मन्नत के धागों-सी कविताएँ

मन्नत के धागों-सी कविताएँ

मंडी हाउस की यह शाम, 29 अक्तूबर, 2023 निश्चय ही कभी न भूलने वाली शाम साबित हुई। आज साहित्य के पेड़ के नीचे कविता पढ़ने का मौका मिला था… 

वर्षों पहले वाणी प्रकाशन ने श्रीराम थियेटर के कोने में साहित्य की किताबों का एक स्टॉल लगाया था जिसे संजना तिवारी देखा करती थीं। मेरे जैसे कई साहित्य प्रेमी वहाँ से पत्र-पत्रिकाएँ लेने आया करते थे। पर कुछ ही समय बाद यह कोना बंद कर दिया गया। इसके बंद हो जाने से मन कुलबुलाने लगा। हमने वहाँ की व्यवस्था को पत्र लिखा कि इसे दोबारा शुरू किया जाए पर कुछ हुआ नहीं। उधर संजना तिवारी कहाँ हार मानने वाली थीं, उन्होंने वहीं उस अहाते के बाहर एक पेड़ के नीचे अपनी किताबें सजा दीं। लोग आने लगे, किताबें खरीदने लगे और यह ठीया चल निकला। साथ ही चल पड़ीं किताबी फकीर–संजना तिवारी के प्रकाशन ‘संजना बुक्स’ की गतिविधियाँ और किताबों को पाठकों के बीच लाने की उनकी यह मुहिम।  

संजना जी ने किताबों की दुनिया में लगातार बढ़त बनाए रखी थी। उनकी यह निष्ठा रंग लाई। समय के साथ-साथ संघर्ष करतीं संजना तिवारी के सुपुत्र एमबीबीएस डॉक्टर बन गए और साथ ही एक आई.पी.एस. दामाद ने परिवार में स्थान पाया। मगर किताबी फकीर संजना तिवारी का यह ठीया इसी पेड़ के नीचे सजता रहा, साथ ही सजती रही साहित्य प्रेमियों की महफिल। इतना कि इस पेड़ का नाम ही पड़ गया–‘साहित्य का पेड़’। तो आज इसी पेड़ के नीचे मुझे कविता पढ़ने का निमंत्रण मिला था। 

15-20 लोगों का झुंड और मैं कविता पढ़ने के लिए खड़ी थी। न मंच न माइक, न ही कोई पर्याप्त व्यवस्था। पर कुछ था जो आह्लादित कर रहा था। एक तरह का खुलापन, एक तरह की ईमानदारी…वैसे भी पर्याप्त साधनों और समुचित व्यवस्थाओं के बीच कविता कहाँ पनपती है। कविता के लिए तो ऊबड़-खाबड़ जमीन ही उर्वरा रहती है। मैं अपने कॉलेज के दिनों में लौटने लगी। मेरे सामने उसी उम्र के युवा खड़े थे। आँखों में बड़े-बड़े सपने सहेजे वे मेरी ओर देख रहे थे। उनमें से सिर्फ एक परिचित चेहरा दिखा, जाने-माने संपादक संजीव सिन्हा का। बाकी सभी अनदेखे चेहरे…पर इन सभी में अपना अक्स दिख रहा था मुझे। वैसा ही जिद्दीपन, वैसी ही प्रतिबद्धता जैसी मेरे साथ रही है। मैंने कविताएँ सुनानी शुरू कीं तो कॉलेज के दिनों की यादें बरसने लगीं। उस दौर का संघर्ष, उस दौर के सपने सभी साथ-साथ चले आए। इसी गोलंबर पर हमारी नाटक मंडली रिहर्सल किया करती थी। ऊँची आवाज में बोलने का अभ्यास करना। चलती गाड़ियों के शोर के बीच अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश। माइक तो था नहीं, मैंने कुछ ऊँची आवाज में कहना शुरू किया।

‘हमें तो सदा से आवाज ऊँची करके बोलने की आदत है…इतने पर भी कहाँ सुना जाता है हमें…’ मैंने पास खड़ी लड़कियों की ओर देखा। वे सहमत थीं मुझसे। बाकी सहमति में मुस्कुरा रहे थे।’

