ऋता शुक्ल की कहानियों में नारीवाद

ऋता शुक्ल की कहानियों में नारीवाद

अरुंधति, अग्निपथ, समाधान, बाँधो न नाव इस ठाँव, कनिष्ठा उँगली का पाप, कितने जनम वैदेही, कब आओगे महामना, कथा लोकनाथ की, दंश, शेषगाथा, कासों कहों मैं दरदिया, मानुस तन, कायांतरण, मृत्यु गंध, जीवन गंध, भूमिकमल, तर्पण आदि कृतियों की लेखिका तथा भारतीय ज्ञानपीठ युवा कथा सम्मान, लोकभूषण सम्मान, थाईलैंड पत्रकार दीर्घा सम्मान, राधाकृष्ण सम्मान, नई धारा रचना सम्मान, प्रसार भारती हिंदी सेवा सम्मान, हिंदुस्तानी प्रचार सभा सम्मान, हिंदी सेवा सम्मान से सम्मानित डॉ. ऋता शुक्ल मेरी शिक्षिका रह चुकी हैं इस बात का मुझे गर्व है।

डॉ. ऋता शुक्ल की रचनाएँ एक ऐसे यात्रा-क्रम का स्मरण दिलाती हैं, जहाँ भारतीय संस्कृति का लोक राग, संपूर्ण राष्ट्र की संवेदना, मानवीय करुणा की अनगिन लकीरें हैं। डॉ. ऋता शुक्ल की ज्यादातर कहानियों में भारतीय ग्राम संस्कृति का भाव-विह्वल स्वर मिलता है। जड़ विलासिता के पीछे भागते हुए लोग, जड़ मान्यता लिए लोग, ग्रामांचल के सीधे-सादे लोग, लोक संवेदना से जुड़े लोग, डॉ. ऋता शुक्ल की रचनाएँ ऐसे चरित्रों की अद्भुत विविधता और अकूत विस्तार से भरी-पूरी हैं। पीढ़ियों का अंतराल, उपेक्षित बुजुर्ग, उपेक्षा संत्रास झेलती स्त्रियाँ आदि चरित्र उनकी कहानियों की कथात्मक भूमि रही हैं।

एक लेखिका होने के नाते डॉ. ऋता शुक्ल ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘स्त्री’ की दशा, दुर्दशा और उसके संघर्षमयी जीवन-गाथा को सहृदयता के साथ अपने कथा साहित्य में वर्णित किया है। स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को, प्रश्नों को, त्रासद अवस्था का मनोवैज्ञानिक चित्रण उन्होंने किया है। डॉ. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में स्त्री-जीवन के लगभग सभी पहलुओं पर दृष्टि केंद्रित की है। उनकी कहानियों में एक ओर जहाँ असहाय और पीड़ित स्त्री-जीवन चित्रित है, वहीं दूसरी ओर संघर्ष और प्रतिकार करती आधुनिक स्त्रियाँ भी मौजूद हैं। कहानी ‘कनिष्ठा उँगली का पाप’ में नीलाभ रंजन की अम्मा का चरित्र गढ़ते हुए लेखिका ने कितनी गहराई से चित्र खींचा है–‘काली किनारी की सफेद मारकीन वाली साड़ी पहनकर अम्मा इस कमरे से उस कमरे में बेमतलब डोलती रहतीं। दादी को सँभालकर उन्हें गीता के श्लोक सुनाती। अम्मा कैसी लगती थीं? उस वक्त के उस नन्हे नीलू की समझ में कुछ भी नहीं आता था; लेकिन इतिहास-पुराणविद् नीलाभ रंजन अब समझ सकते हैं, अब वे बता सकते हैं। पुरुष और नारी के शाश्वत संबंधों की मंत्रपूत व्याख्या करते हुए एक व्याख्यानमाला के अंतर्गत उन्होंने अपने मन की भावना को शब्द दिए थे–नारी नर की परागति होती है। पुरुष की आत्मा के अविभाज्य संकल्प को नारी अपनी चेतना में वैसे ही उतारती है, जैसे दीपक की वर्तिका के चारों तरफ अग्नि का संयोजन होता है। नारी अपने आपको मिटाकर पुरुष की उस संकल्प-शक्ति को सार्थक बनाती है। उसका दायित्व पुरुष से लक्ष गुना अधिक है।

