मांडव
- 1 September, 1950
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- 1 September, 1950
मांडव
देखिए, यह समुद्र की सतह से 2079 फीट ऊँची विंध्य की पहाड़ी आपका स्वागत कर रही है। इसके दर्शन करते समय भूल जाइए कुछ क्षण के लिए इस बीसवीं शताब्दी को। हम लोग आज से पाँच शताब्दी पूर्व के उस स्थान में प्रवेश कर रहे हैं जो हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के एक्य का प्रतीक रहा है। यह ‘मांडवगढ़’ है। मांडव–कि जहाँ के खंडहरों में, शाही प्रासादों में; मस्जिद और मंदिरों में, दरो-दीवारों में, नहीं, नहीं, उसके जर्रे-जर्रे से शालीनता, स्वाधीनता, ऐश्वर्य और सांप्रदायिक तथा संस्कृतिक ऐक्य का संदेश गूँज रहा है। पाँच सौ वर्षों के लंबे समय को लाँघने के बावजूद जहाँ के भग्नावशेष आज के हमारे इस युग की ‘नकलियत’ पर हँसते से खड़े हैं–शांत, अडिग। आज भी जिनमें प्रवेश करते समय भ्रम होता है कि कहीं से, “बाअदब बामुलाहिजा होशियार” की आवाज के साथ चलने वाले कोई विश्व-विजयी सम्राट न निकल पड़ें; यहाँ की कब्रों में सोए किसी बादशाह की नींद में खलल न पड़ जाए। अथवा किसी भी धर्म, संप्रदाय या गद्दी से ऊपर उठकर बोलने एवं ‘प्रेम’ की महत्ता सिद्ध करने वाली, महारानी रूपमती ही आकर किन्ही झरोखों से झाँक न उठे या प्रेम प्रणय के प्रतीक तख्तोताज की अमरकहानी लिए नूरजहाँ कहीं दिखाई न दे जाए।
हाँ, तो यह मांडव है–शाही महलों का खंडहर। सैकड़ों नहीं, हजारों वर्ष बीत जाएँ और उन वर्षों पर भी कई युग दिन बनकर निकल जाएँ, लेकिन जब तक ये खंडहर हैं, तब तक इनके निर्माताओं की महान महात्वाकाँक्षा यहाँ व्यक्त रहेंगी और उनके प्रभाव से कोई भी पथिक अपने आपको मुक्त नहीं पा सकेगा।
जरा सँभलकर आइएगा इस ओर। देखिए, यह किला काफी टूट-फूट चुका है। कल्पना कीजिए उस समय की, जब यह अपने वास्तविक स्वरूप में रहा होगा।
विंध्य की गोद में अनेक सुंदर तालाबों और वृक्षों के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच करीब साढ़े तीन मील लंबी और साढ़े चार मील चौड़ी एक समतल पहाड़ी पर यह दुर्ग निर्मित है और अपने तीन ओर से ‘काकड़ार खोह’ और ‘अंडा’ खोह नामक भयानक गहरी खाइयों और एक चालीस मील के घेरे वाली ऊँची दीवार से रक्षित है, जिसके बारह प्रवेश द्वारों में से उत्तर के एक गाड़ी आने के मार्ग को छोड़कर शेष सब मार्ग इतने ढालू हैं कि जहाँ से एक-ब-एक दुश्मनों की सेना का प्रवेश असंभव था। सौंदर्य की दृष्टि से वर्षा के दिनों, छोटे-छोटे झरनों और जलप्रपातों से युक्त हरे वृक्षों और लताकुंजों के बीच, रंग-बिरंगे फूलों की विचित्र आभा और मीठी-भीनी खुशबू तथा मयूरों का नृत्य, हिरनों की उछल-कूद, पक्षियों का सुमधुर कलरव एक अजीब समा बाँध देते हैं। इसी प्राकृतिक सौंदर्य से मुग्ध होकर मुगल सम्राट जहाँगीर यहाँ कुछ समय रहे थे।
