हरिऔध जी का पत्र

हरिऔध जी का पत्र

हिंदू-विश्वविद्यालय, बनारस
13-10-35

श्रीमान पंडित जी!

प्रणाम

आशा है आप सकुशल होंगे। आपका कृपापत्र यथासमय मिल गया था, उत्तर बिलंब से जाता है, क्षमा कीजिएगा। मेरे पास ‘प्रिय-प्रवास’ की कोई प्रति नहीं थी, चित्र भी आपके लिए मँगाना था, इसी उद्योग में लगा था, अतएव उत्तर जाने में बिलंब हुआ। आज अपना चित्र और अपनी कुछ पुस्तकें सेवा में भेजता हूँ।

आपने छायावाद और रहस्यवाद के विषय में अपने पत्र में जो कुछ लिखा है, वह उपादेय और युक्तसंगत है, किंतु आजकल के अंधाधुंध प्रवाह में उसको कौन सुनेगा! आप सज्जन हैं, सरल हृदय हैं, आपको बड़े-बूढ़ों का अनादर असह्य हो सकता है, किंतु आज-कल के छायावादी बड़े-बूढ़ों की कीर्ति को मटियामेट कर देना चाहते हैं। वे समझते हैं जब तक इन लोगों का नाम शेष न कर दिया जाएगा, उस समय तक उनकी गौरव-पताका हिंदी साहित्य क्षेत्र में उड्डीयमान न हो सकेगी। यह भ्रांत धारणा एक दो की नहीं, अधिकांश छायावादियों की है।…यहाँ एक प्रसिद्ध छायावादी कवि हैं, वे कहा करते हैं, सूर, तुलसी, कबीर सबकी कीर्ति को रसातल भेजने वाले छायावादी कवि ही हैं। अब हिंदी जगत से इन सब लोगों का नाम लोप हो जाएगा, अजर-अमर छायावादी कवि ही हैं, वे हिंदी की कविता को अजर-अमर बनाएँगे। और स्वयं अजर-अमर हो कर रहेंगे, यह उनकी कल्पना है। देखिए कैसी विचित्र कल्पना है, और इस कल्पना में कैसी क्षुद्रता और नीचता भरी है।

छायावादी कवि कहा करते हैं, प्राचीन कवियों में न अनुभूति है, न सहृदयता। भावुकता तो उनमें छू नहीं गई है। उनकी दृष्टि में केशव, देव, बिहारी सब तुच्छ हैं, वे इन महाकवियों को फूटी आँख से नहीं देख सकते। उनका विचार है अब तक साहित्य के नाते हिंदी संसार में जो कुछ है, वह सब कूड़ा-करकट है।…रत्नचय छायावादियों के ही बखरे में पड़ा है। हिंदी देवी का शृंगार अब वे ही करेंगे। और उन्हीं के हाथों अब भगवती वीणापाणि की सेवा होगी। इस कथन में कितना दंभ है, आप स्वयं इस पर विचार करें। जिनकी कविता बोधगम्य नहीं, जो अस्पष्टता के दोष से दूषित है। जिसमें न तो देश-प्रेम है, न जाति-अनुराग। न उपदेश, न शिक्षा। न जिसमें मातृभूमि की कथा है; न संकटापन्न जाति के हृदय की व्याकुलता। वही कविता तो अजर-अमर होगी; और जिन कविताओं में इन भावों का मार्मिक चित्र है, वे रसातल चली जाएँगी। इसको कौन मानेगा? किंतु आजकल यही ध्वनि गूँज रही है। छायावादी प्राय: अपने को विश्वप्रेमिक कहा करते हैं, वे बड़े दंभ से कहते हैं, आध्यात्मिक भावों का मार्मिक चित्रण उन्हीं के हाथों होगा। संभव है इसमें कुछ सत्यता हो, किंतु हिंदू धर्म ही सार्वभौम है, उसने इस मार्ग में पथ जितना आगे बढ़ाया है, संसार में किसी ने नहीं बढ़ाया। हिंदी व संस्कृत की रचनाएँ इन भावों से मालामाल हैं, कोई अपनी आँख बंद कर ले और उनको न देखे, तो यह उसका दोष है। संतों की वानियों में इस रंग में जितना कहा गया है, उससे अधिक कहने का दावा करना उन्माद है, किंतु आजकल यही सब हो रहा है। और इस प्रकार की अनर्गल बातें कहते तनिक लज्जा भी नहीं होती।

