दिनांक के बिना

दिनांक के बिना

मेरे बाबूजी ने जो अमृत ज्ञानशाला बनाया था वह भी पानी में डूबने के कारण तटबंध के पार तरवारा चला गया। वह सरकारी रजिस्टर्ड स्कूल हुआ किंचित नाम बदल कर। मेरे पति रामचंद्र जी के पिता के नेतृत्व में कोसी तटबंध का कड़ा विरोध हुआ था। परंतु उसका कोई फलाफल नहीं निकला। पानी में डूबी जमीन को दिखला कर इनके पिता जी ने कहा कि आप बड़े विद्वान बने रहिए, चिंतन मनन करते चलिए दुनिया को राह दिखाते चलिए, पर रोटी का प्रबंध भी करिए। रामचंद्र जी ने गाँठ बाँध ली।

पटना में जीवन की रफ्तार यह थी कि सन् 1963 की फरवरी माह में पटना कॉलेज की शताब्दी मनाई जा रही थी। उसके मुख्य अतिथि थे भारत के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन। पटना कॉलेज में पंद्रह बीस लड़कियाँ थीं। हमें काम बाँट दिया गया था। हम तो स्वयंसेवक थे। गौरव के उस अहसास को भूलना कठिन है।

सीमा पर युद्ध के समय अनेक प्रकार का प्रशिक्षण होता। लड़कियों को नर्स की ट्रेनिंग तथा लड़कों के लिए रायफल ट्रेनिंग। फिर लड़कियाँ भी रायफल सीख रही थीं और लड़के नर्सिंग सीख रहे थे। सेना में भर्ती के लिए लड़के जाने लगे थे। देशभक्ति का गजब का जज्बा था। किसी लड़की के पास ट्रांजिस्टर था तो लड़कियाँ समाचार सुनने भीड़ लगा देतीं। ऐसे समय होस्टल के गेट पर दो ट्रक ऊन लदे खड़े हो गए। हम सब स्वेटर, मोजा, दस्ताना, पैर की पट्टी, टोपी मफलर बुनने लगे। बुनाई के लिए तीन नाप स्वेटर के दिए गए। प्रायः स्वेटर पूरी बाँह, हाइनेक की माँग थी। जल्दी चाहिए था। सेट बनाकर मोटे मारकिन के झोले में सिलकर दिया गया था। जिन लड़कियों को बुनाई नहीं आती थी वे भी सिलाई में लग गईं। खाना-पीना और नींद हराम। ट्रक रवाना कर संतोष की साँस ली। रोटी चिवड़े तथा सत्तू का पैकेट भी बना था।

कभी कोई सामग्री हेलीकॉप्टर से गिराने में चीनी सिपाहियों की तरफ गिर गया वह हमने रेडियो में खबर में सुन ली। अब क्या था, लड़कियों ने उस दिन भोजन ही नहीं किया, दिनभर बिसूरती रहीं। सन् 1965 का भारत-पाक युद्ध जबर्दस्ती थोपा गया था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपनी इच्छा शक्ति से जीता था। उनका ‘जय जवान–जय किसान’ नारा कारगर रहा था। तभी सन् 1966 में ताशकन्द समझौते के लिए गए शास्त्री जी की संदेहास्पद परिस्थिति में मौत हमारे लिए एक हादसा था। संपूर्ण देश स्तब्ध था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और अब ये मझधार में छोड़ गए। दिल्ली की सियासत गरमा गई थी। प्रधानमंत्री के प्रश्न पर काँग्रेस दो फाँक हो चुकी थी। एक ओर रामसुभग सिंह प्रधानमंत्री बन गए, दूसरी ओर स्वयं इंदिरा गाँधी को कुर्सी पर बिठाने के इच्छुक लोगों ने नई काँग्रेस पार्टी बना ली। जोड़-तोड़ की राजनीति का सूत्रपात हुआ। इंदिरा गाँधी गूँगी गुड़िया नाम से जानी गई पर सशक्त होकर उभरीं। मेरी समझ से काँग्रेस अंदर से तभी से खोखली हो गई थी जब कामराज प्लान आया। दक्षिणात्य काँग्रेसी का दिल टूट गया था, नई पार्टी का सूत्रपात सन्निकट था। देश की इन परिस्थितियों का प्रभाव जनता पर पड़ा। प्राकृतिक आपदा भी उसी समय आई। देश के अधिकांश हिस्सों में भयानक सूखा पड़ गया था, बाकी हिस्सों में जलप्लावन का संकट। जनसंख्या वृद्धि बेतहाशा थी। देश अन्नसंकट से जूझ रहा था। पी.एल. 480 के तहत गेहूँ आयात किया गया था। उसी के साथ आया गाजर घास का बीज जो भयानक जानलेवा है।

