मेरे प्रथम साहित्य-गुरु

मेरे प्रथम साहित्य-गुरु

वक्तव्य

लक्ष्मीपुत्र स्व. घनश्यामदास बिरला को सरस्वती के मंदिर में दीप प्रज्वलित करते हुए लोगों ने सुना था–परंतु लक्ष्मी पुत्रों की चार पीढ़ियाँ माँ सरस्वती के मंदिर में मात्र दीप प्रज्वलित ही न करे–गह्वर को लीप-पोत कर आलीशान प्रसाद बना दे जिसके कँगूरे की चमक स्वतः देदीप्यमान हो उठे–यह एक ऐतिहासिक गाथा है जिसे सार्थक किया है कलम के धनी शैली सम्राट स्व. राजा साहब ने और दिलोदिमाग के धनी प्रसिद्ध कथाकार स्व. उदय राज सिंह ने।

स्व. बेनीपुरी जी, स्व. शिवपूजन सहाय, स्व. राजा साहब एवं स्व. उदय राज सिंह ने साहित्य की जो ‘नई-धारा’ प्रस्फुटित की थी–उसे और भी बलवती स्रोतस्विनी बनाने का संकल्प लिया उदय राज सिंह के योग्य विद्वान सुपुत्र श्री प्रमथ राज सिंह ने जो पुरस्कार की तरह विगत पंद्रह वर्षों से राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रतिष्ठित एक साहित्यकार को ‘उदय राज सिंह स्मृति सम्मान’ तथा वर्ष भर में प्रकाशित तीन सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के रचनाकार को ‘नई-धारा रचना सम्मान’ से सम्मानित कर श्री प्रमथ राज सिंह ने साहित्याकाश में एक और दिव्य नक्षत्र स्थापित किया है। अपने दादा राजा साहब की तरह इनका भी संकल्प है–

‘जिंदगी एक फर्ज है–जीता चला जाता हूँ मैं।’

श्री प्रमथ राज सिंह ने ‘नई-धारा’ की पुष्पवाटिका को हरित बनाने का जो संकल्प लिया है–उसकी पुष्प वीथिका को अनवरत अपने साहित्य-कौशल, श्रम एवं लगन से सुसिंचित करने का पुण्य-कार्य कर रहे हैं हमारे संपादक–डॉ. शिवनारायण। आप सभी ‘नई-धारा’ की जो हरित वाटिका देखकर आज मंत्रमुग्ध हो रहे हैं, उसे श्री प्रमथ राज ने अपने ‘धन-रक्त’ से और डॉ. शिवनारायण ने अपने ‘श्रम-रक्त’ से अभिसिंचित किया है।

राजा साहब मेरे प्रथम साहित्यिक गुरु थे–उनका साहित्यिक मार्गदर्शन तो मुझे आजीवन मिलता ही रहा–पितृतुल्य स्नेह और आशीर्वाद भी मिला। उनके बाद उनके पुत्र शिवाजी बाबू ने भी आजीवन अनुजवत स्नेह दिया। आज जिस यज्ञशाला में हम उपस्थित हैं–उसमें मेरे जैसे अकिंचन साहित्यसेवी को मिलने वाला यह सम्मान मात्र सम्मान नहीं–एक आशीर्वाद है, प्रसाद है जिसे मेरे प्रथम गुरु ने स्वर्ग से श्री प्रमथ राज सिंह के माध्यम से भेजा है। कहते हैं न कि आत्मा कभी नहीं मरती–वह सदैव अपने प्रियजनों को आशीर्वाद देती रहती है।

आज मैं उम्र की उस दहलीज पर पहुँच गया हूँ जिस पर पहुँचकर राजा साहब ने मुझे अपने जीवन का अंतिम पोस्कार्ड भेजा था जिसमें लिखा था–‘मैं सुबह का चिराग हूँ–तुम शाम के चिराग हो। मैं तो अब बुझनेवाला हूँ–तुम्हें तो रातभर जल कर प्रकाश फैलाना है।’ आज इस उम्र में (80 वर्ष) उनकी आत्मा का आशीर्वाद पाकर मुझे लगता है कि इसके बल पर मेरे सारस्वत चिराग की शुष्क बाती पुनः तर हो गई है। लगता है मैं कुछ दिन और जी लूँगा–कुछ और पढ़-लिख लूँगा और आप सभी विद्वानों के सानिग्ध का प्रसाद भी पाता रहूँगा–पाता रहूँगा। आज के स्मारक व्याख्यान का विषय है–‘स्वप्न, द्वंद्व और उपलब्धियों के बीच : स्त्री लेखन की चुनौतियाँ’ यह विषय-चयन ही अपने आप में सिद्ध करता है–‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।’

डॉ. सूर्यबाला ने जिस ‘स्त्री-विमर्श’ की चर्चा की है–दशकों पूर्व उसकी विशद व्याख्या राजा साहब ने अपनी कृतियाँ–‘पुरुष और नारी’, ‘नारी क्या एक पहेली’, ‘अबला क्या ऐसी सबला’ तथा ‘मॉडर्न कौन, सुंदर कौन’ में और बंधुवर उदय राज सिंह ने ‘अधूरी नारी’, ‘रोहिणी’ तथा ‘भागते किनारे’ में लिखकर नारी के प्रति अगाध श्रद्धा, सहानुभूति और आस्था प्रकट की थी। ‘उदय राज बाबू ने नारी-अस्मिता की पहचान को सुरक्षित ही नहीं रखा–बल्कि नारी अस्मिता को मार्मिक रूप से पहचान भी दी थी। दशकों पूर्व राजा साहब ने नारी की चुनौतियों का भी संकेत किया था।
आज बंधुवर उदय राज सिंह की जयंती के अवसर पर अपने गुरु राजा साहब के ही रत्नजटित शब्दों के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देना चाहता हूँ–‘यों बहा जाता हूँ मैं याद के सैलाब में/डूबती जाती है आँखें तैरता जाता है दिल’।


Image Source : Nayi Dhara Archives