मैं और मेरा समय
- 1 August, 2015
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- 1 August, 2015
मैं और मेरा समय
कहते हैं कि इनसान वर्तमान में जो कुछ भी है, उसमें अतीत का बहुत बड़ा योगदान होता है। अतीत की एक-एक परत जुड़-जुड़कर ही इनसान का वर्तमान बन पाता है। फिर यही वर्तमान आनेवाले कल की नींव। अपने विषय में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मेरा जन्म जगराँव (पंजाब) में हुआ। जगराँव या पंजाब से मेरा इतना ही नाता है कि मैं वहाँ पैदा हुआ और अपने जीवन के पहले नौ वर्ष पंजाब के अलग अलग उन शहरों में बिताए–जहाँ जहाँ, मेरे पिता का तबादला होता रहा।
मैं हमेशा एक सोच में डूब जाता हूँ, जब कभी कोई मुझसे पूछता है, ‘तेजेंद्र भाई, आपका गाँव कौन सा है?’ मैं कभी किसी गाँव में नहीं रहा। मेरी स्कूल, कॉलेज और विश्विविद्यालय की पढ़ाई दिल्ली में हुई। इस तरह मेरा गाँव तो दिल्ली ही कहलाएगा। इसके बाद मैंने इक्कीस साल तक एअर इंडिया की नौकरी बंबई में रह कर की (मैं अपने शहर को आज भी मुंबई नहीं कह पाता)। यानी कि मैं पूरी तरह से एक शहरी उत्पाद हूँ। इसीलिए मेरी कहानियों में गाँव नहीं आता। क्योंकि अगर मैं गाँव के बारे में लिखूँगा, तो वह एक तरह का झूठ हो सकता है। मुझे गाँव की राजनीति, खेती, किसान, साहूकार, ट्रैक्टर, फसल आदि की कोई समझ नहीं है। मगर मैं शहर की संरचना से खासी हद तक वाकिफ हूँ। निम्न-मध्य वर्ग, मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग की सोच को मैं समझता हूँ। मैंने इक्कीस वर्ष तक एअर लाईन में फ्लाइट परसर के पद पर नौकरी की है, यानी कि मेरे अनुभव क्षेत्र में वे मजदूर भी आते थे जो येन केन प्रकारेण किसी भी तरह खाड़ी देशों में काम करने जाते थे। ब्रिटेन और अमरीका जाने वाले भारतीय प्रोफेशनल लोगों से भी मेरी मुलाकात होती थी। मुंबई के फिल्मी सितारों और राजनेताओं से भी मेरा वास्ता रहा। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के लिये चुने गए विशेष कर्मीदल का मैं एक महत्त्वपूर्ण सदस्य था। यानी कि मेरा अनुभव क्षेत्र हिंदी की मुख्य धारा के लेखकों और आलोचकों से एकदम अलग था। मुझे उनके अनुभव क्षेत्र का ज्ञान नहीं था और मेरे अनुभव क्षेत्र में उन सबका ज्ञान खासा सीमित था।
मुझे याद पड़ता है कि 1959 में जब हम मौड़ मंडी नामक छोटे से स्टेशन के साथ लगे घर में रहते थे, वहाँ बिजली नहीं थी। स्टेशन पर बिजली थी किंतु अभी तक घरों में नहीं पहुँची थी। रेडियो चलाने के लिये बड़ी सी कार बैटरी जैसी एक बैटरी इस्तेमाल में लाई जाती थी। दिल्ली एकदम अलग ही दुनिया का अजूबा थी। 1961 में अपने स्कूल में पहली बार टेलीविजन सेट देखा। ब्लैक-एंड-व्हाइट फिलिप्स का बड़ा सा टी.वी. सेट जो ऊँचे से स्टैंड पर रखा रहता था। बच्चे आपस में बात किया करते थे, ‘बेटा तुम्हें कुछ नहीं पता। अब रफी और लता मंगेशकर टी.वी. सेट के पीछे आकर खड़े हो जाया करेंगे और गाने गाया करेंगे।’
दिल्ली आने के बाद भी बहुत दिनों तक मेरी माँ अंगीठी जला कर और स्टोव में पंप मार मार कर खाना बनाती रही। अभी भाप इंजन रेलगाड़ियों को खींच रहे थे और डीजल इंजन शुरू हो गए थे। दिल्ली की सड़कों पर एंबेसडर, फिएट और स्टेंडर्ड नाम की कारें दिखाई देती थीं। मैं जब पाँचवीं में पढ़ता था तो मेरे स्कूल के इर्द गिर्द कोई बाउंड्री की दीवार नहीं थी। उसी स्कूल के बाहर बैठा करता था सुदर्शन नाई। उसके पास दुकान के नाम पर बस एक पुरानी सी कुर्सी, एक मेज और धुँधला पड़ता शीशा था। एक ऐसी चारपाई रखी रहती जिसकी हालत अपने मालिक की हालत की ही तरह खस्ता हुआ करती थी। मैं वहाँ बाल कटवाने जाया करता था। हालाँकि मुझे बहुत बुरा लगता था कि सुदर्शन नाई सिर्फ मशीन से बाल काटता था जबकि बाबूलाल नाई कैंची से कटिंग करता था। मगर फिर भी मेरे बाऊजी हमेशा सुदर्शन लाल से ही बाल कटवाते थे। सुदर्शन नाई की चारपाई पर नवभारत टाइम्स और प्रताप (उर्दू) समाचार पत्र रखे रहते थे। उसके सभी ग्राहक वहाँ बैठकर राजनीति पर चर्चा किया करते थे। काँग्रेस और जनसंघ सबकी जबान पर रहते। इसी माहौल से मेरी कहानी ‘एक ही रंग’ का जन्म हुआ। सुदर्शन नाई उस कहानी का मुख्य पात्र है।
मेरा प्राइमरी स्कूल अंधा मुगल क्षेत्र में था। बाद में सेकेंडरी स्कूल भी वहीं था। मैं सब्जी मंडी रेलवे कॉलोनी से पैदल चल कर स्कूल जाया करता था। बाऊजी को दिल्ली में पहले किशनगंज, उसके बाद सब्जी मंडी, वापिस किशन गंज, फिर लाजपत नगर की रेलवे कॉलोनियों में रहने के लिये फ्लैट अलॉट हुए। हम भी बार बार उनके साथ साथ घर बदलते रहे। बाऊजी की खासियत ही उनकी कमजोरी भी थी। बाऊजी जरूरत से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी बाईं बाजू में गोली लग गई थी। बाऊजी की चरम ईमानदारी के कारण महीने की चौबीस या पच्चीस तारीख को माँ जा कर अपनी चचेरी बहन (सुमित्रा मौसी) के यहाँ से पाँच रुपये उधार ले आया करती थीं, जो उन्हें पगार आते ही वापिस कर दिये जाते। मुझे याद है कि वर्ष 1961 में मेरे जन्मदिन पर कुल सवा रुपया खर्च हुआ था। बाऊजी की यह छवि मेरी बहुत सी कहानियों में दिखाई देती है। ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी के बाऊजी का पूरा चरित्र मैंने अपने बाऊजी पर आधारित किया है।
