अप्रतिम सौंदर्य का ‘जंगली फूल’

अप्रतिम सौंदर्य का ‘जंगली फूल’

‘जंगली फूल’ डॉ. जोराम यालाम नाबाम द्वारा लिखित एक विशिष्ट उपन्यास है। इस उपन्यास में एक मिथकीय चरित्र को मानवीय चरित्र के रूप में ढालकर प्रस्तुत किया गया है। इसको हम आंचलिक कोटि का उपन्यास मान सकते हैं। एक नवीन कथा-भूमि और उसके वैशिष्ट्यपूर्ण चित्रण से इसका संबंध है। पूर्वोत्तर के जनजातीय जीवन के बारे में बहुत अधिक जानकारी अभी भी देश के अन्य भागों के लोगों को नहीं है। पूर्वोत्तर से संबंधित अब तक हिंदी में जो गिनती की कथा-कृतियाँ आ सकी हैं, उनमें से अधिकांश हिंदीभाषी क्षेत्र के लेखकों द्वारा रची गई हैं या फिर कुछ अनूदित साहित्य हमारे सामने है। हिंदी में रचनात्मक साहित्य-लेखन की अरुणाचल प्रदेश में तो खैर अभी लगभग शुरुआत ही हुई है। परंतु, इतने कम समय में और गिने-चुने नामों ने ही अपने काम से स्थानीय लेखन के महत्त्व का अहसास करा दिया है। अतः विशिष्ट यह रचना इस अर्थ में तो है ही कि इसमें हिंदी के पाठकों के लिए प्रायः अनजान से क्षेत्र और उसके जनजीवन की विशेषताओं से अवगत होने का अवसर मिलता है। वैशिष्ट्य रचनाकार के रचना-कौशल में भी है। यह डॉ. यालाम का पहला उपन्यास है, परंतु उन्होंने अपनी इस पहली ही औपन्यासिक कृति से अपने लेखन-कौशल की धाक जमा दी है। क्या भाव, क्या संवेदना, क्या विचार, क्या शिल्प और क्या उन सबकी प्रस्तुति के लिए रची गई भाषा–सब मिलाकर रचना को ऊँचाई प्रदान करते हैं, रचनाकार की विशिष्ट प्रतिभा का मुँहबोलता बखान करते हैं।

वनस्थली राजस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय तथा राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, ईटानगर से शिक्षित-दीक्षित डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने कुछ वर्षों तक ईटानगर स्थित डेरा नातुंग शासकीय महाविद्यालय में अध्यापन-कार्य किया और अभी राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, ईटानगर के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उनका एक कहानी-संग्रह ‘साक्षी है पीपल’ इससे पूर्व प्रकाशित हो चुका है। यह उनकी दूसरी कथा-रचना है, जो उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुई है। ‘जंगली फूल’ आबोतानी के जीवन और चरित्र पर केंद्रित उपन्यास है। लेखिका न्यिशी जनजाति से हैं और न्यिशी जनजाति के लोक साहित्य में आबोतानी को मानव-पिता की मान्यता प्राप्त है। आबोतानी की स्थिति सिर्फ न्यिशी जनजाति में ही नहीं, अपितु अरुणाचल प्रदेश की तानी समूह की सभी जनजातियों के बीच लगभग मनु और आदम जैसी है। वे इन जनजातियों के आदि पुरुष समझे जाते हैं। स्थानीय भाषा में ‘आबो’ का अर्थ होता है–पिता और ‘तानी’ का मनुष्य। इस तरह से आबोतानी का अर्थ होता है–मानव-पिता, अर्थात् मनुष्य के आदि पूर्वज। इनको लेकर तानी समुदायों में अनेकानेक कथा-कहानियाँ, किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। इन कथा-कहानियों के आधार पर उनका बहुआयामी व्यक्तित्व निखरकर सामने आता है।

