हिंदी लघुकथा में मेरी सहभागिता

हिंदी लघुकथा में मेरी सहभागिता

सन् 2020 मेरे जीवन का 75वाँ जन्मसाल है। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो कितनी सारी यादें हिलोरें मारती दिखती हैं! जहाँ तक मुझे स्मरण है कि 1974 में किसी दिन मैं अपने ‘विवेकानन्द बाल-बालिका विद्यालय, पटना’ के अपने कार्यालय में बैठा कुछ आवश्यक कार्य निबटा रहा था कि ‘खट्टर काका’ उपन्यास के विख्यात लेखक पं. हरिमोहन झा जो पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर थे और हमारे विद्यालय की निकट वाली गली में ही निवास करते थे, सदैव की भाँति पधारे। मैंने उनका स्वागत करते हुए उन्हें बहुत ही आदर के साथ अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया। उनसे साहित्य एवं मेरे द्वारा संपादित हिंदी-मासिक ‘विवेकानन्द बाल संदेश’ पत्रिका पर चर्चा होने लगी। चर्चा चलते-चलते एकाएक झा जी चुप एवं गंभीर हो गए। मैं उनकी ओर प्रश्नचिह्न निगाहों से देखने लगा। वे बोले–‘सतीश! तुम बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ?’ मैंने कहा–‘अवश्य!’ उन्होंने कहा–‘तुम कहानी, कविता, गीत, गजल, समीक्षा, लेख और साहित्य की प्रायः विधाओं में लिखते हो, वस्तुतः तुम हो क्या यानी तुम्हारी मूल विधा क्या है?’

मैं कुछ देर चुप रहा। फिर मैंने कहा–‘मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया।’ इस पर इन्होंने कहा–‘अब तुम्हें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, नहीं तो असंख्य साहित्यकारों की घनी भीड़ का एक बहुत ही छोटा एवं अनचीन्हा भाग बनकर रह जाओगे। तुम अपनी मूल विधा  को पहचानो और उसी में समर्पण भाव से काम करो।’ मैंने कहा–‘ठीक है! मैं विचार करूँगा।’ बात आई-गई हो गई। वह पुनः एक सप्ताह के पश्चात आए और बैठते हुए बोले–‘क्यों सतीश! कुछ निर्णय लिया?’ मैंने कहा–‘किस बात पर?’

‘अरे! अपनी मूल विधा के विषय में।’ यह सुनकर मैं थोड़ा लज्जित होने के साथ-साथ गंभीर हो गया। मैंने कहा कि मैंने कुछ सोचा नहीं। वह बोले–‘खैर, तुम सोचते रहना किंतु उम्र में तुमसे बड़ा होने के कारण अन्यथा न लो तो एक सुझाव देना चाहता हूँ।’

‘हाँ-हाँ! क्यों नहीं। आदेश कीजिए।’ वह बोले–‘मुझे तुम्हारी रचनाएँ देखते-पढ़ते प्रायः ऐसा महसूस हुआ है कि आजकल जो छोटी-छोटी कथाएँ लिखी जा रही हैं उनमें तुम्हारी छोटी-छोटी कथा मुझे तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती प्रतीत होती हैं, क्यों न तुम इन छोटी-छोटी कथाओं के सृजन को ही गंभीरता से लो। रही अन्य विधाओं की बात तो सहजता से जब जैसा मन-विचार बने उन्हें भी लिखने में परहेज न करना, किंतु छोटी-छोटी कथाओं पर स्वयं को केंद्रित कर लो।’ इसके पश्चात अन्य बातें भी होती रहीं और फिर वे जब चले गए तो मैंने उनकी बातों पर गंभीरता से विचार करना शुरू किया और मुझे लगा शायद यह अनुभवी विद्वान ठीक ही कह रहे हैं और उसी दिन मैंने दो लघुकथाएँ लिखीं। उसके बाद फिर लघुकथा लेखन में रमता चला गया।

