महाकवि ‘मीर’ और उनकी कविता

महाकवि ‘मीर’ और उनकी कविता

उर्दू कविता के इतिहास में मीर तकी ‘मीर’ का स्थान अन्यतम है। वे अपने जमाने के ऐसे महान शायर थे जिसकी शायरी ने लोकप्रियता और महानता दोनों के शिखरों का संस्पर्श किया। उनकी काव्यानुभूति की बनावट कुछ ऐसी थी कि महान शायरों ने भी उनकी कविता के सामने सर नवाया है। इसमें कोई शक नहीं कि मीर के अतिरिक्त और भी बहुत से महान रचनाकार हुए हैं जिनकी कविता अपनी रचनाशीलता से बेहद प्रभावित करती है; बेशक गालिब का अंदाजे बयाँ कुछ और ही था, किंतु मीर की कविता की जो व्याप्ति है, उसकी शानी नहीं। शैली और भावों की गहनता की दृष्टि से मीर एक ऐसे कवि प्रतीत होते हैं, जैसे कविता के सारे सोते मीर के यहाँ से ही फूटते हों।

मीर उचित रूप से उर्दू के ग़ज़लगोयों में सबसे प्रमुख समझे जाते हैं। मीर के समय में ‘उर्दू कविता में तीन महत्त्वपूर्ण रूप थे, गजल, कसीदे और मसनवी और उनमें भी गजल सबसे ज्यादा विकसित काव्यरूप था। उर्दू ने ये सभी फारसी से लिए जैसे कि अँग्रेजी ने सॉनेट इतालवी भाषा से लिया। दरअसल गजल एक लघु प्रगीत है जिसमें प्रेम का मुद्दा महत्त्वपूर्ण होता है। प्रेम मीर की कविता का प्राण तत्त्व है यद्यपि उनकी कविता की रंगत विविधता से परिपूर्ण है। केवल आत्माभिव्यक्ति मीर की कविता का उद्देश्य नहीं है। ज़माने में मीर और मीर का ज़माना मीर की कविता और उनकी आत्मकथा में दर्ज़ है। ‘जिक्रेमीर’ न केवल कवि की रचना प्रक्रिया का आख्यान है अपितु वह मीर के ज़माने और उनके जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज भी है।

उन्नीसवीं शताब्दी तक मीर के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी हासिल नहीं थी, किंतु बीसवीं शताब्दी में उनका आत्मवृत प्रकाशित हो जाने के बाद उनके जीवन और रचना के बारे में आधिकारिक जानकारी साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत हो गई।

‘जिक्रेमीर’ में मीर के जन्म के बारे में कोई विशेष उल्लेख नहीं है। इतना जरूर है कि उसमें दी गई घटनाओं के समय ‘मीर’ ने जो अपनी उम्र बताई है उसके अनुसार उनकी जन्मतिथि सन् 1724 ई. ठहरती है। वे अल्पायु में ही पिता की सरपरस्ती से मरहूम हो गए थे। पिता के दो विवाह थे और सौतेले भाई मुहम्मद हसन उनसे बेपनाह जलते थे। उनके दुर्व्यवहार के कारण मीर को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कुछ वर्ष भटकने के पश्चात मीर दिल्ली आ गए। वे नवाब समसामुद्दौला के दरबार में पहुँच गए। किंतु दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा और कुछ वर्ष बाद ही समसामुद्दौला नादिरशाही आक्रमण में मारे गए। मीर कुछ समय के लिए आगरा चले आए किंतु फिर सौतेले भाई के मामू ख़ान सिराजुद्दीन अली खाँ ‘आरजू’ के पास दिल्ली चले गए। यहाँ उनकी ख़ान ‘अरजू’ से अनबन हो गई। इन सबका उन पर ऐसा रंग चढ़ा कि वे उन्मादी हो गए। एक तरफ प्रेम और दूसरी तरफ ख़ान ‘अरजू’ का दुर्व्यवहार। इसी पृष्ठभूमि ने मीर की कविता की ज़मीन तैयार की।

मीर की कविताजन्य प्रतिभा प्रखर थी। परिस्थितियों ने उनकी काव्यात्मक प्रतिभा को चमकाने में मुख्य भूमिका निभाई। उनकी कविता वास्तव में इश्क के दर्द से निकलती हुई कविता है। कविता वही सार्थक और प्रभावोत्पादक होती है जो दर्द से निकलती है। संसार की महान रचनाएँ दर्द से ही निकली हुई हैं। व्यास और वाल्मीकि का विश्वकाव्य महाभारत और रामायण दर्द की महागाथा है। वाल्मीकि ने  क्रौंच वध पर जो दर्दनाक श्लोक (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।) कहा, वही वास्तव में कविता बन गया। तो दर्द कविता की कुंडली में है, कविता का जन्म ही दर्द से हुआ है। शायरी या कविता तो दर्द की गंगा से निकलती है। इल्म से कविता नहीं आती।