अरुणाचल मूलतः एक जनजातीय प्रदेश है। यहाँ निवास करने वाली शताधिक जनजातियों में से लगभग 25 प्रमुख जनजातियाँ मानी जाती हैं। इनमें से पाँच प्रमुख जनजातियाँ–न्यिशी, आदी, गालो, आपातानी तथा तागिन मुख्यतया तानी समूह के अंतर्गत परिगणित की जाती हैं। संख्या-बल की दृष्टि से इन सबको मिलाकर अरुणाचल की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा आता है। इन सब जनजातियों में कुछ उच्चारण-भेद के साथ (यथा–अबूतानी, आबूतानी आदि) आबोतानी से संबंधित भाँति-भाँति की कथाएँ, थोड़े-बहुत बदलावों के साथ लोककथाओं के रूप में प्रचलित रही हैं। इन जनजातियों में यह मान्यता है कि उनकी अतीत और वर्तमान की बहुत सी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ, उपलब्धियाँ-अनुपलब्धियाँ आबोतानी की ही देन हैं। इन कथाओं के आधार पर आबोतानी स्वच्छंद स्वभाव के, कभी-कभी दुस्साहस की सीमा तक पहुँच जाने वाले बहुत साहसी व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं; जिन्होंने अनेकानेक वर्जनाओं को तोड़ा। वे सुनकर रुक जाने वाले नहीं, करके देखने वाले व्यक्ति थे। मानवों के साथ ही अनेक मानवेतर प्राणियों से भी उन्होंने मित्रता अथवा शत्रुतापूर्ण संबंध बनाए। उन्होंने अनेक विवाह किए, जिनसे नाना प्रकार की संताने उनकी पैदा हुईं। मनुष्य तो क्या; मच्छर, मक्खी, जोंक इत्यादि तक उनकी ही संतानें हैं। उनके ही अच्छे-बुरे कर्मों का परिणाम ये जनजातियाँ आज तक भोग रही हैं, ऐसी पारंपरिक मान्यताएँ यहाँ हैं।

तानी समुदायों में प्रचलित अनेकानेक अच्छी-बुरी, हँसोड़-गंभीर कथाओं के द्वारा जो धारणाएँ उनके बारे में बनती हैं, उनमें से एक यह कि उन्होंने अनेक विवाह किए। मानव जातियों में से ही नहीं, मानवेतर प्राणियों से तक। कई पत्नियाँ या तो उनके स्वभाव से तंग आकर उन्हें छोड़कर चली गईं या फिर कइयों को उनके स्वभाव से तंग आकर आबोतानी ने छोड़ दिया। इसके आधार पर कभी-कभी कुछ हल्की बातें भी उनके बारे में की जाती हैं। लेखिका को ऐसी ही बातों ने यह उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया। उपन्यास की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है–‘सुना है कभी तानी नाम का कोई फूल कहीं पर खिला था। लोगों की जुबान पर वह सिर्फ एक फूल है–रंगोंवाला फूल–रंगीन फूल–मानो उसमें कोई खुशबू ही नहीं थी। वह बहुत बदनाम फूल रहा! यहाँ तक कि उसे बलात्कारी तक कहा गया! कहते हैं, संभोग के लिए वह कुछ भी कर सकता था! अनगिनत पत्नियाँ रखीं उसने! प्रेम किसी से भी नहीं किया! वह गृहस्थी के लिए बना ही नहीं था! आवारा-सा कोई पैदा हुआ था! उसकी शक्ति और बुद्धि के चर्चे भी खूब रहे। उसने उसका इस्तेमाल भी औरतों के शरीरों को हासिल करने के लिए ही किया था! वह सिर्फ और सिर्फ अपना वंश बढ़ाना चाहता था! सोचती हूँ कि क्या सच में वह इतना कायर, नीच, स्वार्थी और डरपोक था? अपने को बचाने के लिए वह इस हद तक जा सकता था?… कोई तो वजह रही होगी जिसके कारण आज तक लोग उसके नाम को भूल नहीं पाये हैं! कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके चलते लोगों ने उसे ‘पिता’ कहा होगा।…मैंने उस फूल को अपनी दृष्टि से देखने की कोशिश की है।…मैंने यहाँ कल्पनाओं की उड़ान भरने की कोशिश की है।…’ (प्रस्तावना, पृ-3)