इठलाती, बलखाती, चक्करदार सड़क से किले के प्रथम प्रवेश-मार्ग आलमगीर दरवाजे और उसके बाद क्रमश: कंगी दरवाजे, कमानी दरवाजे और गाड़ी दरवाजे को पार करने के पश्चात मांडव बस्ती में प्रवेश करते ही वह जो बाएँ हाथ की ओर पहली इमारत दीख रही है वह और कुछ नहीं, जन-जन के मन: प्राण ‘श्री राम’ का मंदिर है। वहीं पास ही एक दूसरे की ओर मुखातिब, मौन संकेतों से बात करते-से ‘अशरफी महल’ और ‘जामा मस्जिद’ खड़े हैं।
जी हाँ, यह ‘अशरफी’ महल है जिसके निर्माता महमूद खिलजी आज भी यहाँ शांति की नींद सोए हैं। यह वह सुल्तान हैं जिन्हें इमारतों का अकूत शौक था और जिन्होंने मांडव की सबसे बड़ी इमारत जामा मस्जिद को पूरा करवाया था और उसके बाद इसी अशरफी महल को, इसके अंग-अंग को अपनी निगाह के सामने बनवाया था। सुलतान अपनी वीरता और धार्मिकता के कारण प्रसिद्ध हो गए हैं। याद कीजिए, उस समय की, जब इन्हीं के पुत्र ग्यासुद्दीन की उनके बेटे नासिरुद्दीन ने तख्त के लिए जहर देकर हत्या कर दी थी। वे भी यहीं दफनाए गए।
उसके पूरे 107 वर्ष बाद जब जहाँगीर नूरजहाँ के साथ मांडव देखने आए, तो उन्हें इसी महल में नासिरुद्दीन की कब्र देखकर पितृहत्या जैसे निद्यं कर्म के प्रति बेहद नफरत हुई। इतनी नफरत हुई, इतना क्रोध आया कि उनकी आत्मा इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी और उन्होंने उसी समय उस कब्र को खुदवाकर उसे नर्मदा में फिकवा दिया। इस तरह एक ही वंश के दो व्यक्तियों में से, एक को अपने दुष्कर्मों के पारिणाम स्वरूप ठुकरा कर और दूसरे के सत्कर्मों को शिरोधार्य करते हुए यह महल आज भी खड़ा है अपनी उसी शान से, उसी आन से।
और यह है मांडव की इमारतों में सबसे बड़ी और सबसे पवित्र मानी जाने-वाली ‘जामा मस्जिद’। जमीन से करीब एक मंजिल की ऊँचाई पर बेगमों और सुलतानों के लिए शाही ढंग के प्रवेश मार्गों से युक्त यह इमारत पठानी शिल्पकला में श्रेष्ठ मानी जाती है। यह अपने हर चश्मे और कमानी में एक एक गुंबज लिए हुए है। मानो इबादत के लिए, अपने में सबका स्वागत करते हुए एक सुदृढ़ आस्था और विश्वास पर सदियों के कष्टों को झेलते हुए भी यह किसी शुभ दिन की प्रतिक्षा में खड़ी है।
कुछ ही दूर आगे, वह जो सफेद संगमर्मर की इमारत दीख रही है, वही है होशंगशाह का मकबरा जिसे ‘चरवा-मस्जिद’ कहते हैं। एक बार इन्हीं होशंगशाह गोरी ने मांडव को अपनी राजधानी बनवाकर इस किले की मरम्मत करवाई थी। अपनी मृत्यु से पूर्व इन्होंने विशाल जामा मस्जिद बनवाना आरंभ किया था जो उनकी मृत्यु के पश्चात पूरी हुई। इन्होंने अपने शासनकाल में मांडव के पुन: निर्माण के लिए कोई बात उठा न रखी। मृत्यु के बाद वे यहीं दफनाए गए। सुनते हैं, इनकी कब्र के आसपास गुंबज से लगातार पानी टपकने की व्यवस्था की गई थी जो अब बंद हो गई है।