मेरा मानना है कि मीर की कविता इल्म से उभरी है। इश्क का इज़हार, उसकी कसक, उसकी खमोपोंच बड़ी आंतरिकता से मीर ने अपनी कविता में व्यक्त किए हैं, मीर के हृदय ने जो चोट खाई, उससे उनकी कविता की धार और तीव्र हुई। ‘इश्क करो क्योंकि बिना इश्क जिंदगी बवाल है और इश्क में दिल खोना असल कमाल है।’ अपने पिता मीर अली मुतकी की इस नसीहत को मीर ने कुछ इस तरह जीवन में उतारा कि न सिर्फ उनका जीवन, बल्कि उनका पूरा कलाम इश्क से सराबोर हो गया। अगर यह कहा जाय कि मीर ने अपने कलाम में जमाने के दर्द को अपना और अपने दर्द को जमाने का दर्द बना कर पेश किया तो गलत नहीं होगा। (रविवारीय जनसत्ता, 18.9.2016) मीर की कविता में आत्माभिव्यक्ति के साथ-साथ मानवतावाद, धार्मिक एकता और आम-जनता के दुःख दर्द और उसकी आकांक्षाओं का अकुंठ और आत्मीय चित्रण मिलता है। मीर की कविता की यही विशेषता उन्हें खुदा-ए-सुखन बनाती है।

मीर ने गजल, रूबाई, कसीद, मसनवी आदि उर्दू की प्रायः सभी विधाओं में रचना की है। किंतु रचनाशीलता का उत्स उनकी गजलों में ही मिलता है। वे मुख्यतः गजलकार हैं किंतु उनकी मसनवियाँ भी उर्दू साहित्य में अपना अलग महत्त्व रखती हैं। मसनवियों का मुख्य आधार भी प्रेम ही है। जायसी और हिंदी के मध्ययुगीन रचनाकारों ने भी मानवीय प्रेम को आधार बनाकर प्रेम की पीर को व्यक्त किया था और मानवता का विराट व विश्वव्यापी संदेश दिया। मध्ययुगीन सूफी संतों ने इन शायरों के लिए कविता की जमीन तैयार की।

भारतीय परंपरा में प्रेम को महान मानवीय गुण माना गया है–‘प्रेमहि पुर्मर्थो महान।’ हिंदी के मध्ययुगीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी प्रेम के इसी महत्त्व को रेखांकित करते हुए यह घोषणा करते हैं–‘मानुष प्रेम भयउ बैकुंठी, नाहिंत काहि छार एक मुठी।’ अर्थात मनुष्य प्रेम के कारण ही स्वर्ग के योग्य हुआ है, अन्यथा जिंदगी में क्या रखा है? मुठी भर राख! ‘जिक्रेमीर’ में मीर पिता के माध्यम से इसी प्रेम की संवेदना को व्यक्त करते हैं–‘बेटे प्रेम कर क्योंकि संसार प्रेम के ही आधार पर टिका है। यदि प्रेम न होता तो यह संसार न होता। बिना प्रेम के जीवन नीरस जान पड़ता है। हृदय को प्रेम का मतवाला बना देना ही उचित है। प्रेम जलाता भी है और इस संसार में जो कुछ भी है वह प्रेम का जहूर है। आग प्रेम की जलन है। जल प्रेम की गति है। मिट्टी प्रेम का ठहराव है और वायु प्रेम की बेकली है। मौत प्रेम की मस्ती  है और जीवन होश। रात प्रेम की नींद है और दिन प्रेम का नींद से जागना है।’ (जिक्रेमीर, सं.श्रीकृष्ण दास; पृ.-42)

प्रेम की इस विराट भावना का प्रकाशन ही मीर की कविता की केंद्रीय संवेदना है, चाहे वह उनकी मसनवियों में हो या कविता के अन्य रूपों में। यहाँ तक कि उनकी आत्मकथा भी काव्यात्मक सौंदर्य चेतना या लालित्य से लबालब है–उसे पढ़ते हुए गद्य का नहीं कविता का-सा आनंद आता है। भाषा की रवानगी तो देखने ही लायक है।