उपन्यास का आरंभ तानी के युवा हो जाने पर संघर्षपूर्ण उन पूर्व-स्मृतियों के साथ होता है जिनमें युद्ध है, भूख है; भय, भूख और उनके कारण आसन्न मृत्यु से बचने की चाह में स्थान-स्थान पर विस्थापन है; पिता का नायकत्व है; उनका निधन और उनके साथ ही माँ की विदाई है। सती-प्रथा का अरुणाचल के जनजातीय समाजों से कोई वास्ता नहीं है, परंतु इस उपन्यास में तानी के पिता की मृत्यु के साथ ही माँ की मृत्यु कुछ उसी तरह का भावविह्वल दृश्य उपस्थित करती है। तानी के जीवन में अतीत का कुछ नहीं बचा है–बची हैं तो सुखद-दुखद स्मृतियाँ और माँ की दी हुई सीख। उसके द्वारा देखा गया सपना और उस सपने को पूरा करने के लिए तानी से लिया गया वादा। माँ ने कभी तानी का विलक्षण सामर्थ्य देखकर कहा था–‘…तुम्हारी नजरों के सामने जो कोई भी हो–वह भूख से न रोने पाये और न ही मरने पाये!…’ पूरे कबीले की जिम्मेदारी तानी के ऊपर सौंपकर गई माँ की इच्छा को पूरा करने का संकल्प तानी के मन में है। इसी बीच अवसर मिलता है उसे एक कबीले की सहायता के लिए जाने का। वहाँ के लोगों के लिए खलनायक बन चुके ताप मैकार का वहाँ के लोगों की दृष्टि में वध कर वह अपने आमंत्रण का उद्देश्य पूरा करता है, लेकिन वास्तव में उसे चालाकी से बचाकर अपने साथ ले आता है। मैकार मैंरांग के ऐश्वर्य-संपन्न एवं शक्तिशाली उस कबीले के मुखिया की बेटी आसीन से उसका विवाह होता है और साल भर में दो जुड़वाँ बच्चे भी। वहीं की एक वृद्ध स्त्री की प्रेरणा से तानी की यात्रा अपने बड़े भाई दोदर और कुत्ते कीपुंग के साथ अनजान देश के लिए होती है। रास्ते में न्यिकुंग तथा हर्ब का साथ मिलता है और परिस्थितियोंवश उस दूर देश के शक्तिशाली मुखिया की सबसे छोटी, प्रिय और सुंदर पत्नी सिमाँग के प्रेम में पड़कर अंततः तानी उस मुखिया की कैद में पड़ जाता है। अपने अप्रतिम बुद्धि-बल और साहस के दम पर वह वहाँ से अपनी उस स्त्री-मित्र सिमाँग के साथ धान के बीज वापस लेकर ‘यालंग पू’ आता है, जहाँ उसका कबीला वास करता है। इधर तब तक बहुत कुछ अघटनीय घटित हो चुका होता है। तानी के ईर्ष्यालु दो सौतेले भाई तापिन और रोबो पुजारी को अपने साथ मिलाकर षड्यंत्रपूर्वक उसके दोनों बेटों की बलि चढ़ा देते हैं। पत्नी सिमाँग अपने पिता के घर चली जाती है। प्रतिशोधवश उसके पिता के कबीले के आक्रमण से यालंग पू श्मशान बन जाता है और तानी के कबीले में मात्र गिने-चुने लोग बचते हैं। असीम शक्ति-संपन्न ताप भी इस हमले में छलपूर्वक मारा जाता है।

बदहवास तानी बहन दोलियांग और सखी सिमाँग के प्रयत्नों से पुनः उबरकर अपने भाई रोबो के नाक-कान काटकर बदला लेता है। दोलियांग के प्रयासों से उसका पुनर्विवाह एक अत्यंत वैभव-संपन्न कबीले की बेटी याई से होता है। याई के उद्धत और शक्की स्वभाव के चलते सिमाँग, रूंगिया और हर्ब को विदा होना होता है और अंततः वह भी तानी के उदार स्वभाव से जुड़ी एक घटना के कारण क्रोध में आकर अपने नवजात शिशु को लेकर तथा अपनी सारी संपदा बटोरकर तानी को छोड़कर चली जाती है। तानी बहुत बीमार पड़ जाता है। सिमाँग को छोड़ने गई तानी की वैद्य बहन दोलियांग सिमाँग के आग्रह पर उसे बीच रास्ते में छोड़, वापस लौट आती है और तानी की देखभाल कर उसे अपनी औषधियों से स्वस्थ करती है। पूर्व पत्नी याई की ही बहन जीत के साथ तानी के फिर एक विवाह के साथ उपन्यास पूरा होता है।

