हिंदी कविता में वसंत
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- 1 February, 2021
हिंदी कविता में वसंत
परिचर्चा
मशीनी सभ्यता के राग-रंग में सो रहा आज का समाज ऋतुराज वसंत का आगमन किस रूप में ग्रहण करता है या फिर इसकी अभिव्यक्ति आज की कविता में किस तरह हो रही है, जैसी जिज्ञासा हमने कुछ रचनाकारों से की। उनका जो जवाब मिला, उसे हम यहाँ ‘नई धारा’ के पाठकों के सामने रख रहे हैं। –संपादक
समकालीन कविता में वसंत–बी.एल. आच्छा (चेन्नई)
चेन्नै जैसे महानगर में हूँ तो ‘कूलन में केलिन में बागों में वसंत है’ का आभास तो दूर-दूर तक नहीं है। अलबत्ता ईस्वी कैलेंडर में छपा विक्रमी पंचांग जरूर बता रहा है कि वसंत पंचमी आ रही है। कुछ पारंपरिक घर हैं कि पूजन करेंगे, तो बाजार से पूजाकर्म की चीजों का दिखना हो जाएगा। बहुत हुआ तो शालाओं में प्रवेश का दिन भी हो सकता है दक्षिण में। कुछ साहित्य प्रेमी निराला को वसंत का अग्रदूत मान कर श्रद्धांजलि दे दें। मगर वो जो बयार है, फूलों-कलियों पर भौंरों की गुंजार है, सरसों के पीले खेत हैं, नई धानी चूनर है, नासिका में सुगंध की उठान है, प्रकृति की मधुमती सज्जा है, वह तो आभासी दुनिया या ड्राइंग रूम के संचार साधनों में ही इतराते हैं और शहराती दुनिया में जैसे होली का रंगीन छींटा दिनभर में कपड़ों पर छकता नहीं है, वैसे ही जीवन भी ऋतुराज के सारे एंद्रिय स्पंदन से अछूता सा है।
पर यादें गमक जाती हैं। कालिदास ने ऋतुसंहार में घोषित किया था–‘सर्वप्रिये चारुतरं वसंते।’ रासो-साहित्य से लेकर रीति साहित्य तक, बारहमासा से लेकर मुक्तक छंद तक, आलंबन से लेकर उद्दीपन तक रसराज वसंत जीवन का नया संवत्सर बन जाता है। वसंत तो जीवन की आकांक्षाओं का प्राणभूत है। गंध का समारोही उल्लास है। पंखों की थिरकती आकाशचर्या है। बीज का पुष्पोत्सव है। पूरी प्रकृति, मानव और जीव-जंतुओं के लिए खिलने का मौसम है। यह वसंत केवल बौराई अमराई का उल्लास नहीं है। पलाश की आभा भर नहीं है। मनुष्य की जीवनीशक्ति की निर्बंध आकांक्षा का सूत्रपात है। वरना क्या निराला यह कह पाते–‘अभी न होगा मेरा अंत, अभी अभी तो आया है मेरे जीवन में नव वसंत।’ ‘कामायनी’ की श्रद्धा की माधुरी वाणी सुनकर चिंताक्रांत मनु क्या कह पाते–
‘कौन हो तुम वसंत के दूत!’