ठहरिए, यदि आप कलाकार हैं तो एक क्षण और ठहरिए। पूँजी के बल पर बड़े-बड़े निर्माण कायों को अपने नाम से प्रसिद्ध करा जाने वालों के नाम तो हमने अनेक बार इतिहास में पढ़े हैं और सुने भी हैं; लेकिन उनकी नींव में अपने रक्त की अंतिम बूँद चढ़ा जाने वाले कलाकारों को शायद ही कभी किसी ने याद करने का प्रयत्न किया हो। सो देखिए यह! मकबरे के दरवाजे पर उस महान कलाकार ‘हमीद’ के हस्ताक्षर हैं जो शाहजहाँ द्वारा निर्मित जगत-प्रसिद्ध ‘ताजमहल’ का निर्माता था। मांडव किले की देशव्यापी प्रसिद्धि सुनकर यह भी अपने साथियों सहित यहाँ आ निकले थे और इन हस्ताक्षरों के रूप में अपनी याद छोड़ गए हैं। लेकिन याद रखिए शरीर में प्राणों की तरह यह वह शक्ति है जो खंडहर-प्राय इमारतों को सजीव बनाए हुए हैं। किसी दिन इन्हीं जैसे अज्ञात कलाकारों द्वारा इन सब में प्राण प्रतिष्ठा की गई थी।
पास ही अहाते में हिंदू ढंग के खंभों से निर्मित एक धर्मशाला है। धर्मशाला क्या है, इसे मांडव का संग्रहलाय समझिए। इसमें बड़े यत्न से यहाँ पाई गई मूत्तियाँ, शिलालेख, पत्थर की कारीगिरी के कई सुंदर नमूने आदि सब कुछ संजोकर रखे गए हैं। कहा जा सकता है कि उसके देखे बिना सारा मांडव-दर्शन अधूरा है।
यहाँ से आगे बढ़ने पर भोज और मुंज तालाब के बीच विशाल ‘जहाज महल’ निर्मित है। इसमें ऊँची मंजिलों तक पानी पहुँचाने की व्यवस्था अपने ढंग की अनूठी थी। अब तो वह सब बंद हो चुकी है। लेकिन तब की नालियाँ, फौव्वारे और हौज आज की देखने की वस्तु हैं। इस महल की प्रत्येक वस्तु की बनावट में सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ की एक भी वस्तु या स्थान ऐसा नहीं जो कलात्मक और सुंदर न हो। यदि कहीं पानी की नालियाँ भी बनी हैं तो उनके बीच-बीच में इस तरह सुंदर फूल बने हुए हैं जिनमें से बहते समय पानी भी कई तरह के फूलों का आकार लेकर बहे। जहाँ कहीं भी पानी ऊपर से नीचे गिरता होगा, वहाँ इस तरह की नक्काशीदार फर्शियाँ लगाई गई हैं, जिनसे वह सूर्य की किरणें पड़ने पर झिलमिलाता दिखाई दे। यह महल गयासुद्दीन नामक उस अत्यंत नमाज-प्रिय सुलतान द्वारा बनवाया गया है जिसने अपने नौकरों को यह हुक्म दे रखा था कि यदि मैं नमाज के वक्त सोता होऊँ तो गुलाब जल छिड़क कर और फिर भी न उठूँ तो बिस्तर से खींचकर उठा लिया जाऊँ। यही वह महल है, जिसका जहाँगीर ने जीर्णोंद्धार कराया था और नूरजहाँ जिसमें कुछ समय तक रही थी। कल्पना कीजिए उस महल की जिसके चारों तरफ पानी है और जिसकी प्रत्येक वस्तु इतनी कलापूर्ण है कि आप एक दृष्टि में ही सब कुछ देख जाने का साहस नहीं कर सकते। पत्थरों के पनालों में बने हुए छोटे-छोटे फूल भी आपको अपनी ओर बरबस आकर्षित करते हैं। और कल्पना कीजिए कि आप उसकी छत पर बैठे हैं–तो सच, जहाज से भी कहीं अधिक सुख मिलता है वहाँ। और आज तो हम घंटों बैठ सकते हैं उस जगह पर किंतु ख्याल रखिए उस समय का जब वह किसी मुगल सम्राट का निवास स्थान रहा होगा।
