समय से संवाद करती कविताएँ

समय से संवाद करती कविताएँ

‘गोयठा थापती हुई लड़की’ चंदन की कविताओं का नया संग्रह है, जिसकी अनगढ़ नैसर्गिकता सहज ही ध्यान आकृष्ट करती है। विचार या शिल्प दोनों ही स्तरों पर इन कविताओं में कहीं कोई बनावट नहीं। कवि ने जैसा देखा, समझा, भोगा उसे वैसे ही प्रस्तुत किया। चंदन लिखते भी हैं–अपने आस-पास में रेगती जिंदगी के बीच आह की जो उपज रही उसे समय के उगाहे गए शब्दों में बाँहों में भर लिया। चंदन की कविताएँ उन बेबस क्षणों के उद्गार हैं जिसके वे मूक गवाह रहे। यही कारण है कि अपने समय से सीधे संवाद करती उनकी कविताओं में समय और समाज की तमाम विसंगतियाँ, चाहे वे राजनीतिक हों, सामाजिक हों, आर्थिक या वैचारिक, सहज ही महसूस की जा सकती हैं।

चंदन की कविताओं का दायरा काफी बड़ा है। कहीं वे एक वात्सल्य से भरे पिता की तरह दिखाई देते हैं तो कहीं एक जिम्मेवार पुत्र की तरह, कहीं एक सहज और सरल पति की तरह, तो कहीं बिछड़ गए अपने प्यार को नहीं भूल पा रहे एक प्रेमी की तरह। महिलाएँ उनके काव्य के केंद्र में हैं, दुनिया की आधी आबादी के दुख-दर्द, खासकर उन महिलाओं के जो यायावरी के दिनों में उन्हें मिली थीं और अपनी बेबस जिंदगी को अच्छे सपनों के सहारे आगे बढ़ा रही थीं। यही कारण है कि उनकी कविताओं में बहुलता उन गरीब और लाचार औरतों की है, जो किसी-न-किसी प्रताड़ना का शिकार रही हैं।

माँ की चर्चा करते ही सबसे पहले किसी को निश्छल प्रेम की प्रतिमूर्ति याद आती है, लेकिन चंदन को माँ के जीवन-संघर्ष की। लिखते हैं–

‘अब भी गूँजता है
जब कभी
हाँफती साँसों का सरगम
मैं लाल कनपट्टी लिए
निहारता हूँ आकाश।’

यह केवल एक व्यक्ति की नहीं हर उस आदमी की पीड़ा की अभिव्यिक्ति है जो चाहकर भी अपनी माँ के लिए दवाई की व्यवस्था नहीं कर पाता और तिल-तिल कर अपनी माँ को मौत की आगोश में जाते हुए बेबसी से देखता रहता है लेकिन इस क्रम में उसके भीतर पनपा आक्रोश ताउम्र बना रहता है। वह अपनी माँ को हर समय अपने साथ महसूस करता है। चंदन के ही शब्दों में कहें तो–

‘तुम शामिल हो
सन्नाटा तोड़ती
मंदिर की घंटियों की तरह
तुम मेरी बुलंद आवाज हो
अजान की तरह
तुम मुझमें जज्ब हो
दीप-ज्योति की मानिंद
अँधेरे की हैसियत के विरुद्ध
छिड़े संग्राम की तरह।’

चंदन अपनी माँ को अपने संघर्ष का साथी मानते हैं और लगातार उनसे संवाद करते रहते हैं। माँ को संबोधित अपनी एक अन्य कविता में वे लिखते हैं–

‘और यह भी देख रही हो
जब घंटों अपनी देह से
नमक निचोड़ता हूँ
साँस भर पाता हूँ।’

आम आदमी की देह से नमक निचोड़ने वाले शोषकों के चेहरे सभी के जाने-पहचाने हैं लेकिन उनके विरुद्ध संघर्ष की अभी सामूहिक व्यापकता नहीं हुई है। हर व्यक्ति अपनी लड़ाई अपने स्तर पर लड़ रहा है। दूसरी समकालीन सत्ता ने आदमी से आदमी के बीच इतने भेद पैदा कर दिए हैं कि शोषित भी एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे हैं, और शोषकों की बनी हुई है। आपदा में जब लोग त्राहिमाम कर रहे होते हैं, वह अवसर ढूँढ़ रहा होता है।

लोकतंत्र में सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह आम आदमी की भलाई के लिए काम करेगा लेकिन अनुभव बताते हैं कि ऐसा हो नहीं पाता। सत्ताधारी बदलते रहते हैं लेकिन सत्ता का चरित्र नहीं बदलता। सबके अपने स्वार्थ होते हैं। हश्र वह उस जनता को बरगलाने की कोशिश करता है जिसने उससे उम्मीदें पाल रखी थीं। अपनी एक कविता ‘पंद्रह अगस्त’ में चंदन बड़ी सादगी से इस सत्य को उद्घाटित करते हैं–

‘एक बुढि़या
जब अपने चूल्हे से
निकाल रही थी राख
आश्चर्य है
यह वही समय था
जब लहराते तिरंगे के साये में
देश के सबसे ऊँचे चबूतरे से
समझाया जा रहा था कि
देश को सबसे बड़ा खतरा
पाकिस्तान से है।’

यह हम सब का अनुभव है कि विदेशी आतंकवाद का डर सत्ताधारी पार्टी का सर्वोच्च नेता तब दिखाता है जब वह आम जनता को उसके कष्टों से मुक्ति दिलवाने, उसकी समस्याओं का समाधान करने के बदले अपने वायदे से मुकरना चाहता है।

‘गोयठा थापती लड़की’ कविता में भी गोयठा थापती लड़की में इन विसंगतियों से जुड़े प्रश्न कुछ और तीव्रता से उठे हैं। एक लड़की के हिस्से की धूप आखिर कौन रोक रहा है–

‘भाग्य की रेखाओं से
खुरच-खुरच कर गोबर निकालती
लड़की सोचती है
कैसे धूप रहते बरस जाता है बादल
और बरसते रहकर भी
वह क्यों नहीं पा सकी
एक टुकड़ा धूप।’

चंदन के शब्दों में कहें तो यह सारी स्थितियाँ मनुष्य को पत्थर बनाने के लिए पर्याप्त हैं। अपनी एक कविता ‘पत्थर होते हुए’ में इसकी परिणति तक पहुँचते हुए कहते हैं–

‘तब शायद तुम्हें लगे
फूल सी बात करना
किसी भी मौसम में
कितना बेमानी हो गया है।’

संग्रह में चंदन की कोशिश हरापन और उसका स्वाद बचाने की है। कच्चेपन के बावजूद इन कविताओं में एक ताजगी है।


Image : Gabrielle reading
Image Source : WikiArt
Artist : Pierre-Auguste Renoir
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