अरुणाचल का हिंदी मयूर रमण शांडिल्य

अरुणाचल का हिंदी मयूर रमण शांडिल्य

रमण शांडिल्य ने ‘अरुण नागरी’ के प्रवेशांक (1995) के संपादकीय का प्रारंभ इस प्रकार किया है–कश्मीरी कवि कल्हण ने अपनी कृति, ‘राजतरंगिनि’ में समस्त पूर्वी भारत के लिए ‘उदयाद्रि शब्द का प्रयोग सातवीं सदी में किया था। इससे पूर्व कालिदास ने सुदूर पूर्व के लिए किरात विजय, उत्सव संकेत, महाकांतार एवं कामरूप जैसे शब्दों का प्रयोग किया था’ उन्हें याद दिलाया, तो बीमारी में भी चहक कर कहने लगे, ‘सुनिए, माता प्रसाद जी राज्यपाल थे, उन्हें यह बात पता नहीं थी, मुझसे सुना, तो चमत्कृत हो गए, मैं चाहता था, कि अरुणाचल को उदयाद्रि ही कहा जाए, लेकिन यह चल नहीं पाया, उन्होंने भी इसमें विशेष रुचि नहीं ली, कारण जो भी रहा हो!’…

माता प्रसाद जी के ग्रंथ, ‘मनोरम भूमि अरुणाचल’ में उदयाद्रि का उल्लेख है।

रमण शांडिल्य पहले दिल्ली में तिब्बती लोगों को हिंदी पढ़ाते थे। 1966 में सरकारी नौकरी में हिंदी पढ़ाने अरुणाचल गए। वहाँ का परिवेश इतना भाया, कि जीवन समर्पित करने का व्रत ले लिया। सीधे-सादे, भोले-भाले, प्यार पाने और लुटाने, प्रकृति से आत्मिक संबंध रखने वाले लोगों के बीच रम जाने का मन हो गया। तिब्बत पास ही है और उससे सीधा संपर्क रखने वाले भी अनेक लोग मिल गए। शांडिल्य के आनंद का पारावार नहीं रहा। सोने में सुहागा यह कि हिंदी बोलने वालों की कमी नहीं।…तो, उनके जीवन के नितांत नवीन अध्याय की शुरुआत हुई। आपका तिब्बत देखने का मन नहीं हुआ? ‘सुनिए तो, तिब्बत तो जा नहीं सकता था, लेकिन मुझे तिब्बत की सीमा के अत्यंत निकट भारत के सीमांत गाँव जाने का अवसर मिल गया। पंद्रह दिन पैदल चल कर गया। भोटियाओं की पीठ पर मेरा सामान होता था, सुबह आठ बजे खाना खाकर यात्रा आरंभ हो जाती थी, पहाड़ी रास्ते पर चलते-चलते बारह बजते-बजते फिर भूख लगने लगती थी, बहुत कम दूर चल पाते, जहाँ शाम हुई रुक जाते, वे लोग पराठे बना कर रख लेते और सुबह फिर वही यात्रा…तो साहब, मैं एकदम भारत के आखरी गाँव, ‘नामाङ्सिबो’ पहुँच गया। कितना दिव्य अनुभव हुआ, वर्णन कर पाना मुश्किल है। वहाँ एक पर्वत शिखर देखा, एकदम शिवलिंग की आकृति, दंग रह गया, मैंने गाँव-बूढ़ा से पूछा, कि भई, इस पर्वत-शिखर को आपकी भाषा में क्या कहते हैं? कहा, ‘साब, हमलोग इसे नामाङ्सिबो ही कहते हैं।’ अब सुनिए, मैं साफ समझ गया, कि यह शिव-पर्वत ही है, ‘सिबो’ माने शिव। लगता है, कभी किसी ऋषि ने हिमालय में साधना करने के क्रम में इस जगह आकर यह पर्वत शिखर देखा होगा और इसका नाम सिबो (शिव) रख दिया होगा। वह शिखर ऐसा, कि गर्मी की ऋतु में भी बर्फ से ढँका रहता है, जैसे मानो, बर्फ की टोपी पहन रखी हो…। मैंने भारत सरकार के प्रधानमंत्री को लिखा, कि शिव-लोक, मानसरोवर की प्रतिवर्ष यात्रा की जाती है, लेकिन एक शिव-लोक भारत की सीमा में ही है, वहाँ भी एक यात्रा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, इससे सांस्कृतिक-ऐक्य को बल मिलेगा और यहाँ के गरीब लोगों को रोजगार भी।’ उसका क्या प्रभाव पड़ा? ‘कुछ नहीं, कोई उत्तर ही नहीं आया।’