और अज्ञेय भी प्रकृति को इस रूप में सजा पाते
‘पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम की बौर में मिठास देख
हँस उठी कचनार कली
टेसुओं की आरती सजा
बन गई वधू वनस्थली।’
मगर आज इस वनस्थली वाले वसंत का पता महज कैलेंडर से चल रहा है। समय बदलता है, जीवन शैली बदलती है। सभ्यताएँ अलग से करवट लेती हैं। प्रकृति का प्रभासी सौंदर्य तकनीक में आभासी बनता चला जाता है। फूलों के रंग कागज में उतर आते हैं। जंगल की पुष्पगंध और फलों के रस बोतलबंद रसायनों में एसेंस बनते चले जाते हैं। जिंदगी ड्राइंग रूम में सूर्य किरणों को ढकते परदों के भीतर ऑडियो-वीडियो की आभासी दृश्य तरंगों में वैभव मनाती है तो लगता है जंगल से आ रहा वसंत टोल नाके पर ही सहमा सा बैठा है।
कितना बदलाव है दृश्यों में। अनुभूतियों में। जीवन के स्पंदन में यों वसंत में वन कितना छिटका होगा, यह ठाकुर प्रसाद सिंह ‘दिन वसंत के’ में जरूर कहेंगे–
‘फूल चंद्रमा का झुक आया है धरती पर
अभी अभी देखा मैंने वन को हर्ष भर।’
मुझ में भी फिल्मी संगीत की ध्वनित हो जाता है–
‘आधा है चंद्रमा रात आधी
रह न जाए तेरी मेरी बात आधी।’
मगर यह तो अरमानों का मधुरिम संगीत है। चाँदनी और चंद्रमा मेरी खिड़की से कहाँ झाँक पा रहे हैं। एयर कंडीशन लगे बेडरूम में खिड़की पर पर्दे जो लटके हैं। मन के आकाश में छिटका चंद्रमा गीत गाने को मजबूर कर रहा है। पर परदों की नई सभ्यता चाँद-चाँदनी को बाहर ही रोके है। मल्टी सभ्यताओं में तो वह दुर्लभ दर्शन है। बकौल चंद्रकांत देवताले–
‘वसंत कहीं नहीं उतना असर कर रहा
जितना चिड़ियों की चहक-फुदक में
अखबार के मुख पृष्ठ पर तो कुछ भी नहीं।’
और ऋषभदेव शर्मा तो दो टूक कह जाते हैं स्वयं को जीव-भक्षी पौधा मानकर–
‘वसंत मुझ पर मत आना
मेरे रंग झूठ हैं–इंद्रजाल हैं
खींचते हैं अपनी ओर मासूम तितलियों को
चहचहाते परिंदों को
उन्हें क्या पता–मेरे रंग मौत के रंग हैं।’
हिंदी कविता में छायावादी कवि-मन गा उठता था–‘प्रथम किरण का आना रंगिनि तूने कैसे पहचाना’ या कि प्रसाद के गीत की तरह–‘तुम कनक किरण के अंतराल में लुकछिप कर चलते हो क्यों!’ पर बदलते समय में प्रतिमान और उपमान बदल गए। प्रकृति-संस्कृति उपभोक्ता-संस्कृति में बदल गई है। जीवन के उद्दाम रंग अब सिनेमाई अभिनय रंगों में उतर आए हैं। पर सारे तीखे, मट-मैले, प्रदूषण से धूमिल, एहसासों में कृत्रिम मनोभावों में भी वसंत चाहे रफूघर बनकर आए या लीलाधर जगूड़ी की कविता में आदिम चर्मकार बनकर। मगर वसंत हिंदी कविता का अंतरंग पैरोकार है। जो न जीवन से छिटकता है, न कविता से नदारद हो पाता है–
‘पंक्ति दर पंक्ति पेड़ों के आत्म-विवरण की नई लिखावट
फिर से क्षर-अक्षर उभार लाई रक्त में
फटी, पुरती एड़ियों सहित हाथ चमकने लगे हैं
पपड़ीली मुस्कान स्निग्ध हुई
आत्मा के जूते की तरह शरीर की मरम्मत कर दी
वसंत ने
हर एक की चेतना में बैठे आदिम चर्मकार
तुझको नमस्कार।’
आदिम चर्मकार की यह वासंती जीवट चाहे रीतिकाल के किलकंत वसंत की तरह न उभरे, मगर आकांक्षा का चमकदार संसार अंतःसंसार इसमें सचेतन है। भले ही जल गया हो कामदेव, पर सखा वसंत इसी अनंग की आनंद की काम चेतना को सूखने नहीं देता।
होली वसंत का उत्सव है–पंकज साहा (खड़गपुर)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वसंत को मानव-मन की एक अवस्था कहा है, परंतु मानव-मन में वसंत ऋतुराज के रूप में ही बसा हुआ है। हमारे देश में माघ श्रीपंचमी, जिसे वसंत पंचमी भी कहा जाता है, से आरंभ कर चैत्र और वैशाख तक वसंत-काल माना जाता है। इस काल को मधुमास भी कहा जाता है। शिशिर (जाड़ा) बड़े-से-बड़े बलवान को भी सिहरा देता है। शायद इसीलिए सब हाड़ कँपाती ठंड से शीघ्र मुक्ति चाहते हैं। महाकवि शेली ने ऐसी ही ठंड को लक्ष्य कर आशाजनक संदेश दिया है कि ‘जाड़ा है, तो वसंत दूर नहीं।’ अर्थात प्रकृति ने यदि हमें जाड़े का कष्ट दिया है, तो वसंत की खुशियाँ भी दी हैं। राष्ट्रकवि दिनकर जी ने शिशिर को शीर्णा बताते हुए लिखा है–‘मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग तू मधुमास आली।’ जब जाड़े की ठंड शीतलता में परिणत होने लगे, जब मंद-मंद पवन आम्र-मंजरियों की मादक खुशबू का वहन करने लगे, सारी सृष्टि पुलकित हो झूम उठे, वातावरण में नये उल्लास और उत्साह की गूँज सुनाई पड़े, निराला जी के शब्दों में सर्वत्र ‘नव गति, नव लय, ताल छंद नव’ लगने लगे, तो समझ लीजिए कि वसंत आ गया है।