मैं व्यक्तिगत रूप से न जाने कितनी उलझनों में फँसी थी परंतु फितरत के अनुसार कभी हारने की सोची नहीं। मेरी माँ जलजमाव से जूझती रही। बेटी को पालती रही। सन् 1965 का जून माह शायद 26 जून था। महिला चरखा समिति की रजत जयंती थी। प्रभावती जी की भतीजी ज्योति मेरे साथ होस्टल में थी। हम तब एम.ए. में थे। ज्योति ने उनको मेरा परिचय बताया। प्रभावती जी विह्वल हो गईं। मुझे बुला भेजा और बहुत प्यार किया, माँ के बारे में आत्मीयता से पूछती रहीं। बहरहाल, प्रभावती जी के भव्य आयोजन की मुख्य अतिथि थीं श्रीमती इंदिरा गाँधी। शास्त्री जी ने उन्हें मंत्री बना रखा था। बिना विभाग की मंत्री या सूचना प्रसारण मंत्री। उन दिनों हिंदी विरोध की लहर दक्षिण भारत में जोर-शोर से चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नेतृत्व में चल रही थी। सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नायाब पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ़ गया था। इंदिरा जी वहाँ संकटमोचक की भूमिका में गई। वहाँ उन्हें धक्का-धुक्की सहनी पड़ी थी। वहाँ से सीधे चरखा समिति आई थीं। तीन दिनों तक रहीं। अभी जो ऑफिस है उसके चौड़े बरामदे पर जमीन पर बैठकर सबके साथ पत्तल पर खाते देखा था।

मुझे कवयित्री सम्मेलन कराने का भार प्रभावती जी ने दिया था। मैंने उसी समय रमणिका गुप्ता और शांता सिन्हा को ढूँढ़ निकाला। शांता सिन्हा की पुस्तक–‘समानांतर सुनें’ छप चुकी थी। तीसरी कवयित्री थी कुमारी राधा। उनकी पुस्तक थी–‘सरयू कछार की हिरणी’। आशा सिन्हा नामक कवयित्री थीं। अध्यक्षता विन्दु सिन्हा कर रही थीं। कवयित्री सम्मेलन हिंदी पट्टी में शायद पहली बार हुआ होगा। प्रभावती जी के मन में महिलाओं के सर्वांगीण विकास का नक्शा बना हुआ था। सामान्य और विशिष्ट के लिए अपढ़ और पढ़ी लिखी के लिए। जो जैसा है उसी रूप में स्वावलंबी हो यह विचार था ऐसा जान पड़ता है। मैं कविताएँ लिखती थी। सन् 1960 से आकाशवाणी में कविता पढ़ने लगी थी। सन् 1962 में चीनी आक्रमण के बाद चौपाल में सर्वभाषा कवि सम्मेलन हुआ। नाम था–चीन को चुनौती। मुझे मधुकर गंगाधर ने मैथिली में कविता पाठ करने को कहा। मैंने पहली बार मैथिली में हाथ आजमाया। कविता का शीर्षक था–‘सामा चकेबा।’ भाई के नाम बहन की पाती। यात्री काका यानी नागार्जुन मुझे अपने साथ आरा और गया के कवि सम्मेलन में ले गए थे। साथ में सुकान्त रहते। उसी समय से मैं डॉ. नामवर सिंह, कवि धूमिल और काशीनाथ सिंह को जान रही हूँ। फिर कई मंचों पर मुलाकातें हुईं। पर यह सब 62-64 के दौर की बात है।

पटना में कितने राष्ट्रीय ख्याति के कवियों लेखकों से मिली उसकी क्या गिनती। आरसी प्रसाद सिंह बचपन से ही अपने थे। दिनकर जी को उनके द्वारा कविता पढ़ते कई बार सुना परंतु सीनेट हॉल में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की उपस्थिति में जो सुना वह भूलती नहीं–‘तान तान फन ब्याल की तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ’ दिनकर जी भावुक, भावपूर्ण स्पष्ट और दृढ़ शब्दों को उच्चारते तो लगता नाद-स्वर है। उनका पूरा व्यक्तित्व उनकी कृति में समाहित सा लगता। दिनकर जी को सामने से सुनना आपको उनके भावलोक में ले जाता। सहज प्रवाह में हवा में उड़ते लघु पत्र की भाँति सातवें आसमान पर पहुँच जाते। जब वे समापन करते तब उस अकिंचन पत्र की तरह ही भूलुंठित हो जाते। दिनकर जी के बाद ओजस्वी कविता पाठ पं. रामदयाल पांडे करते। मेघ गर्जन सा उनका स्वर अभिभूत कर देता। साहित्य के माहौल को याद करती हूँ। तो आचार्य शिवपूजन सहाय से अच्छा नाता था परंतु उनका निधन 1963 में हो गया था। आकाशवाणी के परिसर में अक्सर बिहार तथा बाहर के लोग मिलते। मुझे साहित्यकार अक्सर नकली भाषा बोलते हुए लगते। मैं खूब आत्मीय नहीं होती। शिक्षा की दिशा इतिहास और पुरातत्व होने के कारण मोटी मोटी किताबें पढ़ने का शौक था। कुछ रेफरेंस के क्रम में पढ़ती।