अरुणाचल के जन-जीवन और उसकी आत्मा को जानने-समझने में रमण शांडिल्य की रुचि निरंतर बढ़ती चली गई। उन्होंने सभी जनजातीय समुदायों और उनकी भाषाओं के अध्ययन को लक्ष्य बनाया। ‘धर्मयुग’ को उदयाद्रि (अरुणाचल) के बारे में पहला लेख भेजा, तो धर्मवीर भारती ने कहा, ‘आप हमारे लिए अरुणाचल पर लगातार लिखते रहिए।’ हिंदी साहित्य सम्मेलन के साप्ताहिक पत्र ‘राष्ट्रभाषा संदेश’ में लगातार लिखा, और भी बीसियों पत्र-पत्रिकाओं में लिख कर हिंदी-जगत को अरुणाचल से परिचित कराया। तब ‘सरस्वती’ निकल रही थी, चतुर्वेदी जी संपादन कर रहे थे, उन्होंने कहा, कि आप अरुणाचल के साहित्य से भी अधिक, वहाँ की संस्कृति पर लिखिए, लिखा, वह कई अंकों में सरस्वती में छपा।…

सातवें दशक की शुरुआत में ही रमण शांडिल्य ने अरुणाचल के जन-जीवन पर केंद्रित ‘साङ्पो’ पत्रिका निकाली। साङ्पो भारत के ‘ब्रह्मपुत्र’ नदी का तिब्बती नाम है। इस पत्रिका के केवल नौ अंक प्रकाशित हो सके, जिनमें से एक अंक असमिया कविता और एक बांग्लाकविता पर भी है। वे अरुणाचल की कई भाषाओं के साथ ही असमिया और बांग्ला भाषाएँ भी अच्छी तरह जानते हैं। वैसे उनकी मातृभाषा ‘बज्जिका’ है। शांडिल्य का थोड़ा-बहुत काम बज्जिका पर भी है। अन्य भाषाओं के साथ, मातृभाषा की सेवा मनुष्य का परम कर्तव्य है। माँ और मौसी, दोनों की सेवा से अच्छा जीवन का आदर्श क्या हो सकता है! लेकिन रमण शांडिल्य ने माँ से अधिक मौसियों की सेवा की।

रमण शांडिल्य ने योजना बनाई, कि अरुणाचल की सभी भाषाओं के शब्दों की ऐसी कोशीय शब्दावली बनाई जाए, जिससे सभी जनजातीय बालकों को अपनी-अपनी भाषा के पर्याप्त व्यावहारिक शब्दों के हिंदी अर्थ पता चल जाएँ। इससे उन्हें हिंदी के अध्ययन में सहायता मिलेगी और जो हिंदी भाषी किसी अरुणाचली भाषा के भाषिक-व्यवहार के बारे में जानना चाहते हैं, उन्हें भी सुविधा होगी। उन्होंने अनेक भाषाओं के एक-एक हजार शब्दों का संग्रह किया, उनके हिंदी अर्थ पता लगाए और (आदी-गालो-न्यिशी या किसी अन्य अरुणाचली भाषा का नाम)–‘हिंदी कोश’ तैयार किए। ब्रजबिहारी कुमार इस प्रकार के शब्दों की कोश-योजना ‘नागालैंड भाषा परिषद’ के माध्यम से नागालैंड की भाषाओं के लिए पहले से चला रहे थे। उन्होंने रमण शांडिल्य के कोशों को प्रकाशित करने में भी रुचि दिखाई। लेकिन केवल तीन कोश ही छप सके। उसके बाद ब्रजबिहारी कुमार को नागालैंड छोड़ कर दिल्ली आ जाना पड़ा और अरुणाचल की भाषाओं का यह काम अधूरा रह गया।