इस प्रकार मुख्य कथा तानी से जुड़ी है, पर साथ में कई अवांतर कथाएँ चलती हैं, जैसे–तानी के अहंकारी चाचा मंगजंग की कथा–जिसने अपनी तानी पहचान मिटाकर नया कबीला तैयार कर लिया है। समाज की दृष्टि में बदसूरत रूंगिया को उसकी मानवीय गरिमा का अहसास कराकर उसे प्रेम से पूरित तानी यहीं करता है। बाद में यहीं आकर मात्र अपने एक साथी के साथ युद्ध में सबको परास्त कर चाचा मंगजंग का गर्व चूर करता है और यहाँ छिपे अपने सौतेले भाई को पकड़ ले जाकर उसे उसके किए की सजा देता है। तानी वंश की वृद्धि के लिए अपने बड़े भाई दोदर को एक अनजान कबीले में वहाँ का नायकत्व सँभालने के लिए छोड़ जाना, ताज ताकर के यहाँ से चतुराई से दस मिथुन झपट लाना, न्यिकुंग, हर्ब, ताप, रूंगिया आदि की कथाएँ, उपन्यास में प्रासंगिक कथाओं के रूप में इस तरह से अनुस्यूत हैं कि उन सबका मुख्य कथा के विकास से प्रत्यक्ष संबंध जुड़ता है। रचना के उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कथा सिमाँग की है जो दो-दो पुरुषों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाती है और रचनाकार की प्रेम-संबंधी दृष्टि को सामने रखती है।

लेखिका सर्वाधिक मुखर है इस उपन्यास में तो हिंसा के विरोध में–फिर चाहे वह हिंसा एक कबीले से दूसरे कबीले के बीच युद्ध के रूप में हो, चाहे परिवारों के बीच हो और चाहे परिवार के ही भीतर हो। उपन्यास में हिंसा के अनेक बड़े भयावह, वीभत्स और लोमहर्षक दृश्य समाहित हैं। सर्वाधिक प्रखर हैं लेखिका के विचार इस उपन्यास में तो प्रेम के प्रति–फिर चाहे वह प्रेम स्त्री-पुरुष के बीच पति-पत्नी के रूप में हो, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में हो, सख्य-संबंध के रूप में हो या अन्य सामाजिक रिश्तों के रूप में हो। भूख के साथ दूसरा बड़ा स्वर है उपन्यास में प्रेम का। बल्कि प्रेम कई बार भूख के भी ऊपर भारी पड़ता दिखता है। तानी की यात्रा भूख का समाधान खोजने के लिए आरंभ हुई थी, पर उसकी पूर्णता प्रेम की चरम परिणति के साथ होती है। यानी भूख के साथ ही प्रेम का समाधान भी होता है और स्त्री-पुरुष के सच्चे साहचर्य और निर्मल संबंध की पैरोकारी का आख्यान यह उपन्यास बन जाता है।

उपन्यास का नायक तानी है, लेकिन समग्र प्रभाव को देखा जाए तो इस उपन्यास का नायकत्व स्त्री के हिस्से जाता हुआ दिखाई देगा। एक अकेली स्त्री विशेष नहीं–स्त्री जाति! शक्ति, सौंदर्य और बुद्धि का संगम रखने वाली अद्भुत स्त्रियाँ इस कथा में हैं। यों सिमाँग नायिका कही जा सकती है उपन्यास की, तथापि दोलियांग, आसीन, रूंगिया, जीत आदि अनेकानेक सशक्त स्त्री चरित्र इस रचना में मौजूद हैं; जो अपने साहस और संकल्प की दृढ़ता में पुरुष तानी को भी पीछे छोड़ देते हैं। पर, सर्वाधिक सशक्त स्त्री चरित्र तो सिमाँग का ही है। सौंदर्य की वह देवी है। साहस की प्रतिमूर्ति है। इच्छा-शक्ति में दृढ़ता की चट्टान है। इस उपन्यास की स्त्रियाँ मात्र कोमलता की पुतली नहीं हैं। कोमल मन अवश्य उनके भीतर है, परंतु वे बहुत संघर्षशील, साहसी और जुझारू हैं। उपन्यास में एक स्थान पर दोलियांग सिमाँग के बारे में उससे कहती है–‘तुम जैसी न कोई हुई, और न कोई होगी।’ वैसे, स्त्री के सत्-असत् दोनों पक्षों का चित्रण उपन्यास में हुआ है।