इसके पास ही अपनी बनावट के ढंग से हिंडोले की तरह झूलता हुआ दिखाई देने वाला ‘हिंडोला महल’ है। इसके ऊपरी मंजिल पर जाने के लिए हाथी सहित चले जाने योग्य चढ़ाव बना हुआ है। इन महलों के सामने ही कुछ बड़े-बड़े तलघर हैं। यों देखने से सामने का मैदान समतल प्रतीत होता है लेकिन उसमें ये जो कहीं-कहीं नीचे की ओर सीढ़ियाँ चली गई हैं उनसे यदि अंदर पैठा जाए तो हम पाएँगे कि वहाँ कई विशाल कमरे आगंतुक का स्वागत करते-से खड़े हैं। अंदर पहुँचने पर यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि हम जमीन की सतह से एक मंजिल नीचे विचर रहे हैं। न जाने इस तरह के कितने तलघर इस जमीन के अंदर बिला गए होंगे। जहाज महल से सटे तलघर में एक बड़ा-सा जलकुंड है। सहसा कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि यहाँ कुछ ही सीढ़ियाँ उतरने पर एक बड़ा सा ठंडे स्वच्छ जल का कुंड मौजूद होगा।
यहाँ से पश्चिम में मांडव की प्रसिद्ध ‘चंपा बावड़ी’ है। बावड़ी क्या मानो एक तिमंजले मकान को पूरा-का-पूरा जमीन के अंदर उतार लिया गया है। काफी गहराई पर पानी है। उसके आस-पास चारों तरफ कमानीदार तीन मंजिल ऊँची इमारत बनी हुई है। ऊपर का पूरा हिस्सा हवा और प्रकाश के लिए खुला है। यह अपने ढंग का दर्शनीय स्थान है! पास ही एक स्नानगृह है, जिसमें गरम और ठंडे पानी का प्रबंध है। यहाँ आने पर कुछ ऐसा लगता है मानो अभी-अभी कोई नहाकर गया हो।
देखिए, इधर न आइएगा। यह गयासुद्दीन द्वारा निर्मित ‘स्त्रीनगर’ है। इसमें कई हजार युवा सुंदरियाँ रहती हैं। उनकी रक्षा के लिए तीर-तरकश और तमंचे लिए अनेक स्त्रियाँ तैनात हैं। साथ मर्दाना पोशाक में स्त्रियों का एक दल अलग ही चक्कर लगा रहा है! खबरदार, कहीं तनिक भी उधर कदम बढ़ाया तो याद रखिए कि यहाँ का न्यायालय भी उन्हीं के सुपुर्द है और व्यवस्था भी; यहाँ का व्यापार भी उन्हीं के हाथों में है और कला कौशल भी–जैसे भारत में आर्डिनेंस राज्य। कुछ स्त्रियाँ नक्काशी काढ़ने में निमग्न हैं और कुछ चरखे से सूत निकाल रही हैं। स्त्रियों का एक दल उधर कपड़े बनाने में संलग्न है और दूसरा उधर गहने तैयार कर रहा है। कुछ महिलाएँ सुनारी और लुहारी में भी दिलचस्पी ले रही हैं और कुछ इन सबसे भिन्न, इन सबके मनोरंजनार्थ नृत्य, गान, वाद्य, संगीत आदि में इस तरह डूबी हैं मानो सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रहेंगी। उस शासन की ‘कुर्सी’ पर शासक ही बैठा करते हैं। वह इस महल की अध्यक्षा महारानी की बैठक है। इन ऊँची दीवारों से रक्षित किले में महाराजा को छोड़ पुरुष मात्र का प्रवेश निषिद्ध है। लेकिन आप चौंकिए नहीं, अब तो यह खंडहर प्राय: है और कोई भी इसमें आ जा सकता है। सिर्फ इतना ही ख्याल रखिए कि किसी भव्य प्रासाद के दुमंजिले कमरे में जाने पर कहीं वहाँ की कोई रक्षिका आपको बंदी न बना ले। अन्य पुरुषों की परछाई तक से भी अछूते इस स्त्री नगर में प्रवेश करने के आरोप के खिलाफ आप क्या जवाब देंगे?