ऋतुराज वसंत के आते ही हमारे देश के कविगण उसकी अगवानी हेतु अपनी कलम सँवारकर बैठ जाते हैं। संस्कृत के महाकवि कालिदास से लेकर हिंदी के भक्तिकालीन, रीतिकालीन एवं आधुनिक कवियों ने एक परंपरा के रूप में ऋतुराज वसंत पर अपने उद्गारों को व्यक्त किया है। लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में, विशेषकर सन् साठ के बाद जैसे-जैसे मानव-मन में बौद्धिकता और समाज में भौतिकता हावी होने लगी, मनुष्य मानव से मशीन बनता गया, वैसे-वैसे हमारे साहित्य में प्राकृतिक चेतना, मानवीय संवेदना में कमी और बौद्धिक-विमर्श की बाढ़ आने लगी। महाप्राण निराला की ‘सखि! वसंत आया’, नागार्जुन की ‘वसंत की अगवानी’, कुँवर नारायण की ‘वसंत आ गया’ जैसी कविताओं के भावों से हिंदी के कवियों की घनिष्ठता कम होने लगी। बौद्धिकता के भँवरजाल, अर्थ के मायाजाल और जीवन के जंजाल में फँसे कवियों को बाह्य प्रकृति की ओर नजर डालने की मानो फुर्सत ही नहीं मिली। परंतु कुछ कवि ऐसे भी हुए और आज भी हैं, जिन्होंने अपने मशीनी जीवन के बीच कोयल की कूक भी सुनी और अपने कलेजे में हूक को भी महसूस किया है। आज अनेक कवि ऐसे हैं, जिनके चेहरे वसंत के आते ही गुलाबी और फागुन माह में महताबी हो जाते हैं। वसंत के आते ही सुनीता मिश्रा ‘सुनीति’ हर्ष से नाच उठती हैं–
‘मन नाच-नाच हर्षाया
तब समझो वसंत है आया।
मंद-मंद सी पवन चले जब
उड़ें परिंदे गगन तले जब
कूँज-कूँज में कोयल कूके
निकल पड़े जोड़े जुगनू के
हर तन-मन जब हो हर्षाया
तब समझो वसंत है आया।’
वसंत के आते ही सरसों फूल उठती है, शीतल बयार विरही जनों को चुभने लगती है और टेसू के लाल-लाल फूल अँगारों के समान लगने लगते हैं। अपने एक गीत में डॉ. शंकरमोहन झा ऐसे ही भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं–
‘धुन वासंती साथी न टेरो
चुभने लगी एक-एक बयार
लो खेतों में सरसों अँगड़ाई
कोयलिया काली तुतलाई
टेसू के फूल खिल रहे
उपवन के होंठ न हेरो…।’
प्रो. ताराचरण खवाड़े वसंत में प्रकृति का सौंदर्य देख मुग्ध होकर गा उठते हैं–
‘आम्र कुंज भ्रमर पुंज हर निकुंज बौराये
हर पलाश में हुलास नव विकास अकुलाये।’
कुछ ऐसे ही भाव डॉ. राजेंद्र पंजियार की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त हुए हैं–
‘कितने मनभावन लगते
फगुआने के दिन
आम्र मंजरी से सुरभित
हो रही दिशाएँ
बौराई बहकी-बहकी
अलमस्त हवाएँ
कोकिल के स्वर से नभ को
सरसाने के दिन…।’
प्रेमालु कवियों एवं गीतकारों के लिए वसंत ऋतु विशेष न होकर त्योहार बन जाता है, परंतु बहुत सारे कवि/गीतकार ऐसे भी हैं, जो वसंत में भी अपने परिवेश के यथार्थ को भूल नहीं पाते। अपनी वासंतिक रचनाओं में वे वसंत के सौंदर्य के प्रति पारंपरिक प्रतिबद्धता के बदले व्यक्ति और समाज की विकलता को उद्घाटित करने के प्रति प्रतिबद्ध प्रतीत होते हैं। शांति सुमन को वसंत का बाह्य सौंदर्य नहीं लुभाता, क्योंकि वे अपने जीवन के आंतरिक पतझर से विचलित हैं–
‘अरी जिंदगी पानी में तू
बना रही घर है
बाहर-बाहर है वसंत
पर भीतर पतझर है।’
आजादी मिलने के बाद जहाँ देश में भूखों-नंगों की संख्या बढ़ी है, वहीं मूर्खों, आतंकवादियों का दबदबा भी बढ़ा है। रामकुमार कुंभज इससे विचलित होकर व्यंग्यात्मक लहजे में पूछते हैं–
‘मूर्खों का कैसा हो वसंत?