नीलाभ रंजन की माँ जैसी नारी! हाँ, उसी नारी ने उनके प्राणों में यह अदम्य आस्था भरी। आज वे जो कुछ भी हैं, उसके मूल में अम्मा का व्यक्तित्व ही है। करुणा से भरे उस चेहरे को वे जब कभी अपनी दोनों हथेलियों में समेटते, दोनों आँखों की पुतलियों में दीपशिखा-सा कौंधता विश्वास उनके मन-प्राणों को बाँध लेता! तुझे किस बात की चिंता है, बेटे, तू क्यों डरता है? तू बस अपनी पढ़ाई पूरी करता जा। तुझे बहुत बड़ा बनना है, बहुत ही बड़ा! बाबूजी की शहादत के सात वर्षों के बाद…होंठों के ऊपर काले रोओं की महीन रेखाओं के फूटने के अहसास के साथ नीलाभ ने और भी कई अहसास पाए थे। दादी के गुजर जाने के बाद अम्मा की आँखों का अथाह खालीपन अपने भविष्य की चिंता रघुराज शास्त्री के देहावसान की पीड़ा इन सारे संदर्भों के क्रम में वे असमय परिपक्वता की मनःस्थिति से जुड़ते चले गए थे।’

आज भी ‘स्त्री’ को लेकर हमारा समाज भयंकर हीनता बोध से ग्रस्त है और स्त्रियों के प्रति शोषण व अत्याचार, शारीरिक व मानसिक हिंसा जारी है। हमने ‘नारों’ और ‘योजनाओं’ में भले ही ‘स्त्री-शक्ति’ का परचम लहरा लिया हो, व्यावहारिक धरातल पर यह सब अधूरा ही है। कनिष्ठा उँगली का पाप कहानी की एक अन्य सशक्त महिला पात्र अनुराधा गर्भाशय कैंसर से ग्रस्त है। वह अपने अंत समय में अपनी बेटी जया से जो कहती है, वह एक विचारशील स्त्री की वेदना है :–

‘बेटी बड़ी हो जाए, तो वह सखी की तरह हो जाती है न। तेरे पापा और उनकी इस गृहस्थी को दो हिस्सों में बाँट दूँ तो इस आधे हिस्से पर भी मेरा पूरा अधिकार हो पाया या नहीं, यह बताना मुश्किल है, जया! औरत आगे बढ़कर अपना अधिकार स्वयं ले ले, यह एक दूसरी स्थिति हुई, लेकिन स्वाभाविकता तो तब मानी जाती है जब घर गृहस्थी की सीमा में बँधी हुई स्वयं बाँहें फैलाकर उसे अपनी ओर उमगने का आमंत्रण दे। तेरे पापा रात-दिन अपनी पढ़ाई में लगे रहे। उनसे पूछना कभी, अपने परिश्रम से उन्होंने जितनी उपाधियाँ अर्जित की हैं, उनका मोल चाहे जो भी रहा हो, लेकिन विद्वानों की मंडली ने उन्हें सम्मानित करने के लिए जो मानद उपाधियाँ दी थीं, उन्हें पाकर वे कितने आह्लादित हुए थे।’ उन्होंने डॉ. हरिनारायण के कथन को सिर हिलाते हुए स्वीकारा था–आपकी विद्वत्ता का महत्त्व किसी उपाधि की सीमा में बँधनेवाला नहीं है सर, फिर भी मद्रास विश्वविद्यालय ने आपको यह मानद् उपाधि दी है तो इससे आप नहीं, बल्कि उपाधि ही सम्मानित हुई है।

अनुराधा ने एक ठंडी साँस भरी थी–‘तेरे पापा ने मुझे वैसी कोई मानद् उपाधि कभी नहीं दी, जया। मैं स्वयं आगे बढ़कर अपने कर्तव्य का सचेष्ट निर्वाह करती रही, और मैंने उनसे कभी यह आशा भी नहीं की, बेटे कि वे…वीतरागी गौतम की सिद्धि में सुजाता की खीर का कोई-न-कोई योगदान रहा है। तेरे पिता इतिहासवेत्ता हैं। वे मानें या न मानें, लेकिन मेरा मन यही कहता है। सुजाता खीर सी मिठास लेकर ही मैं उनके परिवार को, उनकी घर-गृहस्थी को सँभालने का व्रत पालती रही, जया–अब यह जिम्मेदारी तेरे ऊपर है बिटिया। जानती हूँ, मेरे नहीं रहने पर वे निरीह हो जाएँगे। उनके पठन-पाठन का सिलसिला बिखरने नहीं पाए। सब कुछ सँभालना होगा।’ पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में विचारशील, संपन्न परिवार में भी स्त्री की दशा कुछ बेहतर नहीं है, इस संवाद से आप समझ सकते हैं। हालाँकि यह सच है कि यह कहानी विश्वविद्यालय शिक्षण पद्धति की अराजकता उससे उत्पन्न हताशा, विफलता का आभास और इन सब से निराश व्यक्ति नीलाभ रंजन की जीवन यात्रा से जुड़ी है। लेखिका के शब्दों में ‘शैक्षणिक प्रदूषण के इस परिवेश में किसी भी मनुष्यता के लिए इन पदों पर टिके रहने के एवज में अपना सुकून खो देना कनिष्ठा उँगली का पाप ही तो है।’