देखिए! यहाँ की मधुर स्मृतियों में कहीं उलझ न जाइएगा। हम मांडव देखने आए हैं–महज यात्री हैं, हमें वापिस भी लौटना है। यहाँ के शीतल सुगंधित पवन की मंद-मंद थपकियों में तो आज भी वह असर है कि यदि आप एक बार यहाँ बैठ जायँ तो फिर कभी उठने का नाम न लें। आज भी यहाँ के किसी भी कमरे में पहुँचने पर कुछ ऐसा लगता है, मानो आपके आने की आवाज सुनकर अभी अभी एक ही क्षण पूर्व, तरुणियों का एक दल, पास के एक कमरे में गायब हो गया है। उनके हड़बड़ाकर उठने, अस्तव्यस्त कपड़े सम्हालने, और एक-ब-एक उठकर चल देने का आभास यहाँ का जर्रा-जर्रा दे रहा है। केशों में गुँथे हुए फूलों और वस्त्रों में ओत-प्रोत इत्र की भीनी खुशबू अभी भी इस कमरे में व्याप्त है। यहाँ के अंग-अंग से उनका सामीप्य टपक रहा है। यहाँ आप हरगिज देर तक न ठहरिए अन्यथा परिणाम नियति के हाथों होगा। आइए, उठिए, चल दीजिए आगे की ओर।
हम काफी दूर निकल आए। अब हमें लौटना है। लौटने से पूर्व एक नजर उस ‘जल महल’ पर भी डाल दीजिए। इसमें एक रोज बेगम मुमताज महल की रोशन आरा का जन्म हुआ था जिसकी खुशी में सारा मांडव खुशी से जगमगा उठा था। लेकिन आज? आज तो यहाँ प्रकाश की क्षीण रेखा भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही। हाँ आशा की एक अमिट झलक हम अवश्य महसूस करते हैं। वह है मांडव के प्रसिद्ध व्यापारी गदाशाह की दूकान। निमाड़ के उस श्वेतांबरी ओसवाल महाजन की दूकान का खंडहर जिसकी अटूट संपत्ति के किस्से आज भी यहाँ गूँजते रहे हैं।
आधुनिक नियमानुसार अपने बाएँ हाथ से मांडव देखना शुरू कर के अब हम पुन: उस स्थान पर आ गए हैं जहाँ से हमने चलना शुरू किया था। यह वही श्रीराम मंदिर का शिखर है और अब इसके सामने की सड़क से कुछ दूर आगे बढ़कर दाहिने हाथ की सड़क से हमें ‘नीलकंठ’ चलना है। जी हाँ। एक बार दक्षिण जीत कर लौटते समय महान मुगल सम्राट अकबर यहीं ठहरे थे और यहाँ ठहर कर उन्होंने देखा खिलजी सुलतानों के पुराने सूने पड़े हुए महलों को। एक क्षण में सृष्टि के आरंभ से आज तक का, व्यक्ति के जीवन से मृत्यु का और विश्व के पतन एवं उत्थान का इतिहास उनकी आँखों में घूम गया। एक क्षण तक वे कुछ भी न समझ पाए कि उस युग के ये महान सम्राट आज अभी-अभी इधर किस युग में विचरण कर रहे हैं। सारी सृष्टि अपनी कील पर एक पूरा चक्कर लगा गई और अखिल ब्रह्मांड उनकी आँखों के सामने ही एक बार अपनी पूरी शक्ति से औंधा होकर सीधा हो गया। तब उन्हें एक क्षण को, सिर्फ एक क्षण भर को इस नाशवान मानवीय जगत का स्मरण और संसार की