व्यंग्यालोचन के द्वार पर नई दस्तक

व्यंग्यालोचन के द्वार पर नई दस्तक

राष्ट्रपिता गाँधी जी ने असहमति की अभिव्यक्ति को रोकना एक स्वस्थ समाज के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण बताया था। प्रखर आलोचक एवं व्यंग्यालोचन के क्षेत्र में कई दशकों से एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में चर्चित डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी की नवीनतम कृति ‘व्यंग्यालोचन के पार-द्वार’ में भी किसी सीमा तक असहमति की अभिव्यक्ति को ही व्यंग्य की अंदरूनी शक्ति घोषित किया गया है। इसलिए पुस्तक के प्रथम अध्याय में कहा गया है–‘भ्रष्टाचार का धनुष किसी से उठ नहीं रहा है, प्रहार की जयमाला निष्फल हो रही है। नारों की नदियाँ बनी हैं, वादों के नाव चल रहे हैं, अफवाहों की बयार बह रही है, अपराध की शीतलता सारे पर्यावरण को सुधार रही है। मानवता और आदर्श के सारे आचरण शब्दकोश में सजे हुए हैं। सघन बंदरबाँट और रोचक चीरहरण के इस महामायावी कालखंड में व्यंग्य लिखने वालों की कतार साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। मौजूदा दौर की हिंदी व्यंग्य रचनाओं से गुजरना राष्ट्रीय चरित्र के गिरते हुए ग्राफ और हिंदी व्यंग्यकारी के उठते हुए स्तर के व्यापक साक्षात्कार जैसा है।’ (पृ.-9) दरअसल तिवारी जी ने हिंदी व्यंग्यालोचन की दशा-दिशा, समीक्षकों-आलोचकों की पूरी जमात एवं उनकी आलोचना की पूरी बनावट-बुनावट पर गंभीर चिंतन का प्रमाण दिया है। बड़े सलीके से ‘भारतीय साहित्य में व्यंग्यकर्म की उपस्थिति’ अध्याय में संस्कृत, कश्मीरी, डोगरी, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बंगला, मलयालम, सिंधी व्यंग्य साहित्य में उभरे वैचारिक बहस का साक्षात्कार कराया गया है।

कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदी जगत में कबीर के समान सशक्त, साहसी, परिवर्तनकामी व्यंग्यकार विरले हैं। तिवारी जी लिखते हैं–‘वस्तुतः संत कबीर आपादमस्तक व्यंग्यकार थे, हिंदी साहित्येतिहास के पहले व्यंग्यकार। मध्यकालीन वातावरण में भी उनके बेलौस व्यक्तित्व को भक्ति की स्त्रैण-विनम्रता एवं भावुकता ढकने में सर्वथा अक्षम रही। जब भी कबीर प्रेम, रहस्य, ज्ञान, भक्ति, निर्गुण आदि से हटकर सामाजिक भूमि पर पोषित साधारण आदमी की तरह हमारे सामने आते हैं, तो ऐसा लगता है कि उनकी पैनी निगाह में सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक विकृतियाँ जलते लाल मिर्च की कड़वाहट ही पैदा करती है।’ (पृ.–27-28)

कबीर की तरह भारतेंदु, निराला, प्रेमचंद, परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, रामावतार चेतन आदि ने अपने-अपने युग में व्यंग्य के माध्यम से साहित्य में नई धार उत्पन्न की है। तिवारी जी ने इन रचनाशिल्पियों के कृतित्व में व्यंग्यकर्म के सुविस्तृत विविध-आयामी पक्षों को बड़े आलोचनात्मक रुख में शब्दों का जामा पहनाया है। उनकी मूल्यांकनपरक दृष्टि ने हिंदी के तमाम व्यंग्य लेखकों की रचनाओं की तीव्रता व शक्ति को ज्यादा से ज्यादा पाठकों के चिंतन की मुख्यधारा का विषय बनाया है। व्यंग्यकार को नई सुबह की किरण पर पूरा यकीन होता है और तिवारी जी की इस पुस्तक में इस यकीन की भी वकालत की गई है। वे लिखते हैं–‘प्रेमचंद की इन हास्य रचनाओं और विभिन्न कथाकृतियों में फैली व्यंग्य चेतना ने हिंदी कथा-साहित्य में वांछित तेवर और तराश का आवाहन किया। ये रचनाएँ बतलाती हैं कि जीवन के हर कदम पर एक से एक विनोदी प्रसंग और व्यंग्योचित संदर्भ बिखरे हुए हैं।’ (पृ.-53) तिवारी जी जानते और मानते हैं कि स्वस्थ हास्य की छौंक के बिना व्यंग्य की धार को सहना पाठक समाज के लिए असहनीय हो सकता है। इसलिए उन्होंने प्रेमचंद की ठेठ हास्य कहानियों की झीनी फुहार के आनंद से लेकर हास्य के हाइवे पर चलने के लिए रवींद्रनाथ त्यागी की काव्यशास्त्रीय और शरीर शास्त्रीय रसिकता को उद्धृत किया है।

पुस्तक में ऐसे कई लेख भी समाहित किए गए हैं जिनमें वर्तमान युग में व्यंग्य लेखन की महत्ता व प्रासंगिकता के मुद्दों पर बहस छेड़ी गई है। वे व्यंग्य को टेढ़ी खीर मानते हुए ‘छलात्कार की दुनिया में विकल्पों की खोज, परिवर्तनकामिता का दूसरा नाम है व्यंग्य कर्म, गंभीर सावधानी का कौशल है हँसाना, हास्य और व्यंग्य के अलग-अलग रास्ते हैं’ जैसे अध्यायों की रचना करते हैं। अपनी माटी के प्रति संवेदना व जिम्मेदारी को निभाते हुए आपने हिंदी व्यंग्य लेखन में बिहार के प्रदेय के अंतर्गत आरा के विजयानंद तिवारी कृत महा अँधेरनगरी (1892), गया कान्हूलाल कान्ह का काव्य संग्रह पंचरत्न (1893), पं. रामावतार शर्मा विरचित उपन्यास मुग्दरानंद चरितावली (1912), चंपारन के विंध्याचल प्रसाद गुप्त के हास्य उपन्यासों से लेकर वर्तमान युग में व्यंग्यकारों की उत्कृष्ट कृतियों का ब्यौरेवार वर्णन किया गया है।

इस पुस्तक से गुजरते हुए यह आभास होता है कि तिवारी जी व्यंग्यालोचक के रूप में पारखी भी हैं और पाठक भी। व्यंग्यकार के इरादों व गहराई पर उन्हें पूरा विश्वास है। वे व्यंग्यकार की बेचैनी को समझते हैं और स्वयं भी कहीं बेकल से प्रतीत होते हैं। अपनी इसी बेचैनी, सरोकार, परख और विश्वास को उन्होंने ‘व्यंग्यालोचक नहीं होता तो अधूरा होता’ शीर्षक साक्षात्कार के अंतर्गत अभिव्यक्त किया है।


Image : Two Hands Holding A Pair Of Books
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Artist : Albrecht Durer
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