मीर का जीवन सामान्य नहीं रहा है। जिंदगी में बड़े-सारे उतार चढ़ाव आए, बावजूद इसके वे उत्तरोत्तर विकास-क्रम के सोपानों पर चढ़ते गए। प्रतिभा जबरदस्त थी…बचपन में ही उनकी होनहारी का आभास उस फकीर की वाणी में मिलता है जिसने मीर के चाचा से मीर के बारे में यूँ कहा था–

‘अभी यह बच्चा कमसिन है, लेकिन ऐसा लगता है कि अगर इसे पालने-पोसने में तवज्जों से काम लिया गया तो किसी दिन एक ही उड़ान में आसमान से आगे निकल जाएगा’। (वही, पृ.-53)

वास्तव में मीर की प्रतिभा ने जो उड़ान भरी तो फिर मुड़कर नहीं देखा। अपने जीवनकाल में ही मीर ने काव्य क्षेत्र में जिन बुलंदियों का स्पर्श किया, उस तक बड़े-बड़े शायर भी न पहुँच सके। मीर को खुदा-ए-सुखन यूँ ही नहीं कहा जाता। उनके समकालीन प्रायः सभी कवियों ने मीर की शायरी के समक्ष अपना सिर झुकाया है। ‘कोई जमाना ऐसा नहीं गुजरा जबकि उस्तादों ने मीर का लोहा न माना हो। निंदात्मक काव्य के बादशाह सौदा ने खुले शब्दों में मीर की प्रशंसा की है–

‘सौदा’ तू उस जमीं में ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही लिखा
होना है तुइज्को मीर से उस्ताद की तरफ।’
(मीर तकी मीर और उनकी शायरी, सं. प्रकाश पंडित, पृ.-8)
गालिब ने मीर के प्रति अपना सम्मान इन शब्दों में व्यक्त किया है–
‘गालिब अपना तो अकीदा है बकौल-ए-नासिख
आप बे-बहरा है जो मोत कदे -मीर नहीं।’
और उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अकबर इलाहबादी ने लिखा–
‘मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज में जाऊँ अकबर
नासिखों-जौक भी जब चल न सके मीर के साथ।’

(वही, पृ.-8)

बात दरसल यह है कि मीर ने अपने दर्द को शायरी में ऐसी संवेदनात्मक ऊँचाई प्रदान की है कि शब्द अत्यंत सहजता के साथ स्वतः संवेदना में घुल जाते हैं और हृदय की तंत्रियों को झंकृत करने लग जाते हैं। वे शब्द मीर के नहीं पाठक की जबान बन जाते हैं और कवि के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लग जाते हैं। पाठकीय आत्मीयता और हृदय की गहराइयों का संस्पर्श करने के कारण ही मीर की कविता अपने जमाने की श्रेष्ठ कविता बन पाती है। इसका एक कारण यह भी है कि मीर की कविता मानवीय करुणा को अपना आधार बनाती है। कविता में हल्कापन मीर को कतई पसंद न था। मुशायरों तक में भी मीर गंभीरता बनाए रखना पसंद करते हैं। वे कविता को सिर्फ मनोरंजन या मन बहलाव की वस्तु नहीं समझते, अपितु वे उसे जीवन का निहायत महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानते थे। ताउम्र मीर ने अपनी कविता में इस सोद्देश्यतापूर्ण काव्य सिद्वांत का निर्वाह किया। रचनात्मक गांभीर्य और काव्यात्मक प्रतिबद्धता मीर की कविता की केंद्रीय विशेषता है। जिस ज़माने में उर्दू के कवि प्रेम की उद्दाम अभिव्यक्ति करते, वहाँ मीर मानवीय करुणा को बड़े आत्मीय और सहज ढंग से व्यक्त करते हैं। मानवीय करुणा और कविता में उसकी अभिव्यक्ति का सहज गुण मीर ने अपने जीवनानुभवों से पाया था–अनुभूति की प्रामाणिकता से प्राप्त किया था। अनुभूति की प्रामाणिकता और उसकी अभिव्यक्ति की सादगी और संजीदगी ने मीर की कविता को वह अमरत्व प्रदान किया जो बहुत कम कवियों को मिलती है।

मुहब्बत या इश्क सृजन का एक बहुत बड़ा कारण है। इश्क का आशय वह शाश्वत सत्य है जो सृजन का कारण है और जो इनसान को इनसान बनाता है। मीर ने अपनी मसनवी शोले ए-इश्क में कहा है–

‘मुहब्बत ने काढ़ा है जुल्मत से नूर
न होती मुहब्बत न होता जहुर
मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत सबब
मुहब्बत से आते हैं कारे–अजब।’