असारता का खयाल हो आया था और तभी इस विषय पर उन्होंने कविता लिखी थी, जो आज भी इस मंदिर के शिलाखंड पर ज्यों की त्यों अंकित है। यह सब एक निमिष भर में हो गया और फिर तो सम्राट सम्राट थे और संसार-संसार। लेकिन मानवीय इतिहास का यह वह महान क्षण था जिसने संसार के इतिहास में कई आश्चर्यजनक परिवर्तन किए हैं। एक जमाने के राजकुमार सिद्धार्थ को युग युगांतर का महात्मा बुद्ध बना दिया है और इसी नाते जो मानव हृदय के इतिहास में स्मरणीय रहेगा। हाँ, तो आजकल यहाँ शिवालय है, यह पहाड़ी के एक ऐसे भाग में बना है जिसके एक ओर ऊँचा शिखर और दूसरी तरफ भयानक गड्ढा है। इस मंदिर के बीच से होकर एक सुंदर प्राकृतिक झरना है जिसका पानी निरंतर शिवलिंग पर अभिषेक करता रहता है और गड्ढे में बहता रहता है।
मांडव की सैर कराते हुए हमने आपका बहुत समय ले लिया; नहीं तो, यहाँ के चप्पे-चप्पे ज़मीन पर पुराने इतिहास की छाप है। किनको छोड़ा जाए, किनको लिया जाए। हाँ, लौटने के पहले हम इसकी सबसे ऊँची चोटी पर तो चढ़ ही लें, जहाँ प्रेम का एक और इतिहास आज भी साकार खड़ा है। दूर से ही देखिए, अगल-बगल खड़ी वे दो खूबसूरत इमारतें, जो बाज बहादुर और रूपमती की अपूर्व प्रेम-कथा की यादगार हैं। रूपमती एक हिंदू कन्या थी, जो मांडव से बहुत दूर, नर्मदा-तट पर, अपनी कुटिया में रहती। एक दिन मांडव-अधिपति बाजबहादुर उस ओर से निकले और इस कन्या की अनुपम रूप-शिखा के पतंगा बन गए। कहा जाता है, ‘रूप’ ने प्रतिदिन नर्मदा दर्शन और नर्मदा स्नान की शर्त पर ही महान बलशाली राजा बाजबहादुर से शादी की थी और ‘रूप’ के चरणों में समर्पित ‘बल’ ने उसे पूरा कर दिखाया। सुनते हैं, इस महल की तलैटी में स्थित रेखाखंड में नर्मदा का जल आता है और इसी ऊँची सी पहाड़ी पर स्थित इसी महल से नर्मदा दर्शन तो आज भी कोई यात्री आसानी से कर सकता है! यह इतनी ऊँचाई पर है कि यहाँ से सामने का मैदान ऐसा प्रतीत होता है, और मानो वायुयान से लिया गया चित्र हो। चटाईनुमा खेत, स्लेट पर खींची गई लकीरों की तरह नदियाँ और बच्चों के खेलने के मिट्टी के घिरौदों जैसे ग्राम! एक ओर पीछे विशाल प्राकृतिक दृश्य और दूसरी ओर मांडव के भग्नावशेष! बस इन्हीं दो स्थानों के बीच, विंध्य की सबसे ऊँची चोटी पर, ऐतिहासिक रूपमती के किले और मानव हृदय के इतिहास की दृष्टि से भी प्रेम की महत्ता सिद्ध करने वाली ‘रूप’ की कथा के बीच, सबसे अलग, सबसे ऊँचे और सबसे सुंदर स्थान पर, मैं आप सबसे विदा लेता हूँ।
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