‘रामो गति देहु सुमति…’ कहानी की पात्र ‘चंपावती’ के द्वारा ऋता शुक्ल ने इस सच्चाई को सहजतापूर्वक अंकित किया है कि भारतीय समाज में लड़कियों और लड़कों के लिए भिन्न मान्यताएँ हैं। इस कहानी के कथानायक सुखदेव साहू के लिए पढ़ने-लिखने का अधिकार केवल लड़कों के लिए है, लड़कियों के लिए पढ़ना-लिखना वर्जित है। स्वयं पिता जब अन्यायकर्ता हो तो ऐसे में स्त्री-उद्धार की बात बेमानी ही है। चंपावती अकेली है और सारा गाँव, उसका परिवार सामने विरोध की मुद्रा में खड़ा है। प्रतिपक्षियों की शक्ति उनकी सदियों पुरानी रूढ़ियाँ हैं और अपनी सही मुक्ति के लिए किसी नई दिशा का संधान करती चंपावती अकेली है। नितांत अकेले होते हुए भी चंपावती हार मानने को तैयार नहीं है, वह जूझ रही है सदियों से पुरुष सत्ता द्वारा निर्मित बेड़ियों को तोड़ने के लिए। इसी प्रकार ‘ग्राम क्षेत्रे–कुरु क्षेत्रे’ कहानी में रम रतिया बलत्कृत होने के बावजूद पूरे समाज से अकेले लोहा लेती हुई खड़ी है। ‘चारूलता’, ‘चंपावती’, ‘सुनंदा’, ‘लावण्य प्रभा’ आदि स्त्री-पात्रों की शारीरिक और मानसिक विकलांगता पुरुष सत्तात्मक समाज-प्रदत्त है न कि प्रकृति प्रदत्त। ऐसे में हमारे भारतीय समाज को यह सोचना होगा कि समाज के एक पहिये को विकलांग बनाकर हम किस विकास-गति को पाना चाहते हैं? इन कहानियों के माध्यम से लेखिका ने एक बड़ी बात सामने रखी है कि डॉ. ऋता शुक्ल की स्त्रियाँ अपनी विकलांगता से हताश निराश होकर चुप्पी नहीं साध लेती बल्कि वह समाज से तीखा प्रतिकार करती है। ये सभी स्त्री पात्र अंत-अंत तक लड़ती हैं। भले ही उनके जीवन में सुखद परिणाम आए या ना आए।

‘हबे प्रभात हबे’ कहानी की ‘प्रिया’ बेटी होने के नाते माँ को कभी भी प्रिय नहीं हुई। प्रिया और विधु दोनों भाई बहन को महामारी की चपेट में देखकर भी माँ अपने बेटे की जान की खैर मनाती है, बेटी की नहीं। कहानी में यह प्रसंग कुछ इस तरह आया है–‘खसरे का प्रकोप पूरे मुहल्ले में फैला हुआ था, प्रिया और विधु दोनों ही उसके चपेट में आ गए थे। काकी माँ एक क्षण के लिए सिरहाने से नहीं हटती थीं। नीम की पत्तियों से सहलातीं। पूरे शरीर में कपूर-चंदन का लेप लगाती–ठाकुरजी रक्षा करेंगे बहू, घबराओ मत। भगवान का ध्यान करो…उस रात अम्मा के चीत्कार से डरकर वह बेहोश-सी हो गई थी। विधु उसका राजदुलारा नहीं रहा।