बाऊजी की सोच अपने पिता यानी कि मेरे दादा जी के साथ कभी मेल नहीं खा पाई। दोनों में हमेशा छत्तीस का आँकड़ा बना रहता। दादा जी को शिकायत थी कि बाऊजी ने कभी बड़े पुत्र की भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई। बाऊजी एक देशभक्त जवान थे जिनके लिये अपने परिवार से बढ़ कर भारत की स्वतंत्रता थी। बाऊजी गर्म दल के सदस्य थे। तीन अँग्रेजों को जिंदा जला देने का आरोप लगा था उन पर। दादा जी वकीलों के चक्कर काटते रहे। उन्हें गुस्सा इस बात का था कि उनका पुत्र पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर देशप्रेमियों के चक्कर में पड़ गया था। जाहिर सी बात है कि जिन पुत्रों ने दादा जी की बात मानी थी और पढ़ाई करके ऊँचे पद हासिल किये थे, दादा जी का प्यार उनके और उनके पुत्रों के प्रति अधिक ममतामय था। दादा जी से दूसरे पोते पोतियों को तो मिलते भेंट और खिलौने, जबकि मेरे पल्ले आते केवल वादे। उन्होंने मुझे एक बार साइकिल और घड़ी ले कर देने का वादा किया था। किंतु वे मेरे देनदार के रूप में ही इस दुनिया से चलाना कर गए। मेरे पहले कहानी संग्रह ‘काला सागर’ में मेरी कहानी ‘कड़ियाँ’ इसी थीम पर आधारित थी।
पढ़ाई करते करते मेरा आत्मविश्वास लगभग घमंड बनता जा रहा था। दसवीं क्लास में हिसाब के पेपर में फेल हो गया। साल मारा गया। पिता जी का तबादला शिमला के पास शोघी स्टेशन पर हो गया था। वे वहाँ के स्टेशन मास्टर बना दिये गए थे। भला एक फेल हुए लड़के को शिमला के अच्छे स्कूल में दाखिला मिलता भी तो कैसे। मेरे एक मित्र थे जो मेरे बाऊजी के भी मित्र थे–ईश्वर स्वरूप भटनागर। उन्होंने बाऊजी से बात की और मुझे वापिस दिल्ली ले आए। यहाँ उन्होंने मेरा दाखिला प्रेसिडेंट्स एस्टेट स्कूल में करवा दिया। मैं एक बार फिर एक नये स्कूल में हीरो बन गया। भटनागर साहब ने एक बार बाऊजी को पत्र लिखा था–‘भाई साहब, जब मैं काके को सुबह बस्ता उठाकर स्कूल जाते देखता हूँ तो आपके प्रति मन से धन्यवाद निकलता है कि आपने मुझे औलाद का सुख महसूस करने का मौका दिया है।’ पढ़ाई में मूलतः अच्छा था ही। अँग्रेजी मेरा प्रिय विषय था। मेरी आवाज बचपन में खासी सुरीली थी, एक्टिंग का शौक था। स्कूल के लिये बहुत से कप और शील्ड जीत कर लाया। भटनागर जी के जीवन पर आधारित दो कहानियाँ मैंने लिखीं–‘दंश’ और ‘रिश्ते’।
मेरे बाऊजी सिगरेट बहुत पीते थे। दिनभर में साठ से सत्तर सिगरेट और वह भी फिल्टर के बिना, सादा सिगरेट। लाल रंग का पैकेट होता था। नाम शायद वरचक्र या वीरचक्र हुआ करता था। हमारे घर में एक सौ पैकेट का बंडल आया करता था। 1967 की मुझे एक घटना याद आती है। बाऊजी ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘काका, तूं हुण पंद्रह सालां दा हो गया हैं। ऐहो उमर होंदी है जदों बच्चा सिगरेट पीनी शुरू करदा है। मेरे तों ज्यादा कोई नहीं जाणदा कि सिगरेट किन्नी बुरी चीज है। काका, अज तों मैं सिगरेट पीणी छोड़ रिहा हाँ, ताकि तैनूं सिगरेट पीण तो रोक सकां।’ बाऊजी की बात दिल पर कुछ ऐसा असर कर गई कि मैंने जीवन में कभी सिगरेट का स्वाद नहीं चखा।
बाऊजी का तबादला वापिस दिल्ली हो गया। अब स्थिति खासी अजीबो-गरीब थी। रेलवे अधिकारियों का कहना था कि आप शोघी (शिमला) वाला घर खाली करिये ताकि आपको दिल्ली में घर अलॉट किया जा सके और बाऊजी का कहना था कि आप मुझे घर अलॉट करें तो मैं शोघी वाला घर खाली करूँ। इसी उहापोह में करीब 6 से 7 महीने गुजर गए। इस दौरान बाऊजी ने अपने किसी मित्र के घर एक कमरा किराये पर ले लिया। उसी कमरे में मैं, बड़ी बहन, छोटी बहन, माँ और बाऊजी सभी रहते थे। उसी कमरे के एक कोने में माँ खाना बनाती थी। वहीं सोते भी थे। गरमी के दिनों में तो बाहर सहन में सोने से समस्या सुलझ जाती किंतु जैसे ही थोड़ी ठंड बढ़ी तो पाँचों लोग एक ही कमरे में सोने को बाध्य। शोघी वाले घर का किराया रेलवे बाऊजी की पगार में से काट रही थी और यहाँ मालिक मकान को किराया देना होता। रात को सवा नौ बजे पढ़ने का समय होता और वही समय होता हमारी मकान मालकिन का रेडियो पर हवा महल और बाद में पुराने गाने सुनने का। अभी घरों में टेलिविजन आम बात नहीं थी। पूरी कॉलोनी में बस एक या दो टीवी ही सुनाई देते थे। जब मकान मालकिन हवा महल का नाटक और पुराने फिल्मी गीत सुनती, मैं रोशनारा बाग की स्ट्रीट लाईट के नीचे बैठ कर पढ़ाई करता।