पूरी रचना में विषाद बहुत गहरा है। उल्लास के अवसर उसके मुकाबले कम हैं, यह कहा जा सकता है। जहाँ उल्लास है भी तो वहाँ विषाद की मँड़राती काली छाया उसको संपूर्ण उल्लास में परिणत नहीं होने देती। स्त्री-व्यथा के भी बड़े मार्मिक पल इसमें व्यंजित हुए हैं। स्थान-स्थान पर, जहाँ अवसर होता है; स्त्री की मर्म-वेदना लेखिका की लेखनी से स्याही की बजाय आँसुओं के रूप में टप-टप टपकने लगती है और उसके अंतर्मन की पीड़ा कागज पर उँड़ेलने लगती है। अतीत के कबीलाई समाज में स्त्री-जीवन की त्रासदी का एक वर्णन उपन्यास से देखें–‘विवाहित महिला किसी गैर-मर्द के साथ पकड़ी गई तो नर्क से भी बदतर सजा उसे मिलती थी। या तो उसे ऐसे आदमी के साथ बेच देते थे जो उसको पसंद नहीं होते, या फिर कई-कई दिनों तक उसे भारी-भरकम लकड़ी के साथ बाँध दिया जाता था और उसकी मर्जी के खिलाफ उसके शरीर के साथ कई तरह से खिलवाड़ किया जाता था। मददगार को कई तरह के जुर्माने लगते थे।…’ (पृ-18) ऐसी ही एक सजा का चित्रण लेखिका ने उपन्यास में किया है–‘एक दिन किसी के साथ पकड़ी गई। हुआ कुछ भी नहीं था। बस वे अँधेरे में कुछ बातें ही कर रहे थे। पिंज के खानदानवालों ने उसे धर दबोचा! दूसरे दिन उसे खानदान के सारे पुरुषों ने रस्सी से एक पेड़ के साथ बाँध दिया। बारी-बारी से उसे लात-घूँसे मारे। तीन दिनों तक भूखी-प्यासी रखी गई और फिर चौथे दिन उसकी योनि में सूखी मिर्ची का पाउडर डाल दिया गया।…’ (पृ-17)

स्त्री का आखिर अपराध क्या है? ‘प्रकृति ने उसे कोमल और जननी बनाया है। उसने स्त्री होना स्वयं नहीं चुना है।’ (पृ-83) स्त्री जननी है। स्त्री-पुरुष सब उसी के जन्मे हैं। फिर उसी की संतानों में भेदभाव! उसकी जनी संतानों द्वारा ही उसके प्रति दोयम दर्जे का भाव! वह सुंदर है तो यह भी उसका गुनाह, असुंदर है तो भी। अनेक बार तो इस गुनाह के चलते नाते-रिश्ते तक बेमानी हो जाते हैं। तानी की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी आसीन, जो दो बच्चों की माँ है; उसके प्रति तानी का भाई तापिन ही गंदी दृष्टि रखने लगता है। ‘तापिन की गंदी दृष्टि का सामना करते-करते थक गई है वह। चाहता होगा कि उसका अपना ही भाई तानी कभी लौटकर ही न आए! स्त्री का अपना कौन होता है? कोई चीज है, जो उसकी अपनी हो? जिसको भी मौका मिला उनकी गंदी नजरों, विचारों और व्यवस्था का शिकार हो गई वह। गाँव के मर्द कहते हैं–‘विधवा औरतों पर दया करते हुए संभोग करना चाहिए! अहसान ही करना होता है! फिर भी यह औरतें बड़ी ही नौटंकीबाज होती हैं! मना करती फिरती हैं कमीनी!’ हर मर्द उस पर अपना हक मानकर उसके साथ छेड़छाड़ करने लगते हैं! बाकी औरतें अपने लिए उसे खतरा मानकर उससे किनारा कर लेती हैं! इस प्रकार की परेशानियों से बचने के लिए औरतों को किसी मर्द की दूसरी तीसरी या फिर चौथी बीवी बन जाना मंजूर कर ही लेना होता है। कम-से-कम पत्नी तो कहलाओ किसी की और सुरक्षित रहो! मर्द कहते हैं–इस प्रकार किसी भी औरत को वेश्यावृत्ति करने से वे बचा लेते हैं! वे समाज के रक्षक होते हैं!