मेरी प्रथम लघुकथा जो मेरी अपनी ही पत्रिका ‘विवेकानन्द बाल-संदेश’ में 1973 ई. को छपी थी, जिसका शीर्षक ‘विवशता’ था। इसके पश्चात मेरी लघुकथाएँ सुपर ब्लेज, कृतसंकल्प, नालंदा दर्पण, अजंता इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं किंतु ‘पत्नी की इच्छा’ लघुकथा जब ‘सारिका’ में छपी तो उसने मुझे लघुकथाकारों के बीच हल्की-सी पहचान दी। इससे मुझे बहुत ही प्रोत्साहन मिला और मेरे लघुकथा-सृजन में क्रमशः सुधार होता गया। 1983 वर्ष मेरी लघुकथा-यात्रा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध हुआ। इस वर्ष लघुकथा विषयक लेखों का संग्रह ‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ जो इस विधा के लेखों का प्रथम संकलन था, मेरे संपादन में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक ने मुझे लघुकथा-जगत् में वांछित प्रतिष्ठा दिलाई। इसी पुस्तक के प्रकाशन के बाद जगदीश कश्यप से मेरी मित्रता अपेक्षाकृत और अधिक प्रगाढ़ होती गई। कश्यप के माध्यम से ही गाजियाबाद में उनके निवास पर बलराम अग्रवाल, कुलदीप जैन और अखिलेन्द्र पाल सिंह से भी मिलना हुआ। इनमें से अखिलेन्द्र जो बहुत जल्दी लघुकथा से दूर हो गए और कुलदीप जैन भी बीसवीं सदी का अंत आते-आते इस विधा से किनारा कर गए। ‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ में पहली बार लघुकथा पर केंद्रित आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का विस्तृत साक्षात्कार प्रकाशित किया गया, जिसके माध्यम से इस विधा से संबंधित ऐतिहासिक जानकारियाँ प्राप्त हुई।

‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ के प्रकाशन पर जगदीश कश्यप ने कहा था–‘पुष्करणा! इसके बाद अब यदि तुम लघुकथा में कुछ भी न करो तो लघुकथा का इतिहास तुम्हें कभी विस्मृत नहीं कर पाएगा।’ कश्यप के साथ मैं दरियागंज स्थिति ‘सारिका’ के कार्यालय में गया जहाँ रमेश बत्तरा से जीवनपर्यंत संबंध बना रहा। लघुकथा के विषय में उनका सोच-विचार बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। इसी दिल्ली-यात्रा में ‘सारिका’-कार्यालय में बलराम से मिलना हुआ। उस समय बलराम ‘कथानामा-1’ का संपादन कर रहे थे। मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा कि आप पटना पहुँचते ही अपनी पहली लघुकथा; (रचनाकाल के साथ) के अतिरिक्त नौ अन्य लघुकथाएँ, फोटो एवं संक्षिप्त परिचय ‘कथानामा-2’ में प्रकाशानार्थ प्रेषित कर दें। इस महत्त्वपूर्ण कृति में अपनी रचनाओं को देखकर मेरे उत्साह में क्रमशः वृद्धि हुई। इसके पश्चात बलराम से क्रमशः मित्रता प्रगाढ़ होती गई और उनके संपादित (लघुकथा-विषयक) सभी कार्यों में मेरी सम्मानजनक उपस्थिति रही। कहना न होगा, बलराम ने लघुकथा के विकास में अपने संपादन-कार्य के माध्यम से उल्लेखनीय योगदान दिया है। लघुकथा को सम्मानजनक स्थान दिलाने में बलराम की भूमिका सराहनीय रही है। उनके संपादन में ‘हिंदी लघुकथा कोश’, ‘भारतीय लघुकथा कोश’ (दो खंड), ‘विश्व लघुकथा कोश’ (चार खंड) के अतिरिक्त भी अन्य अनेक उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। इनके दो एकल लघुकथा-संग्रह भी हैं।

‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ के पश्चात क्रमशः ‘प्रसंगवश’ (बिहार सरकार के राजभाषा-विभाग के रेणु सम्मान से सम्मानित) ‘बदलती हवा के साथ’, ‘उजाले की ओर’, ‘जहर के खिलाफ’, ‘आग की नदी’, ‘सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल’ (सं.–मधुदीप) मेरे एकल संग्रह प्रकाश में आए। जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ 1980 में मेरा पहला लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आ चुका था। अभी भी मेरे पास इतनी लघुकथाएँ हैं, जिनसे लगभग इतने ही संग्रह और प्रकाश में आ सकते हैं।