ग्यारहवीं पास करने के बाद मैंने स्वयं यह निर्णय लिया कि आगे पढ़ाई नहीं करूँगा। पहले नौकरी फिर पढ़ाई। इसलिए आई.टी.आई. निजामुद्दीन में स्टेनोग्राफी में दाखिला ले लिया। हमारे यहाँ दो तरह के वजीफे मिला करते थे। एक गरीबी का और दूसरा क्लास में अव्वल आने का। मन ही मन फैसला कर लिया कि यह 10 रुपये महीने का वजीफा मुझे ही जीतना है। यानी कि साल भर के पूरे एक सौ बीस रुपये। क्लास में आम तौर पर प्रथम मैं ही आता था और मेरे बाद थी तीन लड़कियाँ। उनके नामों में भी गड़बड़ हो जाती थी–एक सुनीता चावला, दूसरी निर्मल टंडन और तीसरी निर्मल चावला। इन्हीं में से एक से बात करते हुए महसूस हुआ कि मैं बड़ा हो गया हूँ, क्योंकि उससे बात करते समय कुछ कुछ होता था। अभी डिप्लोमा पूरा होने में 2 महीने का समय बाकी था कि मुझे अपनी पहली नौकरी भी मिल गई। राजश्री पिक्चर्स, चाँदनी चौक में स्टेनो टाइपिस्ट–पगार 200 रुपये मात्र। मेरे आई.टी.आई. के प्रशिक्षकों–ओमर अफजल खान एवं डी.पी. वाधवा ने एक प्रस्ताव रखा कि मैं पढ़ाई तो पार्ट-टाइम क्लास में करूँ, लेकिन मुझे हाजिरी फुल-टाइम की दी जाएगी। मेरे लिये तो यह जैसे आकाश से आशीर्वाद की वर्षा थी। मेरा साइकिलिंग अभियान शुरू हो गया–किशनगंज से चाँदनी चौक तक साइकिल पर, शाम को वहाँ से निजामुद्दीन साइकिल पर, रात को निजामुद्दीन से किशनगंज वापिस साइकिल पर। यह साइकिलिंग का जो दौर शुरू हुआ तो मेरे एम.ए. पूरा करने तक चलता ही रहा। उस नौकरी की एक ही बात है जो भूले नहीं भुलाई जा सकती, मेरे बॉस का कहना, ‘मिस्टर शर्मा, आपके टाइपराइटर की आवाज नहीं आ रही, इसका मतलब है कि आपके पास काम नहीं है। आइये और डिक्टेशन ले लीजिए।’
जब मैं मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे व्यक्तित्व के विकास में चार महिलाओं और दो पुरुषों का बहुत महत्त्वपूर्ण हाथ है। पहली महिला है मेरी माँ। मेरी माँ ने मुझे सिखाया है कि अभावों मं् भी चेहरे पर कैसे मुस्कुराहट कायम रखी जा सकती है। कम से कम रिसोर्सों से भी कैसे बेहतरीन नतीजे हासिल किये जा सकते हैं। मेरे पास दो ही कमीजें होती थीं और दो ही निक्करें। किंतु मैं क्लास का सबसे साफ-सुथरा बच्चा कहलाता था, क्योंकि मेरे कपड़े रोज धुले और इस्त्री किये होते। क्लास के लड़के मुझे किसी बहुत अमीर घर का बच्चा समझते थे। माँ स्वयं कुछ खाये या न खाये, मेरे लिये घर की बेस्ट चीजें बचा कर रखती थी। और जब बाऊजी से मार पड़ती थी तो वह आधे से अधिक मार अपनी पीठ पर ले लेती थी। दूसरी महिला थी मेरी हरजीत दीदी। दरअसल उससे मेरा कोई सगा रिश्ता नहीं था। वह मेरे दोस्त हरदीप की बहन थी। हरदीप और मैं पाँचवी कक्षा में इकट्ठे पढ़ते थे। हरजीत दीदी हम दोनों से चार चार साल बड़ी थीं। जब बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी लगने के पश्चात मैंने बी.कॉम में दाखिला लिया तो दीदी ने ही मुझे इंग्लिश ऑनर्स की पढ़ाई करने को प्रेरित किया। उनके व्यक्तित्व की खासियत यह थी कि उन्हें मेरे घर के सभी सदस्य दीदी कह कर ही बुलाते थे। इसमें मेरी माँ और बाऊजी भी शामिल थे। मैंने अपनी पहली लिखी अँग्रेजी की पुस्तक उन्हें ही समर्पित की थी। मेरी कहानी ‘मुट्ठी भर रोशनी’ की नायिका सीमा का व्यक्तित्व काफी हद तक दीदी पर आधारित था।
इंदु जब मेरे जीवन में आई, उस समय मैं लड़कियों में खासा लोकप्रिय था। यूनिवर्सिटी की कुछ लड़कियाँ तो मुझे लेकर आपस में लड़ भी लेती थीं। इंदु को देख कर लगा कि बस मेरे जीवन की नैया के लिये यही साथी सही साथी है। सादा, सुंदर और समझदार थी इंदु। हम दोनों ने जात पाँत की दीवार लाँघ कर शादी की थी। इंदु के दिमाग का फोकस बिलकुल क्लीयर था। उसे घर शब्द के सही मायने मालूम थे। उसने मुझे तराशा, सँवारा और हिंदी का कहानीकार बनाने के साथ साथ एक बेहतर इनसान बनाया। इंदु जैसे लोग दुनिया में विरले ही पैदा होते हैं जिनकी खूबियाँ गिनाते गिनाते पन्नों पर पन्ने भरे जा सकते हैं। हम दोनों ने अपने जीवन का संघर्ष मुंबई में इकट्ठे शुरू किया था। एक एक चीज पैसे जोड़ जोड़ कर खरीदी थी। वह उधार से चीजें खरीदने में विश्वास नहीं रखती थी। क्रेडिट कार्ड के विरुद्ध थी वह। मुझे उसने दीप्ति और मयंक जैसे प्यारे बच्चे दिये। मेरी कहानियों की पहली पाठक वही होती थी। मुझे भाषा के तौर पर हिंदी का अधिक ज्ञान नहीं था। इंदु मेरी कहानियों की भाषा भी सुधारती और थीम की प्रस्तुति में भी सहायता करती। जब मेरा दूसरा कहानी संग्रह ‘ढिबरी टाईट’ प्रकाशित हुआ तो इंदु मुंबई के नानावटी अस्पताल में दाखिल थी। उस किताब का समर्पण कुछ यों लिखा था–इंदु के लिये, जो मेरी पत्नी होने के बावजूद मेरी मित्र है। मुझे लगता है कि यह एक पंक्ति इंदु