दुनिया भर में अधिकांश समाज पितृसत्तात्मक हैं। पितृसत्तात्मक समाज में अधिकतर लड़की को ही विवाहोपरांत लड़के के घर जाना होता है। विवाह भी पहले प्रायः तो अबोध स्तर पर ही हो जाते थे। अपनी जड़ से उखड़कर दूसरी जगह पर रोपित होने की पीड़ा को पुरुष क्या वैसे समझ सकते हैं जैसे एक स्त्री समझ सकती है? ऐसे एक दारुण दृश्य का भी चित्रण उपन्यास में है–‘विवाह के वक्त वह बहुत ही रोयी थी। माँ से लिपट गई, माँ ने उसे अपने से अलग कर दिया। पिता से लिपट गई, पिता ने अपने से अलग कर दिया। गार के बड़े से लकड़ी के खंभे से लिपट गई, सबने मिलकर उससे भी अलग कर दिया। मार्ग में पेड़ों से, पौधों से, छोटे-छोटे घासों से भी सहारा माँगा…उनसे भी अलग कर दी गई। बाराती उसे पकड़कर खींच-खींचकर ले गए थे!’ (पृ-64) सामान्यतः यह विदाई के समय की एक रस्म भर लगेगी, लेकिन उस अबोध बालिका के कलेजे से पूछिए, जिस पर यह क्षण बीते हैं!

रचना अगर अनर्थ, अन्याय और असंगत का विरोध न कर सके तो उसका औचित्य ही क्या है! यथातथ्य चीजों को सामने रख देना भर ही सृजन नहीं है। सृजन सही और गलत का विवेक देना है। पाठक को यह भरोसा दिलाना है कि न तो रचना गलत के साथ खड़ी है और न रचनाकार। यथार्थ चाहे जो हो, रचना और रचनाकार का पथ आदर्श का ही होगा। यथार्थ का निर्मम चित्रण और आदर्श का सांकेतिक समावेगा–यह दोनों रचना को बड़ा बनाते हैं। आदिम समाजों में बलि-प्रथा एक सामान्य बात रही है। अंधविश्वासों के चलते अन्यान्य जीवों की तो बात ही क्या, मानव-बलि तक दी जाती रही है; ऐसे संकेत लोक साहित्य से मिलते हैं। इस उपन्यास में भी कुछ कुटिल लोगों द्वारा ऐसा कुकृत्य पुजारी के साथ मिलकर किया जाता है। लेखिका उस पुजारी में ऐसी आत्मग्लानि भरती है कि वह और उसकी पत्नी शर्म और पश्चात्ताप से आत्महत्या कर लेते हैं। उस आदिम युग में तानी की बहन दोलियांग का इस प्रथा के प्रति आक्रोश रचनाकार की प्रगतिशील दृष्टि का ही सुफल है–‘दोलियांग की क्रोधित आवाज बुलंद आवाज उस दिन दसों दिशाओं में गूँज गई। धोखा धोखा धोखा! माता कभी बलि नहीं माँगती। माँग ही नहीं सकती। माँगती तो हम उन्हें माता नहीं कहते। क्या सूरज को पता है कि हम उन्हें माता मानते हैं! किसने-किसने कभी सूरज की आवाज सुनी? बलि किसको, कैसे और क्यों? क्या हम सूरज से ज्यादा महान और बड़े हैं? नहीं, तो कैसे उसे हम कुछ दे सकते हैं!’