1984-85 के आसपास लघुकथा के प्रायः सुधी पाठकों से यह सुनने को मिलने लगा कि लघुकथा में वही घिसे-पिटे विषयों की पुनरावृति हो रही हैं, वही कथनी-करनी में अंतर, वही पुलिसिया अत्याचार, वहीं बलात्कार, वहीं नेताओं द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार इत्यादि की घटनाओं को केंद्र में रखकर उसी पुराने ढंग से प्रस्तुति ही हो रही है। विगत एक दशक में जो ख्याति इस विधा ने अर्जित की थी उसमें अब क्रमशः ह्रास होने लगा है। यह बात पूर्णतः तो नहीं, किंतु अधिकांश प्रतिशत में सत्य थी, ऐसा मैंने स्वयं भी महसूस किया था, तो मैंने 1986 में ‘दिशा’ पत्रिका का प्रकाशन-संपादन आरंभ किया, जिसमें प्रथम संपादकीय में ही इस चिंता की अभिव्यक्ति की थी तथा कुछ सुझाव भी दिए जिसमें दो-चार-छह पंक्तियों में लिखी जा रही लघुकथाओं के प्रति अपनी असहमति जताई थी तथा नए विषयों को नए-नए शिल्पों में प्रस्तुत करने के साथ-साथ पात्रों के चरित्रानुकूल सटीक उच्चरित भाषा उपयोग तथा विराम-चिह्नों का अधिकाधिक उपयोग करने का सुझाव दिया था।

इस अंक के प्रकाशन के बाद इसके संपादकीय पर पर्याप्त चर्चा हुई थी, जिसका प्रभाव आगे के वर्षों पर स्पष्ट परिलक्षित था। ‘दिशा’ के चार अंक ही प्रकाशित हो पाए थे। ‘तत्पश्चात’ भी इसी वर्ष प्रकाशित हुई थी। इसमें हमने प्रत्येक लेखक को दस-दस लघुकथाएँ, फोटो, परिचय तथा लघुकथा पर लघुकथाकार का वक्तव्य प्रकाशित किया था तथा प्रत्येक लघुकथा-लेख की दसों लघुकथाओं पर निशांतर की आलोचनात्मक टिप्पणी भी प्रकाशित की थी। इसके दूसरे खंड में इन सारी लघुकथाओं पर अनेक विद्वानों के लेख प्रकाशित किए थे। अंत में 1986 तक प्रकाशित लघुकथा-संग्रहों एवं संकलनों की सूची भी प्रकाशित की थी। इसके प्रकाशन के पश्चात मैंने, विक्रम सोनी और जगदीश कश्यप ने इस पुस्तक पर चर्चा की योजना बनाई। पटना से मैं एवं निशांतर तथा इंदौर से विक्रम सोनी दिल्ली पहुँचे। जगदीश कश्यप ने दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में ‘तत्पश्चात’ पर गोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें मेरे, निशांतर, विक्रम सोनी के अतिरिक्त जगदीश कश्यप कुछ लघुकथाकारों के साथ थे, जिनमें मुख्यतः बलराम अग्रवाल, कुलदीप जैन और ‘पोस्टर’ फिल्म के निर्देशक, जिनका नाम मुझे फिलहाल स्मरण नहीं आ रहा है, आदि लोग मौजूद थे। इस गोष्ठी में ‘तत्पश्चात’ के माध्यम से लघुकथा की तकनीक पर चर्चा हुई थी। यहाँ मैंने लघुकथा के शीर्षक के महत्त्व पर विशेष रूप से प्रकाश डाला था तथा मैंने यह भी स्पष्ट किया था कि किस प्रकार शीर्षक लघुकथा के आकार को सुष्ठु बना सकता है। सन् 1987 की जनवरी में डॉ. पुणतांबेकर की षष्टीपूर्ति पर जलगाँव में दो दिवसीय लघुकथा-सम्मेलन हुआ जहाँ भगीरथ, सतीश राठी, विक्रम सोनी, सुरेश माहेश्वरी जैसे लघुकथाकारों से मिलने का अवसर मिला। इन सभी से आज भी मेरी मित्रता बनी हुई है। समय-समय पर हमने आपस में अपने विचारों को साझा किया है, जिनसे मैं तो काफी लाभान्वित हुआ हूँ।