सन् 1972 के पूर्व आज का अरुणाचल वृहत्तर असम का ही भू-भाग था, लेकिन अँग्रेजों ने इस सीमांत-क्षेत्र को एक प्रशासनिक इकाई मान कर सन् 1914 में इसका नाम, ‘नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर ट्रैक्ट’ रख दिया था। बाद में सन् 1954 में भारत सरकार द्वारा इसे, ‘नेफा’ (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) नाम दिया गया। इसका प्रशासन असम के राज्यपाल के सलाहकार (जिसे एड्गोव, अर्थात एडवाइजर टू गवर्नर कहा जाता था) के नियंत्रण में संचालित होता था, जिसका कार्यालय वर्तमान मेघालय राज्य की राजधानी शिलांग नगर में था। सन् 1967 में (तब अरुणाचल की राजधानी शिलांग ही थी) अरुणाचल में पंचायत व्यवस्था लागू हुई, छब्बीस विधायक और पाँच मंत्री बनाए गए, बत्तीस अंचल समितियाँ बनीं, प्रत्येक जिले में एक-एक जिला-परिषद बनी, जो अपने क्षेत्र के लिए एडवाइजरी-बोर्ड का काम करती थी, और शासन का केंद्रीय पात्र चीफ-कमिश्नर था। ये सूचनाएँ अरुणाचल में हिंदी के संघर्ष की पृष्ठभूमि बताने के लिए हैं, आगे रमण शांडिल्य के अनुसार, ‘सन् 1967 में इस बड़े परिवर्तन की आड़ में राजधानी शिलांग में बैठे कुछ उच्च पदस्थ निहित स्वार्थी लोगों ने अरुणाचल में असमिया माध्यम को अनिवार्य बना दिया। वे इस सीमांत क्षेत्र की संपर्क भाषा के रूप में असमिया को स्थापित करना चाहते थे। उस समय हिंदी की स्थिति यह थी, कि तिब्बत और चीन की सीमा से लगे सीमांत क्षेत्र में तथा संपूर्ण मध्य भाग में माध्यम भाषा और संपर्क भाषा, दोनों ही रूपों में हिंदी का व्यवहार होता था, जबकि असम की सीमा से सटे क्षेत्र में माध्यम और संपर्क भाषा असमिया थी, लेकिन हिंदी यहाँ के लोग भी जानते थे। हिंदी के इस विस्तार के मूल में सेना, उसके साथ गए व्यापारी, फिल्में, कुछ हिंदी संस्थाएँ, हिंदी के अध्यापक और स्वयं इस क्षेत्र की जनाजातियों के वे अधिसंख्य लोग थे, जो एक-दूसरे की भाषाएँ न समझ पाने के कारण हिंदी को पारस्परिक संपर्क के माध्यम के रूप में व्यवहार में लाते थे तथा उसी में अपना व अपनी पीढ़ियों का भविष्य देखते थे। जब असमिया को अनिवार्य माध्यम बनाया गया, तो व्यापक विरोध शुरू हो गया। गाँव-बूढ़े अपना विरोध प्रकट करने लगे, जुलूस निकलने लगे, विद्यार्थियों में एक नारा प्रचलित हो गया, ‘असमिया नहीं पढ़ेंगे, इससे अच्छा घर बैठेंगे’, तब मैंने वहाँ की भाषा-समस्या पर एक लेख लिखा, जो धर्मयुग में छपा।’