पटना विश्वविद्यालय का इतिहास और पुरातत्व विभाग की अलग इमारत बनी, एक विभागीय संग्रहालय भी बना। भारत के शिक्षामंत्री एम.सी. छागला उद्घाटन में आए थे। सेमिनार हुआ था जिसमें डॉ. ए.एल. बाशम आए थे। हमने उनकी पुस्तक–‘अ वंडर, दैट इज इंडिया’ पढ़ रखी थी। उनसे काफी प्रश्नोत्तर हुआ। वे हँस हँस कर हिंदी भाषा में उत्तर देते रहे थे। सबसे मजेदार था जब उन्होंने मुझसे मेरे भाल पर सिंदूरी बिंदी को लेकर प्रश्न पूछा। मैं अधिक कुछ कह न सकी पर उनके मित्र और मेरे गुरुजी प्रो. डॉ. उपेन्द्र ठाकुर ने उन्हें अच्छी तरह समझाया। समझाने की कोई जरूरत थी नहीं। डॉ. बॉशम स्वयं सब जानते थे, वे भारतीय आत्मा थे। मुझे गर्व है कि मैंने उन्हें देखा, उनसे संवाद हुआ मेरा। पटना कॉलेज की यादों में बसा है कॉलेज का गंगा किनारे वाला बाग जिसे विल्सन गार्डेन कहते। हमारे समय के प्रिंसिपल आबदीन साहब गुलाब, जूही, चमेली का खास ख्याल रखते। अपराजिता और लवंगलता (जिसे आबदीन साहब इश्कपेंचा कहते) की खूबसूरत लतरें, खासी गझिन थीं। आबदीन साहब स्वयं सुंदर और स्मार्ट थे; कॉलेज परिसर में एक पत्ता गिरा हुआ नहीं देखना चाहते। वह एक अजब समय था। उन्हीं दिनों पूना फिल्म इन्स्टीच्यूट की स्थापना हुई थी। हमारे विश्वविद्यालय से दो छात्र चुने गए। एक साइंस कॉलेज का लड़का शत्रुध्न सिन्हा दूसरा हमारे कॉलेज का शमीम आबदीन। शमीम गजब के खूबसूरत थे। कोर्स आधा ही छोड़कर भाग आए, घर की याद और अम्मी के हाथ के शामी कबाब याद आते। शत्रुध्न रह गए, आज प्रसिद्धि के शिखर पर हैं। शमीम पिता की तरह ही प्रोफेसर हुए।

शत्रुध्न शरारती किस्म के छात्र थे। होस्टल में मेरी साथी रूममेट थी उमा सिंह। वह भी केमिस्ट्री ऑनर्स में थी उसे चिढ़ाने के लिए वे होस्टल के गेट तक आते। उमा संकोची सरदारनी थी। मुझसे कहा तो मैंने एक दिन शत्रुध्न को टोका कि ‘क्यों इसे परेशान करते हो’। उसने कहा ‘मैं कुछ तो करता नहीं।’ पर पीछा छोड़ दिया। यह घटना उन्हें याद है। पटना कॉलेज के मुख्य मैदान के पार सड़क है, उस सड़क के पार विशाल वृक्ष था जिसे बॉलीबुद्ध ट्री कहा जाता। वहाँ पटना वीमेंस कॉलेज और मगध महिला कॉलेज की छात्राओं की बसें रुका करतीं। उन दिनों पटना कॉलेज में सेंट्रलाइज ऑनर्स का क्लास होता। शत्रुध्न अपने कॉलेज से आ जाते, नज्जू हमारे यहाँ के थे, वे कुछ साथियों को लेकर बैठ जाते और कमेंट करते। मुझे लगता है लड़कियों को भी रस आता था। सारी चुहलबाजियाँ शाकाहारी प्रकार की होतीं। परंतु कुछ इश्क मुहब्बतें पटना विश्वविद्यालय के परिसर में परवान तो चढ़ीं। कुछ कामयाब हुई, कुछ नाकामयाब।