‘इन पेड़ों को ही सुनाई थीं हमने अपने दु:ख-सुख की अनंत कहानियाँ। इन पेड़ों से ही साझा किए थे हमने भविष्य के सपने और वर्तमान के संवाद। इनकी जड़ों में पनप रही थीं हमारी ईमानदार आसक्तियाँ…आज वैसे ही एक पेड़ के नीचे, अपने जैसे अनेक चेहरों के बीच उन्हीं आसक्तियों को अंकुरित होते देख रही हूँ।’ मैं बिलकुल अपने में आ गई थी। किसी तरह की बनावट नहीं थी हमारे बीच में। कितना खूबसूरत होता है अपनी तरह होना…मैं देख रही थी तमाम पेड़ों की शाखाओं पर रेशमी धागों-सी झूल रही थीं वो कविताएँ जो मैं बरसों पहले यहाँ मन्नत के धागों की तरह बाँध गई थी। 

मुझे याद आने लगी अपने लक्ष्य के लिए लगातार कोशिश करना और नाकाम होना। नाकामियों और मेरी जिद के बीच की होड़…कई परीक्षाएँ पास कीं मगर अंजाम तक न पहुँच सकी। कई बार गिरी, सँभली पर सपनों के पीछे भागने का जज्बा बना रहा। घोर निराशा में जूझती वह शाम याद आई जब बेहद टूट गई थी मैं, पर तब कविता ने हुँकार भर कर कहा था–‘नजर उठाकर नाप रही हूँ धरती आसमान की दूरी, उचक एड़ियों पर दे दूँगी सारी दूरी को मैं मात, पूरी इच्छाशक्ति के साथ।’

इसे संयोग कहें या मेरी परीक्षा में पास करने का परिणाम था कि ठीक अगले ही रोज इंडियन एअरलाइंस में भर्ती का टेलिग्राम मिला था। हैरान थी मैं कि क्या यह मेरी कविता की ताकत थी या फिर मेरे धैर्य की असली परीक्षा जिसे पास कर लिया था मैंने और एक ऐसी नौकरी में तैनात हो गई जहाँ लड़कियों के लिए अब तक कोई जगह नहीं थी। एयरक्राफ्ट और विमान यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी यानी एंटी-सेबोटेज चेक।

मैं मगन हो गई थी अपने काम में। कविताओं से थोड़ा छिटक कर, चैतन्य भाव से अपने काम की चुनौतियों का सामना करने में। मगर अवचेतन में एक कलम अपना काम किए जा रही थी। तभी तो कविताओं के साथ-साथ कहानियों ने अपना स्थान सुनिश्चित किया, उपन्यास के लिए वितान रचा। कैसे कहूँ कि मेरा कार्यक्षेत्र मेरे भीतर के रचनाकार के लिए उपयुक्त नहीं था। लेखक मन कई बार आहत हुआ, चोटिल हुआ, छटपटाया मगर इसी छटपटाहट से तो लेखन में धार बन रही थी। यह धार कई बार खुद को भी काटती थी मगर इससे बचकर रचना कैसे संभव थी। 

आज मन की बात करने का वक्त था तो ऐसी कई बातें कह डालीं जो प्रायः कही नहीं जातीं। हर्ष और संघर्ष से उपजी कविताएँ साझा कीं। मजा तो तब आया जब वहाँ खड़े युवाओं में उसकी परछाईं देखी। अरे, संख्या तो काफी बढ़ गई थी। पचपन-साठ लोग उस ठीये को घेरे खड़े थे और मेरी कहानी में खुद की यात्रा की पदचाप सुन रहे थे। एक घंटा कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। अँधेरा झुटपुटाने लगा था और सुरमई शाम के बीच चमकने लगी थीं मोबाइल की फ्लैश लाइटें…कितने ही श्रोताओं ने अपने-अपने फेसबुक से कार्यक्रम को लाइव कर रखा था। हालाँकि और सुनाने की फरमाइशें जारी थीं मगर मैंने कविताओं को विराम देना ठीक समझा। 

आभार व्यक्त करते हुए संजना बुक्स ने किताब का एक पैकेट मुझे थमा दिया। मैंने भी अपनी नई किताब ‘हैं शगुन से शब्द कुछ’ इसी पेड़ के नीचे सजा दी कि कोई पढ़ना चाहे तो यह भी इन्हीं किताबों की महफिल में शुमार रहे। 