पुनः मैं लौटता हूँ 1987 में। जलगाँव लघुकथा-सम्मेलन में ‘लघुकथा-मंच’ का गठन किया गया, जिसका संयोजक मुझे और विक्रम सोनी एवं अशोक भाटिया जो इस सम्मेलन में उपस्थित नहीं थे, को उपसंयोजक बनाया गया। किंतु मैं इससे संतुष्ट नहीं था, अतः पटना आते ही मैंने पुणतांबेकर जी को अपना त्याग-पत्र भेज दिया और इसी वर्ष ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ का गठन किया गया। कहना न होगा इस संस्था के तत्वावधान में मेरे एवं कृष्णानंद कृष्ण, निशांतर, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ और डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र के सक्रिय सहयोग से पच्चीस लघुकथा सम्मेलन निर्बाध रूप से सफलतापूर्वक संपन्न हुए, जिनमें देश के प्रायः सभी शीर्षस्थ कथाकारों ने कभी-न-कभी अपनी-अपनी कृपापूर्ण उपस्थिति से इन सम्मेलनों की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाए। पहला लघुकथा सम्मेलन 23-24 अप्रैल, 1988 को एस.सी.ई.आर.टी. के सभागार में हुआ था। इन दो दिनों में मेरे अतिरिक्त जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, कुलदीप जैन, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, भगीरथ, निशांतर, कृष्णानन्द कृष्ण, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ सहित ने अपने-अपने आलेखों का पाठन किया था, जिन पर डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी इत्यादि अनेक उपस्थित विद्वानों ने इस सम्मेलन को गरिमा प्रदान की थी। पटना के दूसरे सम्मेलन में प्रो. चन्द्रकिशोर पांडे ‘शिन्तकेतु’ के आधार आलेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता’ के पाठ के बाद विधा-उपविधा का विवाद समाप्त हुआ। डॉ. भवतीशरण मिश्र, बिहार राजभाषा विभाग के तत्कालीन निदेशक थे, ने इसे बिहार सरकार की ओर से विधिवत् लघुकथा विधा को मान्यता देते हुए इस विधा की श्रेष्ठ पुस्तकों पर ‘रेणु पुरस्कार’ देने की घोषणा की, जो डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सिद्धेश्वर, रामयतन प्रसाद यादव आदि को दिया गया। इस सम्मान का बाद में नाम बदलकर ‘लघुकथा-सम्मान’ कर दिया गया था।

इस प्रकार तीसरा द्विदिवसीय सम्मेलन फतुहा (पटना) में हुआ था, जिसमें अवधनारायण मुद्गल (सं.-सारिका), डॉ. कमलकिशोर गोयनका, डॉ. भगवतीशरण मिश्र, प्रो. निशान्तकेतु, डॉ. जियालाल आर्य, राजकुमार निजात एवं अन्य अनेक लोग उपस्थित हुए थे।