के पूरे वजूद को समझने के लिये बहुत आवश्यक है। इंदु की बीमारी के दौरान बहुत से ऐसे अनुभव हुए जो मेरी भिन्न भिन्न कहानियों में देखे जा सकते हैं। इंदु के व्यक्तित्व के अलग अलग पहलू ‘कैंसर’, ‘अपराध बोध का प्रेत’, ‘ईंटों का जंगल’, ‘भँवर’, ‘रेत का घरोंदा’, ‘पासपोर्ट का रंग’ आदि कहानियों में महसूस किये जा सकते हैं। इंदु के साथ मुझे ब्रिटेन, अमरीका, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, हॉन्गकॉन्ग, टोकियो आदि स्थानों पर जाने का मौका मिला। बच्चों का जन्मदिन मनाने का उसका अपना तरीका था। ग्यारह किलो चावल और ग्यारह किलो अरहर की दाल के ग्यारह पैकेट बनवा कर गरीबों में बाँट देती थी। यह ग्यारह कभी इक्कीस भी हो जाता मगर तरीका यही रहता। उसका कहना था कि जो लोग पहले से ही गैस और अपच के मारे हों, उनको दावत देने का क्या फायदा। दावत तो उनकी होनी चाहिए जो सुबह उठें तो उन्हें पता न हो कि रात का खाना मिलेगा या नहीं। इंदु हमें 1995 में छोड़ कर गईं और उसी वर्ष से ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ की शुरुआत हुई। जब इंदु की मृत्यु हुई उसका सिर मेरी गोद में था। उल्टी साँसें क्या होती हैं, मैंने देखा और महसूस किया।
मुंबई में जब मेरी बेटी दीप्ति का जन्म हुआ था तो जिंदगी ने एक नया अनुभव दिया था। उस मांस की सचमुच की गुड़िया ने जैसे मुझे दीवाना बना दिया था। मैं पागलों की हद तक प्यार करता था उससे। उसकी कोई भी इच्छा पूरी करना जैसे मेरा पहला कर्तव्य होता था। उसके पैदा होने से चार वर्ष तक के सारे रिकॉर्ड हमने जोड़ कर रखे–कब पहला शब्द बोला, कब पहला कदम चली, कब पहला दाँत निकला, कब पहली दाढ़ निकली इत्यादि इत्यादि। जब मयंक–मेरा पुत्र पैदा होने वाला था तो मैंने इंदु से कहा था, ‘इंदु मैं दीप्ति को इतना प्यार करता हूँ, भला होने वाले बच्चे के साथ मैं कैसे न्याय कर पाऊँगा? मुझे नहीं लगता कि मैं किसी और को प्यार भी कर सकता हूँ!’ इंदु ने हमेशा की तरह परिपक्व अंदाज में कहा था, ‘आने वाला बच्चा खुद ही आपसे अपना प्यार ले लेगा।’ और ठीक यही हुआ भी। इंदु की मृत्यु के बाद मैंने घर के हालात के मद्देनजर नैना जी से विवाह किया। दीप्ति और मयंक को इंदु जी मेरे पास छोड़ गई थीं। नैना जी का पहले विवाह से एक पुत्र है रिकी (ऋत्विक)। रिकी आजकल वारिक विश्वविद्यालय से गणित में डिग्री की पढ़ाई कर रहा है। पढ़ाई में बहुत होशियार है। हमने प्रयास किया कि यह एक परिवार बन जाए। किंतु हम दोनों ही इस प्रयास में विफल हो गए। कभी कभी दो अच्छे लोग मिलकर अच्छी तरह इकट्ठे नहीं रह पाते।
बाऊजी इंदु से दो वर्ष पूर्व 1993 में ही हमें छोड़ गए थे। बाऊजी को दिल की बीमारी थी। दिल के मसल कमजोर हो गए थे। डॉ. पुरी का कहना था कि बाऊजी की बीमारी को कार्डियोमायोपैथी कहते हैं। मुझसे जुड़े दो सबसे करीबी लोगों को सबसे भयंकर बीमारियाँ थीं। एक को कैंसर और दूसरे को दिल की बीमारी। बाऊजी से बहुत सी चीजें विरासत में मिली थीं। एक सच बोलनाय बेखौफ सच बोलना सच बोल कर नुकसान उठाना ईमानदारी का बोझ सिर पर उठाए रखना साहित्य रचना करना और हर काम को मेहनत से करना। बाऊजी से जो नहीं सीख पाया वह था हाथ का काम। बाऊजी साइकिल, रेडियो और घर की कोई भी चीज ठीक कर लेते थे। उन्होंने अपनी बीमारी के दौरान भी अपने नये बनाए कमरे के लिये एक दरवाजा खुद बनाया। जो काम मेरे बाऊजी नहीं करते थे वह मैं कर लेता था–जैसे घर के छोटे छोटे काम–खाना बनाना, बरतन साफ कर लेना, सफाई कर लेना। बाऊजी बहुत गुस्से वाले थे। शायद उस जमाने के पिता ऐसे ही होते होंगे। मैंने बचपन में बहुत मार खाई उनसे।
जिस व्यक्ति का प्रभाव मेरे व्यक्तित्व पर बाद के दिनों में पड़ा, वे हैं लंदन के कॉलिंडेल क्षेत्र की काउंसलर श्रीमती जकीया जुबैरी। उम्र में मुझ से एक दशक बड़ी, जकीया जी ने मुझे कमिटमेंट की नई परिभाषा सिखाई। वे ब्रिटेन में हिंदी और उर्दू भाषाओं के बीच की दूरी कम करने में जुटी हैं। उनका मानना है कि ऐसा कोई काम है ही नहीं जो हम नहीं कर सकते। पैसे की समस्या कभी किसी अच्छे काम को होने से नहीं रोक सकती। उनके माध्यम से मेरे लेखन को उर्दू के पाठकों तक पहुँचने का जरिया मिला। मेरी तेरह कहानियों को उर्दू में अनूदित करवा कर उन्होंने पुस्तकाकार में प्रकाशित करवाया। फिर मेरी सोलह कहानियों का ऑडियो सी.डी. बनवाया। उनके माध्यम से मुझे लंदन में बसे मुस्लिम एवं पाकिस्तानी समाज के साथ मेलजोल बढ़ाने का अवसर मिला। उनकी दुनिया से हुए परिचय ने ही ‘एक बार फिर होली’, ‘कब्र का मुनाफा’, ‘तरकीब’, ‘होमलेस’, जैसी कहानियाँ लिखने की प्रेरणा दी। आम तौर पर हिंदी लेखक मुस्लिम थीम पर कलम उठाने से डरते हैं। किंतु उन्होंने यह भी सिखाया कि जिस काम का फैसला कर लिया, उसे पूरा करके ही दम लो। वे इंदु शर्मा कथा सम्मान के आयोजन के साथ पूरी तरह से जुड़ गई हैं।
