर ये हैं :

‘त्याग और तपस्या से योगियों की भाषा में, जिंदगी की बदली है वर्तनी पहाड़ों ने…/ख़ुद तो जी अजल ही से तश्नगी पहाड़ों ने, सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने…/जिस तरह चढ़ रहे हैं वो जीना पहाड़ का, लगता है बैठ जाएगा सीना पहाड़ का…/सबको पता है अब नए बनिये की आँख में, चुभता है किस कदर ये दफीना पहाड़ का…/मन में इक बूढ़ी-सी चाभी है जो कहती मुझसे है, तेरे बचपन की पिटारी, है अभी तक गाँव में…/और तो अपने-पराये शहर में सब आ बसे, एक बस दादी हठीली है अभी तक गाँव में…/उसका साया है पिता-सा अब पिता जी तो नहीं, घर का इक खंडहर निशानी है अभी तक गाँव में…/शहर में दो-जून रोटी के लिए बिक जाएगा, आ चलें जरखेज माटी है अभी तक गाँव में…’

ऊपर से दूसरे शेर में नदी के पूर्व ‘हर’ शब्द एक अर्थ में नाकारगर इसलिए लग सकता है क्योंकि, गजल में बयान का दस्तूरी-सच ‘अंश’ कहकर ‘संपूर्ण’ के बोध का है। इसके बावजूद, इन सभी शेरों की ख़ूबी ये है कि अर्थ की सतह पर ये, किसी स्टेटमेंट की तरह इकहरे नहीं रहते, बल्कि अपने अर्थ-संदर्भ में व्यंजित होते हुए उससे कुछ अधिक को, अपने दायरे में खींचते हैं, जितने को, या जिसको, लक्ष्य करके, शेर के रूप में इन्हें ढाला गया है। शेर की यही घुलनशीलता गजल-विधा की अपनी विशेषता है। काबिले जिक्र है कि, द्विजेंद्र द्विज को पढ़ते हुए, खास तौर पर, आलोच्य संग्रह से गुजरते हुए, ऐसी शेरी-कैफियात से तकरीबन हर गजल में ही, दो-चार होना पड़ता है, और बार-बार होना पड़ता है।

द्विजेंद्र द्विज का शेरी लहजा आमतौर पर शालीन, संयत और पुर-असर है, प्रतिरोध इसमें घुली-मिली हुई सूरत में ‘अंडर-करंट’ की तरह है। कुछ और शेर देख लें तो बात शायद थोड़ी और स्पष्ट हो–मैं उस दरख्त का अंतिम वो जर्द पत्ता था, जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ लड़ना था…/बपौती हैं किसी के क्या उजाले, यहीं के हैं, यहीं देने पड़ेंगे…/पढ़ो तो, कैसे कटे खेत शहर की खातिर, तमाम दर्द लिखे हैं, हलों की भाषा में…/हमें चेहरों से कोई बैर कब था, हमारी जंग थी बे-चेहरगी से…/मेरे लिए मेरी गजलें हैं कैनवस की तरह, उकेरता हूँ मैं जिस पर उदासियाँ अपनी…/चलते-चलते लोग पत्थर हो गये थे, और बरसे फूल मीरे कारवाँ पर…/एक पोरस भी तो रहता है हमारे अंदर, जो सिकंदर को सिकंदर नहीं रहने देता…/आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी, यूँ तो है दुनिया सभी आदिम प्रथाओं के खिलाफ…/सच्चा गरीब चेहरा गायब हुआ है कैसे, धनवान का मुखौटा अखबार में छपा है/लफ्जों पे लाख पहरे, बंदिश भी है कलम पर, कहता है दिल कि फिर भी कहना जरूर होगा…/एकता के मांत्रिकों की सिद्धियों का है असर, एक थे जो, रफ्ता रफ्ता बँट गये फिरकों में लोग…/वो घर को बेच कर अपने खरीदारी पे निकले हैं, चला है जिन पे’ तेरे पुर-कशिश बाजार का जादू/रात दिन जोड़ने-घटाने में, कोई शय है, जो टूट जाती है…/एक नुक्कड़ पर खरीदी थी कभी इक झोपड़ी, शहर ही फिर सेठ का, सारे का सारा हो गया…/यकीनन हो गया होता मैं पत्थर, सफर में मुड़ के पीछे देखता तो…

इस संग्रह से शेर और भी उद्धरित किए जा सकते हैं, लेकिन उपर्युक्त अश्आर से भी द्विज जी की शायरी के रंग-ढंग, उड़ान और दिशा का न सिर्फ पता चलता है, बल्कि यह तरगीब भी होती है कि ‘सदियों के सारांश’ की गजलों से इस तरह गुजरा जाय कि, एक एक शेर के निहितार्थ को विश्लेषित करते हुए, प्राप्त नतीजे को, तार्किक तौर पर बयान किया जाय, लेकिन फिलहाल इसका अवसर यहाँ नहीं है, फिर भी यह कहे बिना चारा नहीं कि, प्रस्तुत संग्रह, हिंदी गजल में नये आस्वाद के बतौर, एक इजाफा है।


Image: Mithila Painting. Original artwork
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
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महेश अश्क द्वारा भी