चारों तरफ से निकलती हो गोलियाँ
और मचता हो आतंक।’
वसंत के आते ही फागुन की याद आती है और फागुन की याद आते ही फाग की। कवि शिवओम अंबर अपने एक दोहे में फाग के राग का चित्रण करते हुए लिखते हैं–
‘चढ़ा गाँव दर गाँव, ये सैलाबी फाग
राग-राग है रात हर, प्रात पराग-पराग।’
वसंत को ग्रामीण परिवेश से जोड़ते हुए कवि शिवनारायण ने अनगिन दोहे रचे हैं। आप भी उसका आनंद लीजिए–
‘खेत खेत सरसो खिली, रहर खड़ी पगुराय
धनिया माटी में रही, बूँट मटर छितराय।
जौ गेहूँ की बालियाँ, लहर लहर मुस्काय
रेड़ मकय की आड़ में महुआ फागुन गाय।
महुआ मादर में जटी, मदिर मदिर बौराय
अबकी सजनी चैत में, फागुन रास रचाय।’
गुलशन मदान जैसे कुछ कवि होली की पुरानी परंपरा का पालन करते हुए दुश्मन को भी गले लगाने की बात करते हैं–
‘रंगों का त्यौहार है होली
खुशियों की बौछार है होली
लाल गुलाबी पीले देखो
रंग सभी रंगीले देखो
पिचकारी भर-भर ले आते
इक दूजे पर सभी चलाते
होली पर अब ऐसा हाल
हर चेहरे पर आज गुलाल
आओ यारो इसी बहाने
दुश्मन को भी चलो मनाने।’
होली को प्रीति का त्योहार कहा जाता है। इन दिनों हमारे समाज में राग में कमी और द्वेष में वृद्धि हुई है। परंतु वसंत ऋतु जहाँ हमें अपनी मादक सुरभि से प्रफुल्लित कर देता है, वहीं होली आज भी हमें अपनी रंगीनी से भर देती है। जीवन और समाज के खट्टे-मीठे अनुभवों, अनुभूतियों के संग वसंत आज भी हिंदी-काव्य में उपस्थित है।
नवजीवन के मंगलाचरण की गूँज है वसंत–सविता मिश्र (बिजनौर)
वसंत आता है और बिना दस्तक दिए चला जाता है। सबके द्वार बंद रहते हैं। विद्यानिवास मिश्र ने स्वीकार किया है कि अमराई उनके संकट बोध को और भी तीव्र करती है और उनके आतंक बोध को और भी सघन बनाती है।
आज की कविता में वसंत विविध रूपों में आता है। केदारनाथ अग्रवाल की कविता में वसंत आने पर जीवन की तान गूँजती हुई सुनायी देती है। अज्ञेय की कविता वसंत आ गया में टेसुओं की आरती सजा कर वनस्थली वधू बन जाती है। समकालीन कविता में कवियों ने युगीन यथार्थ को वसंत के माध्यम से व्यक्त किया है। संघर्षों के बीच, परिवेशगत विसंगतियों से आहत होता कवि मन कभी वसंत के हरकारे को द्वार से लौटा देता है तो कभी समय की त्रासद स्थतियों से जूझते हुए वसंत के उल्लास में डूब जाना चाहता है। रामदरश मिश्र यथार्थ की विरूपताओं से टकराते टकराते जब थक जाते हैं तो कहते हैं–
‘ओ वसंत की हवा
कंठ यह गीतों से भर दो
कि जड़ नीरवता को स्वर दो।’
…लोहे और कंक्रीट के जंगलों में अचानक उन्हें अपनी साँस-साँस में गेंदे के फूल खिल जाने का आभास होता है। रघुवीर सहाय महसूस करते हैं कि आधुनिक मानव का प्रकृति से संबंध टूटता जा रहा है और उसे अब वसंत का आना कलेंडर से पता चलता है। धूमिल के लिए वसंत के आने का समय बिलों के भुगतान का समय है।
कुल मिलाकर आज की कविता में वसंत का वैविध्यपूर्ण चित्रण है। इसमें वैश्विक विषाद की गूँज अनुगूँज हैं और नवजीवन के मंगलाचरण की तरह गूँजता वसंत भी है।