शेर में मीर की विशिष्टता और गुरुतर गंभीरता तथा मौन की अनुभूति की जा सकती है।

‘सरहाने मीर के कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है।’

मीर के इश्क में दर्द है किंतु वह समष्टिगत चेतना से अनुप्राणित है। उनका दर्द जमाने का दर्द है। उनके भीतर प्रेम की मस्ती है तो दूसरी तरफ दुनिया के दुःख पर अश्रुपात भी। उनके प्रेम में विरह है तो दूसरी तरफ मिलनजन्य आनंद भी। मीर की कविता एक साथ कई-कई मानसिक अवस्थाओं से गुजरती है। स्वयं कविता दुःख-दर्द झेलती है किंतु उसकी कविता का महत्तर उद्देश्य तो दुनिया को रास्ते पर लाना था–

‘हम खाक् में मिले तो मिले, लेकिन अय सिपह
उस शोख को भी राह पे लाना जरूर था।’

मीर को दिल की वीरानगी की चिंता नहीं, अपितु उस नजर की चिंता है जिसे सैकड़ों मर्तबा लूटा गया। यह है व्यष्टि पर समष्टि को तरज़ीह–

‘दिल की वीरानी का क्या मस्कूर है
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।’

यह समष्टि चेतना प्रेम को लक्ष्य बनाए बिना नहीं आती। मीर की कविता का मकसद ही मानवीय प्रेम है उसकी आरजू को शिद्दत से सँजोए बिना प्रेम के लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल है–

‘कौन मकसद को इश्क बिन पहुँचा
आरजू इश्क, मुद्दआ है इश्क।’

‘जिक्रेमीर’ के हवाले से पता चलता है कि मीर ने अपने समय की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति के बदलते स्वरूप को बहुत निकट से देखा था। दिल्ली की आबादी और बर्बादी के मंजर का मीर ने बेहद आत्मीयता के साथ वर्णन किया है। राजनीतिक उखाड़-पछाड़ और सत्ता-प्रतिष्ठान के विविध आयामों को मीर ने शिद्दत से चित्रित किया है। लुटी-पिटी दिल्ली का चित्रण करते हुए मीर कहते हैं कि न आबादी का पता था, न महलों का निशान और न इसमें रहने वालों की खबर–

‘मैंने जिस शख्स को पूछा उसे गायब पाया
जिसको ढूँढ़ा, यह सुना, उसका पता कोई नहीं।’

मीर की शायरी का जादू सिर चढ़कर बोलता है। स्वयं मीर का कहना है कि उनकी उस वक्त बड़ी इज्ज़त थी। मिलने-जुलने वालों का ताँता लगा रहता। ‘जिक्रेमीर’ में वे लिखते हैं, ‘मेरी शायरी का शुहर तो पूरी दुनिया पर छाया था। वहाँ के अल्हड़, हसीन, काली पलकों वाले, अच्छी सज-धज वाले, निगाहों में जँचने वाले और नेक दिल शायर मुझे हर वक्त घेरे रहते और बड़ी इज्ज़त करते।’ (जिक्रेमीर, अजमल आजमली, पृ.-99) वास्तव में मीर इसके हकदार थे। वे एक ऐसे कवि थे जिसकी कविता व्यष्टि से समष्टि की अंतर्यात्रा करती है और मनुष्य मात्र को लक्ष्यकर उसके सुख-दु:ख और आशा-आकांक्षा को बेलाग व्यक्त करती है।

मीर की कविता हिंदी-उर्दू की साझा संस्कृति का प्रतीक है। जिस समय मीर कविता रच रहे थे उस समय उर्दू अपने शुरुआती दौर में थी। उस समय की शायरी में फारसी के शब्दों का बहुतायत मात्रा में प्रयोग होता था। इसके स्थान पर उन्होंने ऐसी आम भाषा का प्रयोग किया जिसमें हिंदी की शब्दावली का भी सर्जनात्मक उपयोग दिखता है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा–

‘चितवन बेढ़ब, आँखें फिरी हैं, पलकों से भी नजर छोटी
अश्कि अभी क्या जाने, हमको, क्या-क्या मीर दिखावेगा।’
इस उदाहरण में एक शब्द ‘चितवन’ आया है। चितवन का मतलब देखने की अदा। यह ठेठ हिंदी का शब्द है। जिस रचनात्मकता के साथ वह यहाँ प्रयुक्त हुआ है उसकी खूबसूरती यह है कि मीर ने उसे उर्दू के रंग में यों ढाल दिया है कि हिंदी-उर्दू का कोई भेद नहीं लगता। अली सरदार जाफरी ने ठीक ही लिखा है–