फिर आप शासन के कोप से कैसे बचे? ‘सुनिए तो, मैंने वह लेख प्रसिद्ध विद्वान, वास्तविकी के नाम से (अर्थात छद्म नाम से) लिखा था, लेकिन ‘धर्मयुग’ में छप जाने के कारण यहाँ के प्रशासन को लगा, कि यह समस्या तो सारे देश के सामने प्रकट हो गई, शिलांग तक हड़कंप मच गया। अधिकारियों की एक टीम बनाई गई, कहा गया जाओ, स्थिति का पता लगाओ और यह भी पता लगाओ, कि लेख किसने लिखा है? कौन है यह आदमी? आखिर पता चल ही जाना था, सो चल गया कि उस लेख का लेखक रमण शांडिल्य नाम का वही अध्यापक है, जो हिंदी का काम करता रहता है। अब तय हुआ, इस अदमी को बुला कर पूछताछ करो और इसको टर्मिनेट करो।’ फिर आप बचे कैसे? ‘सुनिए तो, एक हितैषी ने हमें पहले ही सावधान कर दिया था। पहले तो मुझे नौकरी का डर लगा, लेकिन फिर मन में हिम्मत आ गई, कोई गलत काम किया नहीं था, भाषा का काम था और लोगों की भलाई के लिए किया गया था, सो तय किया कि अवसर आने पर सही बात कहूँगा।’ वाह! कमाल है! ‘सुनिए तो, हमें बुलाया गया, पूछा गया, ‘क्या यह लेख तुमने लिखा है?’ लिखा है। ‘तो अपना नाम क्यों नहीं दिया?’ मुझे डर था, कि कोई सिरफिरा नुकसान पहुँचा सकता है। ‘तो फिर लिखा ही क्यों?’ यहाँ की जनता के मन की भावना है, हमने उसे देश के सामने रखा है, और क्या! आशंका सामने आ गई, एक अधिकारी बोला, ‘तुम जानते हो, तुम्हें टर्मिनेट किया जा सकता है?’ मैंने कहा, आप सारे गाँव-बूढ़ों की एक बैठक बुलाइए, छात्रों को बुलाइए, सार्वजनिक सभा कीजिए और सबसे खुलेआम पूछिए कि लोग क्या चाहते हैं, आपको सही बात पता चल जाएगी, फिर जो करना है, कीजिए। इसके बाद मेरा टर्मिनेशन तो नहीं हुआ, दंड के रूप में मेरा स्थानांतरण असम की सीमा पर कर दिया गया, इसमें मेरे जीवन को नुकसान पहुँच सकता था, जो शायद उनका छिपा उद्देश्य भी था। लेकिन यह तथ्य सामने आ गया, कि अरुणाचल के लोग हिंदी माध्यम ही चाहते हैं।’ रमण शांडिल्य ने हिंदी के लिए यह काम आज से पचास-बावन साल पहले किया था। क्या हिंदी के नागरिकों को जानकारी है?

इस पूरी घटना के संबंध में यह जोड़ना अनिवार्य है, कि हिंदी और असमिया के बीच दीवार खड़ी करने की यह कोशिश कुछ ही नासमझ लोगों के मस्तिष्क की उपज थी। वे इस इतिहास से अनभिज्ञ थे, कि उनके इस कृत्य के सौ-सवा-सौ साल पहले स्वयं असमिया भाषा के साथ यही त्रासदी घट चुकी थी। ऐसे लोगों को ‘लौहित्य और नीलाचल’ ग्रंथ में हेम बरुआ के इन पीड़ा भरे शब्दों को पढ़ना चाहिए था–‘जिस तरह इंग्लैंड में नारमंडी के ड्यूक के शासन-काल में फ्रेंच भाषा ने एंग्लो-सैक्सन बोली को स्थान-च्युत कर दिया था, वैसे ही यहाँ के ब्रिटिश शासकों की आश्रय प्राप्त बंग्ला भाषा ने असमिया भाषा को स्थानीय दफ्तरों और विद्यालयों से हटा कर अपनी धाक जमा ली। जार-सेना में भरती होने वाले काजाकों की नाई विदेशी शासन-काल में बंगाल के पढ़े-लिखे लोगों ने असम में ब्रिटिश दफ्तरों को भर दिया। फलस्वरूप असमिया भाषा को धोखे से पूर्णरूपेण स्थितिविहीन बना दिया गया और शासकीय अदालतों तथा शिक्षण संस्थाओं में न्यायोचित स्थान इससे छीन लिया गया। असमिया भाषा ने केवल अपना अधिकारपूर्ण स्थान ही नहीं खो दिया, बल्कि रहने और पनपने की स्वेच्छा भी।’ (पृ. 120-21)