लघुकथा सम्मेलनों में आरसी प्रसाद सिंह, मुक्तजी, डॉ. कुमार विमल, डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव, डॉ. सूर्यकान्त नागर, सुरेश शर्मा, पवन शर्मा, डॉ. मिथिलेश अवस्थी, संतोष श्रीवास्तव, डॉ. अशोक भाटिया, डॉ. शिवनारायण, डॉ. कौशलेन्द्र पांडेय, डॉ. उषा किरण खान, डॉ. मृदुला सिन्हा, डॉ. रामवचन राय, डॉ. अरुण कमल, राजेन्द्र कृष्ण श्रीवास्तव, ‘अब्ज’, रामनारायण उपाध्याय, गोवर्द्धन प्रसाद ‘सदय’, कथाकार आनन्द नारायण शर्मा (बेगूसराय), सुभाष नीरव, डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति, श्यामसुंदर अग्रवाल, डॉ. अनूप सिंह, उमेश महादोषी, डॉ. राजकुमारी शर्मा ‘राज’, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, निमला सिंह, आशा ‘पुष्प’, प्रीति श्रीवास्तव, पुष्पलता कश्यप, आशा शैली, इन्दिरा खुराना, रूप देवगुण, डॉ. शील कौशिक, मेजर शक्तिराज कौशिक, भरत कुमार शर्मा, डॉ. रामनिवास ‘मानव’, डॉ. सच्चिदानन्द सिंह ‘साथी’, प्रो. हारुन रशीद, डॉ. सत्यवीर मानव, बलराम, युगल, हरिनारायण सिंह ‘हरि’, घनश्याम त्रिवेदी ‘घनश्याम’, किसलय, डॉ. जगदीश पांडेय, सत्यनारायण, डॉ. अमरनाथ सिन्हा, डॉ. रवीन्द्र राजहंस, मो. मोइनुद्दीन अतहर, प्रभात कुमार धवन, गोपीवल्लभ सहाय, आभा रानी, डॉ.सिद्धेश्वर कश्यप, कैलाश झा ‘किंकर’, डॉ. देवन्द्रनाथ साह, डॉ. तेजनारायण कुशवाहा, डॉ. मेहता नागेन्द्र सिंह सहित शताधिक लघुकथा-लेखक एवं अन्य लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार प्रायः अपनी उपस्थिति से इन सम्मेलनों को गति प्रदान करते रहे हैं।

मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मैं अभी तक लघुकथा के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण संकलनों अथवा  लघुकथा-विशेषांकों/परिशिष्टांकों का एक उल्लेखनीय हिस्सा रहा हूँ। अब तक हुए प्रायः सभी लघुकथा विषयक शोधप्रबंधों में भी शोधार्थियों ने मुझे उचित स्थान देकर गौरवान्वित किया है। मधुदीप के संपादकत्व में प्रकाशित हो रही ‘पड़ाव और पड़ताल’ की शृंखला का भी एक अहम् लेखक होने का गौरव मुझे प्रदान किया गया है। इस हेतु मधुदीप भाई का हृदय से आभारी भी हूँ कि उन्होंने मुझे इस महत्त्वपूर्ण कार्य के योग्य समझा। उन्होंने जो-जो कार्य मुझे सौंपा मैंने अपनी जानकारी एवं योग्यता के अनुसार उसे पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से पूरा करने का प्रयास किया। 2008 में जयप्रकाश ‘मानस’ की देख-रेख में द्विदिवस्यी ‘अंतराष्ट्रीय विश्व लघुकथा सम्मेलन’ का आयोजन रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था। इस सम्मेलन में मेरे अतिरिक्त सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, रामकुमार आत्रेय, डॉ. रामनिवास ‘मानव’, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, फजल इमाम मल्लिक, आलोक भारती इत्यादि सैकड़ों लघुकथाकार उपस्थित हुए थे। उनकी लघुकथा-सेवाओं हेतु सम्मानित भी किया गया था। मेरा सौभागय, यहाँ मुझे डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. कमलकिशोर गोयनका एवं मुंबई से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘नवनीत’ के संपादक विश्वनाथ सचदेव जी भी मंच पर उपस्थित थे। मैंने अपने अध्यक्षीय भाषण में जोर देकर कहा था जिन्हें सामने होना चाहिए था वे मंच पर बैठे हैं, जिन्हें मंच पर होना चाहिए था वे सभी लघुकथा के विद्वान सामने बैठे हैं। इसके अतिरिक्त मैंने गोयनका एवं सचदेव की गलत सूचनाओं का विरोध करते हुए उनके वक्तव्यों की निन्दा भी की थी तथा सही तथ्यों से उपस्थित को अवगत कराया था।