ब्रिटेन में बसने के बाद से मेरे लेखन में एक निश्चित बदलाव आया। मेरी कहानियों के थीम बदलने लगे। इंदु शर्मा कथा सम्मान के सिलसिले में पढ़ना भी काफी पड़ा और सम्मानित कथाकारों के साथ एक संवाद भी स्थापित हुआ। ब्रिटेन की हिंदी कविता एक दो अपवादों को छोड़ कर अभी अपनी पहचान समझने में लगी थी और कहानी लेखन तो एकदम शैशव काल में था। कविता के मुकाबले मेरी अपनी रुचि कथा लेखन में कहीं अधिक है। इसलिए कथा यू.के. के माध्यम से कथागोष्ठियों का आयोजन शुरू किया गया। आज कम से कम दस लेखक ऐसे हैं जिनके कहानी संग्रह या उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मेरी अपनी कहानियों में ब्रिटेन में बसे भारतीय या फिर यहाँ के स्थानीय गोरे समाज का चित्रण अपनी जगह बनाने लगा।
मेरी शुरुआती कहानियाँ सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं, क्योंकि जीवन में कुछ न कुछ ऐसा घटित होता रहता है जो लेखक को कलम उठाने के लिये प्रेरित भी करता है और मजबूर भी। किंतु उन कहानियों में भी घटना से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं उन घटनाओं की मारक स्थितियाँ। फिर वह चाहे ‘काला सागर’ थी या ‘ढिबरी टाईट’ या फिर ‘कड़ियाँ’ या ‘एक ही रंग’। मेरी कहानियों में एक अंडरकरंट महसूस किया जा सकता है कि आज की दुनिया में रिश्ते अर्थ से संचालित होते हैं। यह मेरी 80 और 90 की कहानियों में तो महसूस किया जा ही सकता है, आज की मेरी कहानियाँ भी इस थीम से अछूती नहीं हैं। कहीं अन्याय होता नहीं देख सकता। अपने आप को कमजोर के साथ खड़ा पाता हूँ। मुझे अपनी दो कहानियाँ इस मामले में बहुत प्रिय हैं कि उन कहानियों के किसी भी पात्र से मैं परिचित नहीं हूँ। न ही स्थितियाँ मेरी देखी हुई थीं।
‘देह की कीमत’ अपनी कुछ अन्य कहानियों के साथ मेरी प्रिय कहानियों में से एक है। एम.ए. में मेरे एक दोस्त पढ़ा करते थे–नवराज सिंह। वह उन दिनों टोकियो में भारतीय उच्चायोग में काम कर रहे थे। टोकियो से दिल्ली फ्लाईट पर आते हुए उनकी मुलाकात मुझ से हुई। उन दिनों मैं एअर इंडिया में फ्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे तीन लाईन की एक घटना सुना दी, ‘प्यार की दस्सां पिछले हफ्ते इक अजीब जही गल्ल हो गई। ओह इक इंडियन मुंडे दी डेथ हो गई। उसदा पैसा उसदे घर भेजणा सी। घर वालियाँ विच लडाई मच गई कि पैसे कौन लवेगा। बड़ी टेंशन रही। इनसान दा की हाल हो गया है।’ अपनी बात कह कर नवराज तो दिल्ली में उतर गया। लेकिन मेरे दिल में खलबली मचा गया। मैं उस परिवार के बारे में सोचता रहा जो अपने मृत पुत्र से अधिक उसके पैसों के बारे में चिंतित है। उन लोगों के चेहरे मेरी आँखों के सामने बनते बिगड़ते रहे। मैंने अपने आसपास के लोगों में कुछ चेहरे ढूँढ़ने शुरू किये जो इन चरित्रों में फिट होते हों। उनका बोलने का ढंग, हाव-भाव, खान-पान तक समझता रहा। इस कहानी के लिये फरीदाबाद के सेक्टर अट्ठारह और सेक्टर पंद्रह का चयन भी इसी प्रक्रिया में हुआ। मुझे बहुत अच्छा लगा जब सभी चरित्र मुझसे बातें करने लगे या मेरे मित्र बनते गए।
इस कहानी की विशेषता यह रही कि घटना का मैं चश्मदीद गवाह नहीं था। घटना मेरे मित्र की थी और कल्पनाशक्ति एवं उद्देश्य मेरा। यानी कि कहानी की सामग्री मौजूद थी। बस अब उसे कागज पर उतारना बाकी था। जब मेरी जुगाली पूरी हो गई तो कहानी भी उतर आई पन्नों पर।
ठीक इसी तरह ‘कब्र का मुनाफा’ एक चुटकुले की तरह मुझे सुनाई गई कि एक पति ने अपनी पत्नी के लिये एक कब्र एक पॉश किस्म के कब्रिस्तान में बुक करवा दी। जब अगले वर्ष पत्नी का जन्मदिन आया तो पति ने मजाक में कहा कि तुमने पिछले जन्मदिन के तोहफे का तो अभी तक इस्तेमाल नहीं किया, फिर भला नया तोहफा दे कर क्या करूँगा। उन्हीं दिनों मैंने एक विज्ञापन देखा जिसमें लाश के बेहतरीन मेकअप के सामान का जिक्र था। मैं हैरान हुआ कि बाजारवाद लाश को भी बख्शने को तैयार नहीं है और उसके मेकअप तक को व्यापार बनाने पर तुला है। फिर मैंने देखा कि एक वित्तीय संस्था से जुड़े अधिकारी किसी नये धंधे के बारे में अपने मित्र से जिक्र कर रहे थे। और मैं सोच रहा था कि कब्र में पैर लटकाए ये लोग आराम क्यों नहीं करना चाहते। बस हो गया कहानी के लिये मसाला तैयार। कुल मिला कर एक ऐसी कहानी तैयार हुई जो कि बाजारवाद की कड़ी पड़ताल करती है। इस कहानी को ‘रचना समय’ के संपादक हरि भटनागर ने पिछले साठ वर्षों की बीस बेहतरीन हिंदी कहानियों में शामिल किया।