कविता में रंग–नीलू अग्रवाल (पटना)
वसंत का नाम आते ही बचपन में पढ़ी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता ‘आए महंत वसंत’ याद हो आती है और केदारनाथ अग्रवाल की ‘हवा हूँ, हवा मैं, बसंती हवा हूँ’ तो हम यूँ ही लहराते हुए पढ़ जाते थे। जब यह प्रकृति का यौवन जनसाधारण को आकृष्ट कर सकता है तो बिरला ही कोई नीरस कवि होगा जिसने इसे अपनी कविता में न जिया हो।
‘किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली यह मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं
चूम रही हैं
कुसुमाकर को!
रितुओं के राजाधिराज को!’
यह हमारे बाबा नागार्जुन हैं जो सहज ही वसंत का आधिपत्य मान लेते हैं। वसंत एक रिश्ते का नाम भी है जो पीली सरसों का धरती से है, इसलिए तो पंकज सुबीर अपनी ‘वसंत’ कविता में प्रेयसी की तुलना वसंत से करते हैं तो अज्ञेय प्रेमियों का आह्वान करते हैं,
‘आज मधुदूत निज
गीत गा गया
जागो जागो
जागो सखि वसंत आ गया, जागो!’
और गोपाल दास नीरज प्रेम की पाती पढ़ते हैं–
‘बौराई अंबवा की डाली
गदराई गेहूँ की बाली
सरसों खड़ी बजाए ताली
झूम रहे जल-पात
शयन की बात न करना
आज वसंत की रात
गमन की बात न करना।’
वसंत की छटा निहार कर जड़-चेतन सभी में जीवन का संचार होता है। तभी तो वसंतपुत्र महाप्राण निराला पुराने से आजिज होकर कविताओं में भी बासंती नवजीवन की माँ शारदे से माँग करते हैं,
‘नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल कंठ नव, जलद मंत्र रव।
नव नभ के नव विहग वृंद को, नव पर नव स्वर दे।’
बासंती महीने में मन पर जब खुशियों का साम्राज्य होता है तो मस्तिष्क भी कलात्मक हो जाता है और आत्मविश्वास से भरे मंगलेश डबराल जैसे कवियों को भी यकीन हो आता है कि,
‘ढलानों पर वसंत
आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित कर
धीमे-धीमे धुंधवाता खाली कोटरों में
ढलानों से मुसाफिर की तरह उतरता रहेगा अँधेरा।’
उमंगों के इस मौसम में वैलेंटाइन डे जैसे त्यौहार तो अब मनाए जाने लगे हैं। हम तो कब से फागुन मना रहे हैं, फाग गा रहे हैं, होली जला रहे हैं। इला प्रसाद यूँ ही नहीं लिखते,
‘अँगड़ाई ले रही प्रकृति नटी की देह
होली आ गई
जल गया जो था
अशुभ, असुंदर अतीत
मन में रची है नई प्रीत
होली आ गई।’
अतीत का मोह मनुष्य की प्रवृति है। आधुनिक जीवन शैली से ग्रस्त मानव का प्रकृति से संबंध इस प्रकार टूटा है कि वसंत ऋतु का आना अनुभव की अपेक्षा कैलेंडर और दफ्तर में छुट्टी का विषय हो गया है। ऐसे में राकेश खंडेलवाल अतीत के प्रति लालायित होकर लिखते हैं,
‘अलावों पर नहीं भूनते चने के तोतई बूटे
सुनहरे रंग बाली के कहीं खलिहान में छूटे
न ही दरवेश ने कोई कहानी आज बोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को
आज होली है!’
Image : Rose Flowered Arches at Giverny
Image Source : WikiArt
Artist : Claude Monet
Image in Public Domain