पटना पुस्तक मेले में प्रत्येक वर्ष लघुकथा-विषयक कार्यक्रम होता है, जिसमें मेरे अतिरिक्त पटना एवं आसपास के क्षेत्रों से आए लोग भाग लेते हैं। 2014 में पटना पुस्तक मेले के जनसंवाद कार्यक्रम में मैं एवं रामयतन प्रसाद लोगों के सामने थे। संचालन डॉ. जीतेन्द्र वर्मा कर रहे थे। 2013 में प्रकाशक संघ द्वारा आयोजित लघुकथा-पाठ एवं समीक्षा का कार्यक्रम हुआ जिसमें मेरे अतिरिक्त डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र, डॉ. अनीता राकेश, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. सिद्धेश्वर कश्यप एवं रेखा रोहतगी भी शामिल हुई थीं। सबने अपनी दो-दो लघुकथाओं का पाठ किया तथा मेरे अतिरिक्त डॉ. अनीता राकेश, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं सिद्धेश्वर कश्यप ने पठित लघुकथाओं पर विस्तृत टिप्पणियाँ दर्ज कीं, जिनका स्वागत श्रोताओं ने करतल ध्वनि से किया था। धनबाद में ‘साहित्य में लघुकथा की उपयोगिता’ शीर्षक से मैंने आलेख-पाठ किया था। मेरे अतिरिक्त चाँद मुंगेरी ने भी आलेख-पाठ किया था। इस संगोष्ठी में कहानीकार संजीव भी उपस्थित थे।  वस्तुतः यह सत्र उन्हीं की अध्यक्षता में संपन्न हुआ था। इस गोष्ठी में धनबाद, बोकारो के अतिरिक्त वहाँ के आस-पास के क्षेत्रों के विद्वानों का सराहनीय जमावड़ा हुआ था। प्रायः सभी विद्वानों ने सुंदर-सुंदर विचार अभिव्यक्त किए थे।

पटना में 1997 ई. में केंद्रीय विद्यालयों के दक्षिण जोन द्वारा आयोजित कार्यशाला में विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया था। यह आयोजन पटना में कंकड़बाग स्थित केंद्रीय विद्यालय में हुआ था। मुझे ‘लघुकथा-सृजन में मेरी रचना-प्रक्रिया’ विषय पर बोलने का अवसर दिया गया था। बोलने हेतु 40 मिनट का समय दिया गया था। मैंने इसी समयावधि में ही अपनी रचना-प्रक्रिया पूरी गंभीरता से प्रस्तुत की थी। यहाँ भी उपस्थित शिक्षकों ने बहुत ही उपयोगी प्रश्न पूछे, जिन्हें अपने उत्तरों से संतुष्ट करने का मैंने पूरा प्रयास किया था। इस अवसर पर केंद्रीय विद्यालयों के दक्षिण जोन के शिक्षकों के अतिरिक्त पटना के भी कुछ साहित्य-सेवी उपस्थित थे, जिनमें निशांतर एवं रामयतन प्रसाद यादव उपस्थित थे और पुष्पा जमुआर भी वहाँ उपस्थित थीं।

हैदराबाद में हिंदी अकादमी द्वारा आयोजित संगोष्ठी में मैंने आदेशानुसार ‘लघुकथा की साहित्यिकता’ शीर्षक से आलेख-पाठ किया था। इस संगोष्ठी में डॉ. बैद्यनाथ चतुर्वेदी एवं डॉ. बसन्त चक्रवर्ती के अतिरिक्त अन्य अनेक इस विधा के जानकार लोग उपस्थित थे। इस आलेख पर डॉ. बसन्त चक्रवर्ती की टिप्पणी विशेष रूप से उत्कृष्ट एवं प्रभावकारी थी। ‘दक्षिण हिंदी प्रसार सभा’ जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है, ने भी मुझे एम.ए. के छात्रों के लिए लघुकथा के इतिहास एवं शास्त्र पर बोलने हेतु आमंत्रित किया था। मेरा वक्तव्य लगभग एक घंटे का था। तत्पश्चात छात्रों ने अनेक-अनेक प्रश्न भी पूछे थे, जिनके सटीक उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट करने का पूरा प्रयास किया गया था।