एक मजेदार बात यह है कि इन दोनों कहानियों को पढ़ने और सुनने के बाद पाठकों ने इन कहानियों की तुलना प्रेमचंद की ‘कफन’ के साथ की फिर चाहे यह कहानियाँ लंदन में पढ़ी गईं या फिर दिल्ली, फरीदाबाद, बरेली, यमुना नगर, शिमला या भोपाल में। मुझ से पूछा जाता है कि मेरे प्रिय लेखक कौन हैं। मेरा जवाब एक ही होता है कि मुझे न तो अँग्रेजी में और न ही हिंदी में कोई एक लेखक पसंद है। मुझे दरअसल रचनाएँ पसंद हैं जैसे जगदंबा प्रसाद दीक्षित का ‘मुर्दाघर’, हिमांशु जोशी का ‘कगार की आग’, पानू खोलिया का ‘सत्तर पार के शिखर’, राही मासूम रजा का ‘टोपी शुक्ला’, असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नहीं देख्या..’ आदि रचनाएँ मुझे पसंद हैं। अपनी पीढ़ी के लेखकों में मुझे उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’, स्वयं प्रकाश की ‘क्या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है’, अरुण प्रकाश की ‘भैया एक्सप्रेस’, हरि भटनागर की ‘सिवड़ी रोटियाँ’, अखिलेश, देवेंद्र और मनोज रूपड़ा की कुछ कहानियाँ मुझे पसंद हैं। युवा पीढ़ी के कहानीकारों में मुझे अल्पना मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंखुड़ी सिन्हा, अजय नावरिया, हृषीकेश सुलभ, संजय कुंदन आदि से श्रेष्ठ साहित्य की अपेक्षाएँ हैं।
लेखक तेजेंद्र शर्मा के साथ एक समस्या तो हमेशा से लगी रही। मुझे हमेशा मार्क्सवाद विरोधी व्यक्ति समझा गया। जब मुंबई में रहता था तब भी तथाकथित वामपंथी लेखकों के कोप का भाजन बनना पड़ता। यहाँ तक घोषित कर दिया जाता कि तेजेंद्र शर्मा के पास राजनीतिक दृष्टि नहीं है इसलिए उनका लेखन सशक्त नहीं हो सकता। दरअसल मेरा विरोध हमेशा छद्म-मार्क्सवादी लेखकों के व्यवहार से रहा है, न कि मार्क्सवाद से। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था। मुश्किल तो तब हुई जब मुझे आर.एस.एस. से जुड़ा व्यक्ति घोषित कर दिया गया। मुझे आर.एस.एस. की तो उतनी भी जानकारी नहीं जितनी की मार्क्स की है। मैं तो लंदन आने वाले अपने साहित्यकार मित्रों को मार्क्स की कब्र दिखाने भी ले जाता हूँ, जो लंदन के एक पूँजीपतियों के इलाके में बनी है। फिर भला यह अफवाह कैसे फैल गई कि मैं आर.एस.एस. समर्थक हूँ या कट्टर हिंदूवादी हूँ? जब अपनी हिंदी साहित्य की यात्रा के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि पहले जासूसी उपन्यास पढ़े। फिर डॉ. धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’। यह उपन्यास करीब सतरह या अठारह बार तो पढ़ा ही होगा।
जब इंदु ने मुंबई में डॉ. देवेश ठाकुर के मार्गदर्शन में पीएचडी शुरू की तभी मुझे हिंदी उपन्यास से जुड़ने का अवसर मिला। मैंने हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, हिमांशु जोशी, जैनेंद्र कुमार, राही मासूम रजा, मन्नू भंडारी, आदि के उपन्यास पढ़े। कुल सौ के लगभग अवश्य पढ़े होंगे। मुझे जगदीश चंद्र और पानू खोलिया के लेखन ने बहुत प्रभावित किया। मुझे आज भी लगता है कि जगदीश चंद्र के लेखन का सही अवलोकन नहीं हो पाया है। शायद वे किसी गुट विशेष से नहीं जुड़े थे। उनका हर उपन्यास एक क्लासिक उपन्यास है और पंजाब के ग्रामीण जीवन की तस्वीर खींच कर रख देते हैं। पानू खोलिया का उपन्यास ‘सत्तर पार के शिखर’ मुझे आज भी याद आता है।
जब पहली कहानी लिखी थी, ‘प्रतिबिंब’ तो इंदु उसे पढ़ कर बहुत हँसी थी। उसने कहा कि यह कैसी भाषा है। सोचते अँग्रेजी में हो और लिखते हिंदी में हो। खाली ‘है’ लगा देने से अँग्रेजी हिंदी नहीं बन जाती। उसने मुझे मूलमंत्र दिया था कि पंजाबी में सोचो और हिंदी में लिखो। आँख मूँद कर उसकी बात का अनुसरण शुरू कर दिया। आहिस्ता आहिस्ता अँग्रेजी और पंजाबी हाशिये पर होती गईं और मैं सपने भी हिंदी में देखने लगा। यह कहानी नवभारत टाइम्स के रविवारीय संस्करण में प्रकाशित हुई थी। जब ‘सारिका’ और ‘धर्मयुग’ में पहली कहानियाँ प्रकाशित हुईं तो लगने लगा कि अब लेखक बनता जा रहा हूँ।
एअर इंडिया में परसर की नौकरी के कारण मेरी अधिकतर कहानियाँ विदेश के पाँच-सितारा होटलों में लिखी गईं। ‘ईंटों का जंगल’ कहानी तो हवाई जहाज में एक ही सिटिंग में लिखी गई। हुआ यों कि मुझे दिल्ली से फ्रेंकफर्ट सुपरन्यूमरी क्रू के रूप में जाना था। यानी कि यूनिफॉर्म तो पहननी थी किंतु विमान में काम नहीं करना था। इससे एअरलाइन को हमारे लिये वीजा लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। विमान में दाखिल होने के बाद मैंने अपनी कमीज बदली और फर्स्ट क्लास की एक सीट पर बैठ कर अपना राइटिंग पैड निकाल लिया। करीब नौ घंटे लंबी उड़ान में तरह तरह के व्यवधान आने के बावजूद फ्रेंकफर्ट पहुँचते पहुँचते मेरी कहानी का पहला ड्राफ्ट पूरा हो चुका था। ऐसे ही ‘बेघर आँखें’ कहानी लंदन से मुंबई जाते हुए पूरी की थी। एक सिटिंग में कहानी पूरी करने के कुछ लाभ हैं तो कुछ दिक्कतें भी हैं। फायदा तो यह होता है कि (प्रवाह) स्पॉनटेनिटी और कॉन्टीन्युइटी बनी रहती है। कमी