मेरी इन बातों से आप यह न समझें कि मैं छायावादी कविता का विरोधी हूँ या उसको मैं अच्छी दृष्टि से नहीं देखता। कदापि नहीं, मेरा ऐसा विचार नहीं है। मैं सम्मेलन में खुले दिल से उसकी प्रशंसा कर चुका हूँ, सत्यं शिवम् सुंदरम् का मैं सदैव से आदर करता हूँ। ऐसा न करना पशुता है। मैं छायावादियों की संकीर्णता, असज्जनता, अकृतज्ञता, अंधता और संकुचित दृष्टि का निंदक हूँ। सद्गुणों का नहीं और न उनकी सुंदर रचनाओं का। छायावादियों में भी सत्कवि हैं, और उनमें उदार एवं विनीत सज्जन भी पाए जाते हैं, सबको एक लाठी से हाँकना, अविवेक है। मेरा कथन केवल इतना ही है कि आजकल जो उन्माद और उच्छृंखलता फैल रही है, उसका उपशम होना चाहिए। आप जैसे सहृदय और विवेकशील पत्रकारों का ध्यान इधर जितना अधिक आकृष्ट होगा, उतना ही अधिक सुफल प्रसू होगा। वक्तव्य यही है।

पत्र इच्छा से अधिक लंबा हो गया। आपके पत्र के शब्दों ने मुझको उत्तेजित कर दिया। बातें सत्य हैं, किंतु अप्रिय सत्य हैं, अतएव इनको अपने ही तक रखिएगा, मैं किसी से ‘तू तू मैं मैं’ नहीं करना चाहता। यदि मेरे लेख का कोई अंश आप प्रकाशित करना चाहें, तो उसको बिना नाम दिए प्रकाशित कर सकते हैं। किंतु शायद इसकी नौबत न आएगी।

‘विशाल-भारत’ सुंदर निकल रहा है, मैं उसको आदर की दृष्टि से देखता हूँ। आप उसका संपादन बड़ी योग्यता से कर रहे हैं। आशा है वह उन्नति करेगा। और आपका स्थायी कीर्तिस्तंभ होगा। कोई-कोई लेख उसमें ऐसे निकल जाते हैं, जो उसके योग्य नहीं होते। इसका कारण आपकी सरलता है। आप अपने जैसा सरल हृदय औरों को भी समझते हैं। इसी से वक्रों की वक्रता का भी आपके पत्र में आदर हो जाता है। किंतु आप कब तक धोखा खाएँगे, आप वंचकों की प्रवंचना को पहचानेंगे, उस समय व्यर्थ के कलह कोलाहल से आपका पत्र सुरक्षित हो जाएगा।

प्रिय प्रवास के साथ एक-एक प्रति चुभते चौपदे और चोखे चौपदे की भी जाती है, एक प्रति पद्य प्रसून की भी। मैं समालोचना के लिए इन्हें आपकी सेवा में नहीं भेजता, आपने मेरी पुस्तकों के देखने का अनुराग प्रकट किया, इसलिए उनको सेवा में भेजता हूँ। चुभते चौपदे और चोखे चौपदे को एक बार यथावकाश आद्योपांत देखने की प्रार्थना करता हूँ। ये दोनों ग्रंथ तद्भव हिंदी शब्दों में लिखे गए हैं, यह इनकी विशेषता है। इनके पहले कोई ग्रंथ हिंदी में तद्भव शब्दों ही में नहीं लिखा गया है। यदि ये दोनों ग्रंथ आपको भावपूर्ण मालूम होंगे, तो मैं आपका पत्र मिलने पर इनकी विस्तृत समालोचना करने की आपसे प्रार्थना करूँगा।

भवदीय–
हरिऔध


Original Image: Bullfinch and weeping cherry blossoms
Image Source: WikiArt
Artist: Katsushika Hokusai
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