अमलनेर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘विकलांगता’ पर केंद्रित साहित्य पर तीन दिवसीय सम्मेलन हुआ था। जिसमें प्रायः सभी चर्चित विधाओं पर आलेख-पाठ प्रस्तुत किए गए थे। मैंने विकलांगता को केंद्र में रखते हुए लघुकथा-विषयक आलेख-पाठ किया था। जिसे उस अवसर पर प्रकाशित एक मोटे ग्रंथ में शामिल भी किया गया था। इस गोष्ठी में डॉ. अनीता राकेश, डॉ. प्रतिभा सहाय, डॉ. परमेश्वर गोयल इत्यादि के अतिरक्त देश-विदेश से सैंकड़ों साहित्यकार उपस्थित हुए थे। इसकी आयोजक डॉ. सुरेश माहेश्वरी थी। डॉ. अशोक भाटिया इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं हुए थे, किंतु उनका लेख इस मोटे ग्रंथ में शामिल किया गया था। ‘मिनी कहानी’ द्वारा प्रत्येक वर्ष आयोजित पंजाबी लघुकथा सम्मेलनों में मुझे दो बार भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। पहली बार पटियाला में आज से लगभग उन्नीस-बीस वर्ष पूर्व तथा पुनः नवंबर 2015 को कोटकपूरा में सम्मानित करने हेतु सपत्नीक आमंत्रित किया गया। पटियाला वाले सम्मेलन में मुझे एक सत्र के अध्यक्ष मंडल के रूप में हिस्सेदारी निभाने का मौका मिला था। इस सम्मेलन में सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, बलराम अग्रवाल आदि उपस्थित पंजाबी लघुकथा के प्रायः सभी चर्चित एवं नए हस्ताक्षर मौजूद थे। कोटकपूरा में मुझे और मधुदीप को सपत्नीक सम्मानित किया गया था। इस सम्मेलन में बलराम अग्रवाल, मधुदीप, अशोक भाटिया, डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’, कान्ता राय, सुभाष नीरव, डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति इत्यादि के अतिरिक्त पंजाबी लघुकथा के प्राय सभी चर्चित एवं नए हस्ताक्षर मौजूद थे।

पटियाला की तुलना में कोटकपूरा वाला सम्मेलन भव्य था, किंतु यह सम्मेलन पारिवारिक अधिक था, अपेक्षाकृत साहित्यिक बहुत ही कम। किंतु उस पर चर्चा नहीं हुई, लघुकथाएँ पढ़ी गई किंतु उन पर खुल समीक्षात्मक चर्चा नहीं हुई जो होनी चाहिए थी। अन्यथा ऐसे आयोजनों का प्रयोजन ही क्या है? पंजाब सम्मेलन के आयोजक मुझे क्षमा करेंगे, मैं कहना चाहता हूँ कि वहाँ के आयोजकों ने मेरा एवं मधुदीप का कतई उपयोग नहीं किया जिसकी अपेक्षा थी और जो कहीं से भी गलत नहीं थी। विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में शायद 13 जनवरी, 2016 को दिशा प्रकाशन के स्टॉल पर लघुकथा-पाठ का आयोजन किया गया था, जिसमें मेरे अतिरिक्त मधुदीप, सुभाष नीरव, कान्ता राय, डॉ. नीरज  शर्मा ‘सुधांशु’ सूरज प्रकाश, अशोक वर्मा, विभा रश्मि, नीलमा शर्मा, शोभा रस्तोगी, हरनाम शर्मा इत्यादि ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया था। इन सभी पठित लघुकथाओं पर अवधेश श्रीवास्तव ने अपनी सारगर्भित तथा सधी हुई टिप्पणी भी प्रस्तुत की थी। 20 दिसंबर, 2015 को हितैषी पुस्तकालय, पटना सिटी में मेरी अध्यक्षता में लघुकथा-पाठ का आयोजन किया गया था, जिसमें डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र, डॉ. पुष्पा जमुआर, संजू शरण, राहुल सिन्हा, आलोक चोपड़ा, प्रभात कुमार धवन, अनिल रश्मि तथा कुछ स्थानीय लघुकथा-लेखकों ने भी अपनी लघुकथाओं का पाठ किया था। डॉ. ध्रुवकुमार ने लघुकथा-पाठ के साथ-साथ इस कार्यक्रम का संचालन भी किया था। मैंने पठित लघुकथाओं पर अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि अब जरूरत है नए विषयों को केंद्र बनाने की, वे सामाजिक भी हो सकते हैं और राजनीतिक भी। इनकी प्रस्तुति में सांकेतिकता तथा विराम-चिह्नों को महत्त्व देना चाहिए। लघुकथा में प्रयोग होने चाहिए किंतु लघुकथा के अनुशासन के साथ। अनुशासन से मेरा तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति किसी गाय को देखकर झट कह उठता है, वह गाय है। उसी प्रकार, लघुकथा को देखकर भी झट कह उठे कि वह लघुकथा ही है, अन्य कोई विधा नहीं। यदि ऐसा नहीं हो पाया तो लघुकथा के अस्तित्व के खो जाने का पूरा खतरा है।