मन को आह्लादित करने वाली एक और अनूठी बात हुई। संजना जी ने मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ निकाल कर उसे बुकमार्क में ढाल दिया था। यह बुकमार्क यहाँ पधारे हर श्रोता को उपहार स्वरूप दिया गया। मैं लपक कर बुकमार्क को देखना चाहती थी पर अपनी बारी का इंतजार करती रही। सभी को तो बुकमार्क दिया गया पर मुझे तो नहीं दिया। अब क्या करती, क्या माँग लूँ? मैं तो माँग लूँ मगर क्या एक कवि का इस तरह ललचना ठीक लगेगा? मैं संकोच थामे बैठी रही। तभी एक युवक सामने आया और उसने वह बुकमार्क मेरे सामने बढ़ा दिया, ‘प्लीज इस पर अपना ऑटोग्राफ दे दीजिए…’ चलो, कम-से-कम करीब से देखा तो उस बुकमार्क को जिस पर मेरी लिखी पंक्तियाँ छपी थीं। लाल सूरज, उड़ते हुए दो पंछी और नीचे लिखा था–‘जब-जब घना हुआ अँधियारा, मिट्टी का इक दीया पुकारा, क्यों उदास बैठा है राही, दीप जला रे।’ मन आह्लाद से भर उठा। लगा, सचमुच प्रेरक पंक्तियाँ हैं! मैंने ही लिखी हैं! मन को संतोष हुआ। जल्दी से उस पर शुभकामनाओं सहित अपने हस्ताक्षर अंकित कर दिए। फिर तो कितने ही श्रोता आकर बुकमार्क पर हस्ताक्षर लेते गए। मन उल्लसित होता रहा। 

‘आपने लिखा कि मैं लौट जाना चाहती हूँ शब्दों की उन गलियों में जहाँ से कविताएँ गुजरती हैं…तो आप कहाँ थीं जहाँ से कविताओं के पास जाने की बात कही आपने?’ एक युवक ने सवाल किया। सवाल क्या किया मेरी दुखती रग पकड़ ली। मैंने बिना किसी लाग-लपेट बताया कि उन दिनों मैं कविताओं से कट कर अपने प्रमोशनल एग्जाम की तैयारियों में जुटी थी। मैंने सभी साहित्यिक कार्यक्रम स्थगित कर दिए थे। बस, अपनी पढ़ाई कर रही थी। वह उत्सुक निगाहों से अंजाम जानना चाह रहा था। मैंने बताया कि मैंने लिखित परीक्षा तो पास कर ली मगर जी-हुजूरी वाली परीक्षा में बाहर कर दी गई और प्रमोशन नहीं मिला। ऐसे वक्त में कविताओं ने फिर पुकारा मुझे और निराश होने से बचा लिया। तभी मैंने अपने भीतर यह ऐलान कर दिया कि मेरी दुनिया तो शब्दों की गलियों से गुजरती है। मुझे वहीं लौटना है। कविता से कट कर जो यह समय बिताया था उसके एवज में कहो कि मैंने समय पूर्व वालंटरी रिटायरमेंट ले ली कि अब आगे का जीवन कलम के नाम। 

दीपक नाम के एक व्यक्ति मिले जो बहुत उत्साह से मेरी कविताओं को सुन रहे थे। उन्होंने कहा, ‘आपकी आवाज के पहले ही थ्रो से समझ गया था कि आज की शाम कुछ खास रहेगी।’

‘आवाज का थ्रो…’ मेरे कानों में गूँजता रहा। 

एनसीसी के दिनों में खूब कमांड दिया करती थी। शायद उसी ने दिया होगा यह थ्रो। बहरहाल, अच्छा लगा। सभी से विदा लेकर सर्किल की तरफ बढ़ चली। उस ओर से किसी लड़की के गाने की आवाज आ रही थी। गाना बहुत सुर में तो नहीं था मगर यह काफी हैप्निंग लगा। मंडी हाउस के उसी सर्किल पर जहाँ हम नाटकों के संवाद दोहराया करते थे, उसी के किनारे किसी ने अपना म्यूजिक पैलेस जमा लिया था। वहाँ और भी कुछ लोग थे जो बेहद पुराने फिल्मी गाने गा रहे थे। यह सब बहुत ही गजब लग रहा था। कैब की प्रतीक्षा में मैं वहीं खड़ी हो गई। अचानक निगाह सामने की पेड़ के नीचे बैठे उस युवक पर गई जो सिर झुकाए किसी सोच में मग्न था। इतना मग्न था कि न तो उसे वहाँ की आवाजाही प्रभावित कर रही थी न ही सामने से आते संगीत की धुन। पेड़ के नीचे बैठा वह युवक हाथों में थामे मोबाइल को लगातार उलट-पुलट रहा था, मानो वह कुछ फैसला करने जा रहा हो। कभी हाँ, कभी ना की सूरत में वह मोबाइल को उल्टा-सीधा, सीधा-उल्टा घुमाए जा रहा था। मैंने ध्यान से देखा तो मुझे याद आया कि यह तो वही युवक है जिसने मुझसे कविताओं की गलियों में लौट जाने वाला सवाल किया था। मैं खुद को रोक नहीं पाई और उसके नजदीक जा पहुँची। पर उसे तो इसका भी इल्म न हुआ कि कोई उसके साथ आकर बैठ गया है। मैंने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह हड़बड़ाकर इस दुनिया में लौटा। 