पटना में सर्किट हाउस के सामने रंगसंयोग बन रहा था। रवीन्द्र भवन बनकर तैयार हो गया था। उस मंच पर कोलकाता का प्रसिद्ध नाटक ‘लाल कनेर’ (रक्त करबी) हुआ था। रामगोपाल बजाज ने उसमें अहम् भूमिका निभायी थी। वे हिंदी में एम.ए. कर रहे थे। ‘रक्त करबी’ का एक पात्र आते ही बीमार हो गया। दिनभर के अभ्यास से रामगोपाल बजाज ने बेहतरीन भूमिका अदा की। उसके बाद ही वे दिल्ली चले गए। पटना विश्वविद्यालय की विशिष्ट तिकड़ी टूट गई–कमलनयन चौबे, रामचंद्र खान और रामगोपाल बजाज की। कालांतर में तीनों ने अलग-अलग नाम कमाया।

मैं पुनः बचपन की ओर झाँकती हूँ जहाँ मेरे बाबूजी के अनुजवत् मित्र डॉ. लक्ष्मण झा मुझसे और मेरे छोटे भाई से मिलने पटना के ऐंग्स गर्ल्स स्कूल आए। आदेश लेकर हमें घुमाने-फिराने निकले। मेरे छोटे भाई ने लोदीपुर की जलेबी वाली दुकान पर खाने की जिद कर दी। लक्ष्मण झा ने जलेबी तो खिला दी पर स्कूल आकर अमेरिकन प्रिसिंपल और टीचर से झगड़ा किया। यह कि बच्चे भूखे रहते हैं। फिर क्या था, हम दोनों भाई बहनों को लेकर लहेरियासराय चले आए। वैसे उन दिनों मित्रों को यह हक भी था और दायित्व भी। माँ हक्की-बक्की रह गई। बाबूजी गाँव में थे। लखन जी ने सरस्वती स्कूल जाकर हेडमास्टर झिंगुर कुँवर से कह हमारा दाखिला करवा दिया। वहाँ मैं छह माह रही होऊँगी। उसी बीच मेरे बाबूजी दुर्घटना में चल बसे थे। उसी बीच लखन जी और बाबूजी में सैद्धांतिक रूप से कहा सुनी भी हो गई थी। मेरे बाबूजी का कहना था कि ‘स्त्रियों को शिक्षा और जागृति की ओर ले चलने का उपाय करना चाहिए न कि उनकी निजता में ताक झाँक करनी चाहिए।’ लक्ष्मण जी ने स्वयं तीन गज मारकिन की लूँगी और दो गज चादर धारण कर लिया था तथा स्त्रियों को भी मारकीन पहनने पर बाध्य करने लगे थे। उनकी भाँजी भतीजी और मित्र की बहनें, माँ, पत्नियाँ दबाव में रहतीं।

अब मेरा दाखिला एल.आर. गर्ल्स स्कूल में होना था। उस समय बाबूजी थे। माँ ही अभिभावक थी। स्कूल में पुनः दाखिले के लिए, वह भी नवीं क्लास में स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट चाहिए जो लखन जी की हड़बड़ी के कारण लिया न जा सका था। अब वह जरूरी था। रामचंद्र जी को सर्टिफिकेट लाने का भार सौंपा गया। जब वे लाने गए तो उन्होंने आग्रह कर मेरे नाम किरण में उषा जोड़ दिया। बाद में पूछने पर बताया कि मैंने सोचा यह अभी छोटी है तो मिनी या किरण नाम चलेगा बड़ी हो जाएगी तो नाम कितना छोटा सा लगेगा? क्यों न जोड़ दिया जाय उषा और मेरा नाम बदल गया। जुबान पर किरण ही चढ़ी थी सो मेरी स्कूल कॉलेज की मित्रों ने कभी उषा किरण न कहा।

हमने सुख दुख झेलते हुए पढ़ाई न छोड़ी। खेत और अनाज के बल पर ही हमारी अर्थव्यवस्था टिकी थी और माँ तथा ससुर जी के खेत डूब क्षेत्र में आ गए थे। भोजन वस्त्र के लिए न सिर्फ अपने परिवार का बल्कि जो आश्रित मजदूर थे उनके लिए भी घोर संकट का समय था। ऐसे समय में जीवन कठिन था। परंतु हमने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। अपनी रोजी रोटी की समस्या को रामचंद्र जी ने आई.पी.एस. होकर हल कर लिया।


Image : In the Hospital
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Artist : Vasily Vereshchagin
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उषाकिरण खान द्वारा भी