जिस प्रकार देश का भविष्य बच्चों यानी देश के कर्णधारों के हाथों में है उसी प्रकार हर कार्य के किसी भी क्षेत्र में यही स्थिति है। यही सोचकर मैंने एवं डॉ. ध्रुवकुमार ने पटना स्थित ‘बिहार बाल भवन किलकारी’ की माननीया निदेशक ज्योति परिहार से बातचीत करके बच्चों को लघुकथा-लेखन में प्रशिक्षित करने हेतु 2014 में छह दिवसीय कार्यशाला का आयोजन करवाया जिसमें लगभग पचास बच्चों, जिनकी आयु 09 से 14 वर्ष के मध्य थी, ने भाग लिया। प्रशिक्षक के रूप में मेरे साथ डॉ. ध्रुवकुमार भी थे। इस लघुकथा-सृजन कार्यशाला में बच्चों ने स्वयं लघुकथा-सृजन किया और उन्होंने औसतन पाँच-पाँच लघुकथाएँ लिखीं जिनमें अनेक लघुकथाएँ देश की चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर प्रशंसित हो चुकी है। इस बार सन् 2016 को अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच द्वारा 28वें लघुकथा सम्मेलन के अवसर पर पटना में ‘किलकारी’ से जुड़े दो श्रेष्ठ बाल लघुकथा-लेखकों प्रियंतरा भारती एवं प्रवीण कुमार को सम्मानित किया गया, जिसकी सर्वत्र सराहना हुई। 29वें सम्मेलन में सरिता रानी एवं रानी सिंह को सम्मानित किया गया था। किलकारी से प्रकाशित ‘बाल-किलकारी’ में प्रत्येक माह विभिन्न बच्चों की एक-दो या कभी-कभी तीन लघुकथाएँ भी स्थान प्राप्त कर रही हैं। यही कार्य श्रीमती आभा रानी, बिहार शिक्षा परियोजना परिषद, पटना द्वारा प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र ‘चल पढ़ कुछ बन’ के माध्यम से भी कर रही थीं। 2012 में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में आभा रानी ने ‘चल पढ़ कुछ बन’ की लघुकथा के विकास में ‘भूमिका’ विषय पर प्रकाश डाला था, जो लोग उसमें उपस्थित थे, वे जानते हैं।

कुल मिलाकर अभी तक मेरी लघुकथा यात्रा जैसी ही रही, मेरे लिए संतोषप्रद है। मुझे विश्वास है प्रो. हरिमोहन झा की आत्मा जहाँ भी होगी मेरे कार्यों को देखकर प्रसन्न हो रही होगी और मुझे अपना आशीर्वाद दे रही होगी। उस महान आत्मा को मेरा शत-शत प्रणाम जिसने लघुकथा में कार्य करने हेतु मुझे न मात्र दिशा दी अपितु जब तक वे जीवित रहे समय-समय पर मेरा मार्ग-निर्देशन भी करते रहे।


Image : Young Girl Reading
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Artist : Camille Corot
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