यह लोककथाओं की दुनिया है। अतीत की दुनिया है। प्रकृति के अमंद वैभव का संसार है। इस वैभव में स्वच्छंद विचरते मानव की कथा है। उसके अन्य जीवों के साथ सहजीविता का आख्यान है। इसलिए स्वप्नकथा सरीखी यह लगती है। कल्पनामयी लग सकती है। जादुई यथार्थवाद को प्रस्तुत करती सी लग सकती है। हालाँकि इस स्वप्न में भूख भी है, गरीबी भी है, असहायता भी है। इन सब परिस्थितियों के बीच शुभ-सुखद बदलाव लाने का तानी का दृढ़ संकल्प और कठिन प्रयत्न भी है। सौंदर्य अनुपम है इस पूरी कथा में, फिर चाहे वह स्त्री का हो, प्रकृति का हो, अंतरतम का हो और चाहे बहिरंतर का।

अरुणाचल प्रदेश की लोककथाओं में मानव एवं मानवेतर प्राणियों के बीच विवाह-संबंध दिखाए गए हैं। लेखिका ने उन्हें अलग अभिप्राय दिये हैं और कई पात्रों को ऐसे रूप में चित्रित किया है जो मनुष्य होते हुए भी किसी-न-किसी अन्य मानवेतर प्राणी से साम्य रखते हैं। पिंज, रूंगिया, न्यिकुंग, हर्ब आदि ऐसे अनेक चरित्र हैं जिनका आकार-प्रकार, शक्ल-सूरत और गतिविधियाँ तक चमगादड़, चुड़ैल, सर्प, मेढक आदि जैसी दिखाई गई हैं। ये सब तरह-तरह के स्वभाव-व्यवहारों के स्त्री-पुरुष हैं जिनकी लोककथाओं में जीव-जंतुओं के नाम से पहचान बतायी गई है। लेखिका ने उन्हें मानव रूप में देखा है।

लोक-तत्त्वों की दृष्टि से इस रचना का महत्त्व है और यह जनजातीय लोक-ज्ञान से पाठकों को समृद्ध करती है। जनजातीय संस्कृति, स्थानीय प्रकृति, कृषि-कर्म, औषध-ज्ञान, शिल्प, दर्शन, कलाएँ, मान्यताएँ-वर्जनाएँ, मूल्य-विमूल्य, विश्वास-अविश्वास-अंधविश्वास, समस्याएँ, आदि इसमें इस तरह से अनुस्यूत हैं कि सहज ही पाठक उनसे अवगत हो जाता है। यह लोकज्ञान हमारा अब धीरे-धीरे विलुप्त होने की ओर बढ़ रहा है। नई पीढ़ी आधुनिक जीवन-शैली और सुविधाओं के दबाब में उसे विस्मृत-सी कर रही है। लोक-मूल्य भी धीरे-धीरे पीछे छूट रहे हैं। ऐसे में इस तरह की रचनाओं का महत्त्व इस कारण से भी है कि उनमें दस्तावेजीकृत होकर हमारा यह पारंपरिक ज्ञान सुरक्षित रह सकेगा और कभी भी हमारे काम आ सकेगा। आखिर इस कोरोना-संकट के समय हम तमाम आधुनिक चिकित्सा-पद्धतियों के रहते हुए और उनका उपयोग भी करते हुए अपनी पारंपरिक औषध एवं योग परंपरा को अपनाने ही रहे हैं। मच्छर भगाने वाली घास से लेकर, जहर उतारने की दवा बनाने वाले तागो या न्योली नामक पौधे का उल्लेख इस उपन्यास में हुआ है। भाषा की व्याकरणगत छोटी-मोटी अशुद्धियाँ रचना में रह गई हैं, पर वे ऐसी नहीं कि उसके समग्र प्रभाव में कोई अवरोध बन सकें। कुल मिलाकर एक बहुत सुंदर कथा-रचाव डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने अपने इस प्रथम उपन्यास में किया है और कथा के माध्यम से जो कहना था, कह दिया है।


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Artist :Ivan Shishkin
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