यह भी उल्लेखनीय है, कि इस घटना से हिंदी और असमिया भाषा के बीच कोई कटुता नहीं आई, बल्कि दोनों के संबंध उत्तरोत्तर मजबूत ही हुए हैं। लेकिन यह भी दुर्भाग्य है, कि भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्य पैदा करने वाली शक्तियाँ कभी चुप नहीं बैठीं। उन्होंने हमेशा देशीय भाषाओं को उनके स्थान से अपदस्थ करके उनके स्थान पर किसी-न-किसी उपनिवेशवादी भाषा को स्थापित करके ही अपनी दुर्नीतियों को विराम दिया। अरुणाचल में भी उन्हें बहुत जल्दी यह अवसर मिल गया।

सन् 1972 में जीरो नामक स्थान पर तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गाँधी ने इस प्रदेश के ‘अरुणाचल’ नाम तथा इसके असम से अलग एक स्वतंत्र राजनैतिक इकाई बनाए जाने की घोषणा की। चीफ कमिश्नर के स्थान पर उप-राज्यपाल को प्रशासक बनाया गया और एक विधानसभा का प्रावधान किया गया। राजधानी अभी भी शिलांग ही रही। इसके आगे फिर रमण शांडिल्य के अनुसार, ‘उस बदलाव के अवसर पर निहित स्वार्थी तत्वों को हिंदी पर आक्रमण करने का एक और मौका मिला, जिसमें उन्होंने पिछला हिसाब भी चुकता कर लिया। इस अवसर का लाभ उठा कर उन्होंने अँग्रेजी को माध्यम-भाषा बनाए जाने की सिफारिश कर दी।’ यह हमला इतना सुनियोजित और ताकतवर था, कि राज्य की राजधानी शिलांग से नाहर लूगुन (1974) और वहाँ से ईटानगर (1983) आ जाने तथा पूर्ण राज्य का स्तर (सन् 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा घोषणा) पा जाने के बाद भी आज अरुणाचल की राज्य-भाषा अँग्रेजी है। संतोष यही है, कि हिंदी व्यावहारिक रूप में अरुणाचल की जनता की संपर्क-भाषा है, यहाँ तक कि विधानसभा की चर्चाओं में भी अँग्रेजी कम और हिंदी ही अधिक बोली जाती है।

अच्छा, अरुण नागरी की पृष्ठभूमि क्या है? ‘सुनिए तो, बताता हूँ, जब माता प्रसाद जी राज्यपाल होकर आए, तो वे हिंदी और अरुणाचल की भाषाओं के लिए कुछ करना चाहते थे। उन्होंने पता लगाया कि हिंदी का काम कौन करता है? हमारे बारे में पता चला होगा, सो उन्होंने एक दिन बुलवाया। हम गए, बातें होने लगीं, बोले, अरुणाचल की भाषाओं को रोमन में लिखे जाने की कोशिशें हो रही हैं, इससे तो इन भाषाओं का नुकसान होगा, इनकी ध्वनि की व्यवस्था नष्ट हो जाएगी, इन्हें तो देवनागरी में ही सही-सही लिखा जा सकता है, आप इस बारे में क्या कर सकते हैं? हमने कहा, कर क्या सकते हैं, मैं एक पत्रिका निकालता हूँ, उसके माध्यम से देवनागरी के बारे में समझाया जाएगा और अरुणाचली साहित्य को उसमें लिख कर दिखाया भी जाएगा। तब रोमन और देवनागरी की क्षमताओं की तुलना भी हो जाएगी, दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। माता प्रसाद जी ने कहा पत्रिका का क्या नाम होगा? हमने कहा, ‘अरुण नागरी’। उन्हें पसंद आया, बोले, अब एक संस्था भी बना लें, ताकि पत्रिका के लिए संसाधन जुट सकें और वह चलती रहे। इस तरह एक संस्था की बात हुई, नाम रखा गया, ‘अरुण नागरी संस्थान’। धर्मराज सिंह शासकीय महाविद्यालय में थे, माता प्रसाद जी के सुझाव पर उन्हें अरुण नागरी का प्रधान संपादक बनाया गया, मैं संपादक बना।’