‘किस सोच में मग्न हो, तुम्हारी उम्र इतना सोचने की नहीं, कर गुजरने की है’, मैंने कहा और हँस पड़ी, ‘अब बताओ, क्या कर गुजरना चाहते हो?’

उसने बताया कि उसकी जान नाटकों में बसती है और वह नौकरी नहीं कर सकता। मगर घर वाले नौकरी के लिए दबाव बना रहे हैं। प्रयागराज में उसकी एक नाटक मंडली थी और वे वहाँ खूब नाटक किया करते थे। फिर उसे एक नौकरी मिल गई मगर नौकरी चलती थी छह बजे तक और नाटक रिहर्सल शुरू हो जाता था चार बजे से। आखिर उसने नौकरी छोड़ दी। वह समझ नहीं पा रहा कि दोनों के बीच कैसे सामंजस्य बिठाए। समस्या तो सचमुच विकट थी। एक से पेट की भूख शांत होती थी तो दूसरे से दिल और दिमाग की। दोनों ही जरूरी थे। इसका क्या जवाब था मगर वह प्रश्नवाचक चेहरा लिए मेरी ओर देख रहा था। 

‘तुम खुद को ही चुनौती दो कि तुम एक बेरोजगार का किरदार निभा रहे हो और नौकरी पाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हो। जब तक नौकरी मिल नहीं जाती, तुम रुकोगे नहीं।’ मैंने कहा, ‘और हाँ, अपनी कहानी, अपने संवाद तुम खुद लिखोगे।’

मुझे उसके चेहरे पर एक चमक दिखाई दी। मैंने उसमें भरोसा जताया कि वह एक दिन बड़ा नाम होगा। मेरी कैब आ चुकी थी, मैं गाड़ी में बैठ गई। उनींदी आँखों में कितने ही ख्याल उमड़-घुमड़ रहे थे। कितनी ही कहानियाँ मेरे साथ-साथ चल रही थीं। बीता वक्त आँखों में चलचित्र की तरह घूम रहा था। रास्ते के पेड़ मुझसे बतिया रहे थे। मैं किसी पेड़ के नीचे अपनी कविताएँ सुना रही थी, अपने जीवन के उतार-चढ़ाव बता रही थी, वहाँ बैठ कर ऑटोग्राफ दे रही थी…अरे हाँ, अपना बुकमार्क तो मैंने लिया ही नहीं। उन्होंने सभी को बाँटा, बस मुझे ही नहीं दिया और मैं संकोच से माँग भी न सकी…मुझे अफसोस हुआ, माँग ही लेती। 

कैब में रेडियो चल रहा था। भारत-इंग्लैंड का मैच था आज। घर से निकली थी तो भारत का खेल निराश कर रहा था। शुरू में ही चार विकटें डाउन हो चुकी थीं। इसमें जीत की क्या उम्मीद करती मगर अभी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक तो इंग्लैंड की स्थिति उससे भी ज्यादा खराब थी। उनकी सात विकटें गिर चुकी थीं और अभी सौ से ऊपर रन बटोरने थे। मन में आशा जगी। आशा क्या विश्वास जगा। खेलों से हम कितना कुछ सीखते हैं। हारी हुई बाजी कैसे जीत में बदल जाती है, हमें अपना बेस्ट देना चाहिए, बस। घर पहुँचकर मैंने वह पैकेट खोला जो मुझे संजना बुक्स से मिला था। उसमें थीं दो किताबें, एक खूबसूरत कलम और…और…मुट्ठी भर बुक मार्क्स…!


अलका सिन्हा द्वारा भी