फटी-फटी आँखों से विधु की खटोली को, उसके नन्हे संदूक को, घर की दीवारों को देखती, रह-रहकर संज्ञाशून्य-सी जमीन पर बिखर जाती–अम्मा का वह रूप उसे कभी विस्मृत नहीं हुआ दीदी, ले जाइए इस मुँहझौंसी को जाना तो इस करमजली को था। वह चला गया।’ प्रिया अपनी माँ की तमाम उपेक्षा और विरोध के बावजूद शिक्षिका बनती है। इसी तरह छुटकारा कहानी की ‘इमली’, ‘ग्राम क्षेत्रे–कुरु क्षेत्रे’ की ‘रमरतिया फुआ’ आदि पात्र विद्रोही स्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं।

एक कथाकार के रूप में डॉ. ऋता शुक्ल की कहानियाँ नारीवाद की पुरोधा हैं। नारीवाद सामाजिक आंदोलनों और विचारधाराओं की एक शृंखला है, जिसका उद्देश्य लिंगों की राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत और सामाजिक समानता को परिभाषित और स्थापित करना है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि डॉ. ऋता शुक्ल के स्त्री-पात्र नारीवादी आंदोलन की उग्रता धारण नहीं करती, वरन् सहज नारीत्व के साथ अपना हक माँगती नजर आती है, यही कारण है कि दांपत्य जीवन के संगिनी रूप में भी वे अपना दायित्व निष्ठापूर्वक निभाती नजर आती हैं। उनका मानना है कि स्त्री और पुरुष में समानता का उद्घोष तब होगा, जब दोनों के बीच परस्पर प्रेमपूर्ण सद्भाव और समभाव पनपेगा। ‘कल्पांतर’ कहानी की ‘अरूणा’, ‘कनिष्ठा उँगली का पाप’ कहानी की ‘अनुराधा’, ‘पुनरावतरण’ कहानी की ‘सुलेखा’, ‘दंड-विधान’ कहानी की ‘रत्ना श्री’ आदि नारी पात्र ऋता शुक्ल के आदर्श पात्र हैं जो अपने पति के साथ समभाव के तराजू पर खड़ी नजर आती है वह भी बिना किसी प्रतिस्पर्धा के। लेखिका मानती हैं कि नारी अपने आपको मिटाकर पुरुष की उस संकल्प शक्ति को सार्थक बनाती हैं। उसका दायित्व पुरुष से लक्ष गुना अधिक है।

स्त्रियों की दशा के लिए ‘रामो गति देहु सुमति’ शीर्षक कहानी में 80 वर्षीय दादी दो टूक निष्कर्ष देती हैं–ओकर कसूर बा तिरिया जन्म दोसर कुच्छ ना। इसी कहानी में चंपावती अपने भाई को गेहूँ की रोटी, अरवा चावल का भात खाते देख कर विरोध करती है कि वह मकई का टिक्कड़ नहीं खाएगी। अपनी सुरसती दीदी से कहती है, तुम भी मत खाना। पढ़ने लिखने की इच्छा रखने वाले इस विद्रोही चंपावती का अंत पागलखाने में मौत से होता है।

डॉ. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी का विरोध करती हुई उस नारी का भी चित्र अंकित किया है जो स्वयं दुःख झेलती हुई भी दूसरे नारी के दर्द को समझ नहीं पा रही है या उसी पुरुष जालसाजी का शिकार है जिसने उसे यह मानसिक पृष्ठभूमि दी है। ऋता शुक्ल की कहानियों में ऐसी नारी पात्रों की अभिव्यक्ति समाज संरचना के एक अलग पहलू को हमारे सामने प्रकट करती है। पितृसत्तात्मक समाज में बेटी पिता के संरक्षण में, बहन भाई के संरक्षण में पत्नि पति के संरक्षण में रहती है। कोई समाज जिसमें पितसत्ता का आधिपत्य है उसमें स्त्री अपने सभी रूपों में पुरुष के अधीन रहती है, चाहे वह बेटी हो, बहन हो, पत्नी या माँ हो वह सदैव परिवार के पुरुष वर्ग के अधीन रहती है। डॉ. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी जीवन के विविध आयामों को यथार्थवादी मुहावरे में अंकित किया है–जहाँ एक ओर पितृसत्ता का दंश और शोषण झेलती स्त्रियाँ हैं, तो कहीं आदर्श दांपत्य को सँभालती हुई देवियाँ, तो कहीं विकलांगता के बावजूद प्रतिरोध और संघर्ष करती नई स्त्रियाँ हैं तो कहीं स्वयं नारी होकर नारी का ही विरोध व शोषण करती हुई अबोध स्त्रियाँ हैं।


कुमारी उर्वशी द्वारा भी