साहित्यिक परिदृश्य की पड़ताल

साहित्यिक परिदृश्य की पड़ताल

कोहरे में यात्रा के बहाने

राधेश्याम तिवारी ने एक कवि और पत्रकार के रूप में जीवन-जगत के अनगिन रूप-रंग देखे होंगे; धूप में, बारिशों में और कोहरे में अनेकानेक, यात्राएँ की होगी, कई बार टूटे और जुटे होंगे, अज्ञेय से आधार ले कर कहा जाए तो कितनी नावों में, कितनी बार उतरे-चढ़े होंगे, तब जाकर उन्होंने अपने संस्मरण ‘कोहरे में यात्रा’ के बहाने अपने समय के साहित्यिक परिदृश्य के संग-साथ समय-समाज की पड़ताल भी की है। संस्मरणकार अगर कवि है तो वह भीतर तक अपनी दृष्टि से पहुँच सकता है और पत्रकार हुआ तो बाहरी दुनिया का परत-दर-परत अलग कर सकता है। यह संयेाग ही कहा जाएगा कि संस्मरणकार कविता का एक जाना-पहचाना हस्ताक्षर है और पत्रकारिता उसने सिर्फ मेज पर नहीं की है। अनेकानेक पत्रिकाओं/अखबारों की दुनिया देखी है।

राधेश्याम तिवारी से जो परिचित हैं उन्हें सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि यह कवि जैसा बाहर दीखता है वैसा ही अंदर भी है। कविताओं में गहन अनुभूतियों से गुजरते हुए भी यह कवि भाषा में कभी आपकी जमीन नहीं छोड़ता जबकि दिल्ली में देवतुल्य कविगण हैं, जो गंध से ही तृप्त होते हैं। राधेश्याम तिवारी के इस संस्मरण पुस्तक को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई हमारे समय के साहित्य-संस्कृति, लेखकीय वैचारिकता, नामी-गिरामी साहित्यकारों के खोखलेपन की व्यथा-कथा सुना रहा हो। इस संस्मरण में जो जैसा है उसे साहस के साथ वैसा ही कहा गया, चाहे वे नामवर सिंह हों या कुँवर नारायण, राजेन्द्र यादव, केदारनाथ सिंह, कैलाश वाजपेयी, महीप सिंह, हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक, कुबेरदत्त, महेश दर्पण आदि। इन रचनाकारों पर जिस निर्भीकता और अंतरंगता से लिखा गया है, वह इतना रोचक है कि कोई संवेदनशील व्यक्ति एक बार पढ़ना प्रारंभ करे तो इस पुस्तक को बिना पढ़े नहीं रख सकता है। यही इस पुस्तक की सबसे प्रमुख खासियत है। दूसरा, यह कि संस्मरणकार ने जिस सहज और रससिक्त भाषा और साफगोई से संस्मरणों की रचना की है वह साहित्य के साधारण-से-साधारण पाठक को भी निराश नहीं करता। वह अपने समय के कई प्रमुख साहित्यकारों के साथ साहित्यिक परिवेश के बारे में निकट से जान-समझ सकता है। तीसरा, संस्मरणकार किसी वैचारिक आग्रह, मत, पसंद, खेमेबाजी से मुक्त जैसा अवलोकन करता है, निष्कर्ष पर आता है, तदनुरूप ही चीजों को सामने रखता है, इसका कारण उसकी बातों में प्रामाणिकता है, जो तथ्य प्रस्तुत किया जाता है वह भरोसेमंद प्रतीत होता है।

‘त्रिलोचन : परिचय की यह गाँठ लगा दी’ शीर्षक संस्मरण में कई पहलू ऐसे हैं जो शायद हिंदी जगत को इस कृति से ज्ञात होगा, जैसे कि त्रिलोचन जी का पत्रकारिता के संबंध में विचार कि आज पत्रकार, पत्रकार नहीं, मजदूर हैं! युवा कवियों के संबंध में उनका कथन कि युवा कवियों को तो यह भी पता नहीं कि किस मौसम में कौन सी फसल होती है और कितने तरह के मौसम होते हैं। ये वही त्रिलोचन हैं जो अपनी कविता में सगर्व घोषणा करते हैं :

‘जीवन जिस धरती का कविता भी उसकी–सूक्ष्म सत्य है, तप है

नहीं चाय की चुस्की।’

क्या हम त्रिलोचन के इस कहे पर विचार करेंगे कि हमारे पैरों के नीचे से धरती बहुत दूर खिसक गई है और हम किताबी ज्ञान और कौशल के सहारे कविताई में दुख, गरीबी और गाँव पर फलसफा झाड़ रहे हैं।

राधेश्याम तिवारी ने जो संस्मरण लिखें हैं वे इतने जीवंत हैं कि उनमें त्रिलोचन, नामवर, हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक के साथ अँटे-बैठे, चलते-फिरते दिखाई पड़ते हैं। यह किसी संस्मरणकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती तथा सबसे बड़ी सफलता भी है उन्होंने जिस कवि, लेखक, पर संस्मरण लिखा है, गहरे डूब कर लिखा है और उसके कोने-कोने का स्पर्श किया है। तभी उन्होंने त्रिलोचन पर लिखा है–‘मैंने भी शास्त्री जी में कविता देखी, उनकी मुद्रित कविताओं से बाहर। अगर कवि सिर्फ अपनी कविताई में ही दिखाई दे तो यह कोई बड़ी बात नहीं।’ अगर संस्मरणकार, त्रिलोचन की कविताओं को उनकी मुद्रित कविताओं के बाहर देखने की शक्ति और सामर्थ्य रखता है तो जाहिर है वह किसी व्यक्ति, लेखक या किसी अन्य विषय पर संस्मरण लिखते समय आर-पार का साक्षात्कार करना चाहेगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि राधेश्याम तिवारी ने वह कार्य किया है। संस्मरणकार की तीक्ष्ण दृष्टि और व्यंग्य की क्षमता कहीं-कहीं देखते ही बनती है। विष्णु प्रभाकर के ऊपर लिखे (एक गाँधीवादी वैष्णव) संस्मरण में उसने जो चुटकी ली है–‘विष्णु जी वामपंथी नहीं थे, लेकिन बायें हाथ में छड़ी लेकर चलते थे’ अद्भुत है। इन संस्मरणों में यत्र-तत्र कवि की पसंद, उसके विचार, मान्यताओं का भी पता चलता है।

राधेश्याम जी के यहाँ ढेरों उद्धरण हैं जो रामचरितमानस से ले स्कंध पुराण तक के हैं। इतिहास, पुराण आदि ग्रंथों के अध्ययन ने निश्चित तौर पर राधेश्याम तिवारी को संपन्न बनाया है। संस्मरणों के बीच कविताओं, लोकोक्तियों, मुहावरों आदि का संस्मरणकार ने दिल खोलकर प्रयोग किया है, इससे पाठकों को एक भिन्न किस्म का आस्वाद प्राप्त होता है। अगर आप अपने समय के साहित्य, समाज को जानना चाहें या राधेश्याम तिवारी के कवि से मिलना चाहें तो ‘कोहरे में यात्रा’ जरूर पढ़ें।