गजलों का संसार

गजलों का संसार

कविता की वाचिक परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर ममता किरण जितनी अच्छी कविताएँ और गजलें लिखती हैं, उतना ही अच्छा उनका पाठ करती हैं। एक अरसा हो गया उनको गजलें लिखते हुए। इससे पहले उनका एक कविता संग्रह ‘वृक्ष था हरा भरा’ आ चुका है। हाल ही में आया उनका गजल संग्रह ‘आँगन का शजर’ उनकी गजलगोई और उम्दा शायरी की मिसाल है, जिसमें वे जहाँ आज के हालात से टकराती हैं, वहीं कल्पना की उड़ानें भी भरती हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह कि पर्यावरण से उनके सरोकार इतने जमीनी हैं कि कविता में वृक्ष था हरा भरा की कल्पना करने वाली पुनः अपनी गजलों में आँगन के शजर को याद करती हैं। धीरे-धीरे वृक्ष विहीन होती धरती के इस दौर में हमारी कविता का उन्वान पेड़ों को लेकर हो, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है!

ममता किरण की गजलों में एक अपनापन है, जीवन यथार्थ की बारीकियाँ हैं, बदलते युग के प्रतिमान एवं विसंगतियाँ हैं, यत्र तत्र सुभाषित एवं सूक्तियाँ हैं, भूमंडलीकरण पर तंज है, कुदरत के साथ संगत है, बचपन है, अतीत है, आँगन है, और पग पग पर जीवन से मिली सीखें हैं। शजर याद आते ही उन्हें घर का आँगन याद आया। हमारे यहाँ लोकगीतों में पेड़ को लेकर बहुत सी भावपूर्ण कल्पनाएँ की गई हैं। आँगन के पेड़ से स्त्री का एक सघन नाता होता है। ममता की गजल के ये अशआर देखें जिनमें उनका बचपन प्रतिबिंबित हो उठा है–

‘अपने बचपन का शजर याद आया
मुझको परियों का नगर याद आया

जिसकी छाया से भी खुश थे ‘किरण’
घर के आँगन का शजर याद आया।’

ममता किरण की गजलों में हिंदुस्तानी अवाम का सहज सौंदर्य समाहित है। आम फहम शब्दों, उपमानों, उपमेयों, उत्प्रेक्षाओं से गजल के अशआर में जीवन के विविध अलक्षित रंग उदघाटित करने वाली कवयित्री ममता किरण ने भाषा को कविता की एक अहम इकाई माना है। बिल्कुल बातचीत का सहज अंदाजेबयाँ मिलता है उनके यहाँ। यह अशआर इसकी गवाही देता है–

‘बिटिया तू रसोई से जरा दाने तो ले आ
इक आस में बैठा है परिंदा मेरे आगे

बेटे मैं तेरी माँ हूँ जरा बोल अदब से
अच्छा नहीं है तेरा ये लहजा मेरे आगे।’

ममता किरण हमारे समय की तमाम छोटी-बड़ी घटनाओं को भी ध्यान से रखती हैं और उन्हें भी अपनी शायरी का हिस्सा बनाती हैं–

‘खुदकुशी करने में कोई शान है
जी के दिखला तक कई इनसान है।’

एक दौर था सियासत न केवल राजनीतिज्ञों के बीच बल्कि छात्रों में भी घुस गई थी। आज भी विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों की इकाइयाँ काम करती हैं तथा वे विद्यार्थियों को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करती हैं। एक दौर में अनेक विश्वविद्यालयों के छात्र संगठनों की राजनीति और दलगत राजनीति के चलते कई कई शिक्षा सत्र बर्बाद हुए तथा बच्चों की पढ़ाई चौपट हुई। इस प्रवृत्ति पर चोट करते हुए ममता किरण कहती हैं–

‘तालीम के हूसूल पे सबकी निगाह हो
शिक्षा के मंदिरों में सियासत गुनाह हो

सरियाँ लगती हैं पहुँचे हैं जो इस विकास तक
बारूद ने खेल की दुनिया तबाह हो।’

समय बदल रहा है, रिश्ते बदल रहे हैं, सलीके बदल रहे हैं, संस्कृति बदल रही है, घरों में बाजार घुस आया है, हम संयुक्त परिवारों से निकल कर एकल उजाड़ में आ गए हैं जहाँ कोई सुख दुख तक बाँटने वाला नहीं है। पर हम इसी में खुश हैं। कवयित्री इन बदलावों को संजीदा ढंग से अपनी गजलों में पिरोती है–

‘घर तो काइम है मगर घर की वो तस्वीर नहीं
घर के रिश्तों में मुहब्ब्त की वो तासीर नहीं।’

जैसे शजर उनके लिए जीवन का प्रतीक है, नदी बाग बगीचे भी जीवन को आधार देते हैं। नदियाँ न होतीं तो मानवीय सभ्यताएँ कहाँ जातीं। पानी के इस सुदृढ़ अस्तित्व पर ममता किरण एक गजल ही लिखती है जो नदियों पर ही आधारित है–

‘जीवन का आधार है नदिया
सपनों का संसार है नदिया

चाहे कैसा भी मौसम हो
कर लेती स्वीकार है नदिया।’

शायर अपनी कल्पनाशीलता से शब्दों का एक ऐसा संसार बना लेता है जहाँ वह अपनी रचना के फार्म में अपनी तरह से रंग भरता है। कुँवर नारायण कहा करते थे कि कविता ही कवि की आत्मकथा है, बाकी सब फुटनोट। ममता किरण क्या है, उनका मिजाज कैसा है, जीवन और समाज को वे किस दृष्टि से देखती हैं, उनके जीवन का अंतरंग कितना रोशन और बहिरंग, कितना मुखर है–यह सब उनकी शायरी के हवाले से जाना जा सकता है।

गजल के आँगन में इस संग्रह के साथ ममता किरण ने पहली बार पाँव रखा है। उनका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन और यह स्वागत इसलिए भी कि गजल में मजबूती से अपने कथ्य, शिल्प और अंदाजेबयाँ को साध लेने वाली कवयित्रियाँ आज भी महज उँगलियों पर गिनाई जा सकती हैं।


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Image Source : WikiArt
Artist : Theo van Rysselberghe
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