‘विकास और निर्माण की क्रिया दोहरी थी। मीर और उनके समकालीन शायर एक तरफ आम बोलचाल की भाषा को शेरों में ढालकर सुंदर और साहित्यिक बना रहे थे और दूसरी तरफ शब्दों के नए-नए जोड़ बिठाकर साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए विस्तार पैदा कर रहे थे और मुहावरों का अनुवाद करके हिंदी और रेखता में खपाते जा रहे थे।’ (दीवान-ए-मीर, अली सरदार जाफरी, पृ.-14)

वास्तव में वह जमाना फारसी के ह्रास और हिंदी एवं रेखता के उत्थान का था। मीर और सौदा ने सम्मिश्रण (Fusion) के द्वारा जो जबान शेर को दी वह बेहद खूबसूरत है। उन्होंने इस सम्मिश्रण के द्वारा भाषा को जो रूप प्रदान किया, उसने हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे के नजदीक लाने में निर्णायक भूमिका निभाई। मीर और सौदा के एक-एक उदाहरण देखने लायक हैं–

‘जाते हैं दिन बहार के अबकी भी बाव से
दिल दाग हो रहा चमन के सुभाव से।’

(मीर)

‘सावन के बादलों की तरह से भरे हुए
यह वह नयन हैं जिससे कि जंगल हरे हुए।’

(सौदा)

वास्तव में हिंदी के संत कवियों और उर्दू से सूफी कवियों ने आम जनता की भाषा और बोलियों को अपनाया और इसके माध्यम से उच्च श्रेणी की रचनाएँ प्रदान की जो संसार की अन्य भाषाओं की श्रेष्ठतम काव्य रचनाओं से प्रतिस्पर्धा कर सकती है। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि भाषा के विकास की दृष्टि से भी मीर की कविता का ऐतिहासिक महत्त्व है।

बेतकल्लुफी ‘मीर’ की भाषा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यह विशेषता यों ही नहीं है। यह समय का दबाव है और वक्त की जरूरत भी। शम्सुहियान फारसी ने ठीक लिखा है–‘अगर मीर रोजमर्रा की जबान को अदबी सतह पर इस्तेमाल कर रहे थे तो ये लाजिम था कि वो रोजमर्रा से परहेज न करते, बल्कि वो तमाम अल्फाज को बरतने में सक्षम और तैयार रहते।’ (मीर की कविता और भारतीय सौंदर्यबोध, शम्सुबर्हमान फारसी, पृ.-55)

अपने समकालीन एवं पूर्ववर्ती कवियों की अपेक्षा मीर ने भाषा के साथ बहुत ज्यादा छूटें ली हैं। मीर प्रयोगधर्मी कवि लगते हैं और बहुत से अप्रचलित शब्दों और मुहावरों को नए रंग में ढालकर उनका खूबसूरत उपयोग करते हैं। शब्दों के प्रयोग में मीर बेधड़क और साहसिक कवि हैं और इस दृष्टि से वे एक बेजोड़ शब्द शिल्पी भी हैं। नफासत और अबामी का दुर्लभ संयोग है मीर की भाषा। लेकिन यह सब कुछ सायास नहीं बल्कि वह कविता के मिज़ाज की उपज है। भाषा और भाव की इसी विशेषता के कारण मीर ने वह लोकप्रियता प्राप्त की जिसे बहुत कम कवियों को प्राप्त हुई। उनकी कलम की ही खासियत है कि हिंदी फिल्मों में भी उनकी ग़ज़लों ने लोकप्रियता की ऊँचाइयों को छुआ। ‘दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया, हमें आपसे भी जुदा कर चलें’ और ‘पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने’ जैसी गज़लें आज भी आम और खास हिंदुस्तानियों की जुबान पर हैं। आज दो शताब्दियों बाद भी मीर की कविता हमें वैसे ही तरोताज़ा लगती हैं। प्रो. रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने ठीक ही कहा है–‘मीर ने लगभग सात हजार ऐसे शेर छोड़े हैं जो कहे तो गए थे अब से पौने दो सौ साल पहले, लेकिन प्रतीत होता है कि अभी-अभी कहे गए हैं। (उर्दू भाषा और साहित्य, रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’, पृ.-29) मीर की इन्हीं साहित्यिक विशेषताओं के साथ हम रुखसत होते हैं–

‘अब तो जाते हैं बुतकद से मीर
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।’


Image: Mir Taqi Mir 1786
Image Source: Wikimedia Commons
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अनिल राय द्वारा भी