अरुणाचल की हिंदी लेखिका, जमुना बीनी तादर ने अपनी पुस्तक, ‘दो रंग पुरुष’ में लिखा है, ‘गुरुजी डॉ. रमण शांडिल्य की मैं आजीवन ऋणी हूँ। उन्होंने स्कूली दिनों में ही मेरी साहित्यिक रुचि को पहचाना, तराशा और पोषित किया। मुझे आज भी याद है, बाबा नागार्जुन द्वारा उनके लिखे पत्रों को बड़े आदर और प्रेम से संजो कर रखते थे और मुझे प्रायः पढ़ कर सुनाया करते थे। पत्रों का चयन करते समय उनकी आँखें चमक उठती थीं।’ संदर्भ छेड़ा, तो जमुना के गुरु जी की आवाज भावाविष्ट हो आई, फिर जमुना की प्रतिभा, सन् 2003 में सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में उसके सूरीनाम जाने, वहाँ से लौटते ही उससे एक यात्रा-लेख लिखवा कर छपवाने और जमुना के आनंद विभोर होने के साथ ही बाबा नागार्जुन के साथ अपने अपनापे भरे संबंधों की व्याख्या करते हुए भूल गए, कि कब उनके मुँह से निकल गया, ‘एक बात है, मैंने वहाँ विद्यार्थियों की प्रतिभाओं को पहचाना था और लोगों को जोड़ा था।’ भला कौन नहीं मान लेगा, कि अरुणाचल में यह कार्य रमण शांडिल्य से अच्छा कौन कर सकता था!…

ठीक है शांडिल्य जी, आपको फोन पकड़े काफी देर हो गई है, काफी थक गए होंगे, अब दवाई लेनी हो, तो लेकर आराम कीजिए और स्वास्थ्य का बराबर ध्यान रखिए, मैं किसी दिन फिर से आपको फोन करूँगा…थोड़े-से व्याकुल हो आए, बोले, ‘सुनिए तो, थका नहीं हूँ, पता ही नहीं चला, कब एक घंटा हो गया, आपसे कितने दिन से बात करना चाहता था, आज बहुत अच्छा लग रहा है।’ नहीं-नहीं थके होंगे, स्वस्थ हो जाइए, बातें भी होंगी, मिलना भी होगा। ‘क्या बताऊँ देवराज जी, अब यमराज आतंकित करने लगा है, आपसे बात हुई, तो मन कुछ हल्का हो गया।’ रमण शांडिल्य सेवा-निवृत्ति के बाद सीतामढ़ी के पास अपने पैतृक गाँव में आ गए थे। पिछले तीन साल से एक साथ कई रोग भयंकर रूप से उन्हें खाने में लगे हुए हैं, कल्पना कर सकता हूँ, शरीर छीजता, भीतर से खोखला होता जा रहा होगा। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में रहे, पिछला पूरा साल पटना के एम्स में गुजारा, अभी गाँव में हैं, लघु-शंका के लिए भी शरीर में नली लगी हुई है (यह मुझे बातचीत के आखिर में बताया, डर होगा, कि मैं बीच में ही रोक दूँगा), कोरोना के कारण डॉक्टर को दिखाने भी नहीं जा पा रहे हैं। आज, रमण शांडिल्य की किसी हिंदी वाले को कोई परवाह नहीं, क्यों होगी? यह तो मृत्यु-पूजक देश बन कर रह गया है…!

बार-बार सोचता हूँ, रमण शांडिल्य को क्या कह कर पुकारूँ, हिंदी का योद्धा, हिंदी का वारियर? नहीं, वर्तमान राज्य-सत्ता ने इन दोनों ही शब्दों की गरिमा छीन ली है, मेरे लिए रमण शांडिल्य आज भी अरुणाचल के अरण्य में हिंदी के गीत गा-गा कर नाचने वाला ‘हिंदी-मयूर’ ही ठीक है।…


Image : Still Life – French Novels
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