यह हो सकती है कि कहानी को अपने आप आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलता और कहानी जैसी सोची जाती है वैसी ही लिखी भी जाती है। ‘कड़ियाँ’ कहानी मेरी एक ऐसी कहानी है जिसका अंत पहले लिख लिया था, क्योंकि यह मैंने स्वयं महसूस किया था। मेरे दादा जी ने मुझे दसवीं पास करने के बाद एक साइकिल ले कर देने का वादा किया था और ग्यारहवीं पास करने के बाद एक घड़ी ले कर देने का वादा भी कर दिया। किंतु मेरा उधार उतारे बिना ही एक सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। मैं आज भी उनको बेनेफिट ऑफ डाउट देता हूँ कि अगर उनकी दुर्घटना में मौत न हो जाती तो शायद मेरा उधार उतार देते। किंतु सच यही था कि मेरा उधार चुकता किये बिना ही वे दुनिया छोड़ गए थे। जब उनके अंतिम संस्कार के लिये निगमबोध घाट गया था तो कुछ महसूस किया था जो दिमाग के किसी कोने में छप सा गया था। बस एक दिन वही ख्याल शब्दों में उतर आया।
मुझे साहित्य में राजनीति कभी न तो समझ आई और न ही पसंद है। राजनीति के लिये पैंफलेट तो लिखे जा सकते हैं, साहित्य नहीं। जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पाते हैं कि महान साहित्य किसी राजनीतिक विचारधारा का मोहताज नहीं था। दरअसल जब हम किसी एक राजनीतिक विचारधारा के दबाव में साहित्य रचना करते हैं तो साहित्य एकरस सा होने लगता है। वरना क्या बात है कि निराला ‘राम की शक्ति पूजा’ भी लिख सकते हैं, ‘सरस्वती वंदना’ भी और उसके साथ साथ ‘वो पत्थर तोड़ती’ भी? जबकि आज का साहित्य भ्रष्टाचार, मजदूर, किसान और बाजारवाद से ऊपर नहीं उठ पाता। शेक्सपीयर का शाइलॉक सही पूछता है कि क्या किसी यहूदी को दर्द नहीं होता जब उसे चोट लगती है? यानी कि चोट लगने पर दर्द एक सा होता है चाहे आप समाज के किसी भी वर्ग से संबंध रखते हों। हमें दर्द और समस्याओं का वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। साहित्य की कोई सीमाएँ तय नहीं करनी चाहिए।
मेरी कहानियों में संवादों का खासा इस्तेमाल होता है। बहुत सी बातें मैं स्वयं न बोल कर अपने पात्रों के माध्यम से कहलवाता हूँ। इसमें मेरा ‘शांति’ टेलिविजन सीरियल लेखन बहुत काम आता है। मैं फिल्म या टेलिविजन के लेखन को दोयम दर्जे का लेख नहीं मानता। मेरे लिये यह लेखन बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यही लेखन ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ संवाद स्थापित करता है। मेरे ‘शांति’ के एपिसोड करोड़ों दर्शकों ने देखे। वहाँ मैं अपने लेखन के साथ प्रयोग भी करता था। जैसे एक बार दिनेश ठाकुर ने कहा कि तेजेंद्र भाई मेरे हर एपिसोड में कम से कम एक डॉयलॉग ऐसा लिखा करो जैसे राजकुमार टाइप–लार्जर दैन लाइफ–जिसे लोग याद रखें। मैं सरल भाषा में सादे संवाद भी लिखता था और बीच बीच में लार्जर दैन लाइफ भी। हम सब यह मान कर चलते हैं कि पश्चिमी देशों में सभी धनाढ्य लोग बसते हैं। आम आदमी इन देशों में भी होता है जो सप्ताह में चालीस घंटे नौकरी करता है, शनिवार को ओवरटाइम करता है। मॉर्गेज का भुगतान करते करते उसकी कमर टूटने लगती है। उसके घर की हर चीज उधार ले कर खरीदी गई होती है। वहाँ आम आदमी भी उतना ही परेशान है जितना कि भारतीय आम आदमी। मेरी कहानियों में ब्रिटेन के आम आदमी के दर्शन होते हैं।
कभी कभी खुशियाँ अचानक कहीं से चली आती हैं। उस खुशी का मजा भी कुछ अलग ही होता है। मुझे याद पड़ता है कि भारतीय उच्चायोग, लंदन में कार्यरत मेरे एक मित्र थे विकास स्वरूप। उन दिनों लंदन में टीवी पर एक प्रोग्राम आता था–‘हू वुड बी ए मिलियनेयर’, जिसमें एक मेजर को खाँसी के माध्यम से सवाल का जवाब देने में सहायता करने का आरोप लगा। इसी थीम को लेकर विकास के मन में अँग्रेजी में एक उपन्यास लिखने की योजना बनी। विकास ने उस थीम के बारे में मुझसे बातचीत की। कई बार हमारी उस मैन्युस्क्रिप्ट को ले कर बातचीत होती रही। मुझे याद पड़ता है कि मैंने विकास से कहा था, ‘विकास जी, जो उपन्यास आप लिख रहे हैं, इसमें बेस्टसैलर होने की सभी खूबियाँ हैं। आप इसे साहित्य समझने के चक्कर में मत पड़िएगा। यह उपन्यास आपको शीर्ष के पाप्युलर लेखकों की कतार में ला खड़ा करेगा।’ बातें चलती रहीं और एक दिन विकास का उपन्यास ‘क्यू एंड ए’ के नाम से प्रकाशित हो गया और लंदन के नेहरू केंद्र में उसका विमोचन भी हुआ। मुझे याद आया कि उससे एक साल पहले विकास ने इंदु शर्मा कथा सम्मान में सक्रिय भाग लिया था और मैंने उससे कहा था कि लो भाई अब तो हिंदी के मंच पर तुम्हारा विमोचन हो गया। जब उपन्यास को मैंने खोल कर देखा तो पाया कि विकास ने उस उपन्यास के लेखन में सहायता के लिये मुझे भी धन्यवाद कहा था। आज वही उपन्यास जब दुनिया की बेहतरीन फिल्म ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ के नाम से पुरस्कार पर पुरस्कार जीत रहा है, मुझे यह सोच कर अच्छा लगता है कि इस उपन्यास के लेखन के साथ किसी न किसी रूप में मैं भी जुड़ा था।
‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ के लंदन आने के बाद मेरे अनुभव क्षेत्र में बहुत बढ़ोत्तरी हुई। मुझे यहाँ के भारतीय उच्चायोग से बहुत सहयोग मिला। इनका साथ हमारे सम्मान को ब्रिटेन में स्थापित करने में खासा सहायक सिद्ध हुआ है। राकेश दुबे के माध्यम से लॉर्ड तरसेम किंग ने हिंदी के इस अकेले अंतरराष्ट्रीय सम्मान को हाउस ऑफ लॉर्ड्स में प्रतिष्ठित कर दिया। एअर इंडिया के साथ साथ भारतीय वित्तीय संस्थाएँ स्टेट बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ बड़ोदा, भारतीय जीवन बीमा निगम एवं इंडिया टूरिज्म आदि हमारे काम में हमारे साथ आ खड़े हुए। हमने इस काम में अपने इलाके के हलवाई, नाई एवं मंदिर तक से सहयोग लिया। हम अपने सम्मान के साथ यहाँ के आम आदमी को जोड़ना चाहते थे।
‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ की स्थापना भी विशेष हालात में हुई। मैं जगदंबा प्रसाद दीक्षित को लेकर डॉ. धर्मवीर भारती के घर गया था। इससे पहले यह दोनों वरिष्ठ जन कभी एक दूसरे से नहीं मिले थे। वहीं पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान डॉ. भारती ने सम्मान की राशि ग्यारह हजार रुपये एवं कथा सम्मान का नाम एवं चालीस वर्ष की आयु-सीमा भी तय कर दी। वे मान भी गए कि पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान वे स्वयं कार्यक्रम में उपस्थित हो कर देंगे। पूरे मुंबई में सब जानते थे कि भारती जी किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेते ही नहीं। किंतु वे आए, गीतांजलिश्री को सम्मानित किया और करीब चालीस मिनट तक धाराप्रवाह बोले। मुंबई के साहित्य-प्रेमियों के लिये यह एक नया अनुभव था। कार्यक्रम ठीक समय पर शुरू हुआ और ठीक ही समय पर खत्म भी हो गया। हिंदी जगत के लिये यह भी एक नया अनुभव था। कुछ लोग तो कार्यक्रम के समाप्त होते होते पहुँचे। मुंबई में हमारे मुख्य-अतिथियों एवं अध्यक्षों की सूची देख कर सम्मान की प्रतिष्ठा का अंदाज हो सकता है। उनमें भारती जी के अतिरिक्त ये नाम शामिल थे कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मनोहरश्याम जोशी, ज्ञानरंजन, जगदंबा प्रसाद दीक्षित, कन्हैयालाल नंदन, गोविंद मिश्र, कामतानाथ। कथा सम्मान के मुंबई से लंदन आ जाने के बाद मुझे सूरज प्रकाश के वजूद का अहसास बहुत शिद्दत से हुआ। उन्होंने पूरे कमिटमेंट के साथ कथा यू.के. के भारतीय फ्रंट को सँभाला हुआ है। वे बिना किसी स्वार्थ के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से इस महायज्ञ के साथ जुड़े हैं।
यह थोड़ी अजब सी स्थिति है कि मैं कथा सम्मान प्राप्त साहित्यकारों में से केवल दो एक से ही समारोह के बाद भारत में मिल पाया हूँ। होता कुछ यों है कि मैं अधिकतर सम्मानित साहित्यकारों से पहली बार लंदन के हवाई अड्डे पर ही मिलता हूँ और यहाँ लंदन में सूरज प्रकाश उनकी देखभाल करते हैं। मेरे साथ उनका कोई खास जुड़ाव हो ही नहीं पाता। कभी कभार किसी समारोह में मुलाकात हो जाती है।
इस सिलसिले को कायम रखते हुए मैं बीसवें सम्मानित कथाकार सुंदर चंद ठाकुर को भी पहली बार दिल्ली के आजाद भवन में कार्यक्रम के दौरान पहली बार मिला। हर वर्ष कुछ नए लोग इस कारवाँ के साथ जुड़ते हैं और कुछ ऐसे भी नाम हैं जो साथ चलते चलते थक जाते हैं तो विश्राम करने बैठ जाते हैं। अनेक बार लोगबाग पूछ बैठते हैं कि आखिर मैं लिखता क्यों हूँ। लिखना मेरे लिये मजबूरी है। जब कभी आसपास देखता हूँ तो अन्याय, मूल्यों का विघटन, दोगलापन और स्वार्थ अपने डैनों के नीचे हर व्यक्ति को दबाये दिखते हैं। तब मेरी कलम अपने आप चलने लगती है। मैं उन लेखकों में से नहीं हूँ जो कहते हैं कि मैं स्वांतःसुखाय लिखता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरा लिखा एक एक शब्द प्रकाशित हो, उसे लोग पढ़ें और उस पर प्रतिक्रिया भी दें। मेरा लिखा विद्यार्थी स्कूलों में पढ़ें, कॉलेज में पढ़ें। मैं सम्मानों के बारे में यह नहीं कहता कि फलाँ सम्मान मिलने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे एक आम पाठक का पत्र भी अच्छा लगता है। एक साथी लेखक की प्रतिक्रिया या सुझाव भी अच्छा लगता है। किसी वरिष्ठ लेखक या आलोचक की शाबाशी भी अच्छी लगती है। मेरे निकट लेखन केवल अपने भीतर का सत्य खोजने का नाम नहीं है। मेरे लिए लेखन का अर्थ है अपने पाठक के साथ संवाद स्थापित करना। यह सच है कि जब कभी एक लेखक के तौर पर हमारे काम को पहचान मिलती है तो उसका सुख अलग ही होता है।
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