जनवादी सरोकार की मुलायम ग़ज़लें

जनवादी सरोकार की मुलायम ग़ज़लें

‘तो गलत क्या है’ अनिरुद्ध सिन्हा का नवीनतम ग़ज़ल-संग्रह है जो हाल ही में दिल्ली से छपकर पाठकों के समक्ष आया है। संग्रह में कुल 92 ग़ज़लें हैं जो कला सृजन के साथ-साथ मनुष्य के व्यक्तित्व से साम्य रखती हैं। एक तरह से हम यह भी कह सकते हैं कि संग्रह की सभी ग़ज़लों में समकालीन समाज के जीवन की लाक्षणिक विशेषताओं के सामंजस्य के साथ सौंदर्य की शाश्वत पिपासा और सामाजिक विकास की विद्रूप परिस्थितियों के बीच विरोध विद्यमान है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि समकालीन लेखन आहत संवेदनाओं का प्रतिकार है। साहित्य की कोई भी विधा हो, प्रतिकार की छाया स्पष्ट दिखाई पड़ती है। मिसाल के तौर पर संग्रह के इस शेर को देखा जा सकता है…

‘न इतना रो कि तेरे आँसुओं को हँसते-हँसते…
सभाओं में कहीं जाकर न वो नीलाम कर दे।’

समय के परिवर्तन के साथ संवेदनाओं की स्थिति और उद्देश्य में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यह एक क्रिया है जो कभी शिथिल नहीं होती। अनिरुद्ध सिन्हा ने इसी क्रिया के भीतर विरोध और प्रतिकार का स्वर डाल दिया है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि अनिरुद्ध सिन्हा ने काफी करीब से परिस्थितियों को देखा और समझा है। उनकी इस समझ को चित्रण और अभिव्यक्ति के साधनों की एक विशेष पद्धति के तौर पर नकारा नहीं जा सकता। यथार्थवादी लेखन जब ग़ज़ल के माध्यम से किया जाता है तो स्वाभाविक है कि उसका कथ्य सार्थक कलात्मक बिंब के एक आवश्यक तत्व में बदल जाता है। ग़ज़ल की यही नाजुकी है। सपाटबयानी का ग़ज़ल विरोध करती है। ग़ज़ल के लिए वस्तुस्थिति का वर्णन करना या उसको प्रतिबिंबित करना ही पर्याप्त नहीं है। हिंदी ग़ज़ल मनोरंजन और प्रेम का लिबास उतारकर कठोर यथार्थ के लिबास में है। इसका पूरा श्रेय दुष्यंत कुमार को जाता है। उन्होंने ग़ज़ल को इस आरोप से मुक्त कर एक नई ऊर्जा प्रदान की। इस प्रकार यदि सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर हिंदी ग़ज़ल के आदर्श और चेतना को देखें तो इसका स्वरूप स्वतः प्रकट हो जाता है।

समकालीन साहित्य के सामने संवेदनहीन यथार्थ की चुनौतियाँ कुछ विशेष रूप से प्रकट हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण है कथ्य की गतिहीनता। एक दृष्टि से अपरिपक्व शब्द, लय और छंद का लोप। आधुनिक समय में हमारा यह साहित्य हमें सीमित दायरे में सोचने के लिए विवश करता है। लेकिन अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लें हमें अपनी ओर आकर्षित कर पढ़ा ले जाती हैं। इनकी ग़ज़लों के कथ्य समकालीन तो हैं ही; छंद, लय और शब्दों की कसावट पाठक के व्यक्तित्व के अनुरूप उनके पाठ के क्रम में एक बहुत ही स्पष्ट पुनर्निवेशन  करती है।

‘बंद करके जुबान आएगा
साथ लेकर थकान आएगा
साथ आएगा एक साया भी
दर्द का जब बयान आएगा।’

अनिरुद्ध सिन्हा अपने संग्रह की ग़ज़लों में ग़ज़़ल के अनुशासन का पूरी तरह पालन करते हुए जीवन के कठोर यथार्थ से टकराते हैं। शब्द लहूलुहान तो होते हैं मगर कथ्य कुंदन बनकर निकलते हैं जिन्हें पाठक प्रतिष्ठा के साथ आत्मसात करता है। साथ ही ग़ज़लों में सौंदर्य और सिर्फ सकारात्मक होती है। इसका कारण है अनिरुद्ध सिन्हा ग़ज़ल लेखन के साथ-साथ आलोचना पर भी काम कर रहे हैं। सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण विकसित करते रहे हैं। यही वजह है कि व्याकरण और कथ्य की कसौटी पर संग्रह की सारी ग़ज़लें खरी उतरती हैं। कहीं-कहीं इन्होंने गंगा-जमुनी भाषा का प्रयोग किया तो कहीं-कहीं पर शुद्ध देशज शब्दों का। इसका खुलासा इन शेरों में देखें–

‘मोह से दंशित समर्पण के प्रबल प्रतिवाद से
पाप अपना धो रही सत्ता महज उन्माद से।’
या
‘बेटी जब ससुराल गई तो घरवालों ने
दु:ख का गहना हौले-हौले पहनाया है।’

ग़ज़ल की मात्र दो पंक्तियाँ ही कमाल करती हैं जिसे हम शेर कहते हैं। ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें कई शेरों तथा छंदों की एकरूपता रहने के बावजूद सारे शेर अपने अलग-अलग रंग के होते हैं। ग़ज़लकारों का उन शेरों में उनका लंबा अनुभव बोलता है, जिससे एक लंबी दास्तान निकलती चली जाती है। संग्रह की ग़ज़लें हमें इस बात का भरोसा देती हैं।

समग्रतः यही कहा जा सकता है हिंदी ग़ज़ल के विकास की प्रक्रिया में ‘तो ग़लत क्या है’ की ग़ज़लें मील का पत्थर साबित होंगी। हिंदी ग़ज़ल अभी अपने विकास की प्रक्रिया में है। इसे अभी कई मंजिलें तय करनी हैं।


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Artist : Louis Marcoussis
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मृदुला झा द्वारा भी